Read this article in Hindi to learn about:- 1. आहार-संदूषण का अर्थ (Meaning of Food Contamination) 2. आहार-संदूषण की श्रेणियों (Classification of Food Contamination) 3. भोज्य-संदूषण में पाए जाने वाले रोग-लक्षण (Symptoms of Food Borne Diseases).

आहार-संदूषण का अर्थ (Meaning of Food Contamination):

भारतवर्ष में खाद्य-पदार्थों में जहर देने की प्रथा बहुत प्राचीन एवं प्रचलित है । अनेक लोककथाएँ इसके प्रमाण हैं कि अमुक रानी ने अपनी सौतेली संतान को दूध में जहर पिलाकर नदी में फिंकवा दिया । स्वामी दयानंद सरस्वती को विष पिलाया गया, मीरा को जहर दिया गया, शंकर भगवान स्वयं विष पी गए आदि ।

ये लोककथाएँ किंवदंती नहीं हैं बल्कि वास्तविक हैं । यजुर्वेद में भी विषों का वर्णन है ओर कणाद ऋषि ने भी अपने पंचभूत (जल, वायु, पृथ्वी, सूर्य, आकाश) सिद्धांतों के साथ विषों को भी स्वीकारा है । कहने का तात्पर्य यह है कि भारतवर्ष में भोजन की विषाक्तता का वर्णन वैदिक काल से ही होता रहा है ।

आहार-संदूषण की श्रेणियों (Classification of Food Contamination):

भोज्य विषाक्तता को हम तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं:

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(1) विषायण अर्थात् खाद्य-सामग्री में जहर मिलाकर उसे विषाक्त कर देना,

(2) स्वतःलयन अर्थात् खाद्य-पदार्थों में अनेक कारकों (धूप, गर्मी, आर्द्रता आदि) द्वारा क्रिया होकर उनका विष सदृश हो जाना तथा

(3) संदूषण अर्थात् भोज्य पदार्थ का किसी अन्य वस्तु या पदार्थ के सम्मिश्रण अथवा संपर्क में आकर विषाक्त हो जाना ।

हरिश्चंद्र-तारामती की पौराणिक कहानी में रुकमणी (छिपकली रूप) द्वारा खीर को विषाक्त करना एक प्राचीन उदाहरण है । भोज्य-संदूषण के संदर्भ में केवल स्वतःलयन तथा संदूषण पर ही विस्तार से विचार किया जा रहा है । भोज्य विषाक्तता का विषायण-वर्णन इस संदर्भ क्षेत्र में नहीं आता ।

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जब संसार की जनसंख्या सीमित थी तो प्रत्येक ग्राम एवं नगर अपनी आवश्यकताओं के लिए आत्मनिर्भर था । किंतु जैसे-जैसे विश्व की जनसंख्या बढ़ती गई वैसे-वैसे निवासियों की आवश्यकताएँ भी असीम होती गईं और यहाँ तक कि ग्रामवासियों और नगरवासियों को अपनी आवश्यक वस्तुओं के लिए दूसरे ग्रामों तथा नगरों पर निर्भर रहना पड़ा ।

उपभोक्ताओं को सामान सीधे ही उत्पादकों से न मिलकर मध्यस्थ विक्रेताओं से लेना पड़ा और परिणामस्वरूप एक विकट समस्या उपस्थित हो गई- भोज्य-संदूषण की । प्राचीन समय में खाद्य-पदार्थों में मिलावट, संदूषण तथा रोगजनक संक्रमण अधिक नहीं था किंतु जनसंख्या बढ़ने के कारण ग्रामवासियों को नगरों से, नगरवासियों को शहरों से तथा एक देश को दूसरे देश से खाद्य-पदार्थों का आयात करना पड़ा और फलतः भोज्य-संदूषण की समस्या उत्पन्न हो गई ।

यह समस्या उस समय और भी अधिक हो जाती है जब मछली, मांस, दूध, फल तथा सब्जियों जैसी शीघ्र खराब होने वाली वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना होता है । यद्यपि आजकल अनेक खाद्य-पदार्थ अधिकतर सीलबंद अथवा डिब्बाबंद रूप में आयात और निर्यात किए जाते हैं, फिर भी इन खाद्य-पदार्थों को भरने वाले और ले जाने वालों की सावधानी पर स्वच्छता निर्भर करती है ।

