रासायनिक प्रदूषण पर निबंध | Essay on Chemical Pollution in Hindi.

यदि कोई भी पदार्थ जो हरा हो, खाद्य हो अथवा विसर्जित हो, जब खुले स्थानों पर डालते हैं तो प्रकाश में क्रिया होने के पश्चात् उससे गैसें निकलती रहती हैं और इस प्रकार वायु में मिलकर वायु को प्रदूषित करती हैं । इसी प्रकार चाहे पदार्थ कार्बनिक है अथवा अकार्बनिक रासायनिक क्रिया के पश्चात् वायु में गैस बनकर मिल जाता है और फलस्वरूप रासायनिक प्रदूषण का रूप धारण कर लेता है ।

संभव है कि इन गैसों का प्रभाव किन्हीं परिस्थितियों में प्राणी पर उदासीन अथवा अनुकूल हो, किंतु इनका प्रभाव प्रतिकूल अधिक होता है । गैसों का प्रतिकूल प्रभाव केवल मनुष्यों, पालतू और जंगली जानवरों, पौधों आदि पर ही नहीं पड़ता, बल्कि संपूर्ण परिस्थिति विज्ञान पर पड़ता है ।

आज मानव-जाति के सम्मुख उन्नत प्रौद्योगिकी की उपलब्धियों के उत्पादकों के रूप में उत्पन्न पर्यावरणीय प्रदूषण की समस्या सबसे जटिल है । अनेक देशों में अत्यधिक औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप फैक्टरियों में बहुधा विषैले द्रव निकलते हैं और इनके द्वारा भूमि, जल अथवा वायु प्रदूषित हो जाती है ।

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इसके अलावा प्रदूषकों में कीटनाशी भी प्रमुख हैं । कीटनाशी वे रासायनिक पदार्थ हैं जो फसलों की कोई-मकोड़े तथा पादप रोगों से रक्षा के लिए अथवा भंडारित खाद्य के संरक्षण के लिए प्रयोग किए जाते हैं । सबसे अधिक प्रदूषण को उत्पन्न करने वाली कीटनाशी औषधियाँ हैं । पिछले बीस वर्षों से ये औषधियाँ अधिक प्रयोग में लाई जा रही हैं और इसी कारण संपूर्ण परिस्थिति विज्ञान के लिए रासायनिक प्रदूषण एक चुनौती बनता जा रहा है ।

द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व नीला थोथा (कॉपर सल्फेट), लैड आर्सेनेट, तथा कैल्सियम आर्सेनेट, अकार्बनिक पदार्थ अनेक वर्षों से कीटनाशी के रूप में प्रयुक्त किए जाते थे, किंतु डी.डी.टी. के विकास के प्रारंभ से क्लोरिनीकृत हाइड्रोकार्बन का प्रयोग अधिक होने लगा है ।

इस श्रेणी में डाइएल्ड्रिन, एल्ड्रिन, टोक्सेफीन, लिंडेन तथा क्लोरेडेन कीटनाशी पदार्थ होते हैं । इनके साथ-साथ पैराथियोन तथा मैलाथियोन जैसे कार्बनिक फास्फोरस यौगिकों का भी उत्पादन होने लगा है । कार्बनिक फास्फोरस यौगिक का लगातार असर क्लोरीनीकृत हाइड्रोकार्बन से कम होता है । उर्वरकों तथा कीटनाशियों के प्रयोग से हम अपने देश में खाद्य-पदार्थों का उत्पादन बढ़ाने में काफी सफल हो गए हैं, लेकिन इन कीटनाशियों के अंधाधुंध प्रयोग ने कृषकों को अनेक रोग दिए हैं ।

