भारत में बेरोजगारी पर निबंध | Essay on Unemployment in India in Hindi!

Essay # 1. भारत में बेरोजगारी (Introduction to Unemployment in India):

भारत में बेरोजगारी की प्रवृतियों को शहरी एवं ग्रामीण बेरोजगारी के अधीन वर्गीकृत किया जा सकता है:

शहरी बेकारी (Urban Unemployment):

भारत में शहरी बेकारी एक कठिन सामाजिक व आर्थिक समस्या बन कर उभर रही है । इसके बारे में विमत सांख्यिकीय जानकारी का अभाव है । भारत में शहरी बेकारी के अनुमान योजना आयोग, श्रम एवं रोजगार मन्त्रालय, केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन व कुछ वैयक्तिक अध्ययनों में लगाए गए है ।

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आ० सी० भारद्वाज के अनुसार भारत में शहरी बेकारी के अनुमान निम्न तालिका 39.1 द्वारा प्रदर्शित हैं:

भारत में शहरी बेकारी वास्तव में भूमि पर जनसंख्या के दबाव तथा ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के समुचित साधनों के अभाव से उत्पन्न हुई है । ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में प्रवास बढा लेकिन इससे शहरी क्षेत्रों में रोजगार के बढ़ने की प्रवृति सूचित नहीं होती बल्कि यह लक्षण दिखाई देता है कि ग्रामों में अवसरों का अभाव है तथा वहाँ व्यापक रूप से निर्धनता व्याप्त है ।

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भारत में शहरी बेकारी का एक प्रमुख लक्षण यह है कि अशिक्षित व्यक्तियों के सापेक्ष शिक्षित व्यक्तियों में बेकारी अधिक है इसका एक कारण यह भी है कि सेवा क्षेत्र में उस अनुपात में वृद्धि नहीं हो पाती जिस तेजी से शहरी क्षेत्र में जनसंख्या शिक्षित बनती फलस्वरूप शैक्षिक बेकारी तेजी से बढ़ी है (तालिका 39.2)

जनसंख्या में 1983 से 1993-94 की अवधि में 2%, 1993-94 से 1999 तक 1.98% तथा 1999 से 2004-05 की अवधि में 1.69% की वृद्धि हुई । इन्हीं समय अवधियों में श्रम शक्ति 2.28%, 1.47% व 2.84% वार्षिक की दर से बढ़ी । कार्यशक्ति में होने वाली वृद्धि का प्रतिशत क्रमश: 2.61, 1.25 व 2.62 प्रतिशत रहा । श्रम शक्ति एवं कार्यशक्ति सहभागिता दरों की तुलना तालिका 39.3 से प्रदर्शित है ।

ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के मसविदे में रोजगार पक्ष से सम्बन्धित निम्नांकित विशिष्ट दुर्बलताएँ देखी गई:

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1. बेरोजगारी की दर 1993-94 में 6.1% थी जो 1999-2000 में बढ़कर 7.3% तथा 2004-05 में 8.3% हो गई ।

 

2. कृषि श्रमिक परिवारों में बेरोजगारी 1993-94 में 9.5% थी जो 2004-05 में बढकर 15.3% हो गई थी । 1999-2000 से 2004-05 की अवधि में गैर कृषि रोजगार का विस्तार 4.7% वार्षिक से हुआ जो मुख्यतः असंगठित में देखा गया ।

3. सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि की के बावजूद संगठित क्षेत्र में रोजगार वास्तव में गिरा जिससे रोजगार की आकाश रखने वाले पढे लिखे नवयुवकों की आशाओं पर तुषारापात हुआ ।

4. यद्यपि कृषि क्षेत्र में आकस्मिक श्रमिक की वास्तविक मजदूरी बड़ी परन्तु वर्ष 2000-2005 की अवधि में कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर 1994-94 के सापेक्ष गिर गई । अपेक्षाकृत दीर्घ समय अवधियों यथा 1983 से 1993-94 (पहली समय अवधि) तथा 1993-94 से 2004-05 (दूसरी समय अवधि) में ग्रामीण पुरुष कृषि आकस्मिक श्रमिकों हेतु यह ह्रास 2.75% से 2.18% वार्षिक रहा ।

5. 1999-2000 से 2004-05 की समय अवधि में गैर कृषि श्रमिकों की औसत वास्तविक मजदूरी दरों की वृद्धि नगण्य ही रही । पहली एवं दूसरी समय अवधि के दो दशकों में मजदूरी सतत् रूप से 2% वार्षिक की दर से बढती रही ।

