भूमि प्रदूषण पर निबंध | Essay on Land Pollution in Hindi!

हम वायु में सांस लेते हैं और जल को पीते हैं, किंतु आखिरकार मिट्टी ही वह साधन है जिससे हमें सभी प्रकार का भोजन प्राप्त होता है । मिट्टी की ऊपरी सतह ही उर्वरता की खान है जिससे फसलें उत्पन्न होती है । मिट्टी की यह उर्वरता उसमें पाए जाने वाले कोटि-कोटि अदृश्य (सूक्ष्म) जीवों के कारण है, जो मिट्टी के बनने, उसकी संरचना तथा उसकी उर्वरता में सक्रिय हाथ बँटाते है । यदि सूक्ष्मजीव न होते तो भूमि सर्वथा बंजर होती और फसल के नाम पर कुछ भी न हुआ होता ।

किंतु नाना प्रकार के सूक्ष्म जीव समान रूप से लाभदायक नहीं है । यदि कुछ जीवाणु हमारे लिए उपकारी हैं तो अनेक कीट, नैमेटोड, कवक यहाँ तक कि जीवाणु भी फसलों के लिए घातक हैं । अपपादप या अपतृण भी कम हानिकारक नहीं है ।

परिणामस्वरूप आधुनिक कृषि के अंतर्गत इन्हें समाप्त करने के यत्न किए जाते हैं । इन पर नियंत्रण का एकमात्र साधन है- कीटनाशियों का उपयोग । इनसे हानिकारक जीवों का, अपतृण का विनाश तो हो जाता है किंतु अन्य जीवों तथा परिवेश पर क्या प्रभाव पड़ता हैं- यही एक प्रश्न है ।

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वस्तुतः यह जागरूकता स्थल-प्रदूषण समझने की दिशा में पहला कदम है । मिट्टी में केवल सूक्ष्म जीव ही विकास नहीं करते बल्कि उसमें निवास करने वाले प्राणियों के प्रोटोजोआ, केंचुए, भृंग, मक्खियाँ तथा अनेक किट हैं । इनसे भी परे हैं वे सारे पौधे जिनकी खेती की जाती है ।

अत: यह जान लेना आवश्यक होगा कि यदि रासायनिक विधियों से हानिकारक प्राणियों को विनष्ट करने के उपाय किए जाते हैं तो उनका प्रभाव पोधों तथा उपयोगी जीवों पर क्या हो सकता है ? यही नहीं, मिट्टी की किस्म या प्रकृति को ध्यान में रखते हुए विभिन्न रसायनों का मिट्टी में बने रहना, मिट्टी के भीतर उनकी गतिशीलना तथा भौमजल पर उनके प्रभावों को जानना स्थल-प्रदूषण का एक महत्वपूर्ण पक्ष है ।

विभिन्न दशा में विभिन्न कीटों का नष्ट करने के लिए नवीन कीटनाशियों की खोजें की गई हैं । प्रारंभ में आर्सेनिक, ताम्र या पारद के यौगिकों का प्रयोग होता था, किंतु कालांतर में कार्बनिक यौगिकों का प्रयोग होने लगा है । संभवतः डी.डी.टी. के अन्वेषण से कीटविनाशी-विधियों में युगांतर उपस्थित हो गया ।

इसका प्रयोग इस सीमा तक बढ़ गया कि ओज इसके विरुद्ध आवाज उठाई जा रही है कि इसका प्रयोग बंद हो । कारण, कि यह अद्वितीय कीटनाशी तो है किंतु अन्य प्रकार से यह हानिकारक भी है । यह मिट्टियों में दीर्घकाल तक बना रहता है और खाद्य-फसलों द्वारा प्रचुर मात्रा में ग्रहीत होने के कारण पशुओं के लिए भी विष का काम करता है । चरने वाले दुधारू पशुओं के दुग्ध में भी डी.डी.टी. चला जाता है ।

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यही कारण है कि वैज्ञानिकों ने बहुजन-हिताय डी.डी.टी. पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध की माँग की है । डी. डी. टी. एक कार्बनिक क्लोरीन कीटनाशी है । बी. एच. सी. एल्ड्रिन, हेप्टाक्लोर, डाइएल्ड्रिन तथा एंड्रिन आदि कीटनाशी इसी के समान हैं । प्रयोगों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि इन कीटनाशियों में से फलों तथा सब्जियां की फसलों द्वारा सर्वाधिक मात्रा अवशेषित होती है ।

इन फसलों के लिए भी ये कीटनाशी घातक सिद्ध हुए हैं । मिट्टी में अधिक काल तक बने रहने के कारण उपर्युक्त क्लोरीन यौगिकों के स्थान पर अल्प-स्थायी कार्बनिक-फास्फोरस कीटनाशियों का प्रयोग शुरू किया गया है । पैराथियान, मैथाथिक, डायजियॉन आदि ऐसे ही यौगिक हैं । किंतु ये हैं अत्यंत घातक ।

यदि कोई यह भूल कर बैठे कि ये अत्यल्प स्थायी हैं, अत: इनकी कोई भी मात्रा प्रयुक्त की जा सकती है तो बहुत बड़ा संकट उपस्थित हो सकता है । कारण कि कनाडा में किए गए प्रयोगों से यह स्पष्ट हो चुका है कि इस कोटि के भी कुछ यौगिक डी. डी. टी. की ही भाँति मिट्टी में दीर्घ स्थायी हैं ।

