Here is a list of primary economic activities carried out in India in Hindi language.

जब मानव प्रकृति पर्यावरण से कोई वस्तु प्राप्त करता है उसको प्राथमिक प्रक्रिया कहते हैं । अब से लगभग 500 वर्ष पूर्व विश्व के भी लोग अपनी जीविकापार्जन के प्राथमिक प्रक्रियाओं पर आधारित थे । प्राथमिक प्रक्रियाओं में कंदमूल-फूल फलफूल एकत्रित आखेट पशुओं को चराना, स्थाई खेती करना, दुग्ध उद्योग, वानिकी, मुर्गीपालन, रेशम के कीडे पालना, मधुमक्खी पालन, जल कृषि, मछली पालन तथा खनन सम्मिलित हैं ।

प्राइमरी प्रक्रियाओं टोपोग्राफी जलवायु (तापमान-वर्षण), जल अपवाह, मृदा, प्राकृतिक वनस्पति, भूमि-उपयोग तथा मृदा प्रबंधन का भारी प्रभाव पडता है । इन भौतिक कारकों के अतिरिक्त सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं संस्कृति संस्थाओं का भी प्रभाव पडता है ।

1. आहार/भोजन एकत्रित करना (Food Gathering):

आहार एकत्रित करने वाले बहुत-से समुदाय विषुवत रेखीय वनों में निवास करते हैं जिनमें अमेजन बेसिन, कांगो बेसिन एवं दक्षिण पूर्वी एशिया के मलेशिया, इंडोनेशिया, कंपूचिया, लाओस, म्यामार, न्यूगिनी, पापुआ, फिलीपाइन, थाइलैंड तथा वियतनाम सम्मिलित हैं । इन प्रदेशों में जनसंख्या घनत्व बहुत कम है । यह अभी तक पाषाण युग में है । कुपोषण के शिकार इन लोगों का जीवन-स्तर बहुत निम्न तथा साक्षरता बहुत कम है ।

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आखेट (Hunting) समुदाय:

आखेट पर आधारित रहना एक समुदायक प्रक्रिया है । आखेट करने के लिए योजना तैयार करनी पड़ती है जिसमें एक से अधिक व्यक्तियों की आवश्यकता पडती है । जंगली जानवरों का पीछा करना, परिवार, स्त्रियों एवं बच्चों को जंगली जानवरों से सुरक्षा प्रदान करना आदि के लिए समुदाय के बहुत-से व्यक्तियों की आवश्यकता होती है । इनका जनसंख्या घनत्व कम होता है तथा शिकारी कुत्ते पालते हैं ।

वर्तमान समय में विषुवत रेखीय वनों तथा शीत कटिबंध में शिकारी समुदाय के लोग रहते हैं ।

2. पशुचारी खानाबदोश (Pastoral Nomadism):

विश्व के सबसे अधिक क्षेत्रफल पर पशुचारी खानाबदोश रहते हैं । दुनिया में लगभग डेढ़ करोड (15 मिलियन) खानाबदोश हैं जो 2.6 करोड़ (26 मिलियन प्रति वर्ग किमी॰) क्षेत्रफल पर फैले हुए हैं । पशुचारी खानाबदोश मरुस्थल अथवा अर्ध मरुस्थल जलवायु प्रदेशों में रहते हैं ।

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इनके प्रमुख क्षेत्रों में दक्षिण-पश्चिम एशिया, मध्य एशिया, सहारा, साहेल, सूडान, मेडागास्कर, मंगोलिया, तिब्बत, पश्चिम चीन तथा टैगा प्रदेश एवं अलास्का सम्मिलित हैं ।

पशुचारी खानाबदोश लोग गाय, भैंस, भेड़-बकरी, ऊँट, घोड़े, रेनडियर, करेबू, याक आदि पालते हैं । यह पशु-हत्या बहुत कम करते हैं । पशु ही इनका धन, संपत्ति माना जाता है । सामाजिक स्तर का मापक भी पशु-धन ही निर्धारित करता है ।

पशुचरी खानाबदोश अपने पशुधन के समय एक स्थान से दूसरे स्थान को पानी और चारे की तलाश में स्थानांतरण करते रहते हैं । इनकी अर्थव्यवस्था पशु-धन पर आधारित है ।

