Read this article to learn about Akbar’s success over Barar, Ahmednagar and Khandesh during medieval period in India.

अकबर ने पूरे देश पर प्रभुता का दावा किया । इसलिए वह चाहता था कि राजपूतों की तरह दकनी राज्यों के शासक भी उसकी प्रभुता को स्वीकार करें । पहले उसने कई प्रतिनिधिमंडल यह सुझाव देने के लिए भेजे थे कि दकनी राज्य उसक अधीनता मानकर उससे मित्रता रखें कोई सकारात्मक परिणाम नहीं दे सके थे स्पष्ट था कि दकनी राज्य तब तक मुगलों की अधीनता मानने वाले नहीं थे जत तक मुगल उन पर सैन्य दबाव डालने की हालत में न आ जाएँ ।

1591 में अकबर ने कूटनीतिक पहल का आरंभ किया । उसने सभी दकन राज्यों को मुगल अधिराजी स्वीकार करने की दावत देने के लिए प्रतिनिधिमंडल भेजे । किंतु किसी भी राज्य ने उसके प्रस्ताव को नहीं माना सिवाय खानदेश के जो इतना पास और मुगलों के इतने प्रभाव में था कि प्रतिरोध न कर सका ।

अहमदनगर के शासक बुरहान निजामशाह ने मुगल दूत से अभद्र व्यवहार किया और दूसरों ने सिर्फ वायदे किए । लगने लगा कि अकबर दकन की ओर निश्चित रूप से कदम बढ़ाने वाला है । इसके लिए उसे आवश्यक अवसर तब मिला जब 1595 में बुरहान निजामशाह की मृत्यु के बाद निजामशाही अमीरों के गुटों में संघर्ष छिड़ गया ।

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गद्‌दी के चार दावेदार थे जिनको विभिन्न गुटों का समर्थन प्राप्त था । सबसे मजबूत दावा मृत शासक के बेटे बहादुर का था । बीजापुर के शासक इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय का झुकाव बहादुर के दावे का समर्थन करने की ओर था । चाँद बीबी बुरहान की बहन थी तथा बीजापुर के भूतपूर्व शासक की विधवा थी जो इब्राहीम आदिलशाह का चाचा था ।

वह एक सशक्त महिला थी और लगभग दस वर्षों तक जब तक इब्राहिम आदिलशाह नाबालिग था, बीजापुर की शासक एक तरह से वही थी । अपने भाई बुरहान की मौत का शोक करने वह अहमदनगर गई थी पर अपने भतीजे बहादुर का समर्थन करने के लिए जो अभी नाबालिग था वह वहीं रुक गई ।

यही पृष्ठभूमि थी जब विरोधी दकनी गुट ने मुगलों को हस्तक्षेप का निमंत्रण दिया । अब जो संघर्ष शरू हुआ वह वास्तव में बीजापुर और मुगलों के बीच अहमदनगर पर वर्चस्व के लिए था । मुगल आक्रमण का नेतृत्व शाहजादा मुराद ने जो गुजरात का सूबेदार था और अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना ने किया ।

खानदेश के शासक से सहयोग माँगा गया । अहमदनगर के अमीरो के गुटों में संघर्ष के कारण मुगलों को कम ही विरोध का सामना करना पड़ा और वे राजधानी अहमदनगर तक जा पहुँचे । बालक राजा बहादुर को लेकर चाँद बीबी ने अपने आपको किले में बंद कर लिया ।

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चार महीने के सख्त घेरे के दौरान चाँद बीबी ने बड़ी बहादुरी का प्रदर्शन किया । फिर दोनों पक्षों के बीच एक समझौता हुआ । बहादुर के निजामशाही गद्‌दी के दावे को मान्यता देने के बदले में मुगलों को बरार देना तय हुआ । मुगलों की अधिराजी भी स्वीकार की गई । यह 1596 की बात है ।

मुगलों के बरार-अधिग्रहण ने दकनी राज्यों को चौकन्ना कर दिया । उन्हें लगा, और इसका कारण भी था कि बरार मुगलों को दकन में एक स्थायी ठिकाना दे देगा जिसे किसी भी समय विस्तार दिया जा सकता है । इसलिए उन्होंने बचे-खुचे अहमदनगर राज्य का साथ दिया और बरार पर मुगलों के कब्जे में बाधाएँ खड़ी करने लगे ।