किसी भी खाद्य-पदार्थ को सीलबंद करते समय रासायनिक पदार्थ तथा परिरक्षक का प्रयोग किया जाता है, ताकि खाद्य-पदार्थ वास्तविक उपभोक्ताओं तक पहुंचता-पहुंचता खराब न हो जाए । ऐसे समय परिरक्षक का निश्चित मात्रा से अधिक मिलना ओर गंदे हाथों से कार्य करना भोज्य पदार्थों में संदूषण को उत्पन्न करता है ।

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न केवल गलत ढंग से संभालना भी भोज्य-संदूषण को बढ़ावा देता है । किन्हीं-किन्हीं खाद्य-पदार्थों में तो रोगजनक जीवाणु इतनी तीव्र अनुपात एवं संख्या में बढ़ जाते हैं कि भोज्य विषाक्तता अथवा संक्रामक महामारी का रूप धारण कर मनुष्य के लिए हानिकर हो जाते हैं ।

परिणामस्वरूप आहार के अंदर पोषक मान कम हो जाता है । खाद्य प्रक्रिया की कुछ विधियों में तो शुद्धीकरण के लिए विषैले पदार्थ भी प्रयोग किए जाते हैं, किंतु अनुभवहीन कर्मचारियों से कार्य को शीघ्र निपटाने के दृष्टिकोण से भोज्य-संदूषण को बढ़ावा देना होता है ।

जनस्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए कभी भी भोजन की संविरचना के महत्व पर विचार नहीं किया गया । पोषक मान, जो खाद्य-पदार्थों के तत्वों पर आधारित है, उतना ही महत्वपूर्ण है जितना रोगजनक जीवाणुओं द्वारा खाद्य-पदार्थों पर आक्रमण की ग्रहणशीलता अर्थात् जितना ध्यान खाद्य-पदार्थों के खराब होने की ओर दिया गया उतना ध्यान इनमें विद्यमान पोषक तत्वों की ओर नहीं दिया गया ।

पोषकता के दृष्टिकोण से भोजन विभिन्न तत्वों से मिलकर बना है । भोजन में जल प्रचुर मात्रा में पाया जाता है । मांस, दूध तथा सब्जियों में उपलब्ध प्रोटीन भी समान रूप से महत्वपूर्ण है । मांस तथा दूध से बने पदार्थों में वसा का होना सामान्य उपभोक्ता के लिए आवश्यक है ।

शक्ति प्रदान करने वाले कार्बोहाइड्रेट्‌स सामान्यतः डेक्सट्रोज अथवा लेक्टोज रूप में स्टार्च और फाइब्रिन से प्राप्त हो जाते हैं । संपूर्ण डेरी उत्पादों, फलों, सब्जियों तथा अनाजों में कुछ अंश तक खनिज पदार्थ उपलब्ध हो जाते हैं ।

फलों और सब्जियों में तेजाब एवं विटामिन की मात्रा मिल जाती है । इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्येक खाद्य पदार्थ में कोई न कोई भोजन का तत्व मिल जाता है और परीक्षणों से सिद्ध हो चुका है कि प्रत्येक खाद्य-पदार्थ में समान तत्व नहीं होते ।

अर्थात् किसी में जल अधिक है तो किसी में प्रोटीन, किसी पदार्थ में वसा की अधिकता है तो किसी में कार्बोहाइड्रेट्‌स की । खाद्य-पदार्थों में इन तत्वों की मात्रा पर ही भोजन का खराब होना निर्भर करता है । उदाहरणार्थ- आटा फलों और सब्जियों की अपेक्षा देरी से खराब होता है जबकि दूध बहुत जल्दी खट्टा हो जाता है ।

ऐसे आहार जिनमें एसिड की मात्रा अधिक होती है, अपेक्षाकृत और भी जल्दी खराब हो जाते हैं । अत: महामारी फैलने के समय यदि उसका कारण संदूषित भोजन है तो भोजन में विद्यमान तत्वों के मान से अवगत होना अत्यंत आवश्यक है ।