पर्वतीय प्रदेशों में आल्पस, काफ-पर्वत, तियां-शान, अल्टाई, राकी पर्वत, एंडीज पर्वत तथा हिमालय पर्वत-माला में चरवाहे मौसमी स्थानांतरण करते हैं जिसको मौसमी पलायन कहते हैं । जम्मू-कश्मीर के गुज्जर-बकरवाल, सिक्किम के भूतिया इत्यादि इस वर्ग में सम्मिलित हैं ।

3. पशुफार्म (Livestock Ranching):

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अधिकतर पशुफार्म शीतोष्ण जलवायु के मैदानों में पाये जाते हैं जहाँ घास तेजी से उगती है । विश्व के शीतोष्ण कटिबंधीय प्रेयरीज प्रदेशों में यूरोप एशिया के स्टेपी उत्तरी अमेरिका के परेरिज अर्जेटीना तथा पराग्वे के पंपाज, दक्षिणी अफ्रीका के वेल्ड तथा आस्ट्रेलिया के डाऊन सम्मिलित हैं ।

पशु फार्म प्रकार के भूमि उपयोग में पशु केवल फार्म तक सीमित रहते है । ऐसे फार्मा का आकार प्रायः बहुत बड़ा होता है। कभी-कभी अधिक चरवाही के कारण पशु-धन को चारे की समस्या उत्पन्न हो जाती है। सूखे के समय पशु-धन की हानि की संभावना बनी रहती है । पशु एवं पशुओं के उत्पादकों पर ही पशु फार्म किसान अपना जीवन व्यतीत करते हैं ।

4. स्थानांतरित कृषि (Shifting Cultivation):

स्थानांतरित यह आदिम प्रकार की कृषि है जिसको झूमींग तथा बुश-फैलो कृषि कहा जाता है । इस प्रकार की खेती में प्रति वर्ष खेतों को बदल दिया जाता है, परंतु किसानों की बस्तियाँ अपने स्थान पर स्थिर रहती हैं । फसलें जीवन-निर्वाह के लिए उगाई जाती हैं । फसलों के बोने में परिवार की आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाता है ।

वर्तमान में स्थानांतरित कृषि अमेजन बेसिन, (ब्राजील, बोलिविया, कोलंबिया, गुयाना, सूरीनाम, वेनेजुएला, कोस्टा-रिका, होन्डुरास, मैक्सिको, पनामा, उत्तरी-पूर्वी भारत के पहाड़ी राज्यों, बंगलादेश के चटगाँव पहाड़ी प्रदेश, कंबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, न्यूगिनी, पापुआ, फिलिपाइन, श्रीलंका, थाईलैंड, वियतनाम तथा कांगो बेसिन के देशों (केमरून, सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक आफ कांगो, उगांडा इत्यादि) में की जाती है ।

स्थानांतरित कृषि में, कृषि भूमि पूरे गाँव की संपत्ति मानी जाती है । यह एक प्रकार से आदिम-साम्यवाद है । वनों को काटना, उनको आग लगाना तथा खेत बनाना पूरे समाज की जिम्मेदारी होती । खेतों को लाटरी के द्वारा परिवारों को दिया जाता है । एक ही खेत में बहुत-सी फसलों के बीज मिलाकर बोते हैं ।

खेतों के किनारों पर विभिन्न प्रकार की सब्जियाँ उगाई जाती हैं । यह लोग गोबर की खाद का इस्तेमाल नहीं करते । गोबर की खाद को फसल को प्रदूषित करने वाली खाद माना जाता है । रासायनिक खाद का भी उपयोग नहीं करते । प्रति एकड उत्पादन बहुत कम है । ऐसे किसान कुपोषण का शिकार रहते हैं । इनका जीवन-स्तर बहुत नीचा है । पारिस्थितिकी को भी इस प्रकार की खेती से भारी नुकसान होता है ।

5. सघन जीवन-निर्वाह कृषि (Intensive Subsistence Agriculture):

सघन जीवन-निर्वाह कृषि के प्रमुख क्षेत्र मानसूनी जलवायु में स्थित है, जिनमें दक्षिण पूर्वी और भारत, बांग्लादेश के कुछ भाग सम्मिलित हैं । चीन एवं जापान के कुछ भागों में भी सघन कृषि की जाती है ।