कृषि के आधुनिकीकरण के कारण मशीनों का प्रयोग बढ़ा है ओर अब किसान अपनी फसलों को काटने तथा अनाजों को इकट्ठा करने में तरह-तरह की मशीनों का प्रयोग करने लगे हैं जिससे फसल के काटने के समय किसान को खाद्य-पदार्थों की धूलि में रहना पड़ता है और धूलि के अभिश्वसन के कारण उनके फेफड़ों में विशेष प्रकार का रोग हो जाता है जिसे ‘फार्मर्स लंग’ या ‘कृषक फुस्फुस’ कहते हैं ।

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खाँसी, सांस लेने में कठिनाई तथा हलका बुखार इस रोग के लक्षण हैं । फसल काटने के समय किसान इस रोग से प्रभावित हो जाते हैं । परंतु रोग के लक्षण तीन माह पश्चात अच्छी तरह से दिखाई देने लगते हैं । रोग खास तौर से सूखी घास की धूलि के कारण होता है ।

भारत में कृषि में नाशक-जीवनाशियों का महत्व इस आधार पर आँका जा सकता है कि गत कुछ वर्षों में इन रसायनों का प्रयोग लगातार बढ़ता रहा है । यह देखते हुए कि हमारी खेती योग्य भूमि के केवल एक तिहाई भाग में ही पेड़-पौधों के संरक्षण की सुविधा हो पाई है, नाशक-जीवनाशियों का उपयोग अभी बढ़ने की पर्याप्त गुंजाइश है ।

आजकल प्रयुक्त कीटनाशी मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं- एक तो कार्बनिक क्लोरीन और दूसरे कार्बनिक फास्फोरस यौगिक । कार्बनिक क्लोरीन यौगिक, जो खेती में उपयोग किए जाने वाली सबसे पहले संश्लेषित कीटनाशी हैं, जल तथा वसा में घुलनशील होती हैं ।

इसका एक उदाहरण डी. डी. टी. है जिसका विषहीन पदार्थ में सरलता से विघटन नहीं होता, परंतु जहाँ इसका प्रयोग किया जाता है, ठोस अणु के रूप में यह विद्यमान रहता हैं । वसा (चर्बी) में घुल जाने के कारण यह जंतुओं की चर्बी में इकट्ठा हो जाता है, जहाँ से यह भाजन में मिल सकता है या फिर जंतु के शरीर से बाहर निकालने के लिए इस पानी में घुलनशील व्युत्पन्नों में बदलना पड़ता है ।

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इसके परिवर्तन की गति बहुत मंद होती है और यदि डी.डी.टी. काफी इकट्ठा हो गया हो तो इससे यकृत आदि अंगों को नुकसान पहुंचने का डर रहता है । इस प्रकार कार्बनिक क्लोरीन कीटनाशी चिरकालीन अथवा दीर्घावधि विषाक्तता की समस्या उत्पन्न करते हैं । इस प्रकार कार्बनिक क्लोरीन यौगिक भूमि अथवा जल में रह आते हैं ।

जल में रहने वाली मछली इन यौगिकों को ग्रहण कर सकती है और अपने शरीर में संचित कर लेती है । ऐसी मछली को खाने वाले अन्य जंतुओं में कीटनाशी की कुछ मात्रा प्रवेश कर जाएगी और इस तरह भोजन की श्रृंखला में यह क्रम बना रहेगा । अब तथ्य सिद्ध हो चुका है कि सभी व्यक्तियों की वसा में यह यौगिक कुछ अंश में उपस्थित रहता है ।

कार्बनिक फास्फोरस यौगिक उक्त यौगिकों की अपेक्षा अधिक देर तक नहीं ठहरते और अपेक्षतया आसानी से विषहीन, व्युत्पन्नों में परिवर्तित हो जाते हैं । इसलिए इन यौगिकों को भूमि, जल अथवा जंतुओं के शरीर की वसा में काफी समय तक कोई विशेष इकट्ठा होता नहीं देखा गया है ।

परंतु एक बात ध्यान देने योग्य है कि यौगिक बहुत ज्यादा तीव्र विषाक्त होते हैं और इसलिए बड़ी सावधानी के साथ इनका प्रयोग किया जाना चाहिए । इसलिए प्रश्न यह उठता है कि कीटनाशियों के अवशेष से उत्पन्न होने वाले विषैले प्रभाव तथा इसके विपरीत उनके प्रयोग से मानव-जाति को होने वाले लाभों का किस प्रकार समन्वय किया जाए ?

