ज्वालामुखी पर निबंध | Essay on Volcanoes in Hindi language!

Essay # 1. ज्वालामुखियों का प्रारम्भ (Origin of Volcanoes):

ज्वालामुखी वह विवर या छिद्र है, जिससे लावा, राख, गैस व जलवाष्प का उद्‌गार होता है । ज्वालामुखी क्रिया के अंतर्गत पृथ्वी के आंतरिक भाग में मैग्मा व गैस के उत्पन्न होने से लेकर भू-पटल के नीचे व ऊपर लावा के प्रकट होने तथा शीतल व ठोस होने की समस्त प्रक्रियाएँ शामिल की जाती हैं । लावा का यह उद्‌गार केंद्रीय विस्फोटक के रूप में या दरारी उद्‌भेदन के रूप में हो सकता है ।

मैग्मा में सिलिका की मात्रा अधिक होने पर ज्वालामुखी में विस्फोटक उद्‌गार देखे जाते हैं, जबकि सिलिका की मात्रा कम रहने पर उद्‌गार प्रायः शांत रहता है । वर्तमान समय में मैग्मा तथा लावा एवं आग्नेय शैलों का वर्गीकरण रासायनिक व खनिज संघटन के आधार पर किया जाता है । खनिजों को हल्के रंग व गहरे रंग की दो कोटियों में विभक्त किया जाता है ।

हल्के रंग के खनिजों को फेल्सिक एवं गहरे रंग के खनिजों को मैफिक कहते हैं । ‘फेल्सिक’ समूह में सिलिका प्रधान खनिज क्वार्ट्ज तथा फेल्सफार प्रमुखता से होते हैं जबकि ‘मैफिक’ समूह में मैग्नेशियम व लौह तत्व की अधिकता वाले खनिज पायरॉक्सींस, एम्फीबोल्स तथा ऑल्वीन की प्रधानता होती है ।

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फेल्सिक व मैफिक के मध्यस्थ गुणों वाले खनिजों को ‘अल्ट्रामैफिक’ कहा जाता है । इसमें सिलिकन व एल्युमिनियम की मात्रा अधिक होती है । फेल्सिक, अल्ट्रामैफिक व मैफिक के अंतर्गत ग्रेनाइट, डायोराइट व गैब्रो क्रमशः अंतर्जात लावा के एवं रायोलाइट, एंडेसाइट व बैसाल्ट क्रमशः बहिर्जात लावा के उदाहरण हैं ।

ज्वालामुखी लावा के जमाव से निर्मित आंतरिक स्थलरूपों में बैथोलिथ, किसी भी प्रकार की चट्‌टानों में मैग्मा का गुम्बदनुमा जमाव है । धीरे-धीरे ठंडा होने के कारण इसके रवे (कणों का आकार) बढ़े होते हैं तथा यह ग्रेनाइट प्रकार का होता है । यह अपेक्षाकृत अधिक गहरे भागों में देखा जाता है ।

अपेक्षाकृत कम गहराई पर अवसादी चट्‌टानों में मैग्मा के अलग-अलग प्रकार से ठंडा होने की प्रक्रिया में कई प्रकार के स्थल रूप देखे जाते हैं । इनमें लैकोलिथ उत्तल ढाल वाला एवं लोपोलिथ अवतल बेसिन में लावा जमाव है ।

फैकोलिथ मोड़दार पर्वतों के अभिनतियों व अपनतियों में अभ्यांतरिक लावा जमाव है । इसी प्रकार सिल व डाइक क्रमशः लावा के क्षैतिज व लम्बवत् जमाव हैं । सिल की पतली परत को शीट एवं डाइक के छोटे स्वरूप को स्टॉक कहते हैं ।

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ज्वालामुखी के विस्फोटक उद्‌गार से निर्मित होने वाली स्थलाकृतियों में वाह्य भागों में विभिन्न प्रकार के ज्वालामुखी शंकुओं का निर्माण होता है । क्रेटर व काल्डेरा जैसे धँसे हुए स्थलरूप ज्वालामुखी शंकुओं के ऊपर बनते हैं ।

