Read this essay in Hindi to learn about the rise of feudalism during the eighth century in Europe.

रोमन साम्राज्य के विघटन के बाद पश्चिमी यूरोप में एक नए प्रकार के समाज और नई शासन व्यवस्था का जन्म हुआ । धीरे-धीरे विकसित होने वाली इस नई व्यवस्था को प्यूडलिज्म कहते हैं ।

क्यूडलिज्म लैटिन शब्द प्यूडम से व्यूत्पन्न हुआ है जिसका अंग्रेजी अनुवाद फ़ीफ़ (fief) होता है । इस समाज में सबसे शक्तिशाली वे सरदार थे जो अपने सैनिक अनुयायियों के बल पर बड़े-बड़े इलाकों पर हावी थे और शासन में भी अहम भूमिका निभाते थे ।

राजा एक अधिक शक्तिशाली सामंत जैसा ही होता था । कालांतर में राजतंत्र और मजबूत हुआ और सरदारों की शक्ति पर अंकुश लगाने का प्रयत्न किया गया जो बराबर आपस में लड़ते रहते थे जिससे सामाजिक अराजकता की स्थिति पैदा होती थी ।

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इसे नियंत्रित करने का एक ढंग यह था कि राजा सरदारों को अपना वेसेल (vassal) या अधीनस्थ बनाकर उनसे अपने प्रति निष्ठा की शपथ लेता था और बदले में उनके कब्जेवाले इलाकों को उनकी फ़ीफ़ के रूप में मान्यता देता था ।

फिर ये सरदार अपने वेसेल नियुक्त करते थे और अपनी फ़ीफ़ में से उन्हें एक भाग देते थे । सिद्धांत के स्तर पर राजा एक गद्‌दार वेसल की फ़ीफ़ पर कब्जा कर सकता था, लेकिन व्यवहार में ऐसा कम ही होता था । इस तरह फ्यूडल व्यवस्था में शासन पर एक भूस्वामी कुलीन की का वर्चस्व था ।

यह कुलीन वर्ग जल्द ही पैतृक बन गया और उसने हर कोशिश की कि कोई बाहरी व्यक्ति उसकी कतार में न आ सके । पर यह कुलीन वर्ग कभी भी पूरी तरह बंद नहीं रहा क्योंकि गद्‌दार सरदार हटाए जाते थे तथा नए नियुक्त किए जाते थे या उभरकर सामने आते थे ।

फ्यूडल व्यवस्था से दो और विशेषताएँ भी जुड़ी थीं । उनमें से एक विशेषता थी सर्फडम (serfdom) की । सर्फ ऐसा किसान होता था जो जमीन जोतता-बोता था पर अपने स्वामी या सरदार की आज्ञा के बिना अपना पेशा नहीं बदल सकता था किसी और इलाके में नहीं बस सकता था या शादी नहीं कर सकता था ।

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इसी से मेनर (manor) की व्यवस्था भी जुड़ी थी । मेनर वह किला होता था या हवेली होती थी जहाँ लार्ड या स्वामी रहता था । अनेक यूरोपीय देशों में इन मेनरों के लार्ड बड़े-बड़े इलाकों के भी मालिक होते थे । भूमि के एक भाग की जुताई लार्ड सीधे अपनी निगरानी में अपने सर्फ, की सहायता से कराता था और ये सर्फ अपने खेतों के अलावा लार्ड के खेतों को जोतने-बोने के लिए बाध्य होते थे ।

सिद्धांत के स्तर पर भूमि लार्ड की होती थी तथा सर्फ उसे नकद या जिन्स के रूप में महसूल भी चुकाता था । कानून-व्यवस्था बनाए रखने न्याय प्रदान करने आदि की जिम्मेदारी भी मेनर के लार्ड पर होती थी । चूंकि उन दिनों काफी अव्यवस्था फैली हुई थी इसलिए कभी-कभी स्वतंत्र किसान भी सुरक्षा के बदले मेनर के लार्ड का वेसल बनने को तैयार हो जाते थे ।

कुछ इतिहासकारों का मत है कि ‘सर्फडम’ प्रथा और मेनर व्यवस्था ‘प्यूडलिज्म’ के अभिन्न अंग थे और इसलिए जिन समाजों में इन दोनों का वजूद नहीं था उनमें ‘प्यूडलिज्म’ की बात करना गलत है । लेकिन यूरोप के सभी भागों में मेनर थे भी नहीं । भारत में न सर्फडम प्रथा थी और न मेनर व्यवस्था ।

लेकिन स्थानीय भूस्वामी तत्त्व (सामंत) फ्यूडल सरदारों की अनेक शक्तियों का इस्तेमाल करते थे और किसान वर्ग उन पर निर्भर था । दूसरे शब्दों में महत्त्व इसका नहीं है कि किसान औपचारिक दृष्टि से स्वतंत्र थे या नहीं थे बल्कि इसका है कि वे किस ढंग से और किस सीमा तक अपनी स्वतंत्रता का उपयोग और उपभोग कर सकते थे ।

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पश्चिमी यूरोप के अनेक देशों में चौदहवीं सदी के बाद मेनर व्यवस्था का और श्रम के रूप में महसूल चुकाने अर्थात लार्ड की भूमि को महसूल के रूप में मुफ्त जोतने-बोने की व्यवस्था का लोप हो गया ।

