बेरोजगारी पर निबंध | Essay on Unemployment in Hindi!

केन्स ने यूरोप की आर्थिक मंदी (1929) के दौरान बढ़ती हुई बेरोजगारी और व्यापार में गिरावट को देखते हुए अपनी कृति ‘The General Theory of Employment, Interest and Money-1936’ में इस समस्या का विश्लेषण करते हुए बेरोजगारी की समस्या के निदान और निवारण के लिए नया सिद्धांत प्रस्तुत किया ।

चिरसम्मत अर्थव्यवस्था के तहत बेरोजगारी की यह व्याख्या दी जाती थी कि जब व्यापार में गिरावट आती है परंतु मजदूरी की दरें स्थिर रहती हैं तब उत्पादन की लागत पूरी करने के लिए कामगारों की छँटनी कर दी जाती है । इसका मुख्य उपाय यह बताया जाता था कि इन परिस्थितियों में मजदूर संघों को समझा-बुझाकर मजदूरी की दरें कम कर देनी चाहिए ताकि उचित लाभ की संभावना व्यापारी को पूजी निवेश के लिए प्रेरित कर सके ।

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ‘ए.सी. पिगू’ ने यह तर्क प्रस्तुत किया था कि मजदूरी की दरें कम कर देने से कीमतों में कमी आ जाएगी; तब लोग अपनी बचत से अधिक वस्तुएँ खरीद सकेंगे जिससे व्यापार को बढावा मिलेगा । केन्स ने इन विचारों का खण्डन करते हुए कहा कि मजदूरी की दरों में कमी करने से कुल मांग (Aggregate Demand) कम हो जाएगी जिससे रोजगार में और भी गिरावट आ जाएगी ।

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केनस ने दावा किया कि कुल मांग अर्थव्यवस्था को उत्तेजित करती है, अतः सरकार को ऐसी नीति अपनानी चाहिए जिससे कुल मांग को बढाया जा सके । जैसे, सरकार सार्वजनिक निर्माण पर पूजी व्यय करके रोजगार का सृजन कर सकती है । इस प्रकार केन्दन ने अहस्तक्षेप नीति का विरोध करते हुए अर्थव्यवस्था में सरकार के सकारात्मक हस्तक्षेप का समर्थन किया ।

केंस के तर्क का निहितार्थ यह था कि अर्थव्यवस्था के तहत मुद्रा की मात्रा (Quantity of Money) उद्योग में लगाई गई पूँजी के प्रतिफल की दर (Rate of Return on the Interest Capital) को निर्धारित करती है । उत्पादन को बढाने और बेरोजगारी को दूर करने के लिए ऐसी नीति अपनानी चाहिए जिससे वस्तुओं और सेवाओं की कुल मांग में वृद्धि हो जाए ।

इस तरह केन्स ने रोजगार को बढावा देने के लिए घाटे के बजट का समर्थन किया । केन्स के अनुसार, सरकारी बजट व्यापार के लिए अनुकूल या प्रतिकूल वातावरण तैयार करता है । इसका मतलब यह है कि एक जगह आकर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को जारी रखने के लिए सरकारी हस्तक्षेप अनिवार्य हो जाता है ।

यदि सही वक्त पर सरकार हस्तक्षेप करती रहे तो पूंजीवाद लगातार जारी रहेगा । अतः पूजीवाद के संकट (Crisis of Capitalism) की चर्चा निराधार है । इस प्रकार केन्स ने ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ और ‘हस्तक्षेपवाद’ के लिए सिद्धांत प्रस्तुत किया जो कि पश्चिमी यूरोप की शासन प्रणाली की विशेषता बन चुका है । इसे ही केंसीय क्रांति (Keynesian Revolution) कहा जाता है ।

पूंजीवाद का समर्थन:

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केन्स ने राजनीति के क्षेत्र में पूंजीवादी व्यवस्था को जीवित रखने का समर्थन किया है । उसका विश्वास था कि उपयुक्त सामाजिक संगठन विकसित करके गरीबी की समस्या को सुलझा सकते हैं और ‘वर्गों एवं राष्ट्रों के बीच आर्थिक संघर्ष’ को आगे बढ़ने से रोक सकते हैं ।