इसमें कोई संदेह नहीं कि कीटनाशियों के प्रयोग से हमें अत्यधिक लाभ हुआ है, इसलिए उनका प्रयोग बंद करना महान् भूल होगी । अत: हमें इस तरह उनको प्रयोग में लाना चाहिए, जिससे कि उनसे केवल लाभ ही हो, हानि नहीं ।

अब तो यह दर्शाया भी जा चुका है कि कीटनाशियों का उपयोग इस प्रकार किया जा सकता है जिससे केवल लाभ ही हो । प्रमुख बात यह है कि कीटनाशियों का प्रयोग जानकार व्यक्तियों की देख-रेख में ही किया जाना चाहिए ।

फसल विशेष के लिए कीटनाशी-विशेष की सही मात्रा का उचित समय पर उपयोग किया जाना चाहिए । कीटनाशी के अंतिम छिड़काव और फसल-कटाई के बीच काफी समय का अंतर रहना चाहिए, जिससे कि पौधों पर एक कीटनाशी का अहानिकर पदार्थों में अपघटन हो जाए ।

परंतु, इन साधारण-सी सावधानियों को बहुत-से किसान व्यवहार में नहीं लाते, विशेषकर शहर के नजदीक सब्जी तथा अन्य महँगी फसलों को उगाने वाले इस ओर ध्यान नहीं देते । हैदराबाद के बाजारों में उपलब्ध सब्जियों, अनाज, दूध, अंडा तथा गोश्त का अपनी इच्छानुसार नमूना लेकर केंद्रीय पादप संरक्षण प्रशिक्षण संस्थान, हैदराबाद ने सर्वेक्षण किया ।

परिणामों से पता चला है कि 100 सब्जियों, 37 धान्यों, 5 दूध, 5 अंडे और 5 गोश्त के नमूनों में क्रमशः 65, 14, 4, 3 और 4 कार्बनिक क्लोरीन कीटनाशी के अवशेष विद्यमान थे । उपयुक्त विषाक्त नमूनों में से 22 सब्जियों, 14 धान्यों, 4 दूध और 3 अंडे के नमूनों में तो विषाक्तता यू. एस. एफ. डी. ए. द्वारा निर्धारित सह्य सीमा से अधिक थी ।

संस्थान में किए गए परीक्षणों के दौरान बैंगन और टमाटर के पौधों पर पंद्रह-पंद्रह दिन के अंतर से 2 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर की मात्रा में मैलेथियोन छिड़का गया जो कि साधारण मात्रा से दुगुनी मात्रा है । पौधों पर फल लगने पर नमूने लेकर मैलेथियोन अवशेष का मूल्यांकन किया गया । पता चला कि मैलेथियोन की अवशिष्ट मात्रा 24 घंटों में ही निर्धारित मानकों से कम हो गई और 48 घंटे की अवधि तो इस रसायन से मुक्ति पाने के लिए आवश्यकता से अधिक है ।

इसका अर्थ यह हुआ कि यदि मैलेथियोन छिड़कने के 48 घंटे पश्चात बैंगन तथा टमाटर का प्रयोग किया जाए तो इनको खाने से कोई नुकसान नहीं होगा । इन परिणामों से हमें शिक्षा मिलती है कि किसानों को अधिक से अधिक तथा सही सूचना दी जानी चाहिए और उन्हें सुरक्षा नियमों के पालन पर जोर देने के लिए कहा जाना चाहिए ।