यूरोप में सामंतवाद से जुड़ी एक और विशेषता सेना का संगठन थी । घोड़े पर बैठा बख्तरबंद नाइट सामंती व्यवस्था का सबसे ज्वलंत प्रतीक था । वास्तव में यूरोप में घुड़सवार युद्ध कला का आरंभ मोटे तौर पर आठवीं सदी से अधिक पीछे नहीं जाता ।

रोमन काल में लंबे बरछों और छोटी तलवारों से लैस बड़े-छोटे पैदल दस्ते सेना के प्रमुख अंग थे । घोड़ों का प्रयोग रथ खींचने के लिए किया जाता था जिनमें हाकिम सवारी करते थे । आम विश्वास है कि युद्ध की कला अरबों के आगमन के साथ बदली ।

अरबों के पास बड़ी तादाद में घोड़े थे तथा उनकी तेज गति और सवार तीरंदाजों ने पैदल सेना को बड़ी सीमा तक नाकाम बनाकर रख दिया । इस नई युद्ध कला के लिए आवश्यक संगठन विकसित करने और बनाए रखने की समस्याओं ने यूरोप में सामंतवाद के विकास में मदद पहुँचाई । कोई भी राजा अपने संसाधनों के बल पर विशाल घुड़सवार सेना बनाए रखने तथा उसे हथियारों और साज-सामान से लैस करने की उम्मीद नहीं कर सकता था ।

इसलिए सेना का विकेंद्रीकरण किया गया तथा राजा की सहायता के लिए एक निर्धारित संख्या में घुड़सवार और पैदल सेना कायम रखने की जिम्मेदारी फ्यूडल लार्डो को सौंप दी गई । दो आविष्कारों के कारण घुड़सवार युद्ध लड़ाई का प्रमुख रूप बना । ये आविष्कार थे तो काफी पहले के मगर इनका व्यापक उपयोग इसी काल में आरंभ हुआ । पहला आविष्कार लोहे की रकाब था ।

लोहे की रकाब के कारण हथियारों से पूरी तरह लैस सैनिक को तीर चलाते समय घोड़े की पीठ से गिरने का भय नहीं रहता था । उसके कारण सवार अपने शरीर से भाले को सटाकर हमला भी कर सकता था और उसके जवाबी आघात के कारण नीचे नहीं गिरता था ।

इससे पहले या तो लकड़ी की रकाब का प्रयोग किया जाता था या रस्सी के एक टुकड़े का जिसमें बस पाँव टिकाकर रखा जा सकता था । दूसरा आविष्कार था एक नए प्रकार की जीन का जिसके कारण घोड़ा पहले की अपेक्षा दोगुना बोझ लेकर चल सकता था । ऐसा माना जाता है कि ये दोनों आविष्कार पूरब से यूरोप में पहुँचे, संभवत: चीन और कोरिया से । भारत में उनका प्रसार दसवीं सदी से शुरू हुआ ।

इस तरह राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक अनेक कारण यूरोप में प्यूडलिज्म के विकास के लिए उत्तरदायी थे । ग्यारहवीं सदी के बाद जब और भी शक्तिशाली सरकारें सामने आईं, तब भी परंपरा इतनी जड़ पकड़ चुकी थी कि राजा प्यूडल लार्डो की शक्ति को आसानी से कम नहीं कर सकता था ।

इतिहासकार जिसे मध्यकाल कहते है उस काल में प्यूडलिज्म के अलावा यूरोप में जीवन के ढर्रे को ईसाई चर्च ने भी निर्धारित किया । हम बैज़तीनी साम्राज्य और रूस में यूनानी आर्थोडाक्स चर्च की भूमिका का पहले ही हवाला दे चुके हैं ।

पश्चिम में एक शक्तिशाली साम्राज्य के अभाव में कैथलिक चर्च ने शासन के भी कुछ कार्यभार सँभाल लिए । पोप जो कैथलिक चर्च का प्रमुख था एक धर्मगुरु ही नहीं रहा बल्कि ऐसा व्यक्ति बन गया जिसके पास काफी कुछ राजनीतिक और नैतिक सत्ता भी थी ।

पश्चिम एशिया और भारत की तरह यूरोप में भी मध्यकाल धर्म का काल था और जो धर्म का प्रवक्ता होता था उसके पास काफी शक्ति और प्रभाव होता था । राजाओं और सामंत सरदारों से मिले भूदानों और धनी सौदागरों से प्राप्त दानों के बल पर अनेक मठ और विहार स्थापित किए गए ।

इनमें से फ्रांसिस्कन जैसे कुछ सिलसिले जरूरतमंदों और गरीबों के लिए कार्यरत थे । अनेक मठ यात्रियों को चिकित्सा-सहायता या ठहरने की जगह देते थे । वे शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान के केंद्र का काम भी करते थे । इस प्रकार कैथलिक चर्च ने यूरोप के सांस्कृतिक जीवन में अहम भूमिका निभाई ।

मगर कुछ मठ जो अत्यंत धनी हो चुके थे, प्युडल लार्डा की तरह व्यवहार करने लगे । इससे अतिरिक कलह पैदा हुआ और उन शासकों के साथ उनका टकराव होने लगा जो चर्च और पोपों की दुनियावी ताकत से चिढ़े हुए थे । आगे चलकर यह टकराव पुनर्जागरण और सुधार आंदोलनों में प्रतिबिंबित हुआ ।

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