अत: ‘परिवर्तन के लिए परिवर्तन’ के उद्देश्य से इन यौगिकों के साथ खिलवाड़ प्रदूषण की समस्या को उग्र बना सकता है । मिट्टी के जीव-जंतुओं में केंचुओं का स्थान सर्वोपरि है । वे मिट्टी का उलट-पुलटकर उस वातित करते हैं । यदि किसी भी कीटनाशी के द्वारा केंचुओं की संख्या घटती है तो उसका अर्थ होता है भूमि-उर्वरता में ह्रास । रोथैम्स्टैड के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक सी. ए. एडवर्ड्स न यह दिखाया है कि केंचुओं पर डी. डी. टी. जैसे यौगिकों का बुरा प्रभाव नहीं पड़ता ।

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हेप्टाक्लोर तथा क्लोरडेन ही हानिकारक हैं । कुछ कार्बनिक फास्फोरस यौगिक भी विषैली सिद्ध हुए हैं । किंतु विचित्र बात यह है कि केंचुए अपने शरीर में मिट्टी की अपेक्षा क्लोरीन कीटनाशियों की 10 गुनी सांद्रता एकत्र कर लेते हैं ।

अत: यदि पक्षी इन केंचुओं का भक्षण करते हैं तो विकट समस्या उत्पन्न हो जाएगी । मिट्टी के जीवों में दीमक, कीट आदि भी सम्मिलित हैं जो मिट्टी में वानस्पतिक अवशेषों के विघटन में सहायक होते हैं । यह देखा गया है कि कीटनाशियों के प्रयोग से इनकी संख्या घट जाती है, अत: जंगलों में तथा जंगली मिट्टियों में, जहाँ मृदा-निर्माण इन्हीं जीवों पर निर्भर करता है, कीटनाशियों का प्रयोग वर्जित करना होगा । फिर भी कुछ जीव प्रतिरोधकता विकसित कर लेते हैं ।

यदि मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ अधिक हों तो किसी कीटनाशी की अधिक मात्रा भी प्रदूषण स्तर पर नहीं पहुंचने देगी, किंतु यदि बालू मिट्टी हो तो उसमें प्रदूषण की समस्या उपस्थित हो सकती है । स्थल-प्रदूषण मनुष्यों के लिए घातक अवश्य है, परंतु उतना नहीं जितना पशुओं के लिए, क्योंकि प्रायः कंद या घासें जो उनके खाद्य हैं उनमें कीटनाशियों की प्रचुर मात्राएं संगृहीत हो सकती हैं ।

साथ ही नवीन कीटनाशियों की खोज होने के कारण भौमजल के प्रदूषित होने की संभावना बढ़ी है, क्योंकि व अधिक जल विलय हैं । वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण, रासायनिक प्रदूषण तथा रडियोधर्मी-प्रदूषण सभी प्राणी-जगत के लिए विकट समस्या बनते जा रहे हैं ।

इन सबका प्रभाव भूमि तथा मिट्टी पर अवश्य ही पड़ता है, क्योंकि किसी न किसी रूप में ये उपरोक्त प्रदूषण मिट्टी से संबंधित हैं तथा स्थल-प्रदूषण की जन्म देते हैं । इन सभी कारणों के अतिरिक्त कुछ अन्य कारक भी हैं जो म्यान की प्रदूषित करते हैं ।

इसमें मुख्य रूप से निम्न हैं:

(क) जनसंख्या,

(ख) पशु,

(ग) धुली ।

(क) जनसंख्या:

सम्पूर्ण विश्व में चौबीस घंटों में लगभग 3,36,960 बच्चे उत्पन्न होते हैं और इस पृथ्वी पर अपने जीवन के लिए खाने की माँग करने हुए आविर्भूत होते हैं एवं 34,000 लोग कुपोषण के कारण तथा असंख्य लोग भूख से तड़पते हुए इस विनाशकारी संसार से सदा के लिए विदाई माँग लेते हैं ।

इस प्रकार अनेक कारणों से एक दिन में 1,46,960 मौतें होती हैं । गणना करने के पश्चात ज्ञात हुआ कि प्रतिदिन जनसंख्या में बढ़ोतरी 1,90,000 लोगों की है । आँकड़ों से पता चलता है कि संसार की जनसंख्या की वृद्धि-दर यही रही तो सन् 2100 ई. तक दुगुनी हो जाएगी ।

बढ़ती जनसंख्या स्वयं अपने में एक बड़ी समस्या होने के साथ ही अन्य प्रकार की अनेक समस्याओं की जननी भी है । इनमें जन-स्वास्थ्य-संकट की समस्या सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । बढ़ती आबादी वाले देशों में भोज्य पदार्थों में कमी और खाद्य-संकट इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं ।

अब जनसंख्या की वृद्धि से अल्प-पोषण और आहार की समस्या विकसित देशों के सम्मुख भी आने लगती है । यह ज्ञात तथ्य है कि विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों में खाद्य की स्थिति अत्यंत असंतोषजनक है ।

फलतः जहाँ पूर्ण भोजन की प्राप्ति ही एक समस्या है वहाँ भोज्य पदार्थों में पोषण-तत्वों की कमी या उसकी अनुपस्थिति की ओर ध्यान देना संभव नहीं हो पाता । कुपोषण तथा अल्प पोषण जैसी समस्या के मूल में अधिक जनसंख्या और उसकी वृद्धि की तीव्र गति है ।

यह एक मान्य वैज्ञानिक तथ्य है कि संतुलित भोजन के द्वारा ही शरीर स्वस्थ रहता है तथा विभिन्न रागों से सुरक्षा की शक्ति आती है । पिछले वर्षों में संयुक्त राष्ट्र संघ की एक संस्था, खाद्य और कृषि संगठन के द्वारा किए गए सर्वेक्षण से उपलब्ध विवरण भयावह संकेत उपस्थित करते हैं ।