ज्वालामुखी लावा के उद्‌गार की घटती तीव्रता के आधार पर ज्वालामुखी शंकुओं को पीलियन तुल्य, वल्कैनो तुल्य, स्ट्राम्बोली तुल्य व हवाईयन तुल्य प्रकारों में बाँटा जाता है । इनमें पीलियन तुल्य ज्वालामुखी सबसे अधिक विनाशकारी होते हैं । सिलिका की अधिक मात्रा के कारण मैग्मा अत्यधिक अम्लीय व चिपचिपा होता है ।

इसमें प्रत्येक अगला उद्‌गार पिछले उद्‌गार से निर्मित ज्वालामुखी शंकु को प्रायः तोड़ते हुए होता है । उदाहरण के लिए मार्टीनिक द्वीप में माउंट पीली, सुमात्रा व जावा के निकट क्राकाटाओ और फिलीपींस में माउंट ताल । वल्कैनो तुल्य ज्वालामुखी में अम्लीय से लेकर क्षारीय तक प्रत्येक प्रकार के मैग्मा का उद्‌गार होता है ।

गैसों के अत्यधिक निष्कासन के कारण प्रायः ‘फूलगोभी के आकार’ में ज्वालामुखी मेघ दूर तक छा जाते हैं । विसुवियस प्रकार (प्लिनियन प्रकार) के ज्वालामुखी उद्‌गार को भी इसी वर्ग में रखा जाता है । स्ट्राम्बोली तुल्य ज्वालामुखी में अम्ल की मात्रा कुछ कम रहती है तथा यदि गैसों के प्रवाह मार्ग में यदि रुकावट न हो तो सामान्यतः इसमें विस्फोटक उद्‌गार नहीं होते ।

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हवाईयन तुल्य ज्वालामुखी का उद्‌गार अत्यंत शांत होता है, क्योंकि लावा तरल व क्षारीय होता है, जिससे यह दूर तक फैलकर जमा हो जाता है । ज्वालामुखी शंकु कम ऊँचाई का तथा दूर तक फैला हुआ होता है ।

ज्वालामुखी के विस्फोटक उद्‌गार से निर्मित ज्वालामुखी शंकुओं की आकृतियों में पर्याप्त भिन्नता देखी जाती है:

1. सिंडर या राख शंकु (Cinder Cone):

इस प्रकार के शंकु प्रायः कम ऊँचाई के होते हैं तथा इनके निर्माण में मुख्यतः ज्वालामुखी राख व विखंडित पदार्थों का योगदान रहता है । तरल पदार्थों का योगदान प्रायः नहीं होता है । इस तरह के शंकु का ढाल अवतल होता है तथा क्रेटर अधिक चौड़ा रहता है ।

उदाहरण के लिए मैक्सिको में पैराक्युटिन पर्वत एवं जोरल्लो पर्वत, सान-सल्वाडोर में इजाल्को पर्वत, फिलीपींस के लुजोन द्वीप में कैमेग्विन पर्वत, ग्वोटमाला में वल्केनो डि-फ्यूगो पर्वत ।

2. लावा शंकु (Lava Cones):

इस प्रकार के शंकु के निर्माण में अम्लीय से लेकर क्षारीय तक किसी भी प्रकार के तरल मैग्मा के उद्‌गार की भूमिका होती है । लावा शंकु को पुनः अम्लीय या क्षारीय प्रकार में बाँटा जा सकता है ।

i. अम्लीय लावा शंकु (Acidic Lava Cones):

इस प्रकार के शंकु का निर्माण उस समय होता है जब ज्वालामुखी लावा में सिलिका की मात्रा अधिक हो जिससे वह अधिक चिपचिपा व लसदार हो जाता है तथा तीव्र विस्फोटक उद्‌गार के साथ भूपटल के बाहर प्रकट होता है ।

ऐसा ज्वालामुखी शंकु अधिक ऊँचाई व कम क्षेत्रीय विस्तार वाला होता है । इसी वर्ग में पीलियन तुल्य, वल्कैनो तुल्य व स्ट्राम्बोली तुल्य ज्वालामुखियों को रखा जा सकता है ।

ii. क्षारीय या पैठिक लावा शंकु (Alkaline Lava Cones):