6. संगठित उद्योग के श्रमिकों में वास्तविक मजदूरी जहाँ स्थिर रहीं या गिरीं वहीं प्रबंधकीय व तकनीकी स्टाफ के वेतन में काफी अधिक वृद्धि देखी गई ।

7. संगठित औद्योगिक क्षेत्र में मजदूरी का अंश 1980 के दशक से ही कम होता रहा तथा वर्तमान समय में यह विश्व के सापेक्ष न्यूनतम है ।

1983-1994 के सापेक्ष 1994-2005 में संगठित रोजगार की वृद्धि निजी क्षेत्र में बढ़ने की प्रवृत्ति प्रदर्शित कर रही थी वहीं सार्वजनिक क्षेत्र व कुल संगठित क्षेत्र में यह सापेक्षिक रूप से गिर गया ।

ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के मसविदे में योजना अवधि में श्रम शक्ति में 52 मिलियन की वृद्धि तथा रोजगार अवसरों में 70 मिलियन के सृजन का लक्ष्य रखा गया । जनसंख्या, श्रम शक्ति व रोजगार प्रक्षेपण के देश: तालिका 39.4 द्वारा प्रदर्शित है ।

1993-94 से 2000-05 की अवधि में कृषि ने जहाँ 8.8 मिलियन रोजगार अवसर प्रदान किया वहीं यह प्रक्षेपित किया गया कि ग्यारहवीं योजना में इस क्षेत्र द्वारा कोई सार्थक योगदान न होगा । ग्रामीण बेकारी के अधीन प्रच्छन्न बेकारी, अर्द्धरोजगार व निम्न उत्पादकता रोजगार की मुख्य समस्याएँ ।

विद्यमान होती हैं जिसे दूर करने के लिए ग्रामीण विकास के वृहत कार्यक्रम तथा ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि बगैर कृषि क्रियाओं में विज्ञान व तकनीक के प्रयोग को बढ़ावा देना मुख्य प्राथमिकता बन जाती है ।

ग्रामीण क्षेत्रों में विकास के लिए मुख्यतः निम्न उपायों को अपनाया जाना आवश्यक है:

(1) ऐसी विनिर्माण परियोजनाएं क्षेत्रीय स्तर पर चलाई जाएँ जो कृषि उत्पादन में वृद्धि करने में सहायक ही; जैसे-लघु सिंचाई, भण्डारण सुविधाएँ, रास्तों का निर्माण इत्यादि ।

(2) भूमि सुधार कार्यक्रमों को लागू करना ।

(3) कृषि की श्रम गहन विधियों को प्राथमिकता, मध्यवर्ती तकनीक को प्रोत्साहन एवं कृषि उत्पादन का विविधीकरण किया जाये ।

(4) वानिकी व मतस्य पालन, भेड़ पालन, मौन पालन, रेशम कीट, उन्नत फल आधारित लघु उद्योगों का विकास किया जाना ।

(5) ग्रामीण सामाजिक सेवाओं; जैसे-शिक्षा, आवास व स्वास्थ्य सेवाओं का विकास ।

(6) दस्तकारी का विकास ।

एन॰ एस॰ एस॰ के 60वें राउण्ड के निष्कर्ष बताते है कि 1993-94 व 2004 के मध्य ग्रामीण पुरुषों में बेकारी की दर 5.6 से 9 प्रतिशत व ग्रामीण स्त्रियों में 5.6 से 9.3 हो गई । इसी समय अवधि में शहरी पुरुषों में 6.7 से 8.1 व शहरी स्त्रियों में 10.5 से बढ़ 11.7 प्रतिशत हो गयी । इस अवधि में अनियत श्रम का अनुपात भी 338 से बढकर 362 प्रति हजार हुआ ।

2001 के जनसंख्या समंकों के अनुसार कुल बेकार जहाँ 1991 में 1.38 करोड़ थे वहीं 2001 में इनकी संख्या 4.45 करोड़ हो गयी । शहरी क्षेत्र में बेकारी की दर (श्रम शक्ति के साथ बेरोजगारी के अनुपात के रूप में एन० एस० एस० के 27वें राउण्ड (1972-73) में 9.0, 38वें राउण्ड (1983) में 9.5, 50वें राउण्ड (1993-94) में 7.4 व 55वें राउण्ड (1999-2000) में 7.1 रही ।

शहरी क्षेत्र की बेकारी औद्योगिक एवं शिक्षित बेरोजगारी के अधीन देखी जाती है । 1965 से 1980 के मध्य औद्योगिक गतिहीनता विद्यमान थी । 1990 के पूर्वार्द्ध से औद्योगिक वृद्धि दर तो बड़ी परन्तु विकास की रणनीति ऐसी थी कि रोजगार के अवसरों में वृद्धि नहीं हो पाई ।