अन्यथा वे सारे समाज के स्वास्थ्य के लिए संकट पैदा कर सकते हैं । यह तथ्य है कि सभी कीटनाशी हानिकर हैं, परंतु उनके उपयोग की विधियाँ निश्चित ही उनको अहानिकर बना सकती हैं । प्रारंभ से ही मनुष्य पृथ्वी पर अपने जीवन को अधिक से अधिक सुखमय बनाने का प्रयास करता रहा है । बड़े पैमाने पर विभिन्न प्रकार के उत्पादों का निर्माण करने वाले बड़े-बड़े औद्योगिक नगरों ने हमारे जीवन में क्रांति ला दी है और मनुष्य को बहुधा इस उन्नति और समृद्धि के लिए बहुत बड़ी कीमत अदा करनी पड़ी है ।

ऐसा तभी हुआ जब उसने औद्योगिक व्यवसायों के स्वास्थ्य-संकटों की उपेक्षा की । विगत काल में हुई अनेक भयंकर दुर्घटनाओं को थोड़ी-सी सावधानी से ही रोका जा सकता था । अब उद्योग व्यवस्थापक धीरे-धीरे औद्योगिक हाइजीन की ओर ध्यान दे रहे हैं ।

उद्योगों में स्वास्थ्य-संकट कार्य-परिस्थितियों और प्रयुक्त पदार्थों की प्रकृति, प्रक्रम व प्रयुक्त मशीनों से होते हैं । प्रक्रम और मशीनें दिन-ब-दिन अधिकाधिक जटिल और भिन्न होती जा रही है और उद्योगकर्मी ऐसी परिस्थितियों के प्रभाव में लगातार आठ घंटों तक प्रतिदिन रहते हैं, जिनका जनसाधारण को अपने दैनिक जीवन में कभी आभास भी नहीं होता ।

ये परिस्थितियां दीर्घ अवधि में जाकर न केवल उनके स्वास्थ्य क लिए हानिकर सिद्ध होती हैं, बल्कि कर्मी की कार्यदक्षता व उत्पादकता पर भी बुरा प्रभाव डालती हैं । इस प्रकार इन स्वास्थ्य-संकटों से उद्योग को दुहरा नुकसान होता है । एक तो काम पर से प्रशिक्षितकर्मी की अनुपस्थिति के कारण और दूसरे, उत्पादन में कमी के कारण ।

उद्योगकर्मियों के स्वास्थ्य-संकटों को प्रभावन की प्रकृति के अनुसार सामान्यतया तीन वर्गों में रखा जा सकता है- विषैले रसायन, भौतिक कारक और जैव कारक । इनमें से किसी एक द्वारा अथवा सबके मिले-जुले प्रभाव से कर्मी का चिरकारी रोग भी लग सकता है अथवा शरीर में कोई खराबी भी आ सकती है ।

इसका प्रभाव तात्कालिक ओर घातक हो सकता है जैसा कि किसी विषैले पदार्थ के साथ होता है, अथवा धीमा और अशक्ततापूर्ण भी हो सकता है जैसा कि सिलिकोसिस में होता है । समस्त संसार में उद्योगों में आजकल अनेक प्रकार के रसायनों का निर्माण, उपयोग व संसाधन किया जाता है ।

निकट के कुछ वर्षों में रसायन उद्योग का बहुत तेजी के साथ विकास हुआ है । उद्योग में कर्मियों को प्रभावित करने वाले रसायन धूलि, धूम, कुहासा, वाष्प और गैसों आदि के रूप में हो सकते हैं । पर्यावरण को प्रदूषित करने में आज गैस दुर्घटनाएँ विश्वव्यापी समस्याएं पैदा कर रही हैं ।