इस प्रकार की कृषि में चावल एक प्रमुख फसल है । प्रति एकड़ उत्पादन अधिक होता है, खेतों का आकार प्रायः छोटा होता है तथा परिवार के लोग खेती में श्रम करते हैं । पहाड़ी ढलानों पर चबूतरे बनाकर इस प्रकार की कृषि की जाती है ।

वर्तमान समय में इस प्रकार की खेती का स्वरूप बदल रहा है और किसान परिवार की आवश्यकताओं को ध्यान में न रखकर बाजार के लिए फसलों का उत्पादन करते हैं । चावल के अतिरिक्त मक्का, मटर, फली, दलहन, तिलहन, जूट तथा सब्जियों का भी उत्पादन करते हैं ।

6. डेरी-कृषि (Dairying):

उत्पादन के लिए गाय भैंस पालने को डेरी कृषि कहते हैं । इस प्रकार की कृषि विशेष रूप से शीतोष्ण कटिबंध के देशों में की जाती है । डेरी-कृषि डेनमार्क, बेल्वियम, नीदरलैंड, जर्मनी, फ्रांस, फिनलैंड, कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड तथा जापान में प्रमुखता से की जाती है ।

डेरी-कृषि में धन की अधिक आवश्यकता होती है । विभिन्न प्रकार की मशीनों एवं उपकरणों को खरीदने के लिए धन की आवश्यकता होती है । डेरी फार्मिग में अच्छी नस्ल की गायें पाली जाती हैं । अच्छे नस्ल की गायों में हाल्सटीन-फ्रैजियन, जर्सी, अयरशायर, गुरुन्सी, स्विट्‌जरलैंड की ब्राऊन गाय सम्मिलित हैं ।

एक गाय एक साल में लगभग 3000 किलो दूध देती है । शीत ऋतु में पाँच से छ: महीने तक गायें डेरी के अंदर रखी जाती हैं । भारत में देवनी, गिर, लाल-सिंधी, साहीवाल, गाय की एवं हरियाणा की मुरी भैंस दूध देने के लिए प्रसिद्ध हैं ।

7. रोपण अथवा बागाती खेती (Plantation Agriculture):

बागाती खेती सबसे पहले अंग्रेजों ने उत्तरी अमेरिका के निकटवर्ती द्वीपों में आरंभ की थी । वेस्टइंडीज के पश्चात् बागाती खेती दक्षिण-पूर्वी द्वीप समूह में आरंभ की गई । इस प्रकार की खेती में काम करने के लिए अफ्रीका के नीग्रो श्रमिक अमेरिका लाए गए और भारत के मजदूरों को मलेशिया, मॉरीशस एवं वेस्टइंडीज लाए गए ।

बागाती खेती में पूँजी की अधिक आवश्यकता होती है । साथ ही साथ निरंतर काम करने वाले श्रमिकों के बागानी खेतों पर रहना आवश्यक होता है । इस प्रकार की खेती में चाय, कॉफी, कोको, सुपारी, रबर, नारियल, सिंकोना, केला, गर्म मसाले, जूट, कात आदि की कृषि की जाती है ।

बागाती खेती ऊष्ण आर्द्र जलवायु के ट्रापिकल प्रदेशों में की जाती है । बागाती खेती के खेतों का आकार दस हेक्टेयर से 60,000 हेक्टेयर तक हो सकता है । बड़े फार्म प्रायः मलेशिया तथा लाइबेरिया (अफ्रीका) में पाये जाते हैं ।

बागाती खेती में श्रमिकों का शोषण होता है । इसमें धन, धनी लोग लगाते हैं, प्रशासन एवं प्रबंधन भी उन्हीं के हाथ में होता है । प्रत्येक फार्म पर एक फैक्ट्री होती है जिससे उत्पादन को बाजार में बेचने योग्य बनाया जाता है ।

बागाती खेती वेस्टइंडीज, मलेशिया, मॉरीशस, केन्या, इथोपिया, इंडोनेशिया, लाइबेरिया, नाइजीरिया, केमरून, ब्राजील, कोलंबिया, मैक्सिको, थाइलैंड, फिलिपाइन, वियतनाम, श्रीलंका, बंगलादेश, यमन, भारत के उत्तरी पूर्वी राज्यों तथा केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि में की जाती है । बढ़ती हुई माँग एवं घटते क्षेत्रफल के कारण बागाती उत्पादकों का मूल्य अंतर्राष्ट्रीय बाजार में आसमान को छू रहा है ।