जब ज्वालामुखी लावा क्षारीय हो अर्थात् उसमें सिलिका की मात्रा कम हो तो वह हल्का व पतला हो जाता है तथा दूर तक फैलकर ठंडा होता है, जिससे कम ऊँचाई व अधिक क्षेत्रीय विस्तार लिए हुए ज्वालामुखी शंकु का निर्माण होता है ।

हवाईयन प्रकार के ज्वालामुखी को इस वर्ग में रखा जाता है, जैसे- हवाई द्वीप का मोनालोआ ज्वालामुखी । क्षारीय लावा शंकु को ‘शील्ड शंकु’ भी कहा जाता है ।

3. मिश्रित ज्वालामुखी शंकु (Stratovolcano Cones):

जब ज्वालामुखी के केन्द्रीय उद्‌गार से अम्लीय से लेकर क्षारीय हर प्रकार के लावा का उद्‌गार हो तथा साथ ही सिंडर व राख भी ज्वालामुखी उद्‌गार में शामिल हों तो अत्यधिक विस्तृत सुडौल व ऊँचे ज्वालामुखी शंकु का निर्माण हो जाता है ।

इसमें तरल लावा, सिंडर या विखंडित पदार्थों के संयोजक का कार्य करता है । जापान का फ्यूजीयामा, फिलीपींस का मेयान, संयुक्त राज्य अमेरिका का रेनियर, हुड, शस्ता आदि मिश्रित प्रकार के ज्वालामुखियों के उदाहरण हैं ।

4. परिपोषित या आश्रित शंकु (Dependent or Supported Cone):

जब ज्वालामुखी का विस्तार अधिक हो जाता है तो उनकी मुख्य नालिका से कभी-कभी फटन के कारण उप-नालिकाएँ या शाखाएँ निकल जाती हैं । इससे ज्वालामुखी शंकु के ढाल पर एक अन्य ज्वालामुखी शंकु निर्मित हो जाता है । इसे ही परिपोषित शंकु कहा जाता है । सं. रा. अमेरिका में माउंट शस्तिना, माउंट शस्ता का ही एक परिपोषित शंकु है ।

1. सिंडर शंकु,

2. मिश्रित या कम्पोजिट शंकु,

3. परिपोषित शंकु,

4. पैठिक लावा शंकु,

5. एसिड लावा शंकु,

6. ज्वालामुखी प्लग ।

लावा डॉट, ज्वालामुखी ग्रीवा व डायट्रेम:

इस प्रकार के स्थलरूप उस समय निर्मित होते हैं, जब ज्वालामुखी उद्‌गार से निकलने वाला लावा अत्यधिक अम्लीय व सिलिकायुक्त हो, तो इस तरह की स्थिति में लावा की एक कठोर पट्‌टी ज्वालामुखी नालिका एवं विवर (क्रेटर) में जमा हो जाती है । यदि ज्वालामुखी शंकु का विवर ज्वालामुखी लावा से भर जाए तो इसे ‘ज्वालामुखी प्लग’ या ‘लावा डॉट’ कहा जाता है ।

नालिका में जमा हुई लावा पट्‌टी ‘ज्वालामुखी ग्रीवा’ कहलाती है । इन दोनों स्थलों को समेकित रूप को ‘डायट्रेम’ कहा जाता है । संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यू मेक्सिको में ‘शिप रॉक’ डायट्रेम का उदाहरण है, जबकि इसी प्रांत में ‘ब्लैक हिल्स’ व ‘डेविल टावर’ ज्वालामुखी ग्रीवा के उदाहरण हैं । ये सभी स्थल रूप ज्वालामुखी के शांत होने के क्रम में निर्मित होते हैं । ज्वालामुखी के विस्फोटक उद्‌गार से शंकु के ऊपर कीपाकार गर्त, धँसे हुए भाग के उदाहरण हैं ।

ये कई प्रकार के हो सकते हैं:

a. क्रेटर (Crater):