वायुमंडल को किसी भी राजनीतिक अथवा देश-विदेश की सीमाओं में विभाजित नहीं किया जा सकता । अत: गैस दुर्घटनाओं से होने वाले पर्यावरण-प्रदूषण से संपूर्ण विश्व को खतरा उत्पन्न होना स्वाभाविक है । यों तो विश्व के विभिन्न भागों में अनेक दुर्घटनाएँ हुईं, जिनमें असंख्य व्यक्तियों एवं प्राणियों को मौत का शिकार होना पड़ा, किंतु बीसवीं शताब्दी में विश्व की भयंकरतम गैस दुर्घटना 2-3 दिसंबर, 1984 की रात्रि 12.30 बजे भोपाल (म. प्र.) में घटी ।

लंदन में सन् 1952, 1956, 1957 और 1963 में गैस दुर्घटनाएँ हुई । न्यूयॉर्क में सन 1953, 1963 तथा 1966 में और डोनोर एवं पेनसिल्वेनिया में सन् 1948 में घटीं । क्लोरीन गैस के कारण नोयडा (उ. प्र.) तथा ओलियम गैस के कारण दिल्ली में श्रीराम फूड एंड फर्टिलाइजर्स में भी छोटी-मोटी दुर्घटनाएँ हुई ।

लंदन में दिसंबर, 1952 में लगभग 4000 व्यक्ति चिरनिद्रा में लीन हो गए जबकि भोपाल गैस दुर्घटना में अपुष्ट समाचारों के आधार पर लगभग 20,000 व्यक्तियों ने दम तोड़ दिया । 26 अप्रैल, 1986 को चेरनोबिल (रूस) में मरने वालों की संख्या लगभग 2000 थी । ऐसी घटनाओं का केवल सामयिक प्रभाव ही नहीं होता, बल्कि उसके दूरगामी परिणाम पर्यावरण को इतना प्रदूषित कर देते हैं कि उसे संतुलन की अवस्था में लाना सरल काम नहीं होता है ।

जब-जब ऐसी गैस दुर्घटनाएँ होती हैं, वे मानव, जीव-जगत् पशु-पक्षी, पेड़-पौधे तथा प्राकृतिक सौंदर्य सहित किसी को भी क्षमा नहीं करती हैं । जो भी उनके प्रभाव-क्षेत्र में आता है, किसी न किसी प्रकार की हानि अवश्य उठाता है । यहाँ तक कि गर्भ में पल रहे भ्रूण भी अछूते नहीं रहते ।

भोपाल की विषैली गैस जैसी दुर्घटनाएँ किसी के भी प्रति दया नहीं दर्शाती हैं, बल्कि उनके रास्ते में आने वाले सभी प्रकार के जीव उनके विषैले प्रभाव से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते । यह विषैला प्रभाव वायु की गति और दिशा पर अधिक निर्भर करता है ।

बताया जाता है कि भोपाल में जानलेवा गैस मिथाइल आइसोसाइनेट (एम. आइ. सी. या ‘मिक’) थी । मिथाइल आइसोसाइनेट का उत्पादन फॉस्जीन, क्लोरीन तथा कार्बन मोनोक्साइड जैसी विषैली गैसों के मिश्रण से होता है । वैसे सरकारी तौर पर इस बात की पुष्टि की जा चुकी है कि कारखाने की टंकी से रिसने वाली गैस मिथाइल आइसोसाइनेट ही थी, किंतु कुछ विशेषज्ञों ने इसे मानने से इंकार कर दिया है ।

उनके अनुसार लीक करने वाली गैस मिथाइल आइसोसाइनेट न होकर फॉस्जीन थी जो ‘मिक’ की अपेक्षा अधिक घातक होती है । इसका कारण यह है कि भोपाल के तापमान में ‘मिक’ का गैस के रूप में लीक होना असंभव है । यदि यह मान भी लिया जाए कि रिसने वाली गैस एम. आई. सी. ही थी तो इस तथ्य से कदापि इंकार नहीं किया जा सकता कि उसमें फॉस्जीन मिली हुई थी ।