भूमध्य सागरीय प्रकार की खेती (Mediterranean Type of Agriculture):

भूमध्य सागरीय जलवायु में ग्रीष्म ऊष्ण तथा शुष्क तथा शीत ऋतु वर्षा पूर्ण मृदुल होती है । इस प्रकार की जलवायु भूमध्य सागर के तटीय भागों, कैलिफोर्निया की घाटी, चिली का मध्य भाग दक्षिण आस्ट्रेलिया, टस्मानिया तथा न्यूजीलैंड के दक्षिणी द्वीपों में पाई जाती है ।

भूमध्य सागरीय प्रदेशों की कृषि में खट्‌टे फलों के बगीचे, जैसे-सेब, संतरे, मौसमी नींबू, अंगूर, जैतून, अंजीर आदि उगाये जाते हैं । गेहूँ, जी, तिलहन दलहन आदि की फसलें उगाई जाती हैं । ग्रीष्म ऋतु में सभी फसलों और बगीचों की बार-बार सिंचाई की जाती है ।

8. मिश्रित कृषि (Mixes Farming):

मिश्रित कृषि को वाणिज्य फसल एवं पशु-पालन कृषि भी कहा जाता है । इस प्रकार की खेती में मक्का आदि की खेती की जाती है । मक्के के अनाज को सुअरों अथवा मुर्गियों को खिलाया जाता है और इन पशुओं अथवा उनके उत्पादनों को बेचकर धन अर्जित किया जाता है ।

मिश्रित कृषि संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, यूरोप, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, रूस एवं दक्षिण अमेरिका में की जाती है । मिश्रित कृषि में धन की अधिक आवश्यकता होती है इसलिए यह प्रायः औद्योगिक देशों में की जाती है । इस प्रकार की कृषि में खेतों का आकार बड़ा होता है, अधिकतर कार्य मशीनों के द्वारा किया जा सकता है ।

मिश्रित कृषि फसलों को सस्ते में बिकने से बचाती हैं । फसलों को बीमारी की आशंका कम रहती है । इसमें श्रमिक साल भर व्यस्त रहता है तथा भूमि की उर्वरकता बनी रहती है । मजदूरों की बढ़ती मजदूरी के कारण इस प्रकार की कृषि में बहुत-सी समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं ।

9. विस्तृत कृषि (Extensive Agriculture):

विस्तृत कृषि शीतोष्ण कटिबंध के कम जनसंख्या के प्रदेशों में की जाती है । संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया एवं अर्जेटीना में इस प्रकार की खेती देखी जा सकती है । इस प्रकार की कृषि में लगभग सभी कार्य मशीनों के द्वारा किए जाते हैं ।

मजदूरों का काम केवल मशीनों को चलाना होता है । प्रति हेक्टेयर उत्पादन कम होता है, परंतु प्रति व्यक्ति (श्रमिक) उत्पादन अधिक होता है । गेहूँ, जौ, दलहन मुख्य फसलें हैं । विश्व में गेहूँ का अधिकतर निर्यात विस्तृत कृषि प्रदेशों से किया जाता है ।

10. शुष्क कृषि (Dryland Farming):

जो कृषि पूर्ण रूप से वर्षा पर निर्भर रहती है उसको शुष्क कृषि कहते हैं ।

औसत वार्षिक वर्षा के आधार पर शुष्क बारानी कृषि को निम्न दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:

i. शुक कृषि (Dry Farming):

शुष्क कृषि के प्रदेशों में औसत वार्षिक वर्षा 75 सेंटीमीटर से कम तथा वर्षा की विविधता 50 प्रतिशत से कम होती है । दूसरे शब्दों में शुष्क कृषि मरुस्थल एवं अर्द्धमरुस्थलीय भागों में की जाती है ।

ii. बारानी कृषि (Rainfed Farming):

जिन प्रदेशों में वार्षिक वर्षा 75 सेंटीमीटर से अधिक वर्षा होती है उनको बारानी छ के क्षेत्र कहते हैं । बारानी कृषि अपेक्षातया अधिक वर्षा के क्षेत्रों में की जाती है ।