1993 से 1988 के मध्य रोजगार लोच 0.59 थी जो 1993 से 2000 के मध्य कम होकर 0.33 रह गई थी । दूसरी ओर 2001 के जनगणना समंकों के अनुसार जहाँ देश में बेकारी की दर 10.1 प्रतिशत थी वहीं 17.2 प्रतिशत स्नातक बेकार थे । साथ ही 40 प्रतिशत स्नातक उत्पादक रोजगार प्राप्त नहीं कर पाए थे । गैर तकनीकी स्नातकों में 39 प्रतिशत व तकनीकी स्नातकों में 33 प्रतिशत बेकारी विद्यमान थी ।

Essay # 2. रोजगार अवसरों में सुधार की व्यूह नीति (Strategy for Improving Employment Opportunities):

भारत में बेरोजगारी की समस्या वास्तव में निम्न घटकों से सम्बन्धित रही है:

(1) जनसंख्या में होने वाली तीव्र वृद्धि व श्रम शक्ति में वृद्धि

(2) अनुपयुक्त तकनीक का प्रयोग-साधनों की कीमतों में दिखायी देने वाली वक्रता

(3) अनुपयुक्त शिक्षा प्रणाली एवं कार्य के प्रति संकुचित दृष्टिकोण

अतः बेरोजगारी को दूर करने हेतु आवश्यक होगा कि:

(1) जनसंख्या को नियन्त्रित किया जाये ।

(2) साधन कीमत वक्रताओं का निराकरण:

देश में रोजगार वृद्धि के बेहतर व कारगर तकनीक का चुनाव एवं क्रियान्वयन आवश्यक है जिसके लिए साधनों के बाजार बनाम छायांकित मूल्यों का सावधानों से विश्लेषण करना होगा । भारत जैसे देश में श्रम बहुलता व पूंजी की दुर्लभता विद्यमान है । इसके साथ ही साथ साधन की मत की वक्रताओं के कारण पूंजी गहन तकनीकों का चुनाव सम्भव बन नहीं पाता ।

आर्थिक कुशलता प्राप्त करने के लिए ऐसी तकनीक का चुनाव किया जाना चाहिए जिनमें श्रम उत्पादन अनुपात अधिक व पूंजी उत्पादन अनुपात कम हो अन्यथा रोजगार सृजन का उद्देश्य आय सृजन या आर्थिक वृद्धि के उद्देश्य से विवाद उत्पन्न होगा ।

आर्थिक कुशलता के मापदण्ड को प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण चर प्रतिस्पर्द्धा बाजार में साधन एवं उत्पाद कीमतें है । आर्थर लेविस के अनुसार रोजगार वृद्धि के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए बेरोजगारी की सामाजिक लागतों तथा कार्य के अवसर प्रदान करने के सामाजिक लक्ष्यों को भी ध्यान में रखना होगा जिससे उत्पादन की समुचित विधियों का निर्धारण किया जा सके ।

गांधीवादी विचारक उत्पादन की उच्च श्रम गहन तकनीकों को रोजगार के सृजन हेतु उचित मानते हैं । वास्तव में तकनीक के चुनाव की समस्या जटिल है तथा अधिक रोजगार व अधिक उत्पादन के लक्ष्यों के मध्य उचित सन्तुलन अपेक्षा करती है ।

(3) शिक्षा प्रणाली में सुधार:

प्रो॰ गुन्नार मिर्डल के अनुसार भारत की शिक्षा प्रणाली इस प्रकार की रही जिससे दुर्लभ शैक्षिक स्रोतों का व्यर्थ उपयोग हुआ । शिक्षा प्रणाली में सुधार इस प्रकार किया जाना चाहिए कि इससे देश की कौशल संरचना एवं मानव शक्ति आवश्यकताओं के मध्य एक उचित सन्तुलन बना रहे तथा यह उत्पादक रोजगार प्रदान करने में सफल बने ।

शिक्षा प्रणाली का सुधार उन आधारभूत मूल्यों की स्थापना से सम्बन्धित है जिसमें एक कामगार अपने कार्य के द्वारा सम्मानित हो तथा समाज की आवश्यकताओं के अनुकूल उसका योगदान उसे सामाजिक प्रतिष्ठा प्रदान करें । आदर्श रूप में शिक्षा के द्वारा प्रेरणा, प्रोत्साहन, स्वावलम्बन व सृजनात्मकता में अभिवृद्धि होनी चाहिए ।