यह ज्वालामुखी शंकु के ऊपर सामान्यतः मिलने वाले कीपाकार गर्तनुमा आकृति है । इसमें यदि जल का भराव हो जाए तो क्रेटर झील बन जाती है, जैसे- महाराष्ट्र के बुलढाना जिले में लोनार झील । कभी-कभी एक मुख्य क्रेटर में कई छोटे-छोटे क्रेटरों का निर्माण हो जाता है ।

ऐसा उस समय होता है जबकि अगला उद्‌गार पिछले उद्‌गार की तुलना में कम तीव्रता का हो । इस तरह के क्रेटर को घोंसलादार क्रेटर (Nested Crater) कहते हैं । उदाहरण के लिए फिलीपींस के माउंट ताल में तीन छोटे क्रेटर मिलते हैं ।

b. काल्डेरा (Caldera):

यह क्रेटर का ही अधिक विस्तृत रूप है । यह क्रेटर में धँसाव अथवा विस्फोटक उद्‌गार से निर्मित स्थलरूप माना जाता है । इनमें से प्रथम मत का प्रतिपादन सं.रा.अमेरिका के भूगर्भिक सर्वेक्षण विभाग ने किया है । उनके अनुसार क्रेटर के धँसाव से उसका आकार बड़ा हो जाता है तथा काल्डेरा निर्मित होते हैं ।

इस संदर्भ में वे जापान के ‘आसो’ क्रेटर, संयुक्त राज्य अमेरिका का ‘क्रेटर लेक’ एवं हवाई द्वीप के काल्डेरा का उदाहरण है । जबकि, डेली महोदय ने धँसाव से निर्मित बड़े क्रेटर को ज्वालामुखी गर्त का नाम दिया है ।

उनके अनुसार जब क्रेटर में पुनः भयंकर विस्फोट होता है तो शंकु के विखंडित पदार्थ दूर-दूर तक फैल जाते हैं तथा क्रेटर का आकार बड़ा हो जाता है, जिसे काल्डेरा कहते हैं । इसीलिए सामान्य रूप से जहाँ ऐसी आकृति मिलती है, वहाँ से सैकड़ों किमी. की दूरी तक उसके विखंडित पदार्थ मिलते हैं । क्राकाटाओ, विसुवियस व अलास्का के कटमई पर्वत क्षेत्र में ऐसा देखा जाता है ।

द्वितीय मत को अधिक समर्थन प्राप्त है । अत्यधिक विस्तृत काल्डेरा को ‘सुपर काल्डेरा’ कहा जाता है । इण्डोनेशिया के सुमात्रा द्वीप के उत्तर-पश्चिम में ‘लेक टोवा’ इसका उदाहरण है ।

1. ज्वालामुखी के दरारी उद्‌भेदन से लावा पठार व लावा मैदान निर्मित होते हैं । इस प्रक्रिया से बैसाल्टिक भाग शान्त रूप से प्रवाहित होकर धरातल के ऊपर मोटी परत के रूप में जमा हो जाता है । इन परतों को लावा पठार या ट्रैप कहते हैं । इसका सबसे अच्छा उदाहरण भारत का ‘दक्कन ट्रैप’ है ।

संयुक्त राज्य अमेरिका का कोलम्बिया-स्नैक पठार, ब्राजील का पराना पठार, दक्षिण अफ्रीका का ड्रैकेन्सबर्ग पठार तथा ग्वाटेमाला का वलकैनो-डि-फ्यूगो इसके कुछ अन्य उदाहरण हैं । धुँआरे व गीजर भी ज्वालामुखी क्रियाओं से ही सम्बंधित हैं ।

2. उष्णोत्स या गीजर (Gyser) गर्म जल के ऐसे स्रोत हैं, जिनसे समय-समय पर गर्म जल की फुहारें निकलती रहती हैं । गर्म जल के झरनों से यह भिन्न है, क्योंकि इसका ज्वालामुखी क्रिया से अनिवार्य सम्बंध होता है । गीजर का सबसे अच्छा उदाहरण संयुक्त राज्य अमेरिका के येलोस्टोन नेशनल पार्क में ओल्ड फेथफुल गीजर व एक्सेल्सियर गीजर है । आइसलैंड का ग्रांड गीजर भी विख्यात है ।