समस्याएँ एवं सम्भावनाएँ (Problems and Prospectus):

भारत की कुल कृषि भूमि का 67 प्रतिशत शुष्क एवं बारानी भूमि है । बारानी एवं शुष्क कृषि भूमि से देश के कुल अनाज उत्पादन का 44% उत्पादन किया जाता है ।

शुष्क कृषि में मोटे अनाज दलहन, तिलहन, कपास, सफेद जीरा तथा गर्म मसालों की खेती की जाती है । काफी बडी मात्रा में दूध, दूध से उत्पादित वस्तुएँ, मास, मटन, ऊन, खाल, चमड़ा इत्यादि शुष्क एवं बारानी कृषि क्षेत्रों में प्राप्त होता है । शुष्क कृषि का प्रति एकड़ उत्पादन कम है तथा उत्पादन अस्थिर रहता है ।

शुष्क कृषि की मुख्य समस्याएँ निम्न प्रकार हैं:

(i) अनिश्चित तथा अनियमित वर्षा ।

(ii) मानसून का देरी से आरंभ तथा जल्दी समाप्त होना ।

(iii) लंबे समय तक वर्षा ऋतु में वर्षा न होना ।

(iv) मृदा में नमी का अभाव ।

(v) मृदा में आर्द्रता की कमी ।

(vi) विकास की कम संभावना ।

(vii) मूलभूत सुविधाओं में कमी ।

शुष्क क्षेत्र कृषि हेतु रणनीति (Strategy for Dryland Agriculture):

शुष्क प्रदेशों की कृषि को निम्न उपायों के द्वारा विकास किया जा सकता है:

i. थोड़े समय में तैयार होने वाली फसलें उगाई जानी चाहिए ।

ii. पशु-पालन पर विशेष बल ।

iii. डंगरी फार्मिग ।

iv. कृषि-वानिकी

v. मधुमक्खी पालन

vi. कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन ।

vii. लोगों में सूखे के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना ।

11. कृषि वानिकी (Agro Forestry):

कृषि वानिकी शब्दावली का उपयोग 1970 के दशक में आरंभ किया गया था । विश्व के सभी विकसित एवं विकासशील देशी में इस शब्दावाली का प्रचलन है ।

कृषि वानिकी की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं:

”कृषि वानिकी कृषि भूमि का एक ऐसा टिकाऊ प्रबंध है, जिससे कृषि उत्पादन में वृद्धि होती है, जिसमें फसलों एवं वृक्षों को साथ-साथ उगाया जाता है तथा पशुपालन भी किया जाता है और जो स्थानीय संस्कृति की मान्यताओं के अनुसार होता है ।”

”कृषि वानिकी एक ऐसा कृषि भूमि प्रबंधन है, जिसमें किसान फसल और वृक्षों को साथ-साथ उगाए ताकि पारिस्थितिकी संतुलित बनी रहे ।”

कृषि वानिकी की विशेषताएँ (Characteristics of Agro-Forestry):

कृषि वानिकी की मुख्य विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं:

i. कृषि वानिकी में दो अथवा दो से अधिक प्रकार के पेड-पौधे उगाए जाते हैं, जिनमें से कम-से-कम एक लकडी उत्पादन करता है ।

ii. कृषि वानिकी दो विभिन्न प्रकार के उत्पादन देती है ।

iii. कृषि वानिकी चक्र एक वर्ष से अधिक समय का होता है । प्रायः पेडों को छः-सात वर्ष के पश्चात काटा जाता है ।

12. समुदाय वानिकी (Community Forestry):

वर्ष 1970 के पश्चात् मानव द्वारा लगाये गये पेड-पौधों को कई प्रकार से वर्गीकरण किया गया जैसे समुदाय वानिकी, सामाजिक वानिकी तथा कृषि वानिकी ।

सामाजिक वानिकी को समुदाय वानिकी भी कहते हैं । इस प्रकार की वानिकी में किसी स्थान के लोग स्वयं वृक्षारोपण करते हैं । इसके लोगों के द्वारा लगाई गई वानिकी लोगों के लाभ के लिए वानिकी भी कहा जाता है ।