बेरोजगारी की समस्या को दूर करने के लिए रोजगार नीति के अधीन मुख्यतः निम्न पक्षों को ध्यान में रखा जाना चाहिए:

(i) औद्योगिक विकास एवं रोजगार:

अधिकांश विकासशील देश औद्योगीकरण द्वारा बेकारी की समस्या को दूर करने में सफल नहीं बन पाए है न तो रोजगार अवसर बढ पाए और न ही औद्योगिक विनियोग में सुधार, प्रेरणाओं में वृद्धि व औद्योगिक वातावरण का निर्माण हो पाया है ।

इसका कारण यह है कि विकासशील देशों में औद्योगिक क्षेत्र सापेक्षिक रूप से अल्प होता है जिसमें रोजगार के अधिक अवसर बढाए नहीं जा सकते । ऐसे में ग्रामीण व शहरी बेकारी के अल्प भाग को ही अवशोषित किया जाना सम्भव होता है । अतः ऐसी रोजगार नीतियों को अपनाया जाना आवश्यक होता है जो रोजगार सम्भावनाओं का विकास कर सकें ।

विकासशील देशों के द्वारा पूंजी गहन भारी औद्योगिक आधार को चुना गया तथा उन्होंने अपने राष्ट्रीय उद्योगों को बाह्य प्रतिस्पर्द्धा से बचाने के लिए आयतों पर संरक्षण भी लगाया जिससे यह कीमतों को एक उच्च स्तर पर बनाए रख सकें तथा अधिक लाभ भी कमाएँ ।

विकासशील देशों का यह विश्वास था कि इन तकनीकों से औद्योगिक वृद्धि की दर बढेगी जिससे आय व उत्पादन का स्तर भी बढेगा व रोजगार की अधिक सम्भावनाएँ भी उत्पन्न होंगी । इसके साथ ही समस्त श्रम गहन विनिर्माण उद्योग इनसे संयोजित रहेंगे ।

रोजगार सृजन की तात्कालिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विकासशील देशों में लघु स्तरीय व कुटीर उद्योगों में सुधार व विस्तार को महत्ता दी गई तथा ग्रामीण कार्यक्रमों के द्वारा रोजगार सृजन हेतु विशेष स्कीमें लागू की गई ।

लघु व कुटीर उद्योगों के प्रोत्साहन हेतु इन्हें कम कीमतों पर कच्चा माल व मशीनरी उपलब्ध कराई गयी व इसके साथ ही उदार नीति, दीर्घकालीन ऋण अनुदान सहायता प्रदान की गई ।

लघु व कुटीर उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं के लिए सरकारी क्रय, उद्यमिता व नवप्रवर्तन विकास हेतु प्रशिक्षण व लघु उद्योग उपक्रमों को स्थापित करने के लिए समस्त सुविधाएँ एक ही स्थल पर उपलब्ध कराने के प्रयास किए गए ।

विकासशील देशों में कृषि क्षेत्र पर जनसंख्या का दबाव अधिक होने से धारक क्षमता कम हो जाती है इसलिए कृषि क्षेत्र में जनसंख्या का दबाव कम किया जाना आवश्यक है । सेवा क्षेत्र में कार्यरत व्यक्तियों की संख्या भी काफी अधिक होती है ।

अतः कृषि के भार को औद्योगिक क्षेत्र की ओर स्थानान्तरित किया जाना चाहिए । औद्योगिक क्षेत्र द्वारा अधिक रोजगार के अवसर सृजित करने के लिए (1) विद्यमान क्षमता का अधिक उपयोग, (2) श्रम गहन उत्पादन तकनीक को महत्व, (3) उत्पादन संरचना में परिवर्तन आवश्यक है ।

विकासशील देशों में बेहतर व कारगर तकनीक के द्वारा बेरोजगारी दूर करने की प्रस्तावना रखते हुए प्रो॰ शूमाखर ने अपनी पुस्तक Small is Beautiful में मध्यवर्ती तकनीक को अपनाये जाने की अनुशंसा की ।

(ii) कृषि विकास एवं रोजगार:

अधिकांश विकासशील देशों में श्रम शक्ति का 60 प्रतिशत से अधिक भाग कृषि क्षेत्र में जीवन यापन करता है लेकिन कृषि क्षेत्र के विकास को अधिक प्राथमिकता नहीं दी जाती जिससे इनका विकास अवरुद्ध हो जाता है, साथ ही कृषि क्षेत्र में ग्रामीण बेकारी व अर्द्धरोजगार की प्रवृतियाँ दिखायी दी हैं । इन समस्याओं के निराकरण हेतु कृषि क्षेत्र का विस्तार भूमि सुधार व अन्य संस्थागत सुधार आवश्यक है ।

