Read this article in Hindi to learn about:- 1. नियामक जीन का अर्थ (Meaning of Regulator Gene) 2. जीन नियमन (Gene Regulation) 3. उत्परिवर्तन (Mutation) 4. प्रोकेरियोटों में प्रोटीन संश्लेषण का नियमन (Regulation of Protein Synthesis in Prokaryotes).

नियामक जीन का अर्थ (Meaning of Regulator Gene):

जीन अर्थात् DNA के अनुखण्डों में विशेष प्रोटीनों के संश्लेषण के संकेत होते हैं । यह कार्य DNA के विषम उत्प्रेरण (Hetro-catalytic) कार्य द्वारा होता है । इस प्रक्रिया में प्रत्येक जीन अनुलेखन विधि द्वारा एक विशिष्ट m-RNA निर्माण करता है ।

जैकब एवं मोनेड के अनुसार- सभी जीन एन्जाइमी प्रोटीनों के संश्लेषण के सूचक नहीं होते । कुछ जीन ऐसे भी हैं, जो अन्य कार्य करते हैं अर्थात् ये जीन्स संरचनात्मक जीन्स अथवा ऐसे जीन समूहों के कार्य को नियंत्रित एवं नियमित करने का कार्य भी करते हैं ।

इन्हें नियामक जीन (Regulator Genes) कहा जाता है । नियामक जीन ही निश्चित करते हैं कि संरचनात्मक जीन्स या उनके समूह किसी स्थान एवं समय पर अनुलेखन द्वारा m-RNA के निर्माण में सक्रिय होगा या नहीं ।

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नियामक जीन यह कार्य एक रासायनिक पदार्थ के संश्लेषण द्वारा करते हैं, जिसे निरोधक या संदर्भक (Repressor) कहते हैं । निरोधक पदार्थ की उपस्थिति में संरचनात्मक जीन को नियामक जीन के नियंत्रण में रहती है, अपने विशिष्ट RNA का संश्लेषण नहीं कर पाते ।

फलस्वरूप उनके एन्जाइम विशेष भी नहीं बन पाते । नियामक जीन्स द्वारा उत्पादित निरोधक पदार्थ अपना नियमन कार्य जीनोम के एक विशेष भाग द्वारा करता है जिसे प्रचालक जीन (Operator Gene) कहते हैं । नियामक तथा प्रचालक दोनों जीन गुणसूत्रों पर स्थित होते हैं तथा DNA के बने होते हैं ।

अत: स्पष्ट हो जाता है कि नियामक जीन (Regulator Gene), संरचनात्मक जीन्स (Structural Gene) से भिन्न होते हैं । कोई नियामक (Regulator) जीन किसी क्रोमोसोम (Chromosome) पर स्थित होता है, किन्तु ऐसे स्थान पर स्थित नहीं होता है, जिस पर ऑपेरॉन (Operon) उत्पन्न नहीं होता है ।

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संरचनात्मक जीन्स (Structural Genes) द्वारा उत्पन्न एन्जाइम्स (Enzymes) की प्रकृति को भी यह नियामक जीन्स (Regulator Genes) नहीं बदलते हैं अर्थात् इनके द्वारा ऐसी अवस्थायें उत्पन्न हो जाती हैं, जिनमें संरचनात्मक जीन्स अपने एन्जाइम्स को उत्पादन कर सकते हैं ।

नियामक जीन्स, संरचनात्मक जीन्स की क्रियाकलापों में सहायक होते हैं । अर्थात् कोशिका (Cell) में आवश्यकता के अनुसार एन्जाइम्स (Enzymes) का निर्माण होता है और आवश्यकतानुसार निर्माण न होने पर एन्जाइम्स का संश्लेषण नहीं होता है ।

जीन नियमन (Gene Regulation):

एक कोशिका में हजारों जीन्स (Genes) होती हैं । परन्तु प्रत्येक जीन हमेशा सक्रिय नहीं होती । शारीरिक क्रिया की आवश्यकता के अनुसार कभी कुछ जीन सक्रिय होते हैं अर्थात् इनमें प्रोटीन निर्माण होता रहता है, परन्तु कुछ समय में यह कार्य नहीं होता ।

उच्च कोटि के सभी कोशों में जीनोम एक समान होते हैं । यदि सभी जीन सदैव सक्रिय हों, तो ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जायेगी । जिसमें कोशिकाएँ लार, अग्न्याशय रस तथा मूत्र एक ही समय बनायेंगी ।