सामाजिक वानिकी प्रायः क्षतिग्रस्त भूमि में की जाती है । प्रत्येक देश में बहुत-सी भूमि क्षतिग्रस्त होती है । सरकारी अकिड़ों के अनुसार भारत में 64 से 188 मिलियन हेक्टेयर भूमि क्षतिग्रस्त है, जिस पर सामाजिक वानिकी लगाई जा सकती है ।

इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च तथा नेशनल रिपोर्ट सेंसिंग एजेंसी के अनुसार भारत में 120 मिलियन हेक्टेयर भूमि क्षतिग्रस्त है जिस पर सामाजिक वानिकी की जा सकती है ।

क्षतिग्रस्त भूमि में जल तथा पवन के द्वारा अपरदित भूमि तथा ऊसर व कल्लर भूमि सम्मिलित हैं । क्षतिग्रस्त भूमि वैसे तो सभी राज्यों में पाई जाती है, परंतु ऐसी भूमि राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा महाराष्ट्र में अधिक है ।

भारत की जनसंख्या में तीव्रता से वृद्धि हो रही है । 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 1.21 बिलियन को पार कर चुकी है । सामाजिक वानिकी बढती जनसंख्या की समस्याओं के समाधान में सहायक हो सकती है । सामाजिक वानिकी से खाद्य समस्या तथा चारे की समस्या का समाधान किया जा सकता है ।

सामाजिक वानिकी के कुछ मुख्य लाभ निम्न प्रकार हैं:

A. खाद्य सामग्री (Food):

i. समाज को सामाजिक वानिकी से खाद्य सामग्री, फल तथा काष्ठफल प्राप्त होते हैं ।

ii. भूमि की उर्वरकता के ह्रास में कमी आनी है ।

iii. भूमि का धारणीय उपयोग होता है ।

iv. पशुओं के लिए चारा उपलब्ध होता है ।

v. स्थानीय जलवायु में सुधार होता है ।

B. जल (Water):

i. मृदा की जल ग्रहण करने की क्षमता बढ़ती है ।

ii. जल अपवाह की तीव्रता में कमी आती है, जिससे मृदा अपरदन में कमी आती है ।

iii. कसर तथा कल्लर एवं जलमग्न भूमि में सुधार होता है ।

C. ऊर्जा (Energy):

i. वृक्षों से ईंधन प्राप्त होता है ।

ii. लकड़ी के कोयले का उत्पादन किया जाता है ।

iii. फलों से इथनोल का उत्पादन किया जाता है ।

D. शरण/आश्रम (Shelter):

i. शरण तथा मकानों को बनाने के लिए लकड़ी की उपलब्धि ।

ii. मानव एवं पशुओं को शरण मिलती है ।

iii. सामाजिक वानिकी वायु गति के रोधक के रूप में कम करती है ।

iv. पशु फार्मा की बाढ़ का काम करती है ।

E. नगदी/नकद (Cash):

i. वृक्षों को बेचकर नकदी प्राप्त होती है ।

ii. उत्पादन अधिक होने से आय में वृद्धि होती है ।

सामाजिक एवं कृषि वानिकी के दुर्गुण (Demerits of Social and Agroforestry):

सामाजिक एवं कृषि वानिकी के दुर्गुण निम्न प्रकार हैं:

i. फसलों तथा वृक्षों में मृदा से पौष्टिक तत्व प्राप्त करने के लिए होड़ लग जाती है जिसके कारण मृदा उपजाऊपन में कमी आती है ।

ii. फसलों में बीमारियों की संभावना बढ़ जाती है ।

iii. वृक्षों की जड़ों का जाल कृषि भूमि में फैल जाता है जो कृषि उत्पादन के लिए घातक सिद्ध होती हैं ।

कृषि वानिकी एवं सामाजिक वानिकी की तुलना:

कृषि वानिकी:

i. कृषि वानिकी में वृक्ष, फसलों एवं पशुओं को साथ-साथ विकसित किया जाता है ।

ii. शोध कार्य का अभाव । कृषि वानिकी में अधिक उत्पादन करने तथा भूमि को उपजाऊ बनाये रखने के लिए निरंतर शोध कार्य की आवश्यकता होती है ।

iii. फसलों के उत्पादन पर वृक्षारोपण का क्या प्रभाव हो ।

iv. फसलों एवं वृक्षों का यौगिक उत्पादन फसलों के उत्पादन से अधिक होना चाहिए ।

v. शुष्क भूमि, जलमग्न भूमि, ऊसर तथा कल्लर भूमि तथा कृषि योग्य भूमि, सरकारी भूमि, बंजर भूमि ।

vi. वृक्षारोपण से पहले विभिन्न प्रबंधनों से सहयोग प्राप्त करना, दूसरों से सोच-विचार करना, घर के सदस्यों की सहमति प्राप्त करना ।