अनेक आहार तैयार होने के उपरांत संविरचना में परिवर्तनशील रहते हैं और इस प्रकार का स्वत:लयन खाद्य-पदार्थों में विद्यमान एंजाइमों की प्रतिक्रिया के कारणवश होता है । इन पदार्थों में स्वक्रिया को प्रभावित करने वाले वायुमंडल, धूप, गर्मी अथवा आर्द्रता आदि कारक हैं किंतु कुछ धातु, विशेषकर ताँबा, इस स्वक्रिया को बढ़ा देती हैं ।

परिणामस्वरूप प्रभावित आहार के प्राकृतिक गुणों में कमी होकर उसकी पोषक मूल्यता कम हो जाती है । इन एंजाइमों की प्रतिक्रिया के कारणवश आहारों के रंग अथवा गंध में परिवर्तन आकर उनकी प्राकृतिक ताजगी समाप्त हो जाती है । अंत में एक स्थिति ऐसी आ जाती है कि प्रारंभ में जो विटामिन मौजूद थे वे समाप्त हो जाते हैं और वसा (चर्बी) का ऑक्सीकरण होने लगता है और तत्पश्चात् खटास या विरसता का विकास होना आरंभ हो जाता है ।

प्रोटीन के प्रभावित होने पर विघटन आरंभ हो जाता है और अमोनिया, गंधमय हाइड्रोजन अथवा अन्य आपत्तिजनक रसायनों का मुक्तिकरण होता है । किंतु आहारों में इस प्रकार के मात्र परिवर्तन से रोग कम फैलते हैं, क्योंकि खाद्य-पदार्थ इतने संदूषित हो जाते हैं कि वे खाने योग्य नहीं रहते और उनको फेंकना पड़ता है ।

स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तो वह आहार होता है जो या तो आंशिक रूप में खराब हुआ हो अथवा उसमें इन होने वाले परिवर्तन का ज्ञान न होने के कारण इस प्रकार के संदूषित आहार का सेवन किया जाए । अनेक वर्षों के अनुभव से यह सिद्ध हो चुका है कि यदि भोजन में वसा (चर्बी), प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्‌स तथा अन्य आवश्यक तत्व उचित समानुपात में मौजूद हों तो वह संतुलित भोजन रूप में होता है ।

आहार में वसा, प्रोटीन तथा कार्बोहाइड्रेट्‌स ही मुख्य तीन तत्व हैं । ये तीनों ही हमारे शरीर को ऊष्मा प्रदान करते हैं जिसको ‘कैलोरी’ इकाई में मापा जा सकता है । एक कैलोरी में उतनी गर्मी होती है जितनी एक ग्राम जल को 1 सेल्सियस तक गर्म करने के लिए आवश्यक होती है । आहार में रसायन अपने कैलोरीमान में भिन्न होते हैं और जो भोजन हम खाते हैं ।

उसके 100 ग्राम से प्राप्त कैलोरी की संख्या निम्न सूत्र द्वारा ज्ञात की जा सकती है:

कैलोरी प्रति 100 ग्राम

= 4 × प्रोटीन ग्राम + 4 × कार्बोहाइड्रेट (ग्राम) + 9 × वसा (ग्राम)

हमें शरीर को सुचारु रूप से चलाने के लिए कितनी कैलारी ताप की आवश्यकता होती है, इसका अनुमान हमारी अवस्था और कार्य को देखकर ही लगाया जा सकता है, क्योंकि हर मनुष्य की अवस्था, शारीरिक श्रम व जलवायु की विभिन्नता के कारण कैलोरियों की मात्रा भी घटती-बढ़ती रहती है ।

जल के साथ-साथ अन्य अनेक मूलभूत तत्व हैं जो शरीर को स्वस्थ एवं हृष्ट-पुष्ट बनाते हैं । वे तत्व हैं- ऑक्सीजन, कार्बन, नाइट्रोजन आदि । स्वस्थ शरीर क लिए विटामिन भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं । अनेक विटामिन रासायनिक यौगिकों के रूप में भी उपलब्ध हैं और कुछ ऐसे विटामिन होते हैं जिनको प्रयोगशाला में ही संश्लेषित किया जा सकता है ।