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कई आवश्यक क्रियाएँ अनावश्यक समय पर होंगी और कोशिका विभाजन का प्रक्रम चलता रहेगा । परन्तु ऐसा होता नहीं है । अत: इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कोशिकाओं में जीनों की क्रिया के स्व:नियमित करने की कोई न कोई विधि अवश्य रहती है ।

इस नियंत्रण के लिए दो प्रकार की विधियाँ हैं । एक प्रकार की विधि कोशिका द्रव्य (Cytoplasm) में होती है और दूसरी विधि केन्द्रक द्वारा संचालित होती है जिसमें किसी एक संरचनात्मक जीन के कार्य (अनुलेखन) में अन्य अंश द्वार किया जाता है ।

जैव-रसायन और जीन नियमन (Biochemistry and Gene Regulation):

फ्रांसीसी वैज्ञानिक द्वय फ्रेन्कोइस जेकॉब व जेकुअस मोनॉड (Francois Jacob and Jacques Monod) ने सर्वप्रथम सन 1961 में प्रयोग द्वारा यह प्रदर्शित किया कि किस प्रकार कुछ जीन्स जैव-रासायनिक स्तर (Biochemical Level) पर नियमित होते है ।

इन वैज्ञानिकों ने डाइसैकेराइड शर्करा लैक्टोज (Disaccharide Sugar Lactose) के उपापचय (Metabolism) से संबंधित एंजाइम्स को कोड करने वाली जीन्स (Genes) का अध्ययन किया । लैक्टोज शर्करा दो मोनोसैकेराइड यूनिट ग्लूकेज व गैलेक्टोज से बनी होती है ।

ई. कोलाई (E. Coli) जीवाणु द्वारा ऊर्जा स्रोत के रूप में लैक्टोज को प्रयोग करने के लिए इस डाइ-सैकेराइड को ग्लूकोज व गैलेक्टोज में परिवर्तित करने वाले एंजाइम β – गैलेक्टोसाइडेज (β – Galactosidase) की आवश्यकता होती है ।

लैक्टोज उपापचय (Metabolism) में दो अन्य एंजाइमों की भी आवश्यकता होती है । एंजाइम परमिएज (Permease) लैक्टोज अणुओं में बैक्टीरियल कोशिका में प्रवेश कराने में सहायक होता है । इस एंजाइम की अनुपस्थिति में लैक्टोज का बैक्टीरियल कोशिका में प्रवेश/परिवहन नहीं हो पाता ।

अत: उसका β – गैलेक्टोसाइडेज द्वारा ग्लूकोज व गैलेक्टोज में विघटन भी संभव नहीं हो पाता । दूसरा एंजाइम ट्रांसएसीटाइलेज (Transacetylase) भी लैक्टोज मेटाबोलिज्म के लिए आवश्यक होता है, लेकिन इसका कार्य स्पष्ट नहीं है ।

ई. कोलाई कोशिका जब ग्लूकोज माध्यम में सम्बर्धित की जाती है, तब उनमें β – गैलेक्टोसाइडेज अणुओं मई मात्रा लगभग नगण्य होती है । लेकिन जब इन जीवाणुओं को लैक्टोज माध्यम में सम्बर्धित किया जाता है, तब इनमें β – Galactosidase अणुओं की संख्या कई हजार हो जाती है ।

परमिएज व ट्रांसएसीटाइलेज एंजाइम्स अणुओं की संख्या में भी वृद्धि होती है । इन अणुओं की संख्या में वृद्धि ही जेकॉब व मोनॉड के शोध के निष्कर्ष का आधार बनी । जेकॉब और मोनॉड ई. कोलाई के एक ऐसे स्ट्रेन की पहचान में सफल हुए, जिसमें एक अकेली आनुवंशिक त्रुटि के फलस्वरूप तीनों एंजाइम अनुपस्थित थे ।

इस खोज और अन्य जानकारियों के आधार पर उन्होंने निष्कर्ष निकला कि जीवाणु के डी. एन. ए. में इन तीनों एंजाइमों के कोडिंग क्रम (Coding Sequence) एक साथ एक इकाई के रूप में पाये जाते हैं । इसे लैक्टोज ओपेरॉन (Lactose Operon) नाम दिया गया, उन्होंने यह भी बताया कि यह तीनों क्रम एक ही नियंत्रण प्रक्रिया के अधीन होते हैं ।