(iii) सार्वजनिक निर्माण कार्यों के मरा रोजगार सृजन:

विनिर्माण एवं सार्वजनिक कार्यों के द्वारा रोजगार सृजन की अधिक सम्भावना दिखाई देती है, क्योंकि (a) इन कार्यक्रमों की प्रवृति श्रम गहन होती है, (b) यह रोजगार सुविधाओं में बुद्धि करते हैं, (c) इन्हें अधिक तैयारी के बिना लागू किया जा सकता है, (d) विनिर्माण व सार्वजनिक निमार्ण कार्यक्रमों की आवश्यकता विकासशील देशों के ग्रामीण व शहरी इलाकों में लगातार बनी रहती है ।

विकासशील देशों के पास भौतिक व वित्तीय संसाधनों की कमी होती है तथा औद्योगीकरण हेतु संसाधनों का दबाव बना रहता है अत: उन्हें सार्वजनिक निर्माण कार्यों में ऐसी परियोजनाओं पर अधिक ध्यान देना चाहिए जो स्वत: वित्त प्रदान करने की क्षमता रखें साथ ही यह कम लागत पर संचालित की जा सके ।

(iv) सेवा क्षेत्र में रोजगार:

विकासशील देशों में जनसंख्या का काफी अधिक भाग परम्परागत एवं असंगठित क्षेत्र की सेवाओं; जैसे- जूता पालिश, रिक्शा खींचना, अखबार बेचना, घरेलू नौकर, दरबान, होटलों में कार्य कर इत्यादि में संलग्न रहते हैं । ग्रामीण क्षेत्रों से नगरों व महानगरों में प्रवास होने पर परम्परागत व असंगठित क्षेत्र की सेवाओं का विस्तार होता है ।

आर्थिक विकास की प्रक्रिया के तीव्र होने पर सेवा क्षेत्र में रोजगार की प्रकृति में बदलाव आने लगता है तथा माँग निर्धारित या आधुनिक सेवाएँ तेजी से बढ़ती है इनमें सार्वजनिक प्रशासन, वाणिज्य एवं वित्त, यातायात संवादवहन, शिक्षा व पर्यटन मुख्य हैं ।

Essay # 3. भारत में रोजगार नीति (Employment Policy in India):

भारत में बेरोजगारी की समस्या के पीछे निम्न आधारभूत कारक विद्यमान रहे हैं:

(i) संरचनात्मक असन्तुलन की उपस्थिति जहाँ व्यापक बेरोजगारी का समुचित निदान सम्भव नहीं बन पाता ।

(ii) नियोजन में वक्रताओं की उपस्थिती रही । भारतीय नियोजन में पूंजी गहन औद्योगीकरण पर दूसरी योजना से अधिक प्राथमिकता दी गई । समय अवधि अन्तराल अधिक होने के कारण किए गए विनियोग से उत्पादन शीघ्र प्राप्त नहीं हो पाया बल्कि मुद्रा प्रसारिक प्रवृतियाँ विद्यमान रहीं ।

(iii) दुर्बल रोजगार नियोजन:

भारतीय योजनाओं में रोजगार नियोजन का अभाव दिखाई देता है, क्योंकि कृषि क्षेत्र के विकास प्रयास सन्तुलित रणनीति के अभाव में व्यापक प्रभाव उत्पन्न नहीं कर पाए । हरित क्रान्ति देश के उत्तरी पश्चिमी भाग पर अधिक प्रभावशाली रही । भूमि सुधार कार्यक्रम इस दृष्टि से प्रभावहीन रहे, क्योंकि इन्होंने भूमिहीन श्रमिकों की समस्या को नहीं सुलझाया ।

(iv) विषमताओं में वृद्धि:

ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों के मध्य, देश के विभिन्न भागों के मध्य के और साथ ही विभिन्न सामाजिक वर्गों, मजदूरी करने वालों तथा सम्पत्ति मालिकों, संगठित व गैर संगठित क्षेत्रों में कार्य करने वाले मजदूरों, पुरुष एवं महिलाओं के मध्य भी विषमता में वृद्धि हुई ।

(v) रोजगार में कमी:

समग्र रोजगार में श्रमिक शक्ति की अपेक्षा धीमी दर से वृद्धि हुई । देश के कुछ प्रदेशों में बेरोजगारी तथा अल्प बेरोजगारी तेजी से बड़ी है । ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में बडी संख्या में या तो श्रमिक न्यूनतम मजदूरी विधान के अन्तर्गत आते ही नहीं या फिर उन्हें व्यवहार में कानूनी रूप से निर्धारित मजदूरी प्राप्त नहीं होती । ऐसे श्रमिक श्रम संघों तथा स्थानीय प्राधिकरणों के प्रभावी संरक्षण में नहीं आ पाये हैं ।

(vi) परम्परागत शिल्पों व लघु उद्योगों में रोजगार का ह्रास:

परम्परागत शिल्प व उद्योगों में रोजगार का उत्तरोत्तर ह्रास हुआ है जो लाखों कामगारों के लिए जीवन निर्वाह के साधन व निर्यातों के महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में रह रहे है, यह तथ्य है कि सरकार की नीतियों, उनके विकास को बढ़ावा देने में असफल रही है ।

(vii) उद्योगों की असफलता:

विनियोग के अनुरूप अतिरिक्त रोजगार प्रदान करने में उत्पादन की वृद्धि के बावजूद संगठित उद्योगों द्वारा इसमें असफल रहना, उद्योग की रुग्णता से हजारों अवसरों की हानि तथा अधिक पूंजी प्रधान तकनीकों (उदाहरणार्थ वस्त्र) द्वारा उत्पादन की परम्परागत श्रम-प्रधान लाइनों में हस्तक्षेप के कारण रोजगार अवसरों में कमी ।

(viii) जनवृद्धि:

जनसंख्या वृद्धि दर में प्रत्यक्ष कमी प्राप्त करने में विफलता तथा जनांकिकीय दबावों को नियन्त्रित करने की वर्तमान कार्य नीतियों की अपर्याप्तता ।

Essay # 4. पंचवर्षीय योजनाओं में रोजगार वृद्धि (Five Year Plans Adopted for Increase in Employment):

 

विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में बेरोजगारी के निवारण हेतु अपनायी गयी नीति निम्नांकित रही:

(i) पहली पंचवर्षीय योजना में रोजगार वृद्धि से सम्बन्धित 11 सूत्री कार्यक्रम को ध्यान में रखा गया, श्रम प्रधान कुटीर उद्योग, सड़क, परिवहन व सिंचाई परियोजनाओं को प्राथमिकता दी गई ।

(ii) द्वितीय योजना के विकास मॉडल में श्रम शक्ति के अधिकतम उपयोग का सैद्धान्तिक पक्ष मुख्य रूप से ध्यान में रखा गया । भारी व आधारभूत उद्योगों के विकास के साथ लघु व ग्रामीण उद्योगों के विस्तार को महत्व दिया गया ।

(iii) तृतीय योजना में रोजगार के अवसरों में वृद्धि हेतु ग्रामीण विद्युतीकरण, ग्रामीण विनिर्माण कार्यों, जिला स्तर पर बेकारी दूर करने की योजना व बेरोजगारी से पीड़ित विशिष्ट इलाकों में विशेष कार्यक्रम चलाए जाने को प्राथमिकता दी गई ।

(iv) चतुर्थ योजना में श्रम-प्रधान परियोजनाओं को प्राथमिकता दी गयी तथा यह अनुभव किया गया कि ऐसे कार्यक्रमों के लिए भौतिक पूंजी के अतिरिक्त मानवीय पूंजी एवं कौशल निर्माण में भी भारी विनियोग करना आवश्यक होगा ।

(v) पाँचवीं योजना में निर्धनता को उन्मूलन मुख्य लक्ष्य था । निर्धनता का मुख्य कारण भूमि सम्पत्ति के विषम वितरण एवं लाभप्रद रोजगार के अवसरों की कमी बतलाया गया । श्रम प्रधान परियोजनाओं के चुनाव, स्वरोजगार के अवसर उत्पन्न करने सम्बन्धी योजनाओं को विशेष महत्व दिया गया ।

कृषि क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढाने के लिए कृषि आदाओं की पूर्ति में वृद्धि तथा इन्हें निर्धन व सीमान्त किसानों तक पहुँचाने पर विशेष जोर दिया गया । गैर कृषि क्षेत्र में रोजगार अवसरों की वृद्धि हेतु विकास केन्द्रों के विस्तार की योजना सामने रखी गई ।

(vi) छठी योजना में अल्प रोजगार की समस्या व दीर्घकालिक बेरोजगारी दूर करने के उपायों को प्राथमिकता दी गई । इस उद्देश्य हेतु रोजगार उन्मुख तीव्र आर्थिक वृद्धि की आवश्यकता का अनुभव किया गया ।