इस प्रकार अर्थों, डेरी-उत्पादों तथा हरी सब्जियों में विटामिन ‘ए’ मौजूद होने के उपरांत भी प्रयोगशाला में कैरोटीन से संश्लेषण द्वारा ये तैयार जा सकते हैं । विटामिन ‘ए’ की कमी से आँखों में रतौंधी रोग हो जाता है और श्लेष्म झिल्ली तथा मूत्राशय अंग प्रभावित हो जाते हैं । विटामिन ‘बी’2 अथवा ‘जी’ फलों, सब्जियों, दूध, अंडा, अनाज एवं मांस से प्राप्त होता है ।

इसकी कमी से बेरी-बेरी रोग, मांसपेशियों में जलीय शोथ तथा कमजोरी, निकोटिनिक एसिड की कमी के कारण पैलाग्रा रोग संभाव्य है । यदि हालत अत्यधिक गंभीर है तो चकत्ता/दिदोरा, मुख में घाव, रक्ताल्पता तथा पाचक तंत्र भी खराब हो सकता है ।

रिबोफ्लेविन की कमी के फलस्वरूप मुखक्षत हो जाता है । विटामिन ‘सी’ ताजे दूध के साथ-साथ फलों और सब्जियों में भी पाया जाता है । विशेषकर नींबू संतरा, चुकंदर तथा टमाटर में मिलता है । इस विटामिन को प्रतिस्कर्वी कहते हैं और इसकी कमी के कारण स्कर्वी, मिश्रित पीड़ा, मसूढ़ों तथा दाँतों में खराबी, हड्डियों में क्षतस्थल हो जाते हैं । विटामिन ‘डी’ धूप, मछली के तेल, चर्बी, अंडा तथा दूध में पाया जाता है ।

भोजन में इसकी कमी से सूखा रोग अथवा रिकेट्‌स, कैल्सियम तथा फास्फोरस का शरीर में पूर्णतया उपयोग न होना और हड्डियों एवं दाँतों का अपूर्ण विकास होना है । विटामिन ‘डी’ को कृत्रिम रूप से त्वचा में पराबैंगनी प्रकाश द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है ।

उपरोक्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि यदि भोजन संतुलित है और संदूषण के कारण विटामिन नष्ट नहीं हुए हैं तो शरीर स्वस्थ रहेगा और कोई भी संक्रमण रोग होने से बचाया जा सकता है । अंग्रेजी में कहावत है कि Precaution is Better than Cure अर्थात् उपचार से उत्तम सावधानी है । यह ध्यान देने योग्य है कि विटामिनों का प्रयोग यदि शिशुकाल अथवा बाल्यकाल में अधिक किया जाए तो अपेक्षाकृत लाभदायक सिद्ध होगा ।

शरीर में विटामिन का किसी औषधि द्वारा प्रवेश रोग को तत्काल समाप्त कर सकता है, किंतु स्थायी तौर पर रोग को दूर करने के लिए खुराक (दैनिक भोजन) में परिवर्तन करना होगा । यह अवश्य है कि भोजन द्वारा प्राप्त विटामिनों का प्रभाव स्वास्थ्य पर देरी से होता है किंतु होता है स्थायी रूप में ।

भारत की प्राचीन सभ्यता से यह प्रमाणित होता है कि काँस्य एवं ताम्र युग लगभग 400 वर्ष ई. पूर्व आरंभ हुआ था और लौह युग 1200 वर्ष ई. पूर्व । ये तत्व हमारे लिए उपयोगी थे । शरीर को खनिज लवणों की आज भी उतनी ही आवश्यकता है । एक समय था कि खनिज लवण हमें खाना पकाने के बर्तनों से मिल जाता था ।

लोहे की कढ़ाई का तो आज भी प्रचलन है किंतु ताम्र पात्र, काँस्य पात्र का प्रचलन कुछ समय पूर्व बंद हो चुका है । वे बर्तन हमें खाने के साथ खनिज लवण भी प्रदान करते थे और शरीर को निरोग बनाने में सहायक थे । इन लौह, काँस्य तथा ताम्र बर्तनों की यह विशेषता थी कि भोज्य पदार्थों की इनके साथ प्रतिक्रिया होकर भी भोजन संदूषित नहीं होता था और शरीर को आवश्यकतानुसार लवण भी मिल जाते थे ।