इसके अनुसार भारत जैसे विकासशील देश में केवल 20 प्रतिशत आबादी को भरपेट भोजन मिल पाता है । इस देश में 80 प्रतिशत लोगों को पूरा भोजन नहीं मिल पाता है, जिससे 40 प्रतिशत से अधिक लोग कुपोषण और भुखमरी की स्थिति में हैं ।

कुपोषण न केवल वर्तमान समय के लिए अभिशाप है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों पर भी इसका असर पड़ेगा । सर्वेक्षण से यह भी पता चला है कि भारत में 50 प्रतिशत से अधिक बच्चे सामान्य रूप में प्रोटीन-कैलोरी अल्पता से उत्पन्न कुपोषण के कारण ग्रस्त हो दुर्बल बनकर रोगी के रूप में जीवन व्यतीत करने के लिए विवश है ।

ऐसी स्थिति के फलस्वरूप इनकी रोग-प्रतिरोध-क्षमता क्षीण होती जाती है और सहज में ही वे सूखा, बेरी-बेरी, रक्तअल्पता, शुष्क अक्षिपाक (जीरोथैल्मिया) जैसे रोगों के शिकार बनने लग जाते हैं । भोजन जीवधारियों के लिए सबसे पहली और प्रधान भौतिक आवश्यकता है ।

सैकड़ों वर्ष पूर्व जब संसार में खाद्य उत्पादन और जनसंख्या के संतुलन में व्यवधान नहीं आया था, स्वास्थ्यकर भोजन-प्राप्ति की समस्या का अनुभव नहीं हुआ था । लेकिन तीव्र गति से बढ़ती हुई आबादी तथा खाद्य उत्पादन में अपेक्षित बढ़ोतरी के न होने से संसार के सामने खाद्य की समस्या आ गई है ।

खेती योग्य भूमि बढ़ाने के लिए जंगलों को काटकर खेती योग्य बनाया जा रहा है, ताकि अन्न-उत्पादन बढ़ सके । लेकिन वन-लोपन से जन-स्वास्थ्य पर दूरगामी अनिष्टकारी प्रभाव पड़ने की संभावना है । इसके अतिरिक्त निरंतर बढ़ती हुई जनसंख्या के दबाव में अनेक प्रकार की ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होने लगी हैं जो जन-स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं । अत: भारत सरकार की वृक्षारोपण योजना भविष्य में लाभदायक सिद्ध होगी ।

घनी आबादी से कई सामाजिक और आर्थिक समस्याएं उत्पन्न हुई ही हैं, साथ ही निवास और सामान्य स्वास्थ्य के लिए सफाई व्यवस्था भी संकट में है । विशेषकर शहरी क्षेत्रों में जल ओर वायु-प्रदूषण की समस्या गंभीर रूप धारण करने लगी है ।

घनी आबादी का प्रत्यक्ष प्रभाव मनुष्य के जीवन-यापन के लिए उपलब्ध सीमित स्थान तथा सुविधाओं पर पड़ता है । भारत के प्रमुख नगरों कोलकाता, दिल्ली, मुंबई तथा अहमदाबाद के कुछ क्षेत्रों के सर्वेक्षणों से यह ज्ञात होता है कि यहाँ जन-स्वास्थ्य की स्थिति अत्यंत असंतोषजनक है तथा दिन-प्रतिदिन खराब होती जा रही है ।

जनसंख्या घनत्व का मनुष्य के मानसिक स्वास्थ्य पर भी प्रभाव पड़ता है । ऐसा देखा गया है कि आबादी जितनी घनी होती है, उस स्थान के निवासियों में मानसिक रुग्णता उतनी अधिक पाई जाती है । यद्यपि आज के युग में इन रोगों को औषधियों द्वारा ठीक किया जा सकता है, परंतु औषधियों का भी दुष्प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ता है ।

प्रत्येक औषधि काई न कोई अनुषंगी प्रभाव अवश्य दर्शाती है । कुछ व्यक्तियों में औषधियों का अनुषंगी प्रभाव ही अधिक प्रकट होता है । यही कारण है कि एक व्यक्ति के लिए जो औषधि है, दूसरे के लिए वही ‘विष’ हो सकती है ।

टिटनेस, डिप्थीरिया और पति ज्वर आदि जैसे बहुत-से रोगों पर विजय प्राप्त करने का एक अत्यधिक कारगर उपाय है- वैक्सीन और सीरम द्वारा व्यक्तियों में रोग-प्रतिरोधी क्षमता उत्पन्न करना । कभी-कभी दुर्घटनावश ये रोगनिरोधक उपाय स्वयं रोग से भी अधिक भयंकर सिद्ध होते हैं ।

रोग-प्रतिरोधी क्षमता उत्पन्न करने की क्रिया द्वारा जन-स्वास्थ्य-संकट मोटे तौर पर तीन प्रकार से उत्पन्न होते हैं:

 

(1) लापरवाही अथवा दोषपूर्ण रीति से निर्मित औषधि के कारण ।

(2) वैक्सीन अथवा सीरम देने वाले चिकित्सक की लापरवाही के कारण और

(3) रोगी की अपसामान्य सुग्राह्यता (एलर्जी) के कारण ।

इनमें से तीसरे कारण से बचना कठिन होता है परंतु प्रथम दो कारणों से उचित सावधानियाँ बरतकर बचा जा सकता है या उनके प्रभावों को न्यूनतम किया जा सकता है । वैक्सीन तैयार करने के लिए जीव-संवर्द्धन में प्रयुक्त कुछ प्रोटीन के प्रति बहुत-से व्यक्ति संवेदी हो जाते हैं ।