केन्स ने यह तर्क दिया है कि पूंजीवाद वैयक्तिक स्वतंत्रता को सुरक्षित रखता है और कार्यकुशलता को बढावा देता है क्योंकि इसके अंतर्गत निर्णय विकेंद्रीकृत हो जाते हैं और यह व्यक्ति के स्वार्थ को सामने रखता है परंतु अहस्तक्षेपमूलक पूंजीवाद की ‘आर्थिक अराजकता’ के कारण न तो ‘पूर्ण रोजगार’ की स्थिति आ पाती है, न आय और संपदा की यथेष्ट समानता ही आ पाती है । इसके लिए सामूहिक कार्रवाई जरूरी है ।

यदि अर्धस्वायत्त अभिकरणों के माध्यम से सरकार के कार्यों का विस्तार कर दिया जाए और निम्न ब्याज दर तथा सार्वजनिक निर्माण कार्यक्रम लागू करके बचत एवं निवेश (Saving and Investment) पर सरकारी नियंत्रण बढा दिया जाए तो इससे सामाजिक न्याय एवं स्थिरता को बढ़ावा दे सकते हैं । इस नीति को अपना कर हम एक संशोधित पूंजीवाद कायम रख सकेंगे ।

राज्य की सकारात्मक भूमिका (Positive Role of Government):

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केन्स ने कल्याणकारी राज्य का औचित्य सिद्ध करने के लिए अपनी पुस्तक ‘The General Theory of Employment, Interest and Money’ में ‘उपयुक्त आर्थिक नीति’ के पक्ष में जोरदार तर्क दिया है । उसने लिखा है कि अहस्तक्षेप का सिद्धांत अब पुराना पड़ चुका है । आर्थिक व्यक्तिवाद का सिद्धांत 19वीं सदी के व्यापार जगत् की जरूरतों के अनुकूल तो था, परंतु अब वह समय नहीं रहा जब व्यक्ति ही उद्योग का संचालक था ।

केन्स ने दो तरह की गतिविधियों में अंतर स्पष्ट किया, एक तो तकनीकी दृष्टि से वैयक्तिक होती है और दूसरी सामाजिक । राज्य को ऐसी गतिविधियों में हाथ नहीं डालना चाहिए जिन्हें लोग पहले से कर रहे हों, चाहे राज्य उन्हें और भी अच्छी तरह से कर सकता हो ।

राज्य को केवल वही कार्य करने चाहिएं जिन्हें कोई दूसरा न कर रहा हो । इस तरह केंस ने कुछ ऐसे क्षेत्रों को चिहिनत किया जिनमें कार्रवाई करना राज्य के लिए यथेष्ट होगा, जैसे-ऋण और मुद्रा का प्रबंधन; बचत और निवेश (Saving and Investment) के पैमाने का निर्धारण, और लोगों के लिए सार्वजनिक नीति का निर्माण ।

केन्स ने तर्क दिया कि चिरसम्मत अर्थशास्त्रवेत्ताओं, जैसे एडम स्मिथ, डेविड रिकार्डों, आदि द्वारा अहस्तक्षेप की नीति के समर्थन का वास्तविक कारण यह नहीं था कि यह वैज्ञानिक दृष्टि से युक्तियुक्त थी, बल्कि इसका कारण यह था कि यह नीति तत्कालीन व्यापारियों के हितों के अनुरूप थी परंतु वर्तमान युग की जटिल आर्थिक गतिविधियों में अहस्तक्षेपवाद प्रासंगिक नहीं है ।

केन्स ने अहस्तक्षेपमूलक पूंजीवाद का खण्डन करते हुए निम्नलिखित तर्क दिया:

यह सच नहीं है कि लोगों को अपनी आर्थिक गतिविधियों में प्राकृतिक स्वतंत्रता प्राप्त होती है । कोई ऐसा समझौता नहीं हुआ है जिससे संपत्ति रखने वालों को उसका स्थायी अधिकार प्राप्त हो जाए । निजी और सार्वजनिक हित हमेशा एक साथ पूरे होंगे, ऐसा संसार का कोई नियम नहीं है । देखा जाए तो उनका एक साथ पूरा होना कठिन है ।

अर्थशास्त्र के सिद्धांतों से यह प्रमाणित नहीं होता कि प्रबुद्ध स्वार्थ साधन से हमेशा सामाजिक हित की सिद्धि हो । यह भी सच नहीं है कि स्वार्थ साधारणतः प्रबुद्ध होता है बल्कि सच तो यह है कि अलग-अलग व्यक्ति अपना-अपना स्वार्थ साधन करते समय सर्वहित के बारे में जान भी नहीं पाते, उनकी सिद्धि की बात तो दूर है । अनुभव यह भी नहीं बताता कि व्यक्ति अकेले-अकेले जितना स्पष्ट देख पाते हैं, सामाजिक इकाई के सदस्य के रूप में उतना स्पष्ट नहीं देख पाते ।