सामाजिक वानिकी:

i. इसमें वृक्ष, फलदार-वृक्ष चारा तथा लकड़ी की आपूर्ति को ध्यान में रखकर वृक्षारोपण किया जाता है ।

ii. शोध कार्य की अधिक आवश्यकता नहीं होती ।

iii. इसमें अधिक सोच-विचार की आवश्यकता नहीं होती ।

iv. सामाजिक आवश्यकताएँ अधिक महत्वपूर्ण होती हैं ।

v. खेतों की मेढ़ पर, पोखर तालों के निकट, ग्राम समाज की भूमि, रेलों, सड़कों. नहरों के किनारे ।

vi. सभी लोगों तथा वन विभाग के लोगों का सहयोग प्राप्त करना । सभी को लाभ पहुँचाने का उद्देश्य ।

उपरोक्त विवेचना से विदित होता है कि सामाजिक एवं कृषिक वानिकी समय की आवश्यकता है । सामाजिक वानिकी के रोपण के पश्चात् उनके बचाव के लिए पर्याप्त प्रयास करना चाहिए । भारत में सामाजिक वानिकी का भविष्य उज्जल है, इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है ।

13. मत्स्य पालन (Fishing):

मछली एक महत्वपूर्ण आहार है । मत्स्य पालन में मछली, ह्वेल, सील, मोती, लोबस्टर, क्रेब, झींगा, श्रिम्प, मोलस्का, कस्तूरा, मस्ल, घोंघे तथा बड़ी सीपी सम्मिलित हैं । वास्तव में खनिज खनन की भाँति मछली भी एक लुटेरा उद्योग मानी जाती है । मछली पकड़ने में विश्व के अधिकतर देश लगे हुए हैं । अंतर्राष्ट्रीय जल में कोई भी मत्स्य पालन कर सकता ।

विश्व के सागरों एवं महासागरों में मछली इत्यादि का वितरण असमान है ।

मछलियों की संख्या एवं वृद्धि निम्न बातों पर निर्भर करती है:

(i) जल की गहराई,
(ii) जलधाराएँ जहाँ ठंडे एवं गर्म पानी की धाराएँ मिलती हैं, वहाँ अधिक मछलियाँ पाई जाती हैं ।

(iii) सागर के जल का तापमान तथा लवणता तथा ।

(iv) जल में मछली आहार की उपलब्धि ।

मछली क्षेत्रों के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ (Conditions Favorable for Fishing Grounds):

मत्स्यपालन सभी महासागरों एवं सागरों में की जाती है, परंतु माहीगिरी के प्रमुख क्षेत्र शीत कटिबंध में स्थित हैं । व्यापारिक मछुवाही ऊष्णकटिबंधीय सागरों में कम विकसित है ।

1. शीतोष्ण अक्षांश (Temperate Latitudes):

शीतोष्ण तथा ऊँचे अक्षांशों में प्लवक की बहुतायत होती । प्लैंक्टन (प्लवक) ही मछली का मुख्य आहार है । ऊष्ण कटिबंध के गर्म जल में प्लवक की मात्रा कम होती है ।

2. ठंडी जलवायु (Cool Climate):

जिन सागरों तथा महासागरों का तापमान 20C से कम रहता वहाँ मछलियों की संख्या में वृद्धि तीव्र गति से होती है ।

3. सस्ते श्रमिक (Cheap Labour) की उपलब्धि:

मछली पकडना, उनको साफ करना, काटना, नमक लगाना, सुखाना, डब्बों में बंद करने के लिए सस्ते श्रमिकों की आवश्यकता होती है ।

4. बाजार की उपलब्धि (Availability of Market):

मछली उद्योग को प्रोत्साहन देने के लिए अधिक जनसंख्या बडे नगरों का निकट होना भी आवश्यक है ।

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