पर पाया गया कि घोड़े के मांस से तैयार किए गए और डिप्थीरिया वैक्सीन के उत्पादन में प्रयुक्त होने वाले ‘विट्‌स पैप्टॉन’ के उपयोग के बाद कुछ अनपेक्षित प्रतिक्रियाएं होती हैं । डिप्थीरिया रोगाणु संवर्द्धन के लिए कैसीन के एसिड हाइड्रोलाइसेट पर आधारित प्रोटीनयुक्त माध्यम के उपयोग से इस प्रकार की अनपेक्षित प्रतिक्रिया होने की संभावना नहीं रही है ।

बहुत-सी दुर्घटनाएँ केवल इसी कारण होती हैं कि सिरिंज अथवा सूई निर्जीवाणुकृत नहीं होती अथवा रोगी की त्वचा पर रोगजनक जीव विद्यमान होते हैं अथवा वे सूई लगाने के स्थान को साफ करने के लिए प्रयुक्त रूई के फाहे में विद्यमान होते हैं ।

ऐसा भी हो सकता है कि चिकित्सक द्वारा वैक्सीन को तनुकृत करने के लिए प्रयुक्त आसुत जल अथवा लवण जल निर्जीवाणुकृत न हो अथवा ज्वरकारी पायरोजनों से मुक्त न हो । बहुधा डॉक्टर अथवा नर्स की नासिकाओं और उंगलियों पर रोगजनक जीव रह जाते हैं और इस कारण से भी कई बार संदूषण होकर रोग हो जाता है । अनिर्जीवाणुकृत सिरिंज या सूई अथवा टीका लगाने की दोषपूर्ण तकनीक के कारण प्रायः ज्वर, सिरदर्द, इंजेक्शन के स्थान पर दर्द और फोड़ा हो सकता है ।

यद्यपि यक्ष्मा अथवा टिटनेस के कई घातक मामले सामने आते हैं, परंतु बहुत कम मामलों में इस प्रकार का आक्रमण घातक होता है । बढ़ती जनसंख्या से जहाँ भोजन, वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण तथा साथ ही साधनों की तीव्र क्षय की समस्या है वहाँ एक और समस्या भी है और वह है- ठोस व्यर्थों के व्ययन अथवा निपटान की ।

ऐसे पदार्थों के निपटान की जिन्हें जल में नहीं बहाया जा सकता अथवा जलाया नहीं जा सकता । ज्यों-ज्यों एक स्थान पर आबादी बढ़ती है, इस प्रकार के ठोस व्यर्थों की मात्रा भी बढ़ती जाती हैं । इन्हें या तो जमीन में दबाया जा सकता है या यूँ ही एक स्थान पर इनका ढेर लगाया जा सकता है । लेकिन जमीन में दबाने पा मिट्टी में नाइट्रोजन और फास्फेट यौगिकों की मात्रा बढ़ने से मिट्टी की प्रकृति बदल जाती है और ये यौगिक पानी में मिलकर जल-प्रदूषण की समस्या का और भी गंभीर बना सकते हैं ।

यूँ ही ढेर लगाने पर रहने के लिए तथा खेती के लिए भूमि कम होती है और इस प्रकार ज्यों-ज्यों आबादी बढ़ती है मनुष्य के समक्ष संकट भी बढ़ते हैं । भारत में गाँवों में मल-मूत्र तथा अन्य व्यर्थों के निपटान के लिए तथा विभिन्न क्षेत्रों की भूमि के उपयुक्त शौचालय विकसित करने के लिए काफी प्रयास किया गया है ।

बोर-होल शौचालय, पिटप्राइवी, एक्वाप्राइवी आदि इनके कुछ उदाहरण हैं । ‘पोर फ्लश’ व्यवस्था वाले शौचालयों के लिए उचित आकार के जल-आबद्ध पात्र विकसित किए गए हैं । अनुमान है कि गत बीस वर्षों में देश में दस लाख से भी अधिक शौचालयों का निर्माण किया गया ।

अब यह अनुभव किया जाने लगा है कि जब तक जनता को ऐसे शौचालयों का प्रयोग करने के लिए प्रेरित नहीं किया जाता, इनकी व्यवस्था से कोई विशेष सफलता नहीं मिल सकती । आम तौर से इस भावना की कमी है और देहात के लोग खेतों में ही निवृत्त होना पसंद करने हैं ।

गाँवों और छोटे-छोटे कस्बों में समुचित जल-प्रदाय की माँग तो बढ़ गई है, परंतु व्यर्थ-जल के निपटान की योजनाओं में जनता में विशेष उत्साह नहीं है जिसके फलस्वरूप ग्रामीण पर्यावरण के स्वास्थ्य में कई सुधार नहीं होता और जल की व्यवस्था के बाद भी संचारी रोगों पर नियंत्रण नहीं हो पाता ।

जिन इने-गिने छोटे शहरों में नगरपालिकाएँ मल-प्रवाह योजनाएं आरंभ करने में सफल हुई हैं, वहाँ की पूरी आबादी सुविधा का लाभ नहीं उठा रही है । यह मुख्यत: वहाँ के रहने वालों द्वारा मल-प्रवाह के साथ अपने घर की गालियों को जोड़ने हेतु परिवर्तन स्थापना कार्य पर होने वाले व्यय को न करने के कारण होता है ।

मकानों में अनुपयुक्त संवातन, भोजन बनाने तथा गरम करने के लिए उपलों (पाथी) को जलाने से और ठोस व्यर्थ, विशेषकर अकार्बनिक पदार्थों को, जिनका कंपोस्टिंग नहीं होता, एकत्र न करने के कारण भी गांव के पर्यावरण का प्रदूषण होता है ।