अतः केन्स का यह विश्वास है कि अहस्तक्षेप के मताग्रह (Dogma) को त्यागे बिना पूंजीवादी संस्थाओं की वैधता पुन: स्थापित नहीं हो सकती । वह पूंजीवाद की कार्यकुशलता को बढ़ाने के लिए राज्य का मार्गदर्शन (State Guidance) चाहता है ।

उसने पूंजी के दुर्लभता-मूल्य (Scarcity-Value) की उत्पीडनकारी शक्ति को नियंत्रित करने के लिए निम्न ब्याज-दर (Low Rate of Interest) का सिद्धांत दिया ।  केंस ने तर्क दिया कि केवल राज्य ही पूंजी की मात्रा को धीरे-धीरे इतना बढा सकता है कि वह दुर्लभ वस्तु न रह जाए, ताकि कृत्यहीन निवेशकर्ता (Functionless Investor) उसका लाभ उठाने के स्थिति में न रह जाएं ।

केन्स के अनुसार, राज्य को ‘पूर्ण रोजगार’ की व्यवस्था करनी चाहिए और उसमें कमी नहीं आने देनी चाहिए । यह सुनिश्चित करना भी राज्य का कार्य है कि समाज में जितना भी उत्पादन हो, उसे उठाने के लिए बाजार में पर्याप्त मांग हो, और उसकी इतनी कीमत जरूरत मिल जाए जिससे उसकी लागत भी पूरी हो जाए और सामान्य लाभ भी प्राप्त हो सके ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि जहाँ प्राचीन उदारवादी राज्य को आर्थिक गतिविधियों से दूर रखना चाहते थे, वहीं केनन ने उसी राज्य की सहायता से पूंजीवाद को बिखरने से बचाने का रास्ता दिखाया ।

जॉन कैनेथ गैल्ब्रैथ के विचार:

गैल्ब्रैथ ने पूंजीवाद की पुष्टि के लिए सार्वजनिक सेवाओं के विस्तार पर जोर देते हुए कल्याणकारी राज्य को उचित ठहराया है । उसका मानना है कि उपयुक्त सार्वजनिक सेवाओं के अभाव में कोई व्यक्ति निजी संपत्ति का भरपूर आनंद नहीं उठा पाता ।

प्रतिसंतुलनकारी शक्ति की संकल्पना (Concept of Countervailing Power):

गैल्ब्रैथ ने अपनी पुस्तक ‘American Capitalism: The Concept of Countervailing Power -1952’ के तहत शुम्पीटर के इस विचार से सहमति व्यक्त की है कि आधुनिक प्रौद्योगिकी के विकास के लिए विशाल मात्रा में पूंजी अपेक्षित है, अतः पूंजी का जमाव आवश्यक हो जाता है ।

आधुनिक अर्थव्यवस्था की व्याख्या करने के लिए बाजार के ‘अदृश्य हाथ’ (Invisible Hand) का सिद्धांत पर्याप्त नहीं है, अतः गैल्ब्रैथ ने इसकी नई व्याख्या देने का प्रयत्न किया है । उसके अनुसार, आज के अमेरिकी पूंजीवाद के तहत माल निर्माताओं को अपने प्रतिस्पर्धियों का ही सामना नहीं करना पड़ता बल्कि ग्राहकों, आपूर्तिकर्ताओं और मजदूरों के शक्तिशाली संगठनों का भी सामना करना पड़ता है, जो ‘प्रतिसंतुलनकारी शक्ति’ का काम करते हैं ।

अपनी अन्य कृति ‘The New Industrial State -1971′ में गैल्ब्रैथ ने लिखा है कि औद्योगिक उद्यमों के एक ही स्थान पर केंद्रित होने से बाजार में न केवल गिने-चुने विक्रेता रह गए हैं, बल्कि यही गिने-चुने खरीदारों का बोलबाला है ।

जहाँ मजदूरों को बहुत शक्तिशाली निगमों का सामना करना पड़ता है वहाँ शक्तिशाली मजदूर संघ अस्तित्व में आ गए हैं, जैसे कि लौह-इस्पात, रसायन और मोटर गाडियों से जुड़े उद्योगों के क्षेत्र में परंतु खुदरा व्यापार या कृषि के क्षेत्रों में शक्तिशाली संगठन सामने आए हैं, अतः वहाँ शुद्ध प्रतिस्पर्धा का माहौल है ।