यदि शरीर को, स्वस्थ एवं सुगठित बनाए रखना है तो खनिज लवणों की उचित मात्रा का शरीर को भोजन के साथ मिलना अत्यंत आवश्यक है । क्योंकि कैल्सियम तथा फास्फोरस लवणों की कमी से शरीर की हड्डियों में खराबी, दाँत खराब तथा सूखा रोग (रिकेट्‌स) हो जाता है ।

ताँबा लौह लवणों को रक्त द्वारा उपयोग करने में सहायता करता है किंतु इसकी कमी से अरक्तता एवं कुरूपता उत्पन्न हो जाती है । भोजन में आयोडीन की कमी के कारण थायराइड में खराबी आ जाती है । वसा (चर्बी) ऊष्मा उत्पन्न करती है जो शरीर को गर्मी देती है ।

इसकी कमी के कारण जल्दी-जल्दी बीमारी और पेट में गड़बड़ी आरंभ हो जाती है । कार्बोहाइड्रेट शक्ति उत्पादन का मुख्य स्रोत है । इसकी कमी के कारण शरीर में कमजोरी और भार कम हो जाता है । यदि भोजन में कार्बोहाइड्रेट की प्रचुर मात्रा नहीं है तो प्रोटीन द्वारा इस कमी को पूरा कर लिया जाता है ।

विभिन्न प्रकार के कार्बोहाइड्रेट्‌स में लेक्टोज ही मुख्य है और यह दूध से प्राप्त किया जा सकता हैं । इसकी कुछ मात्रा अंडे तथा सब्जियों से भी मिल जाती है । उपरोक्त वर्णित आधारों पर कहा जा सकता है कि भोजन में अमुक कमी के कारण हमारे स्वास्थ्य में गिरावट आई है अथवा शरीर रोगी हो गया है ।

इसके अतिरिक्त भोजन का संदूषण, लापरवाही से उसको सँभालना, तैयार करना तथा परोसने पर भी निर्भर करता है । सामान्यतया यह देखा गया है कि अस्पतालों में ट्रॉलियों पर मरीजों के लिए खाना लाया जाता है ।

जब यह ट्रॉली किसी मरीज के पास जाती है तो उसकी खाँसी अथवा छींक के कारण मुख से निकली थूक की बूँदें भी खाने को संदूषित कर देती हैं । अत: जहाँ तक हो सके खाने की ट्रॉलियाँ मरीजों से दूर ही रखी जाएं ताकि किसी प्रकार का संक्रमण न हो सके ।

भोज्य-संदूषण में पाए जाने वाले रोग-लक्षण (Symptoms of Food Borne Diseases):

भोज्य-संदूषण में पाए जाने वाले रोग-लक्षण आगे दी गई सारणी में दिए गए हैं:

i. धातुई अथवा रासायनिक विषाक्तता:

अनेक धातु तथा रसायन कभी-कभी अकस्मात् ही किसी भोजन विशेष में मिलकर भोजन को संदूषित कर देते हैं । परिणामस्वरूप इस संदूषित भोजन को खाने वाला प्राणी रोगी हो जाता है । इन धातुओं में विशेष रूप से सीसा, आर्सेनिक एवं थेलियम अधिक हानिकारक है ।

मृदु जल को एक स्थान से दूसरे म्यान पर उपयोग में लाने के लिए लैड पाइपों का कुछ समय पूर्व प्रयोग किया जाता था और इन पाइपों के संपर्क में आकर जल में विषाक्तता उत्पन्न हो जाती थी । आर्सेनिक कुछ खाद्य-पदार्थों में प्रोसैसिंग के समय अंदर प्रदेश कर उनको संदूषित कर देता है, किंतु यह तभी हानिकर है जब इसका प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया जाए । आम्लिक आहारों के लिए प्रयोग में आने वाले तामचीनी एवं जस्ती बर्तनों के कारण ऐंटिमोनो एवं जिंक विषाक्तता हो जाती है ।