परंतु खाद बनाने का कार्य हाथ द्वारा गड्ढों में किया जाता है । जिनकी उचित सफाई न होने के कारण अत्यधिक मक्खियाँ और मच्छर हो जाते हैं और इसके कारण रोग फैलते हैं । जनसंख्या वृद्धि से जनस्वास्थ्य के लिए उत्पन्न एक अन्य विकट संकट आवास-स्थल तथा निवास सुविधाओं का है । कुछ विशाल भवनों और नई कॉलोनियों को छोड़कर भारत की जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में निवास कर रहा है ।

ग्रामीण क्षेत्रों में गाँवों में बने मिट्टी के घरों की स्थिति तथा वहाँ की जीवन-यापन दशाओं को दयनीय और अत्यंत असंतोषप्रद ही कहा जा सकता है । निरंतर बढ़ती हुई आबादी से न केवल वर्तमान स्थितियों में समस्याएं पैदा हो रही हैं, बल्कि भविष्य के लिए भी ये विकट संकट के रूप में उपस्थित हैं ।

(ख) पशु:

आदिकाल से ही मानव भोजन और वस्त्र की इच्छा से प्रेरित होकर विविध जंतुओं के संपर्क में आया । जंतुओं से उसे भोजन के रूप में दूध, मांस, अंडे तथा वस्त्रों के लिए चमड़ा और समूर मिला । लेकिन जैसे-जैसे मानव-समाज और सभ्यता का विकास हुआ, मानव की आवश्यकताएँ और इच्छाएं भी बढ़ती गईं । इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसने कुछ जंतुओं को पालतू भी बनाया । इस प्रकार उसे आवागमन, कृषि, रक्षा तथा मनोरंजन के क्षेत्र में विशेष सुविधाएँ मिलीं ।

इतना ही नहीं, विज्ञान के इस युग में भी आयुर्विज्ञान के विभिन्न प्रयोगों में इन पालतू जंतुओं का बहुत उपयोग रहा है । यही कारण है कि आज कुछ जंतुओं का मानव-जीवन से इतना गहरा संबंध जुड़ गया है कि वे मनुष्य के मित्र और साथी बन गए हैं ।

लेकिन जहाँ इन जंतुओं से मनुष्य भोजन, वस्त्र, सुख-समृद्धि आदि प्राप्त करता है, वहीं वह इन जंतुओं के कुछ रोगों का भी भागीदार बनता है । इसी संदर्भ में विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक सर्वेक्षण से यह ज्ञात हुआ है कि पशुओं की दो सौ प्रकार की छूत की बीमारियों में से लगभग सौ प्रकार की बीमारियाँ मनुष्यों की अपने इन्हीं जंतु-मित्रों से हो जाती हैं ।

जो रोग पशुओं से मनुष्यों में और कभी-कभी मनुष्यों से पशुओं में हो जाते हैं, वे पशुजन्य-रोग अथवा जूनोसिस कहलाते हैं । सौभाग्य से अधिकांश पशुजन्य-रोग मानव-स्वास्थ्य के लिए अधिक हानिकर नहीं होते, परंतु कुछ रोग अवश्य घातक होते हैं, जैसे कि रेबीज या हाइड्रोफोबिया आदि । नीचे पालतू पशुओं के कारण होने वाले कुछ रोगों का विवरण प्रस्तुत किया गया है ।

(ग) धूलि:

यह कहावत प्रसिद्ध है कि बड़ी-बड़ी घटनाओं को जन्म देने वाले छोटे-छोटे कारण ही होते हैं । हम जानते हैं कि वायुमंडलीय विद्युत तथा रेडियोधर्मिता उत्पन्न करने वाले वास्तव में लघुकण ही होते हैं । ये कण इतने छोटे होते हैं कि इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शक यंत्र से भी दिखाई नहीं देते, किंतु इनका प्रभाव जलवायु तथा मौसम पर इतना अधिक होता है कि संपूर्ण संसार भी बिना प्रभावित हुए नहीं रह सकता । वायुमंडल में विद्यमान नाना प्रकार के कण न केवल मानव-जीवन को बल्कि समस्त वनस्पति जीवन तथा जीव-जंतु-जीवन पर क्रियाशील एवं प्रभावशाली होते हैं ।

ये कण जीवन पर दो प्रकार से प्रभाव करते हैं:

(1) बाह्य रूप से तथा

(2) आंतरिक रूप से ।

अधिकतर कण जनजीवन पर स्थानीय क्रिया द्वारा हानिकर होते हैं । इन कणों से जो दिखलाई देते हैं, उचित सुरक्षात्मक कार्यवाही करके इनसे अपने आपको बचाया जा सकता है । दिखलाई देने वाले कण केवल धूलिकण होते हैं जो वायुमंडल में अनेक स्रोतों द्वारा विसर्जित कर दिए जाते हैं ।

जब मानव किसी व्यवसाय को करता है तो उस पर धूलिकण का प्रभाव होना स्वाभाविक है । उद्योग व्यवसाय में जनजीवन को खतरा धूलि, धुंध तथा धूप से अधिक होता है । एक धूलिकण जब वायु द्वारा मनुष्य की आँख आदि में गिर जाता है तो स्थानीय अभिक्रिया आरंभ कर देता है ।

परिणामस्वरूप खुजलाहट तथा जलन पैदा हो जाती है । यह क्रिया धीरे-धीरे तथा तीव्रगति दोनों ही प्रकार से होती है । शरीर के किसी-किसी अंग पर तो यह क्रिया इतनी मंद होती है कि वर्षों बाद इसके प्रभाव का ज्ञान होता है ।