गैल्ब्रेथ का कहना है कि जिन-जिन क्षेत्रों में ‘प्रतिसंतुलनकारी’ शक्ति स्वतः अस्तित्व में नहीं आई है उनमें सरकार को इसे बढावा देना चाहिए । उसने यह भी स्वीकार किया है की मुद्रा-स्फीति की स्थिति में ‘प्रतिसतुलनकारी शक्ति’ की प्रणाली अपना कार्य नहीं कर पाती ।

उस समय औद्योगिक संगठन और मजदूर संगठन परस्पर गठजोड़ कर लेते हैं और दोनों मिलकर कीमत एवं मजदूरी बढाते जाते हैं, और इस तरह सामान्य जन का शोषण करते हैं । इसे रोकने के लिए भी सरकार को सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए ।

सुसम्पन्न समाज की विडंबना (Irony of the Affluent Society):

अपनी पुस्तक ‘The Affluent Society -1958’ के अंतर्गत गैल्ब्रेथ ने निजी सुसम्पन्नता और सार्वजनिक दरिद्रता के सह-अस्तित्व की ओर संकेत किया है । उसका कहना है कि जो देश वस्तुओं का उत्पादन बहुतायत में कर रहे हैं, वहाँ शहर वीरान हो रहे हैं; परिवहन व्यवस्था जर्जर होती जा रही है और मूलभूत सेवाएं संकट की स्थिति में पहुँच गई हैं ।

सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) निरन्तर बढ़ने के बावजूद गरीब-गरीब ही बने हुए हैं अर्थात् यह कि समान का सारा संतुलन बिगड़ गया है ।

गैल्ब्रैथ ने रूढिगत केन्सीय नीति पर प्रहार करते हुए कहा है कि यह मान लेना गलत होगा कि सरकार को केवल ‘पूर्ण रोजगार’ पर ध्यान देना चाहिए और उसके बाद उपभोक्ता-मांग के जवाब में संसाधनों का वितरण स्वतः ठीक हो जाएगा । यह मानना भी गलत होगा कि आर्थिक संवृद्धि से सारी समस्याएं हल हो जाएगी ।

समकालीन पूंजीवादी पद्धति में जहाँ बडे-बडे उद्योग विज्ञापन और बिक्री-कला के गलत तरीकों से वस्तुओं की मांग पैदा करते हैं, वही उत्पादन में वृद्धि बाजार में असंतुलन पैदा कर देती है । फलस्वरूप उपभोक्ता-मांग स्वाधीन नहीं रह जाती बल्कि उत्पाद की मधुर-मधुर बातों और आकर्षक संकेतों पर निर्भर हो जाती है ।

बड़े-बड़े औद्योगिक निगम वस्तुओं के साथ-साथ रहन-सहन के तरीके भी बेचते हैं, जिससे विक्रेता की आय तो बढ़ती है परंतु उपभोक्ता की खुशहाली (Well-Being) नहीं बढ़ती । इन परिस्थितियों में सामाजिक संतुलन को पुन: स्थापित करने के लिए उन सामाजिक सेवाओं पर सार्वजनिक व्यय बढाना होगा जो इन दिनों बदतर स्थिति में है ।

गैल्ब्रेथ का मानना है कि सामाजिक या सार्वजनिक सेवाओं के विस्तार से गरीबों के साथ-साथ धनवान वर्ग भी लाभान्वित होगा । आधुनिक समाज में वैयक्तिक सुख-सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए भी सार्वजनिक साधनों का सहारा लेना पड़ता है ।

समृद्ध लोग भी जो अपने लिए भोजन, आवास, परिवहन और मनोरंजन की पर्याप्त व्यवस्था स्वयं कर सकते हैं, वे भी इन सुविधाओं का भरपूर आनंद लेने के लिए सड़कों, खेल के मैदानों, सैर-सपाटे के मनोरम स्थलों, काम की उपयुक्त परिस्थितियों या आकर्षक और सुहावने शहरी वातावरण की व्यवस्था अपने दम पर नहीं कर सकते ।

अतः यदि निजी संपदा के उपयोग पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जाता हो तो इन सार्वजनिक सेवाओं को बनाए रखना कठिन हो जाएगा और धनवान वर्ग भी अपनी संपदा का आनंद नहीं ले पाएंगे, गरीब लोगों की तो बात ही क्या ।

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