3. धुआँरे (Fumaroles) ज्वालामुखी क्रिया के अंतिम अवस्था के प्रतीक हैं । इनसे गैस व जलवाष्प निकला करते हैं । गंधक युक्त धुआँरों को ‘सोलफतारा’ कहा जाता है ।

अलास्का (संयुक्त राज्य अमेरिका) के कटमई पर्वत को ‘हजारों धुआँरों की घाटी’ (A Valley of ten Thousand Smokes) कहा जाता है । ईरान का कोह सुल्तान धुआँरा तथा न्यूजीलैंड की प्लेन्टी की खाड़ी में स्थित ह्वाइट द्वीप का धुआँरा भी प्रसिद्ध है ।

Essay # 2. ज्वालामुखियों के प्रकार (Types of Volcanoes):

सक्रियता के आधार पर ज्वालामुखियों का निम्न प्रकार से वर्गीकरण किया जाता है:

i. सक्रिय ज्वालामुखी (Active Volcano):

वैसे ज्वालामुखी जिनसे लावा, गैस और विखण्डित पदार्थ सदैव निकला करते हैं । वर्तमान समय में उनकी संख्या लगभग 500 है ।

इनमें सिसली के उत्तर में लिपारी द्वीप का स्ट्राम्बोली (भूमध्यसागर का प्रकाश स्तंभ), इटली का एटना, इक्वेडोर का कोटोपैक्सी (विश्व का सबसे ऊँचा सक्रिय ज्वालामुखी), अंटार्कटिका का एकमात्र सक्रिय ज्वालामुखी माउंट एर्बुश (इरेबस) तथा अंडमान-निकोबार के बैचैन द्वीप में सक्रिय ज्वालामुखी प्रमुख हैं ।

ii. सुषुप्त ज्वालामुखी (Dormant Volcano):

ये वैसे ज्वालामुखी हैं जो वर्षों से सक्रिय नहीं है, परन्तु कभी भी विस्फोट कर सकते हैं । इनमें इटली का विसुवियस, जापान का फ्यूजीयामा, इंडोनेशिया का क्राकाताओ तथा अंडमान-निकोबार के नारकोंडम द्वीप (दिसंबर, 2004 के सुनामी के बाद इसमें सक्रियता के लक्षण दिखाई पड़े हैं) के ज्वालामुखी उल्लेखनीय हैं ।

iii. मृत ज्वालामुखी (Dead or Extinct Volcano):

इसके अंतर्गत वैसे ज्वालामुखी शामिल किए जाते हैं, जिनमें हजारों वर्षों से कोई उद्‌भेदन नहीं हुआ है तथा भविष्य में भी इसकी कोई संभावना नहीं है । अफ्रीका के पूर्वी भाग में स्थित केनिया व किलिमंजारो, इक्वेडोर का चिम्बाराजो, म्यांमार का पोपा, ईरान का देमबन्द व कोह सुल्तान और एंडीज पर्वतश्रेणी का एकांकागुआ इसके प्रमुख उदाहरण हैं ।

Essay # 3. ज्वालामुखी का विश्व वितरण (World Wide Distribution of Volcanoes):

प्लेट विवर्तनिकी के आधार पर ज्वालामुखी क्षेत्रों की व्याख्या वर्तमान में सबसे मान्य संकल्पना है । इसके अनुसार 80% ज्वालामुखी विनाशात्मक प्लेट किनारों पर, 15% रचनात्मक प्लेट किनारों पर तथा शेष प्लेट के आंतरिक भागों में पाए जाते हैं ।

ज्वालामुखियों का मेखलाबद्ध वितरण इस प्रकार है:

1. परिप्रशान्त महासागरीय मेखला (Circum Pacific Belt):

यहाँ विनाशात्मक प्लेट किनारों के सहारे ज्वालामुखी मिलते हैं । विश्व के ज्वालामुखियों का लगभग 2/3 भाग प्रशान्त महासागर के दोनों तटीय भागों, द्वीप चापों एवं समुद्री द्वीपों के सहारे पाया जाता है । इसे ‘प्रशान्त महासागर का अग्निवलय’ (Fire Ring of the Pacific Ocean) कहते हैं ।