जंतु-बाधा के प्रति सुरक्षित रखने के लिए खाद्य-पदार्थों में प्रयोग किए गए एथिलीन ऑक्साइड या हाइड्रोजन साइनाइड से भोजन संदूषित हो जाता है । अत: उपचार के पश्चात् अपर्याप्त रोशनदान के कारण इन पदार्थों की मौजूदगी का भी ध्यान रखना चाहिए ।

अर्थात् जहाँ इन पदार्थों द्वारा खाद्य-पदार्थों का उपचार किया जाता है वहाँ पर रोशनदान और शुद्ध वायु का पर्याप्त प्रबंध होना चाहिए । सामान्यतया एल्युमिनियम, टिन अथवा क्रोमियम हानिकारक नहीं हैं और यही कारण है कि इन धातुओं का उपयोग खाद्य-पदार्थों के संरक्षण हेतु पात्रों के निर्माण में किया जाता है ।

धातुई अथवा रासायनिक विषाक्तता के परिणामस्वरूप मितली, उल्टी, दस्त, प्यास तथा ऐंठन हो जाती है । रोगी की नाड़ी कमजोर और साँस हलका होकर श्यामता आक्षेप और यहाँ तक कि सन्मूर्च्छा भी हो जाती है । धातुई एवं रासायनिक पदार्थों द्वारा संदूषित भोजन के खाने से कुछ ही मिनटों में ये लक्षण दिखाई पड़ जाते हैं । व्यावहारिक रूप में देखा गया है कि संभ्रांत परिवार रेफ्रिजरेटर में खाद्य-पदार्थों के साथ-साथ औषधियाँ अथवा पेनसिलिन आदि रख देते हैं और यह भोज्य संदूषण को बढ़ावा देता है ।

ii. स्टेफिलोकोकल भोज्य विषाक्तता:

बैक्टीरिया अत्यंत सूक्ष्म आकार एवं विभिन्न आकृतियों के जीवाणु होते हैं । ये एककोषीय होते हैं और संसार में प्रत्येक स्थल पर पाए जाते हैं । उदाहरणार्थ- मिट्टी, जल, कृषि एवं वायु में ये हजारों प्रकार के पाए गए हैं । ये जीवाणु इतने छोटे होते हैं कि नंगी आँखों से देखना संभव नहीं है और यहाँ तक कि मिलीमीटर के हजारवें अंश तक के आकार के पाए जाते हैं ।

बैक्टीरिया को आकृति के आधार पर तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है:

1. गोल बेक्टीरिया (कोकस),

2. सीधा या दंड समान (बैक्टीरियम या बेसिल) तथा

3. सर्पिल जैसे स्पाइरोकीट ।

यद्यपि बैक्टीरिया मात्र एक कोशिका वाले होते हैं और ये सामान्यतः गतिशील एवं जलीय द्रवों पर तैर सकते हैं । प्रतिकूल दशाओं में विशेषकर जब जल की कमी हो कुछ बैक्टीरिया स्थिर वस्तुओं (पिंडों) का निर्माण करते हैं जिन्हें स्पोर कहते हैं ।

ये स्पोर (बीजाणु) तब तक निष्क्रिय पड़े रहते हैं जब तक उनकी उत्पत्ति के लिए अनुकूल दशाएँ नहीं होतीं । ये प्रतिकूल दशाओं तथा अधिक अवधि तक ऊँचे तापमान पर भी बने रहने की क्षमता रखते हैं । अनेक बैक्टीरिया सक्रिय रहने के लिए वायु की आवश्यकता अनुभव करते हैं । जिनको वातजीबी कहते हैं और ऐसे बैक्टीरिया जो ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में गुणित होते हैं बातनिरपेक्षी कहलाते हैं ।

जिन मनुष्यों के हाथों में फोड़े या व्रण होते हैं और यदि ये आहार को छूते हैं तो आहार संदूषित हो जाता है । क्योंकि इनका संक्रमण स्टेफिलोकोकस नामक जीवाणु द्वारा होकर आमाशय तथा तंत्र पर प्रभाव डालता है । यह प्रभाव इतने कम समय के लिए रहता है कि रक्तधारा तक नहीं पहुँच पाता ।