वस्तुतः एम. आई. सी. को 99.5 प्रतिशत शुद्धता के स्तर पर रखा जाता है और उसमें 0.1 प्रतिशत फॉस्जीन मिलावट की छूट रहती है । जैसा बताया गया है, यदि उस रात भोपाल में चालीस टन एम. आई. सी. गैस का रिसाव हुआ तो उसमें चालीस किलोग्राम फॉस्जीन मिली रही होगी ।

संभवतः आपको याद हो कि यह वही फॉस्जीन गैस है, जिसे प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान (दिसंबर 1915 में) जर्मन सैनिकों ने शत्रु सेना के हजारों सैनिकों को मौत के घाट उतारने के काम में लिया था । मिथाइल आइसोसाइनेट एक अत्यंत विषैला रसायन है ।

इसे आइसोसाइनेट मीथेन भी कहते हैं । थोड़े समय के लिए भी इस गैस के बीस पी.पी. एम. के अधिक सांद्रता के प्रभाव में रहने से मनुष्यों की मृत्यु हो सकती है । इसका अणु भार 57.05, आपेक्षिक घनत्व 0.96 (20°C), गलनांक 45°C, क्वथनांक 39.1°C , वाष्पदाब 348 एम. एम. एच-जी.1 (20°C पर) है । यह एक वाष्पशील, रंगहीन, आंसू लाने वाला, तरल रासायनिक पदार्थ है ।

इसके प्रभाव से आँखों और त्वचा में जलन होती है । यह त्वचा के छिद्रों से शरीर में प्रवेश कर सकती है और इसके प्रभाव से साँस लेने में कठिनाई और दमा के मरीज जैसी हालत हो जाती है । यह शरीर के अंदर रक्त के हीमोग्लोबिन (लाल रक्त कणिकाएँ) को साइनाइड में बदल देती है ।

इससे शरीर के विभिन्न भागों को ठीक ऑक्सीजन नहीं मिल पाती और मृत्यु हो जाती है । किमेंर्ली और एबेन (1964) न एक प्रयोग में मनुष्यों पर भी इसके प्रभाव का परीक्षण किया है । यह अत्यधिक घातक है । यदि इसे एक विशेष तापमान पर न रखा जाए तो यह गैस में परिवर्तित हो जाता है ।

यद्यपि ‘मिक’ पानी में बहुत कम घुलनशील होती है, किंतु पानी में इसकी क्रिया बहुत ही शीघ्र होती है ओर ताप उत्पन्न होता है । मिक के इसी गुण के कारण यह अनुमान लगाया गया कि भोपाल के यूनियन कार्बाइड कारखाने के टैंक में जल प्रवेश कर जाने के कारण टंकी में इतना अधिक ताप और दाब उत्पन्न हो गया कि टंकी से गैस का रिसाव होने लगा ।

पानी की अनुपस्थिति में मिथाइल आइसोसाइनेट, मोनो मिथाइल एमीन और कार्बन डाइऑक्साइड में विखंडित हो जाता है । मिथाइल एमीन की कुछ मात्रा बचे हुए आइसोसाइनेट से क्रिया करके एल्काइ यूरिया बनाती है ।

इस ताप उत्पन्न करने वाली रासायनिक क्रिया में मिथाइल कार्बोनिक अम्ल बनती है जो बाद में विघटित हो जाती है । मोनो मिथाइल एमीन पानी में अच्छी प्रकार घुलनशील है । पानी में नाइट्रेट और नाइट्राइटों की उपस्थिति से नाइट्रोसो एमीन बन जाते हैं जो आगे चलकर कैंसर जैसे घातक रोग उत्पन्न कर सकते हैं ।

यहाँ एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि दो और तीन दिसंबर की रात को वायु का प्रवाह इस प्रकार का था कि वह कारखाने से रिसने वाली गैस को दक्षिण कि और उड़ा ले गया । इसका परिणाम यह हुआ कि भोपाल के प्रमुख जलाशयों-छोटी झील का पूरा क्षेत्र और बड़ी झील का तीस प्रतिशत क्षेत्र इस विषैली गैस से दूषित हो गया ।