जिन का संश्लेषण (Synthesis of Gene):

शरीर की विभिन्न क्रियाओं के लिए प्रोटीन अणु (Protein Molecule) का संश्लेषण DNA अणु द्वारा होता है । DNA, जटिल कीड्स (Codes) के रूप में निर्देश देता है, जिन्हें m-RNA कोशिकाद्रव्य में राइबोसोम्स तक पहुँचाता है ।

कोशिकाद्रव्य में t-RNA उपस्थित होता है, जो m-RNA के संदेशों को पहुँचाने में सहायक होता है । कोशिकाद्रव्य में अनेक अमीनो अम्ल पाये जाते हैं, जिनमें से कुछ अम्लों का चयन t-RNA द्वारा होता है, जो राइबोसोम में होने वाले प्रोटीन संश्लेषण के काम आते हैं ।

कोशिकाद्रव्य में 20 या अधिक t-RNA होते हैं । t-RNA के एण्टीकोडोन्स (Anticodons) m-RNA के कोडोन्स (Codons) के साथ संबंध स्थापित कर लेते हैं ।

एक t-RNA द्वारा एक अमीनो अम्ल (Amino Acid) चुन लिया जाता है और यह क्रिया DNA आश्रित DNA पोलीमरेज (Polymerase) नामक एन्जाइम (Enzyme) द्वारा होती है ।

यह क्रिया जनक डी. एन. ए. (Parent DNA) की उपस्थिति में होती है । प्रसिद्ध वैज्ञानिक कर्नबर्ग (Kornberge) ने सर्वप्रथम DNA का कृत्रिम संश्लेषण परखनली (Test Tube) में किया था ।

जीन अभिव्यक्ति के विभिन्न पद (Different Steps of Gene Expression):

जीन अभिव्यक्ति आण्विक स्तर (Molecular Level) पर होने वाली वह क्रिया है, जिसमें जिन अपने आपको जीवधारी के बाह्यकृति लक्षण (Phenotype) के रूप में अभिव्यक्त करती है । जीन अभिव्यक्ति की क्रियाविधि जीव-रासायनिक आनुवंशिकी (Bio-Chemical Genetics) पर आधारित है ।

इसमें पोलीपेप्टाइड, एंजाइम या विशिष्ट प्रकार के आर. एन. ए. का संश्लेषण शामिल होता है, जो किसी लक्षण विशेष की संरचना या कार्य का नियंत्रण करते हैं । जीन से एम-आर. एन. ए. (m-RNA) का निर्माण अनुलेखन (Transcription) कहलाता है ।

इस प्रक्रिया में जीन में निहित आनुवंशिक सूचना का m-RNA के रूप में अनुलेखन हो जाता है । कुछ जीन r-RNA या t-RNA का निर्माण करते हैं । अनुलेखन में डी. एन. ए. द्विण्डलित अणु का केवल एक स्ट्रैंड भाग लेता है ।

m-RNA केन्द्रक को छोड़कर कोशिकाद्रव्य (Cytoplasm) में प्रवेश करता है तथा जीन की सूचना को पोलीपेप्टाइड में अमीनो अम्लों के क्रम के रूप में अनुवादित (Translate) कर देता है । अनुवाद में t-RNA महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं । इस प्रकार बना पोलीपेप्टाइड, जीन की अभिव्यक्ति, संरचनात्मक प्रोटीन, या एंजाइम के रूप में करता है ।

रेग्युलेटर जिन में उत्परिवर्तन (Mutation in Regulator Gene):

प्रायः देखा गया है कि रेग्युलेटर जीन ‘i’ में उत्परिवर्तन हो जाने के फलस्वरूप भी कोशिका में दमनकर का अभाव हो जाता है और एन्जाइम का लगातार संश्लेषण होने लगता है ।

ऐसे प्रभव, जिनमें आवश्यकता के बिना भी लगातार एन्जाइम का संश्लेषण होता है, अहेतुक प्रभव (Constitutive Strains) या अहेतुक उत्परिवर्तन (Constitutive Mutants) कहलाते हैं ।

