Read this article in Hindi to learn about the various determinants of social intelligence in an individual.

1. सामाजिक अनुमोदन:

सामाजिक अनुमोदन के अन्तर्गत बालक दूसरे बालक का अपने खेल अपने व्यवहार अपने कपड़े तथा अपनी भाषा आदि के सम्बन्ध में अनुमोदन पाना चाहता है, इसकी यह भावना उन बच्चों में अधिक होती है, जिनमें असुरक्षा तथा अनुपयुक्तता की भावना अधिक मात्रा में होती है ।

कायरता, ईर्ष्या तथा अति आश्रितता आदि लक्षण जिन बच्चों में ज्यादा होते हैं, उनमें भी सामाजिक अनुमोदन की भावना दृष्टिगत होती है । लगभग यह भावना 8-10 वर्ष की आयु में अधिक विकसित होती है तथा 11 वर्ष की उम्र में उसमें कमी होना शुरू हो जाती है । लड़कियों में यह भावना 8 वर्ष की आयु से ही विकसित होना शुरू हो जाती है ।

2. सुझाव स्वीकृति:

बाल्यावस्था में सुझाव ग्रहणशीलता अधिक मात्रा में पायी जाती है । लगभग 7-8 वर्ष का बच्चा सबसे ज्यादा सुझाव ग्रहणशीलता होता है । वह अपने साथी समूह के लोगों से तथा विशेषतया साथी समूह के नेता से सर्वाधिक प्रभावित होने की वजह से सबसे अधिक सुझाव ग्रहण करता है ।

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इस आयु में विपरीत सुझाव ग्रहणशीलता भी अधिक पायी जाती है । इसमें जो सुझाव बच्चों को दिये जाते हैं वह ठीक उनके विपरीत कार्य या व्यवहार करता है इसे निषेधात्मक व्यवहार कहते हैं । लगभग 9- 10 वर्ष की अवस्था में बच्चों में यह विपरीत सुझाव ग्रहणशीलता चरम सीमा पर होती है ।

3. स्पर्द्धा या प्रतियोगिता:

जब बालक सामुदायिकता की अवस्था में होता है, तब उसमें स्पर्द्धा तथा प्रतियोगिता की भावना उत्पन होती है । इसमें साथी समूह में बालक एक-दूसरे से आगे जाने के लिए होड़ करता है । ऐसा वह इसीलिए करता है, जिससे उसे बड़ों का समर्थन तथा स्वीकृति प्राप्त हो सके ।

यह प्रतियोगिता कई रूपों में दिखाई देती है । जैसे:

(i) समूह-समूह में प्रतियोगिता तथा स्पर्द्धा उस वक्त होती है, जब खेल के दो समूह एक ही खेल में अलग-अलग टीमों में खेलते हैं या दो समूह एक ही खेल एक ही स्थान पर खेलते हैं । इस तरह से समूह का संगठन मजबूत होता है ।

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(ii) बालक अपने समूह के अन्य बालकों से प्रतियोगिता व स्पर्द्धा करता है । इससे आपसी झगड़ा उत्पल होता है तथा समूह का संगठन कमजोर पड़ जाता है ।

(iii) एक दल या समूह की प्रतियोगिता दूसरे किन्हीं बड़े बच्चों तथा वयस्कों से हो सकती है इस तरह की प्रतियोगिताओं से बालकों में स्वतन्त्रता के भाव उत्पल हुआ करते हैं ।

4. खेल:

जब बच्चे में सहयोग की भावना होती है, तभी वह एक अच्छा खिलाड़ी बन सकता है क्योंकि खेल में सहयोग की भावना आवश्यक होती है जबकि खेल घर से ही आरम्भ होता है । लेकिन एक अच्छा खिलाड़ी बनना उसके सामूहिक जीवन की देन होती है । उसमें उदारता का भाव होना भी जरूरी है । उसका सामाजिक विकास भी उतना ही अच्छा होगा जितना वह अच्छा खिलाड़ी होगा ।

5. पक्षपात तथा सामाजिक विभेदीकरण:

बालक सामाजिक विभेदीकरण भी सीख लेता है, जब वह विभिन्न साथी समूहों का सदस्य बनता है । शुराआती दौर में बच्चे जिस समूह के सदस्य होते हैं । उसे अच्छा व उचित तथा दूसरे समूह के बच्चों को वह हीन समझते हैं । कुछ ही समय बाद वह यौन, धर्म, प्रजाति, आयु तथा सामाजिक, आर्थिक स्तर आदि के आधार पर सामाजिक विभेदीकरण करने लग जाते हैं ।