इसके अतिरिक्त घरों में भंडारित जल भी अवश्य ही प्रभावित हुआ होगा । यह बड़े आश्चर्य की बात है कि इसके बावजूद भी इस बात की वार-बार घोषणा की गई कि भोपाल में जल भोजन पकाने और पीने योग्य है- वह भी बिना किसी जाँच के ।

इस प्रदूषित जल के उपयोग से कितने दुष्परिणाम होंगे, यह तो भविष्य के गर्भ में है । एम. आई. सी. स्वयं में एक कीटनाशक है जो ‘निमैटोड’ मारने के काम आता है । किंतु आम तौर से इसका उपयोग कीटनाशक रसायनों के उत्पादन में किया जाता है ।

इससे बनाए जाने वाले रसायनों (औषधियों) में सेविन, एल्डीकार्ब, और बी.पी.एम.सी. प्रमुख हैं । सेविन फलों और सब्जियों, एल्डीकार्ब टमाटर के पौधों और बी. पी. एम. सी. चावल के लिए कीटनाशी के रूप में प्रयोग होते हैं ।

भोपाल में हुई इस भीषण दुर्घटना ने पुन: इस तथ्य को स्पष्ट कर दिया है कि आधुनिक तकनीक मानवता के लिए शुद्ध वरदान ही नहीं है, इस दुर्घटना का जो सबसे भयावह पहलू सामने आया है वह यह कि भयंकर नरमेध के अतिरिक्त गैस के रिसाव ने पारिस्थितिकी तंत्र को भी तहस-नहस कर डाला है ।

इस विषैली गैस ने अपने मार्ग में आने वाले हर जीवित तंतु पर अपना कुप्रभाव छोड़ा है- चाहे वे मानव हों या पेड़-पौधे या पशु-पक्षी । केवल यही नहीं, बैक्टीरिया (जीवाणु) और फंगस (कवक) जैसे अत्यंत सूक्ष्म जीवाणुओं को भी इसने मौत की नींद सुला दिया ।

इन सभी विचित्रताओं का कारण एक ही था कि ‘मिक’ के जहर भरे प्रभाव ने उन सारे सूक्ष्म जीवाणुओं को भी चपेट में ले लिया है जो मानवों में निमोनिया उत्पन्न कर सकते थे या मृत शरीर में सड़ांध । प्रश्न यह है कि निमोनिया या लाशों की दुर्गंध से बच जाना क्या इतनी बड़ी राहतें हैं कि हम पारिस्थितिक तंत्र में पैदा होने वाले भीषण असंतुलन की ओर से आंखें मूँद लें ?

सच तो यह है कि जल, मिट्टी, पेड़-पौधों और पर्यावरण से समाप्त हो गए सूक्ष्म जीवाणुओं के फलस्वरूप, भविष्य के दूरगामी परिणामों की उपेक्षा नहीं की जा सकती । प्रकृति में एक सुनिश्चित जीव सृष्टि-क्रम है और सभी जीवों का जीवन सहजीविता और परंपरावलंबन पर आधारित है । मानवी जिस्म में भी-त्वचा, नाक, कान, मुँह आदि स्थानों में निवास करने वाले जीवाणु अनेक रोगों से हमारी रक्षा करते हैं ।

भूमि में नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करने वाले जीवाणु, हवा में स्थित नाइट्रोजन को सोखकर वनस्पतियों को देने वाले जीवाणु, हवा से नाइट्रोजन द्वारा मानवों को प्रोटीन देने वाले जीवाणु- इस सभी की जीवन में इतनी महत्वपूर्ण भूमिका है कि इनका विनाश भोपाल के क्षेत्र विशेष के पारिस्थितिक संतुलन को पूरी तरह नष्ट कर चुका है ।

