लाल ज्वार पर निबंध | Essay on Red Tides in Hindi!

सीवेज में काफी मात्रा में ऐसे पदार्थ होते हैं जो पेड़-पौधों के लिए खाद का काम करते हैं । इसीलिए सीवेज उपचार संयंत्रों में बच रहनेवाले आपक को खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता है । दिल्ली में ‘ओखला खाद’ के नाम से बिकनेवाली खाद आपक ही है ।

जब सीवेज सागर में मिलता है तब वह भी समुद्री वनस्पति (पादप प्लांक्टन) के लिए खाद का काम करता है । पर ऐसा उसी समय होता है जब सीवेज थोड़ी मात्रा में ही सागर में मिलता है । उसकी मात्रा में बहुत अधिक वृद्धि हो जाने पर (बड़े शहरों के निकट अकसर ही ऐसा होता रहता है) उसके परिणाम उसी प्रकार भयंकर होने लगते हैं जैसे मनुष्य द्वारा अत्यधिक पोषक खाद्य खाते रहने के होते हैं ।

शहरी कचरे और सीवेज में काफी मात्रा में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटैशियम के यौगिक होते हैं । कार्बनिक पदार्थों के बाद इनका भी जैव-विघटन होता है । ये ऐसे पदार्थों में बदल जाते हैं जो समुद्री वनस्पति के लिए बढ़िया खाद का काम करते हैं । इनसे समुद्री वनस्पति को अत्यधिक पोषण प्राप्त होने लगता है ।

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फलस्वरूप पादप प्लांक्टनों का, विशेष रूप से अवांछनीय डाइनोफ्लेजलेटों का, उत्पादन बहुत तेजी से होने लगता है । ये डाइनोफ्लेजलेट इतनी अधिक मात्रा में पैदा होने लगते हैं कि उनसे पानी गँदला हो जाता है । यह गँदलापन पानी में प्रकाश के प्रवेश और प्रकाश-संश्लेषण क्रिया में बाधक हो जाता है ।

अनेक बार पादप प्लांक्टनों के अत्यधिक उत्पादन के फलस्वरूप सागर में प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया एकदम रुक ही जाती है । पादप प्लांक्टनों की अत्यधिक वृद्धि से एक और हानि भी होती है । उनकी मृत्यु के बाद उनकी कोशिकाएँ फटने लगती हैं । उनके फटने से भी नाइट्रोजन और फास्फोरस के लवण मुक्त होते हैं ।

ये लवण भी पादप प्लांक्टनों के उत्पादन को बढ़ाते हैं । साथ ही पादप प्लांक्टनों की कोशिकाओं के विघटन से भी कार्बनिक पदार्थ बनते हैं । अनेक बार इस प्रकार बननेवाले कार्बनिक पदार्थों की मात्रा घरेलू कचरे और सीवेज के कार्बनिक पदार्थों की मात्रा से कहीं अधिक हो जाती है ।

इस प्रकार बननेवाले पदार्थ सागर के छोटे क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहते । वे दूर-दूर तक सागर को प्रदूषित कर देते हैं । सागर के पानी में नाइट्रोजन और फास्फोरस के यौगिकों की मात्रा अत्यधिक हो जाने से शैवालों का उत्पादन बहुत तेजी से होने लगता है ।

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इससे शैवालों की विभिन्न प्रजातियों के बीच प्राकृतिक संतुलन बिगड़ जाता है । अत्यधिक पोषक परिस्थितियों में शाकाहारी शैवालों की संख्या में असामान्य वृद्धि हो जाती है । इन परिस्थितियों में नील-हरित शैवाल तथा ऐसे डाइनोफ्लेजलेट, जो जंतुओं की भाँति भोजन अंतर्ग्रहण करते हैं और साथ ही पौधों की तरह प्रकाश-संश्लेषण की किया भी करते हैं, तेजी से बढ़ते हैं ।

इनको अन्य जीव नहीं खाते । इसलिए इसकी संख्या बढ़ती ही जाती है और ये पर्यावरण संबंधी अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर देते हैं । कभी-कभी ये शैवाल तटों की ओर भी बहकर आ जाते हैं । तब ये मछलियों की मृत्यु और मनुष्य के स्वास्थ्य के संकट के सीधे कारण भी बन जाते हैं ।

अनेक निस्यंदी अशन (फिल्टर फीडिंग) जीव इन जहरीले शैवालों को अपने शरीर में संचित कर लेते हैं । निस्यंदी अशन जीव वे हैं जिनके मुँह में छन्ने जैसे अंग होते हैं । इन अंगों में से सागर का पानी गुजरता रहता है । पानी बाहर निकलता रहता है पर जीव छनकर भोजननली में पहुँच जाते हैं ।

उनके भक्षण से मनुष्य के शरीर में भी रोग पैदा हो सकते हैं । उक्त घटना को वैज्ञानिक ‘रक्त ज्वार’ (रैड टाइड) कहते हैं क्योंकि डाइनोफ्लेजलेट के आधिक्य से सागर का पानी लाल रंग का दिखाई देने लगता है । वैसे अनेक सागरों में रक्त ज्वार समय-समय पर, प्राकृतिक कारणों से भी, आते रहते हैं ।

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जब सागर की गहराइयों से पोषक पदार्थों से भरपूर पानी जल्दी-जल्दी सतह पर आता है तब भी शैवालों की संख्या बहुत अधिक बढ़ जाती है । अवांछित, जहरीले शैवालों के भक्षण से मछलियों तथा अन्य समुद्री जीवों की बड़ी संख्या में मृत्यु होने लग जाती है ।

संयुक्त राज्य अमेरिका में फ्लोरिडा गल्फ के तट पर, वर्ष 1916 और 1964 के बीच तेरह बार रक्त ज्वार आए थे । सागर में सीवेज की मात्रा में वृद्धि होने से रक्त ज्वार जल्दी-जल्दी आने लगते हैं । रक्त ज्वार जैसी घटनाओं के कारण ही वैज्ञानिक यह सोचने लगे हैं कि क्या शहरी सीवेज को सागर में फेंकने के बजाय थल पर ही उपचारित करके, आपंक को खाद के रूप में इस्तेमाल करना बेहतर नहीं होगा ?

वैसे यहाँ यह बता देना उपयुक्त होगा कि सागर का पानी हमेशा डाइनीफ्लेजलेटों के कारण लाल नहीं होता और न ही लाल पानी सदैव जहरीला होता है । लाल सागर का पानी एक नील-हरित शैवाल के कारण लाल है ।

नाक्टीलुसा डाइनोफ्लेजलेट, जो समुद्री पानी को टमाटर के सूप जैसा लाल रंग प्रदान करता है, एक हानिरहित शैवाल है । इसके विपरीत हिंद महासागर में पाया जानेवाला एक नील-हरित शैवाल अनेक स्थानों पर विषैली परिस्थितियों पैदा कर देता है ।

कभी-कभी यह शंका भी प्रकट की जाती है कि पादप प्लांक्टनों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हो जाने के कारण सागर में पोषक पदार्थों की कमी हो सकती है । ऐसा केवल स्थानीय तौर पर ही हो सकता है, पूरे सागर के संदर्भ में नहीं; क्योंकि पादप प्लांक्टन पूरे विश्व सागर में मौजूद नाइट्रोजन, फास्फोरस और सिलीकन की कुल मात्रा के केवल एक प्रतिशत भाग का ही उपयोग कर पाते हैं ।

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