जल्द ही एक बीजापुरी कमानदार के नेतृत्व में बीजापुर, गोलकुंडा और अहमदनगर की एक संयुक। सेना ने पूरी ताकत से बरार पर हमला किया । 1597 में एक तीखी जंग में मुगलों ने अपने से तीन गुनी अधिक दकनी सेना को मात दी । अब बीजापुर और गोलकुंडा की सेनाएँ पीछे हट गईं और स्थिति का सामना करने के लिए चाँद बीबी को अकेला छोड़ दिया ।

हालांकि चाँद बीबी 1596 की संधि की पालन करना चाहती थी पर वह बरार में अपने अमीरों द्वारा मुगलों पर हमले करके उन्हें परेशान करने से नहीं रोक सकी । इसके कारण मुगलों ने फिर अहमदनगर पर घेरा डाला । किसी तरफ से कोई मदद न मिलने पर चाँद बीबी ने मुगलों से वार्ता शुरू की । पर एक विरोधी गुट ने उस पर गद्‌दारी का आरोप लगा कर उसकी हत्या कर दी ।

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इस तरह दकन की राजनीति के सबसे रूमानी पात्रों में से एक पात्र का अंत हो गया । मुगलों ने अब अहमदनगर पर धावा बोलकर उस पर कब्जा कर लिया । बालक बहादुर को ग्वालियर के किले में भेज दिया गया । बालाघाट भी मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया और अहमदनगर शहर में एक मुगल छावनी बना दी गई । यह 1600 की बात है ।

अहमदनगर किले और नगर के पतन तथा बालक बहादुर निजामशाह की गिरफ्तारी से दकन में अकबर की समस्याएँ हल नहीं हुईं । अब पर्याप्त सम्मान वाला कोई निजामशाही राजा या कुलीन रहा भी नहीं कि उससे बातचीत की जाती । साथ ही मुगल अहमदनगर से आगे बढ़ना नहीं चाहते थे न इस राज्य के बाकी सभी क्षेत्रों पर कब्जा करना चाहते थे । मुगल कमानदारों के लगातार आपसी टकराव के कारण स्थिति और भी गड्‌डमड्‌ड हो गई ।

स्थिति का मौके पर जायजा लेने के लिए अकबर मालवा और फिर खानदेश पहुँचा । वहाँ उससे कहा गया कि खानदेश के नए शासक ने उस समय शाहजादा दानियाल के प्रति पर्याप्त सम्मान नहीं दिखाया था जब वह अहमदनगर जाते हुए उसके इलाके से होकर गुजरा था ।

अकबर खानदेश में असीरगढ़ किले को भी पाना चाहता था जो दकन के सबसे मजबूत किले के रूप मे मशहूर था । एक सख्त घेराबंदी के बाद और जब किले के अंदर महामारी फूटी, तो वहाँ के शासक ने (1601 में) बाहर आकर आत्मसमर्पण कर दिया । खानदेश को मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया ।

इस बीच अकबर के सबसे छोटे बेटे शाहजादा दानियाल ने, जिसे दकन में मुगल सेनाओं की कमान सौंपी गई थी, मुर्तजा निजामशाह द्वितीय के साथ संधि कर ली जिसे अहमदनगर के पतन के बाद निजामशाही अमीरों के एक गुट ने शासक घोषित कर दिया था ।

समझौते के अनुसार अहमदनगर बालाघाट तथा तेलंगाना के कुछ भागों को मुगलों के हवाले कर दिया गया और बाकी राज्य का शासक मुर्तजा निजामशाह को वफादारी की शर्त पर तथा कभी विद्रोह न करने के वायदे पर मान लिया गया । यह 1601 की बात है ।

असीरगढ़ की विजय के बाद अकबर अपने बेटे सलीम के विद्रोह से निबटने के लिए उत्तर की ओर वापस चला गया । हालांकि खानदेश, बरार और बालाघाट की विजय तथा अहमदनगर के किले पर मुगल नियंत्रण भारी कारनामे थे, पर मुगल अभी भी दकन में अपनी स्थिति मजबूत बनाने की स्थिति में नहीं थे ।

अकबर को अहसास था कि बीजापुर से समझौता किए बिना दकन समस्या का कोई स्थायी हल नहीं निकलने वाला है । इसलिए उसने इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय को, जिसने शाहजादा दानियाल से अपनी बेटी ब्याहने का प्रस्ताव रखा था, भरोसा दिलाने वाले संदेश भेजे ।

पर इस विवाह (1602) के कुछ ही समय बाद भारी शराबनोशी के कारण शाहजादा चल बसा । इस तरह दकन की स्थिति अस्थिर बनी रही तथा अकबर के उत्तराधिकारी जहाँगीर को उससे नए सिरे से निबटना पडा ।

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