यहाँ तक कि कभी-कभी विश्वास भी नहीं होता कि धूलि तथा रोग में भी आपस में कोई संबंध है । ऐसा देखा गया है कि औजारों को तेज करने वाले कर्मी सिलिकोसिस रोग से ग्रस्त हुए । बेरीलियम उद्योग में कार्य करने वाले कर्मियों में अधिक आसपास के तीन किलोमीटर क्षेत्र में रहने वाले लोग प्रभावित हुए, क्योंकि फैक्टरियों में काम करने वालों के लिए सुरक्षात्मक उपाय किए जाते हैं ।

अनेक रसायनों से कार्य करने वाले कर्मियों को उड़ने वाली धूलि बहुत ही हानिकर है । सफेदी करने वाले व्यक्तियों की श्वसन नली में कैल्सियम की धूलि जाने के कारण साँस लेने में कठिनाई होती हैं । इसी प्रकार फोटोग्राफी में कार्यरत कर्मियों को पोटेशियम मैटा-बाइसल्फाइट की धूलि इतनी हानिकारक है कि श्वसन नली में इसके पहुंचने ही छींक आने लगती हैं, गला खराब हो जाता है तथा सिरदर्द ही जाता है ।

जब कभी भी फसल में कीटनाशी द्रव छिड़कने का अवसर मिल तो मुखौटा पहनकर काम करना चाहिए, क्योंकि कीटनाशी पदार्थ विषैले होते हैं । टारटैरिक एसिड से कार्य करने वाले व्यक्तियों को मुख्यतः दंत क्षरण रोग लग जाता है ।

टारटैरिक एसिड को पाउडर रूप में मिलाना और तदुपरांत पेटी में भरते समय जो धूलि उठती है, यदि ऐसे वायुमंडल में केवल सप्ताह में 30 घंटे कार्य करना पड़ जाए तो कर्मी को छह मास के अंदर ही दाँतों पर प्रभाव अनुभव होने लगेगा । धूलि का सबसे अधिक प्रभाव हमारी श्वसन नली पर पड़ता है ।

श्वास नलिकाएँ संख्या में लगभग 1,00,000 होती हैं जिनका व्यास आधा मिलीमीटर होता है । जब कोई धूलिकण नाक द्वारा श्वसन नली में आता है तो इसकी गति 3-4 सेंटीमीटर प्रति मिनट होती है, किंतु श्वास नलिका में इसकी गति 1/15 से 1/20 तक कम हो जाती है ।

ऐसे धूलिकण जो आकार में दस माइक्रोन के बराबर होते हैं, नाक द्वारा या तो श्वसन नली में जाते हैं अन्यथा श्लेष्मिक परत में भी इकट्ठे हो जाते हैं । फेफड़ों में द्रव, ठोस तथा धूलि को शोषण करने की पर्याप्त शक्ति होती है ।

सीमेंट, चूना तथा जिप्सम सरलता से शरीर में द्रव बनकर घुल जाते हैं और सरलता से निकल भी जाते हैं । विद्युत द्वारा गर्म करने से जो सिंथैटिक अपथर्मी उत्पादन में सघन-धूम का अंत:श्वसन किया जाता है, उससे रोग लग जाता है ।

यद्यपि सिलिका तथा अल्यूमीना के कण बहुत ही महीन होते हैं, किंतु सिलिका धूलि से रोग विज्ञान संबंधी प्रभाव भिन्न पाए गाए और अल्यूमीना धूलि बिलकुल हानिरहित पाई गई । सभी घुलनशील धूलि के साथ यह सत्य नहीं है ।

उद्योगों में कर्मियों की श्वसन नली पर बैनेडियम-पेंटाऑक्साइड काफी प्रभाव डालता है । यह रक्त में मिलकर संपूर्ण शरीर में संचित हो जाता है । बैनेडियम नाक की झिल्ली, गला तथा कंठनाल पर खुजलाहट उत्पन्न करता है और साथ ही साथ निमोनिया का प्रभाव रहता है ।

शरीर के अंदर द्रव रूप में घुलनशीलता ही इसका रुचिकर गुण है । श्वसन-मार्ग में यदि कहीं पर भी बैनेडियम के धूलिकण जब घुल जाते हैं तो रक्त के साथ मिलकर ये यकृत, आहार नली, गुर्दे तथा अन्य अंगों में चल जाते हैं जहाँ पर स्थानीय प्रभाव उत्पन्न होता है ।

अंतत: ये पेशाब मार्ग से बाहर निकल जाते हैं और फेफड़ों को कोई हानि नहीं होती । घुलनशील अकार्बनिक धूलि में मैंगनीज तथा सिलिनियम भी हैं जो श्वसन एपिथिलियम को प्रभावित करते हैं और फलस्वरूप न्यूमोनिटिस रोग हो जाता है ।

कैडमियम तथा निकिल धूलि के अंत:श्वसन से फेफड़ों तथा तंत्रों पर अभिक्रिया होती है । प्लेटिनम तथा इसके लवणों की धूलि से दमा (अस्थमा) का रोग हो जाता है । सीसा तथा इसके यौगिक अधिक विषैला होने के कारण श्वसन-तंत्र पर अधिक प्रभाव डालते हैं ।

धूलि तथा धूम श्वास के साथ तथा भोजन के समय हाथों पर लगा सीसा आँतों में पहुँच जाता है । पहले लैड मोनोक्साइड के रूप में यह फेफड़ों में जाता है और घुलकर लैड फास्फेट बनाता है जो अघुलनशील तथा बहुत ही हानिकर है ।