छठी योजना में रोजगार के कुछ विशिष्ट कार्यक्रम प्रारम्भ किए गए जिनमें एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम IRDP राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम NREP ग्रामीण युवकों को स्वतेजगार हेतु प्रशिक्षण कार्यक्रम मुख्य थे ।

(vii) सातवीं योजना में उत्पादक रोजगार प्रदान करने के लिए विनियोग व उत्पादन की उपयुक्त संरचना को विकसित करने तथा समुचित तकनीक व संगठनात्मक आधार को निर्मित करने को प्राथमिकता दी गई ।

कृषि क्षेत्र को समुचित महत्व देते हुए ग्रामीण विकास कार्यक्रम के क्रियान्वयन व स्वरोजगार हेतु प्रशिक्षण, बाजार सुविधा, साख सुविधा व संगठन को सुदृढ़ बनाना आवश्यक समझा गया ।

इस योजना की विशेषता यह रही कि इसमें रोजगार कार्यक्रमों को अन्य कार्यक्रमों के प्रतिफल की भाँति न लेकर केन्द्रीय नीति का रूप लिया गया ।

(viii) आठवीं योजना में रोजगार पर प्रमुख रूप से बल दिया गया है । इस योजना के दौरान उचित विकास कार्यक्रमों से प्रत्येक नागरिक को काम करने के अधिकार की गारण्टी के प्रति वचनबद्धता को कार्यरूप प्रदान करने का प्रयास किया जाएगा ।

शहरी गरीबी और बेरोजगारी के सन्दर्भ में आठवीं योजना के प्रारूप में निम्नांकित बिन्दुओं को प्राथमिकता दी गयी है:

(1) शहरी क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों के सापेक्ष गरीबी व बेकारी का परिणाम कम मालूम पड़ सकता है लेकिन शहरों में गन्दी बस्तियाँ, झुग्गी झोंपड़ी व सड़क किनारे रहने वाली की समस्या व यह तथ्य कि शहर में बेरोजगारों का बड़ा भाग शिक्षित है, विशिष्ट प्रकार की समस्या को उत्पन्न करता है । रोजगार, आय व जीवन-स्तर के सन्दर्भ में संगठित व असंगठित क्षेत्रों में काफी अन्तर है जिनसे सामाजिक व आर्थिक तनाव उत्पन्न हुए है ।

(2) गाँवों एवं शहरों के मध्य द्वैतता बढ़ रही है, गाँवों से शहरों की ओर रोजगार के अवसर खोजने के लिए प्रवास बढ़ रहा है । शहरों में जनसंख्या का दबाव अधिक होने से अधारभूत सेवाओं के स्तर में कमी आ रही है, ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि ग्रामीण क्षेत्रों से बड़े शहरों में बेरोजगारों के आगमन को रोका जाये ।

इसके लिए एक उपाय है कि पूरे देश में छोटे व मध्यम कस्बों का विकास किया जाये तथा इन्हें निकटस्थ कस्बों से जोड़ा जाये । ऐसे सैकड़ों कस्बे, दशकों की उपेक्षा के कारण विघटित हो रहे है ।

इन कस्बों में विनियोग, समुन्नत बाजार सुविधाएँ, परिवहन, मरम्मत एवं तकनीकी सेवाएँ व सम्बन्धित प्रशिक्षण क्रियाकलाप व बुनियादी न्यूनतम शहरी सेवाएं, जैसे-सफाई व्यवस्था, मल निकासी, पेयजल तथा आवास के लिए व्यापक कार्यक्रम अत्यधिक आवश्यकता का विषय बन गया है । कस्बों के विकास से बड़े शहरों पर दबाव कम करने व अधिक आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने में सहायता मिलेगी ।

(3) निर्धन वर्गों, महिलाओं और लाभ वंचित वर्गों की आवश्यकताओं पर विशेष ध्यान देते हुए विभिन्न आय वर्गों की आवास आवश्यकताओं को प्राथमिकता देनी होगी ।

(4) शहरी निर्धन वर्ग के लिए रोजगार के अवसरों को सृजित करने सम्बन्धी चुनौती भी मुख्य है ।

इस उद्देश्य हेतु निम्न बिन्दुओं पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए:

(अ) मध्यम व कस्बों को एकीकृत विकास के लिए सक्षम नियोजन तकनीकी व प्रबन्ध समर्थित सेवाओं की आवश्यकता है ।

(आ) मध्यम आय परिवारों की सेवाएँ उपलब्ध कराने वाली रोजगार सृजन योजनाएँ ऐसी होनी चाहिएं जो विनियोग के बदले कुछ आय उत्पन्न करें ।