यह पेटी अंटार्कटिका के माउन्ट इरेबस (एर्बुश) से शुरू होकर दक्षिण अमेरिका के एंडीज पर्वतमाला व उत्तर अमेरिका के रॉकी पर्वतमाला का अनुसरण करते हुए अलास्का, पूर्वी रूस, जापान, फिलीपींस आदि द्वीपों से होते हुए ‘मध्य महाद्वीपीय पेटी’ में मिल जाती है ।

2. मध्य महाद्वीपीय पेटी (Mid-Continental Belt):

इस मेखला के अधिकांश ज्वालामुखी विनाशात्मक प्लेट किनारों के सहारे मिलते हैं, क्योंकि यहाँ यूरेशियन प्लेट तथा अफ्रीकन व इंडियन प्लेट का अभिसरण होता है । इसकी एक शाखा अफ्रीका की भू-भ्रंश घाटी एवं दूसरी शाखा स्पेन व इटली होते हुए काकेशस व हिमालय की ओर आगे बढ़ते हुए दक्षिण की ओर मुड़कर प्रशांत महासागरीय पेटी से मिल जाती है ।

यह मेखला मुख्य रूप से अल्पाइन-हिमालय पर्वत शृंखला के साथ चलती है । भूमध्यसागर के ज्वालामुखी भी इसी पेटी के अंतर्गत आते हैं । स्ट्रॉम्बोली, विसुवियस व एटना भूमध्यसागर के प्रसिद्ध ज्वालामुखी हैं । इसी पेटी में ईरान का देमबन्द, कोह सुल्तान, आर्मेनिया का अरारात ज्वालामुखी भी शामिल हैं ।

यूरोप के अधिकांश ज्वालामुखी इस पेटी में मीडियन मास एवं अफ्रीका के ज्वालामुखी भू-भ्रंश घाटियों के सहारे मिलते हैं । पश्चिम अफ्रीका का एकमात्र जागृत ज्वालामुखी कैमरून पर्वत है ।

iii. मध्य अटलांटिक मेखला या मध्य महासागरीय कटक (Mid-Ocean Ridge):

ये रचनात्मक प्लेट किनारों के सहारे मिलते हैं, जहाँ-जहाँ पर दो प्लेटों के अपसरण के कारण भ्रंश का निर्माण होता है तथा क्रस्ट के नीचे एस्थेनोस्फेयर से पेरिडोटाइट तथा बैसाल्टिक मैग्मा ऊपर उठते हैं । इनके शीतलन से नवीन क्रस्ट का निर्माण होता रहता है ।

कटक के पास नवीनतम लावा होता है तथा कटक से बढ़ती दूरी के साथ लावा भी प्राचीन होता जाता है । हेकला व लॉकी इस प्रदेश में आइसलैंड के प्रमुख ज्वालामुखी है । एंटलीज दक्षिणी अटलांटिक महासागर के एवं एजोर्स व सेंट हेलेना उत्तरी अटलांटिक महासागर के प्रमुख ज्वालामुखी है ।

iv. अंतरा-प्लेटीय ज्वालामुखी:

महासागरीय या महाद्वीपीय प्लेट के आंतरिक भागों में भी ज्वालामुखी क्रियाएँ देखी गई हैं, जिन्हें माइक्रो प्लेट गतिविधि एवं गर्म स्थल (Hot Plums) की संकल्पना द्वारा समझा जा सकता है । प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत द्वारा इनका स्पष्टीकरण अभी तक नहीं हो सका है ।

हवाई द्वीप से लेकर कमचटका तक के ज्वालामुखी, पूर्वी अफ्रीका के भू-भ्रंश घाटी के ज्वालामुखी एवं ज्वालामुखी के दरारी उद्‌भेदन से बने कोलम्बिया-स्नैक पठार, पराना पठार, दक्कन ट्रैप व ड्रैकेन्सबर्ग पठार अंतरा-प्लेटीय ज्वालामुखी क्रियाओं के अंतर्गत शामिल किए जा सकते हैं ।

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