बहुत-सी धातुएँ गर्म होने पर धूम उत्पन्न करती हैं जिनके द्वारा ज्वर हो जाता है । यद्यपि यह धूम धूलि नहीं होती फिर भी संघनन के कारण वाष्प के कणों की संख्या अधिक हो जाती है और कण काफी महीन हो जाते हैं ।

सांद्रता अधिक तथा आकार में एक माइक्रोन से भी कम होने के कारण ये धातुई-धूम धूलि के समान होते हैं । निम्न वाष्पशीलता वाले स्नेहक तेल, जिनका क्वथनांक 350° सेल्सियस से अधिक है, गर्म होने पर निरंतर धूम उत्पन्न करते हैं ।

यद्यपि ये विषाक्त नहीं होते, किंतु प्रतिचयन के समय हस्तक्षेप कर सकते हैं । ढलाई का काम, वेल्डिंग, प्लास्टिक के कार्य करने पर ये ही धातुई धूम रोग उत्पन्न कर देते हैं । त्वचा, फेफड़ों तथा आमाशयांत्र द्वारा ट्राई-नाइट्रो-टालुइन की धूलि का शोषण किया जाता है ।

थैलिक एन्हाइड्राइड, डाई फिनाइल ग्यूनिडीन तथा रबर उद्योग में अन्य उपयोगी घुलनशील कार्बनिक रसायन, जो प्रतिजीव-विषकारक तथा त्वरक के रूप में प्रयुक्त होते हैं, धूलि के रूप में उपरोक्त तीनों अंगों द्वारा शोषित कर लिए जाते हैं ।

परिणामस्वरूप त्वचाशोथ रोग उत्पन्न हो जाता है । कपास (रूई) धूलि श्वसन मार्ग को प्रभावित करती है जिस कारण बिसिनोसिस रोग फैल जाता है । इसी प्रकार सन, जूट तथा गन्ने की धूलि फुस्फुस, शारीरिक तथा त्वचा प्रभाव का मूल कारण जानी जाती है ।

काटने, रगड़ने, पत्री बनाने, पीसने तथा इन उत्पादकों को सँभालने से जो धूलि-बादल बनते हैं उनका आकार 5 से 10 माइक्रोन होता है । कोयला खनन कर्मियों में सिलीकोसिस तथा न्यूमोनियोसिस आदि रोग लग जाते हैं । चीनी मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कारखानों (पोटरी) तथा इस्पात के कारखानों में, जहाँ पर सिलिका अधिक प्रयोग किया जाता है, कर्मियों को सिलिकोसिस रोग हो जाता है ।

रबर टायर उद्योग में जहाँ मैगनीशियम सिलिकेट उपयोग में आता है,  न्यूमोकोनियोसिस रोग से कर्मी ग्रस्त हो जाते हैं, कोयला धूलि, क्वार्टज तथा ऐस्बेस्टोस धूलि से फाइब्रोसिस नामक रोग हो जाता है । आर्सेनिक रसायनों से कार्य करने पर श्वसन-नलिका द्वारा प्राप्त की गई धूलि से फेफड़ों में कैंसर उत्पन्न हो जाता है ।

निकिल कार्बोनाइल द्वारा उत्पन्न धूलि से नाक-फेफड़ों में कैंसर हो जाने की संभावना है । डामर तोड़ते समय निकली धूलि के कारण त्वचा में कैंसर हो जाता है । ऐसी धूलि तथा धुंध, जिसमें थोड़ी-सी भी मात्रा क्रोमेट की है, पलकों, नथुनों तथा नासिकाभित्ति पर फोड़ा (व्रण) बना देती है ।

इन सभी स्थानों पर कैंसर के लिए मोनोक्रोमेट ही उत्तरदायी है । रंग-रोगन तथा रबर उद्योगों में काम ओने वाले कार्बनिक नाइट्रोजन यौगिकों से रसौली बन जाती है । अत: एनीलीन बैंजोडीन तथा अल्फा-नैपथैलीमीन की धूलि अंत:श्वसन के रूप में जाती है तो रसौली उत्पन्न कर देती है ।

सन् 1914-18 ई. के युद्ध के समय जो व्यक्ति ज्योतिषमान डायलों पर रंग कर रहे थे, उन पर रेडियोधर्मी पदार्थों का प्रभाव पड़ रहा था । यह होने वाली हानि सर्वप्रथम इसी अवधि में पाई गई । प्राय: रंग करने वाले कर्मियों को महीन कार्य करने के लिए होंठों से अपने ब्रुश को नुकीला करने का अभ्यास होता है । चूँकि रंगों में रेडियम अथवा जिंक सल्फाइड मिश्रित मैसोथोरियम पदार्थ होते हैं, अत: इस कारण ऐसे कर्मी जो रंग करने का कार्य करते हैं, होंठों पर कैंसर के रोग से ग्रस्त हो जाते हैं ।

मानव-शरीर में रेडियम शोषण, अंतर्ग्रहण अथवा धूलि रूप में अंत:श्वसन से जब प्रवेश करता है तो अस्थियों में संचित होकर स्थायी रेडियोधर्मिता उत्पन्न कर देता है ओर रोग असाध्य हो जाता है । अल्फा कणों को उत्सर्जित करने वाली धूलि, चाहे अंत:ग्रहण से अथवा अंत:श्वसन से शरीर में प्रविष्ट हुई है, बहुत ही हानिप्रद है । अत: अल्फा कण जैविक प्रभावों में अन्य दूसरे बीटा, गामा, एक्स-रे या समान ऊर्जा वाले किसी भी कण से दस गुना अधिक प्रभावशाली होता है ।