अपरिमित ग्रुप (Indeterminate Group):

इस ग्रुप के अंतर्गत स्ट्रेप्टोकोसी, पेराकोलॉन बेसिली तथा वातनिरपेक्षी और विशेषकर क्लोस्ट्रीडियम वेल्ची आते हैं जिनके द्वारा आहार विषाक्त हो जाता है । क्लोस्ट्रीडियम वेल्ची सदा ऐसे आहार में पैदा होता है जिसमें अम्ल (एसिड) नहीं हों जैसे- मांस तथा सब्जियाँ ।

फिर भी ये जीवविष पैदा करते हैं जो आमाशय तथा आंत्र को अत्यधिक प्रभावित करते हैं जिसके फलस्वरूप तीव्र रोग की संभावना बढ़ जाती है । लेकिन इससे भी अधिक भयानक क्लोस्ट्रीडियम बोट्रलिनम जीवाणु होते हैं जिनके द्वारा किया गया विषाक्त भोजन खाने के बाद मनुष्य मूर्च्छित होकर जीवनलीला ही समाप्त कर देते हैं ।

बोट्रलिनम जीवविष सर्वाधिक विषैले होते हैं जिनका एक लाखवाँ अंश भी मानव को मारने में सफल है । इस प्रकार की विषाक्तता का निदान यथाशीघ्र किया जाना चाहिए ताकि प्रतिजीव विष दिया जा सके । उद्‌भवन काल अधिक होने के कारण इसके लक्षण देर से दिखाई देते हैं ।

इन जीवाणुओं के प्रभाव से थकावट, सिरदर्द, चक्कर, दस्त और तत्पश्चात् कब्जियत तथा अंत में आँख, ग्रीवा पेशी व श्वसन केंद्र का पक्षाघात हो जाता है । आहार को अधिक समय तक गरम करने से बोट्रलिनम जीवाणु नष्ट हो जाते हैं । ऐसे खाद्य-पदार्थ जो सीलबंद अथवा डिब्बाबंद होते हैं इन जीवाणुओं द्वारा अधिक प्रभावित होते हैं । अत: इनका 212° फा. (100° सें.) तक गर्म करने के पश्चात् ही प्रयोग करना उचित है ।

सैल्मोनेला ग्रुप (Sealmonal Group):

सैल्मोनेला एक परजीवी है, जिसका पोषक साधारणतया स्तनधारी, सरीसृप अथवा पक्षी होता है । यह अपने अंदर जीव-विष उत्पन्न करता है और इसी प्रकार अपने पोषक में भी उत्पन्न करता है । जब मनुष्य इनके द्वारा किए गए विषाक्त भोजन को खाता है तो तेज बुखार हो जाता है ।

यह बुखार टाइफाइड तथा पैराटाइफाइड ज्वर की श्रेणियों का होता है । इस ग्रुप के जीवाणु आमाशय तथा आंत्र को प्रभावित करते हैं ओर यहाँ तक कि इनकी झिल्लियों को पार कर रक्त में मिल जाते हैं जहाँ पर ये अधिक समय तक जीवित रह सकते हैं ।

संग्रहणी ग्रुप (Dysentery Group):

इस ग्रुप में शिगैला सोनी तथा फ्लैक्सनर जीवाणु आते हैं । इन जीवाणुओं द्वारा संग्रहणी (पेचिश) जैसा संक्रामक रोग फैल जाता है । अधिकतर इस रोग के परिणामस्वरूप तपेदिक, अंड्यूलैंट ज्वर, स्कारलेट ज्वर, टांसिलशोथ, ब्रुसैलोसिस तथा डिप्थीरिया आदि रोग भी फैल जाते हैं ।

इन बीमारियों के फैलने के लिए किसी हद तक कच्चे दूध का पीना ही उत्तरदायी है । बर्तनों की स्वच्छता और स्वच्छ हाथों से भोजन का खाना एवं खिलाना इन जीवाणुओं से छुटकारा दिला सकता है, क्योंकि गंदे हाथों एवं गंदे पात्रों में भोजन संदूषित होकर रोग फैलाते हैं ।