ऑपरेटर जीन में उत्परिवर्तन से भी ये अहेतुक प्रभाव प्राप्त किये जा सकते हैं । ऑपरेटर जीन में उत्परिवर्तन होने से दमनकर, ऑपरेटर स्थल पर संलग्न नहीं हो पाता है ।

अत: अहेतुक प्रभाव भी दो प्रकार के होते हैं:

(i) रेग्युलेटर अहेतुक (Regulator Constitutive) और

(ii) ऑपरेटर अहेतुक (Operator Constitutive) ।

यद्यपि उपर्युक्त दोनों उत्परिवर्तनों का एक ही परिणाम होता है, तथा ये अपने वन्य प्रारूप के साथ प्रभावी-अप्रभावी (Dominant-Recessive) संबंधों में भिन्न होते हैं ।

प्रोकेरियोटों में प्रोटीन संश्लेषण का नियमन (Regulation of Protein Synthesis in Prokaryotes):

प्रेरण एवं दमन द्वारा जिन क्रिया का नियंत्रण (Control of Gene Action by Induction Repression):

प्रेरण (Introduction):

प्रेरण द्वारा जीन या जीनों को एन्जाइम उत्पन्न करने के लिए प्रेरित किया जाता है । एन्जाइम के निर्माण को प्रेरित करने वाले पदार्थ प्रेरक (Inducer) कहलाते हैं और वे आनुवंशिक तंत्र (Genetic System) जो इस प्रकार के एन्जाइम के संश्लेषण के लिए उत्तरदायी होते है ‘प्रेरणीय तंत्र’ (Inducible) कहलाते है ।

उदाहरणार्थ- ई. कोलाई (E. Coli) में β – गेलेक्टोसाइडेज (β – Galactosidase) एन्जाइम लैक्टोज का ग्लूकोस व गेलेक्टोस में अपघटन करता है । यदि ई. कोलाई को ऐसे माध्यम में रखा जाये, जिसमें लैक्टोज उपस्थित न हो तो उसकी कोशिकाओं में β – गेलेक्टोसाइडेज एन्जाइम का अभाव होता है ।

फिर जैसे ही माध्यम में लैक्टोज डाला जाता है β – गेलेक्टोसाइडेज बनना आरंभ हो जाता है । अत: ई. कोलाई में एन्जाइम का संश्लेषण अभिकारक (Substrate) के मिलाने से प्रेरित किया जा सकता है । अत: इन्हें प्रेरणीय एन्जाइम (Inducible Enzyme) कहते हैं ।

दमन (Repression):

इस क्रिया द्वारा जीन की क्रियाशीलता निरुद्ध होती है, जिसके फलस्वरूप विशिष्ट प्रोटीन का संश्लेषण कम हो जाता है या पूर्णतः रुक जाता है। इस पदार्थ को दमनकर (Repressor) कहते हैं । उदाहरणार्थ- ई. कोलाई में देखा गया कि उसकी कोशाएँ विभिन्न अमीनो अम्लों के संश्लेषण के लिए आवश्यक एन्जाइमों को संश्लेषण कर लेती हैं ।

किन्तु यदि किसी अमीनो अम्ल को जैसे हिस्टिडीन को बाहर से यदि माध्यम में मिलाया जाये तो हिस्टडीन का संश्लेषण करने वाले एन्जाइमों का उत्पादन कम हो जाता है ।

इस प्रकार के एन्जाइम दमनशील एन्जाइम (Repressible Enzyme) कहलाते हैं तथा ये आनुवंशिक तंत्र दमनशील तंत्र (Repressible System) कहे जाते हैं । इस प्रक्रिया में हिस्टडीन दमनकर (Repressor) की तरह कार्य करता है, जो कि किसी प्रोटीन के जैव संश्लिष्ट मार्ग का अन्तिम उत्पाद होता है ।

सह-दमनकर (Co-Repressor):

दमनशील तंत्रों में रेग्युलेटर (Regulator Gene) द्वारा उत्पादित प्रोटीन अक्रियाशील दमनकर (Inactive Repressor) होता है, जिसे एपोरिप्रेसर (Apo-Repressor) भी कहा जाता है । यह एपोरिप्रेसर सह दमनकर के साथ मिलकर क्रियाशील हो जाता है ।

किसी कोशिका में उपापचयी क्रियाओं (Metabolic Activities) को निम्न दो प्रकार से नियंत्रित किया जा सकता है:

(i) विकरों (Enzymes) की दक्षता (Efficiency) को नियमित कर ।

(ii) विकर अणुओं की संख्या का नियमन कर ।

कुछ विकरों (Enzymes) का नियमन उपरोक्त दोनों विधियों से किया जाता है । किसी भी कोशिका के सुचारू रूप से कार्य करने के लिए कोशिका में उपस्थित विकरों के सटीक नियमन की आवश्यकता होती है । उदाहरण के लिए ग्लूकोज माध्यम में संबंधित ई. कोलाई कोशिका को सैकड़ों विकरों की आवश्यकता होती है ।

इनमें से कुछ अत्यधिक मात्रा में उपस्थिति होते हैं, जबकि कुछ की अल्प मात्रा में ही आवश्यकता होती है । अत: इनके दोनों प्रकार से नियमन द्वारा ही जीवाणु कोशिका सुचारु रूप से कार्य कर पाती है ।

अनुलेखन दर का नियंत्रण (Regulation of Transcription Rate):

हमें ज्ञात है कि ई. कोलाई (E. Coli) के डी. एन. ए. द्वारा कोडित अनेक जीन उत्पादों (Gene Products) की आवश्यकता केवल विशेष पर्यावरणीय (Environmental) अथवा पोषण परिस्थितियों में होती है । इस प्रकार के जीनों (Genes) का अनुलेखन स्तर (Transcription Level) पर होता है, यह हम जान चुके हैं ।

उपापचयी (Metabolic) व पर्यावरणीय (Environmental) परिस्थितियों में बदलाव के अनुसार उन्हें ऑन या ऑफ किया जा सकता है । इसके विपरीत संगठनात्मक जीन (Constitutive Gens) उत्पादों की हर समय आवश्यकता होती है ।

अत: उनका अनुलेखन (Transcription) लगातार होता राहता है, लेकिन इन जीनों (Genes) के अनुलेखन (Transcription) तथा उनके एम-आर. एन. ए. (m-RNA) के अनुवाद (Translation) की दर भिन्न-भिन्न होती है ।

कुछ एंजाइम अन्य एंजाइमों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली ढंग से कार्य करते हैं या अन्य एंजाइमों की अपेक्षा अधि स्थायी (Stable) होते हैं फलस्वरूप कोशिका में उनकी अल्प मात्रा की ही आवश्यकता होती है ।

जीवाणु कोशिका द्वारा अधिक मात्रा में वांछित प्रोटीन को कोड करने वाली संगठनात्मक जीन (Constitutive Genes) का अनुलेखन (Transcription) तेजी से होता है । इस प्रकार की जीन्स (Genes) के अनुलेखन की दर उनके प्रमोटर क्रम (Promoter Sequences) द्वारा नियंत्रित होती है ।

सक्षम व शक्तिशाली प्रमोटर से युक्त जीन, आर. एन. ए. पोलीमेरेज (RNA Polymerase) से आसानी से व बारम्बार जुड़ सकती है, अत: इनसे अन्य जीन की अपेक्षा अधिक m-RNA का अनुलेखन होता है ।

उपापचयी एंजाइमों (Metabolic Enzymes) से नियंत्रित करने वाली रिप्रेसर (Repressor) व एक्टीवेटर (Activator) प्रोटीन्स को कोड करने वाली जीन्स भी संगठनात्मक (Constitutive) होती है तथा लगातार अपने उत्पादों का निर्माण करती रहती हैं । चूंकि, सामान्यतः कोशिका को रिप्रेसर व एक्टीवेटर प्रोटीन के केवल कुछेक अणुओं की आवश्यकता होती है, अत: उनकी जीनों के प्रमोटर दुर्बल (Weak) होते हैं ।

जिन नियंत्रण में Cyclic AMP का महत्व (Role of Cyclic AMP in Gene Control):

Cyclic AMP (cAMP) द्वारा लैक ऑपेरॉन (Lac Operon) पर सकारात्मक नियंत्रण का पता चलता है । E. Coli में उपस्थित CRP, cAMP के साथ बंधित होकर CRP-cAMP कॉम्पलेक्स बनाता है । यह कॉम्पलेक्स बनाता है । यह कॉम्पलेक्स प्रोमोटर जीन से बंधित होकर CRP-cAMP द्वारा प्रोमोटर जीन को m-RNA कोडित करने के लिये प्रेरित करता है ।

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