(इ) ऐसी गतिविधियों पर ध्यान दिया जाये जो ग्रामीण उत्पादों के लिए बाजार उपलब्ध कराएँ, स्थानीय ग्रामीण हाट व मण्डियों को अधिक आकर्षक बनाया जाये ।

(ई) रैन बसेरों सहित कम लागत वाले आवास तथा स्वच्छता के कार्यक्रम चलाए जाएँ ।

(उ) मैला ढोने, स्वच्छता तथा अपरिहार्य नगर सेवाओं में सुधार शहरी रोजगार सृजन कार्यक्रम के अभिन्न अंग होने चाहिएं ।

उपर्युक्त कार्यसूची को लागू करने हेतु आवश्यक होगा कि:

(1) नगर निकायों का विद्यमान संस्थागत ढाँचा इस प्रकार से तैयार किया जाये कि वह नियन्त्रण रख सके । नियोजन के ‘प्रतिबन्धित’ दृष्टिकोण के स्थान पर “सुविधाजनक” नियोजन के द्वारा विकास सुनिश्चित किया जाये ।

यह देखा गया है कि प्रतिबन्धित नियोजन से सृजन एवं कार्य का नवीन दृष्टिकोण हतोत्साहित होता है अटकलबाजी को प्रोत्साहन मिलता है तथा विलम्ब उत्पन्न होता है ।

यह प्रयास किया जाना चाहिए कि जनता की प्रभावपूर्ण सहभागिता द्वारा अनेक नागरिक कार्यों को समुचित क्रियान्वित किया जाये जिससे विलम्ब, भ्रष्टाचार और अलगाव की भावना न्यून हो सके ।

(2) शहरी स्वरोजगार में लगे व्यक्तियों द्वारा अपनाई जा रही उत्पादन तकनीकों को अधिक उन्नत बनाने, उनके कार्य क्षेत्र को व्यापक करने उन्हें ऋण तथा बाजार माध्यमों तक सुविधा से पहुँचाने के लिए सगठित करने पर विशेष ध्यान दिया जाना होगा ।

(3) बडे महानगरों के विस्तार को बढ़ावा न देना तथा छोटे व मध्यम कस्बों के विकास के लिए सुविधाएं प्रदान करनी होंगी । इससे महानगरों पर श्रम शक्ति के दबाव को कम करने में तथा विकेन्द्रित शहरीकरण व ग्रामीण शहरी सम्बन्धों को एक स्वस्थ्य स्वरूप प्रदान करने का दोहरा उद्देश्य सिद्ध होगा ।

यद्यपि आठवीं योजना में रोजगार सृजन एक मुख्य उद्देश्य था, यह निर्दिष्ट किया गया था कि इस अवधि में 5 करोड 80 लाख नवीन रोजगार अवसरों का सृजन होगा अर्थात् रोजगार वृद्धि की दर 4 प्रतिशत वार्षिक होगी परन्तु 1983 से 1999-2000 की अवधि में सभी क्षेत्रों कृषि, खनन, विनिर्माण, निर्माण, बिजली, गैस व जल आपूर्ति, व्यापार, होटल व रेस्टोरेंट, परिवहन भण्डारण एवं संचार, वित्तीयन, बीमा, संपदा व वाणिज्यिक सेवाओं तथा सामुदायिक, सामाजिक व व्यक्तिगत सेवाओं में रोजगार लोच गिरती गई ।

सभी क्षेत्रों में 1983 से 1993-94 की अवधि में यह 0.52 थीं तो 1993-94 से 1999-2000 की अवधि में गिरकर 0.16 हो गई । ऐसे में यह कहना कि आठवीं योजना में रोजगार सभी क्षेत्रों में बढ़ा होगा, असमंजस की स्थिति ही उत्पन्न करता है ।

नवीं योजना में श्रम शक्ति की वृद्धि दर बढ़ने का अनुमान था परन्तु 1993-94 से 1999-2000 के मध्य रोजगार लोच में काफी कमी देखी गयी । उदारीकरण के दौर में रोजगार सृजन अपेक्षित गति से नहीं बढ़ा ।

दसवीं योजना (2002 से 2007) में भी श्रम शक्ति 2.51 प्रतिशत वार्षिक की दर से बढ़ने का अनुमान था । परन्तु स्पष्ट रणनीति के अभाव में मात्र सकल घरेलू उत्पाद के 8 प्रतिशत वार्षिक की दर से बदने पर रोजगार के बढ जाने का पूर्वानुमान कर लिया गया था ।

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