अल्फा कण हीलियम परमाणु के केंद्रक होते हैं और इनका जल अथवा मानव ऊतक में 50 माइक्रोन से कम क्षेत्र होता है । अत: इनके द्वारा उत्पन्न संपूर्ण आयनीकरण छोटे ही स्थान में सांद्र हो जाता है, जहाँ धूलिकण संचित होते हैं, उसी के निकट कोशिकाओं को अधिक हानि पहुँचाता है ।

जबकि बीटा किरणों का क्षेत्र जल अथवा ऊतक में से दो सेंटीमीटर की दूरी तक होता है, गामा किरणें कुछ मीटर तक प्रवेश कर जाती है । अत: शरीर में जो कण बीटा तथा गामा किरण उत्सर्जित कर रहे हैं, आयनीकरण के पश्चात् अधिक क्षेत्र में फैल जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप इनकी सांद्रता कम हो जाती है और यही कारण है कि अल्फा कण अधिक प्रभावशाली एवं हानि पहुँचाने वाले हैं ।

बीटा तथा गामा किरणें बाह्य स्रोतों से अधिक हानिकारक हैं और इनकी रोकथाम दस्ताने अथवा ढाल से की जा सकती है, किंतु अल्फा कण त्वचा में ही शोषित हो जाते हैं । अत: अंत:श्वसन एक गंभीर संकट उत्पन्न करता है ।

सीसा तथा प्लूटोनियम ऐसे ही अल्फा कण उत्पादक रेडियोधर्मी पदार्थ हैं । अल्फा कण उत्सर्जित करने वाले पदार्थ रेडोन से फेफड़ों में कैंसर हो जाता है । जिस व्यक्ति को उपचार हेतु रेडियम दिया गया हो उसके श्वास में रेडोन के कण तथा थोरियम देने पर थोरोन के कण पाए गए हैं ।

यद्यपि अल्फा-उत्सर्जकों का सुदूर नियंत्रण अथवा ढकने की कोई समस्या नहीं है फिर भी इनको पाउडर के रूप में प्रयोग करना हानिप्रद है । यह सर्वविदित है कि गृहिणी घर की साज-सज्जा तथा सफाई का ध्यान रखती है ।

इसके लिए उसे घर में झाडू देने, दरी झाड़ने, बिस्तरों की चादर झाड़ने तथा पुस्तकें व दरवाजे आदि को साफ करना होता है । इस प्रकार गृहिणी नाना रूप में धूलि अंत:ग्रहण करती रहती है । ऐसे कार्य करने से वह प्रतिदिन धूलि के संपर्क में आती है और घरेलू धूलि के अंत:ग्रहण से एलर्जी उत्पन्न हो जाती है ।

एलर्जी में साधारणतया नासाशोथ, दमा, पित्ती, त्वचा उद्भेदन, संधिशोथ तथा आंत्रशोथ आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं । बहुत-से उत्तेजक पदार्थ एंटीजन रूप में काम करते हैं । जब एंटीजन मानव-शरीर में शोषित होती है तो ये रक्त में रोग-प्रतिकारक बनाने में उत्तेजित करते हैं और यह प्रारंभिक कदम सुग्राहीकरण की रचना करते हैं ।

इसके परिणामस्वरूप हिस्टेमीन जैसे अन्य यौगिक निकलकर अशुद्ध एलर्जी को उत्पन्न करते हैं । घरेलू धूलि में रूई, रुआँ, पंख तथा अनेक वस्तुएँ ऐसी होती हैं जो व्यक्ति को संवेदी बना देती हैं । घरेलू धूलि में कंकरी अधिक मात्रा में पाई जाती है जिसको क्लोरोफॉर्म से अलग किया जा सकता है, क्योंकि क्लोरोफॉर्म में कंकरी नीचे बैठ जाती है जबकि दूसरे अवयव आपेक्षिक घनत्व कम होने के कारण तैरते रहते हैं ।

इन अवयवों में मुख्यत: कपड़ों के रेशे, परागकण, फफूँदी के बीजाणु, कवक तथा बैक्टीरिया, वनस्पति कूड़े के कण, राख के कण, कार्बन, अग्नि के कारण वायुमंडलीय प्रदूषण से निकले डामर पदार्थ तथा उद्योगों में मशीनों से उत्पन्न धूलिकण भी सम्मिलित हैं ।

दूर स्थानों से वायु द्वारा लाए गए फंगस बीजाणु भी अंतःग्रहण करने पर एलर्जी का मुकाबला करना पड़ता है । अत: जो व्यक्ति इनसे प्रभावित होते हैं, वर्षा ऋतु में आराम अनुभव करते हैं । घरेलू धूलि से क्षयरोग होने का अधिक भय रहता है ।

जब एक व्यक्ति छींकता अथवा थूकता है तो जो पदार्थ भूमि पर पड़ा उससे पानी तो वाष्प बनकर उड़ गया और शेष कीटाणु झाडू देने के समय श्वास में आ गए । इस प्रकार रोग फैल जाते हैं, अत: रोगियों के थूक, लार तथा नाक-गंध से अन्य व्यक्तियों को बचाना श्रेयष्कर होगा ।

इस प्रकार के बैक्टीरिया स्त्रियों के प्रजनन के समय अथवा घाव पर अधिक प्रभावशाली पाए गए हैं । अत: घरेलू धूलि से प्रदूषण रोकने के लिए घर अथवा सड़कों पर झाडू लगाने से पूर्व पानी से भूमि भिगो लेनी चाहिए ।

यदि किसी इमारत को गिराना हो तो उसकी दीवारों को पहले पानी से भिगो लेना चाहिए जिससे कि धूलि-प्रदूषण न हो । जहाँ तक हो सके आँधी तथा तूफान से उत्पन्न धूलि से अपने आपको सुरक्षित रखना चाहिए ।

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