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अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि 3-5 वर्ष की आयु में बच्चों में पक्षपात की भावना सबसे अधिक विकसित होती है । पक्षपात सम्बन्धी अभिवृत्तियाँ बालकों में पहले उत्पन होती है । तथा पक्षपात सम्बन्धी व्यवहार बाद में उत्पड़ा होता है ।

अत: कहा जा सकता है, कि लगभग 3-4 वर्ष की आयु में बालकों में पक्षपात सम्बन्धी अभिवृत्तियाँ उत्पन्न होने लगती हैं तथा पक्षपात सम्बन्धी व्यवहार चार वर्ष की उस के पश्चात् आरम्भ होता है ।

6. उत्तरदायित्व:

जब बच्चा छोटा होता है, तब वह अपने माता-पिता पर निर्भर होता है, लेकिन भाषा के विकास व गयात्मक विकास के साथ-साथ उसकी निर्भरता कम होती जाती है । जैसे-जैसे उसे सीखने के अवसर मिलते हैं, वैसे-वैसे थोड़े ही दिनों में वह अपनी उम्र के मुताबिक कार्य करने लगता है ।

यह बच्चे के प्रशिक्षण पर निर्भर करता है, कि बच्चों में उत्तरदायित्व की भावना का कितना विकास होगा किस प्रकार का होगा किस आयु से प्रारम्भ होगा । अध्ययनों के आधार पर कहा जा सकता है कि जहाँ परिवार का आकार बढ़ा होता है, वहाँ बच्चे शीघ्र ही अपना उत्तरदायित्व समझने लगते हैं ।

वे अपना कार्य करने के साथ-साथ चार-पाँच वर्ष की आयु से अपने से कम उम्र के बच्चों को भी सँभालने लगते हैं । लड़कियों में उत्तरदायित्व की भावना लडुकों की अपेक्षा ज्यादा होती है । कोच का कथन है कि ”जिन बच्चों को आत्मविश्वास प्राप्त करने सम्बन्धी अवसर और प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है, उनमें उत्तरदायित्व की भावना का विकास पिछड़ जाता है तथा यह प्रौढ़ावस्था तक पीछे ही रहते हैं ।”

7. सामाजिक सूझ:

सामाजिक सूझ का अर्थ है- सामाजिक परिस्थितियों के अर्थ को समझना या उसका प्रत्यक्षीकरण करना । ली का मत है कि ”एक व्यक्ति का सामाजिक समायोजन तभी उच्च हो सकता है, जबकि वह समाज की विभिन्न परिस्थितियों से दूसरे व्यक्तियों के व्यवहार भाव तथा विचारों आदि को जान सके तथा उसके सम्बन्ध में पूर्व कथन कर सकें लेकिन यह तब ही सम्भव हो सकता है, जबकि उस व्यक्ति में सामाजिक सूझ हो ।”

8. यौन विरोधी भाव:

बाल्यकाल में लड़के व लड़कियों में सामंजस्य होता है । वह आपस में खेलते हैं तथा एक-दूसरे के साथ मिल-जुलकर खेलते पढ़ते व झगड़ते हैं । अध्ययन द्वारा ज्ञात होता है कि बालकों में विपरीत सैक्स के बच्चों की क्रियाओं के प्रति वरीयता पायी जाती है ।

कुछ लड़कियाँ, लड़कों की क्रियाओं को पसन्द करती हैं और कुछ लड़के-लडकियों की क्रियाओं को पसन्द करते हैं । यह प्रवृत्ति वय -सन्धि अवस्था तक अधिक प्रत्यक्ष हो जाती है । इसके साथ ही लगभग 5 -6 वर्ष की अवस्था से लड़के-लड़कियों में कुछ-कुछ विरोधी भाव उत्पन्न होने लगते हैं, जो उत्तर बाल्यकाल में काफी बढ़ जाते हैं ।

लड़के-लडकियों आपस में एक-दूसरे की रुचियों तथा क्रियाओं को पसन्द नहीं करते । लड़के लड़कियों से अपने को बेहतर क्रियाशील कौशल युका समझने लगते हैं । यौन विरोधी भाव के कारण उनमें उच्चता व हीनता की भावनाएँ विकसित हो सकती हैं । इस तरह की भावनाओं का उनके व्यवहार पर प्रभाव पड़ता है ।

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