वहाँ के जलाशयों में मछलियाँ तो समाप्त हो ही चुकी है, अन्य जल-जीव और सूक्ष्म जीव भी नष्ट हो गए हैं । अत: इनकी अनुपस्थिति में पुन: इन जलाशयों में मत्स्यपालन करना भी असंभव प्रतीत होता है । भोपाल की ‘मिक’ प्रदूषित वायु और मिट्टी में क्या कुछ पेड़-पौधे उगाए जा सकेंगे ? या उगने वाले फल और सब्जियाँ क्या खाने योग्य रहेंगे ? क्या उन्हें खाने से आगे चलकर किसी रोग या शारीरिक क्षति की आशंका नहीं है ?

ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनका इस समय कोई भी उत्तर नहीं दिया जा सकता । वैसे उस क्षेत्र में मच्छरों का प्रकोप समाप्त हो गया है । मनुष्यों, जानवरों और पेड़-पौधों में रोग उत्पन्न करने वाले अनेक जीव समाप्त हो गए हैं । किंतु आश्चर्यजनक रूप से इस जहरीली गैस के प्रभाव से मुर्गियाँ अछूती रह गई हैं और गुलाब के पौधों का भी यह विषैली गैस कुछ नहीं बिगाड़ सकती है ।

यह अलग से शोध का विषय हो सकता है । चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि दिसंबर 1984 में यूनियन कार्बाइड कारखाने में मिथाइल आइसोसाइनेट (मिक) के रिसन से प्रभावित हुए भोपाल के लोगों में अब भी रह-रहकर इस विष-प्रभाव के लक्षण प्रकट होते हैं और उनके उपचार में सोडियम थायोसल्फेट सर्वोत्तम पाया गया है ।

मिक-प्रभाव का अध्ययन करने वाले चिकित्सकीय विशेषज्ञों के अनुसार भी जिन गैस-प्रभावित का उपचार थायोसल्फेट से किया गया उनमें से करीब 60 प्रतिशत की हालत में काफी सुधार पाया गया है । इनका कहना है कि इन रोगियों की चिकित्सा में स्टेराइड्‌स हारमोन-युक्त है, जिसके यौगिक के उपयोग की सिफारिश नहीं की जा सकती । वैसे गैस-पीड़ितों को साँस लेने में कठिनाई की शिकायतों में ब्रोंकोडायलेटर्स प्रभावी पाए गए हैं ।

विशेषज्ञों के अनुसार गैस-प्रभावित लोगों में मिक के प्रभाव के लक्षण ज्यादातर एक माह के अंतर से देखे जाते हैं । तब उन्हें आंखों में जलन, माँसपेशियों में तथा पेट में दर्द और साँस लेने में कठिनाई की शिकायतें होती हैं और उसके लिए सोडियम थायोसल्फेट देना बहुत ठीक रहता है ।

सोडियम थायोसल्फेट की तीन ‘खुराकें’ ही रोगी को विष-प्रभाव से मुक्त करने के लिए पर्याप्त होती हैं । रोगी को जब भी मिक के लक्षण दिखाई दें, उसके चौबीस घंटे के अंदर पहली ‘खुराक’ दी जानी चाहिए । दूसरी ‘खुराक’ तीन या चार दिन में और तीसरी एक या दो माह बाद ।

विशेषज्ञ गैस-प्रभावितों में साइनाइड के लक्षण का मिक के साथ साँस में हाइड्रोजन साइनाइड का सीधा प्रवेश अथवा शरीर में ही मिक के साइनाइड का सीधा प्रवेश अथवा शरीर में ही मिक का साइनाइड मूलकों में रूपांतरण बताते हैं ।

गैस-प्रभावितों के रक्त का चेरी के फल जैसा रंग और उनके मूत्र के नमूनों में थायोसाइनाइड की बढ़ी हुई मात्रा भी इस बात का प्रमाण है कि मिक या उसके विघटन से उत्पन्न पदार्थों के कारण साइनाइड जैसे यौगिक उनके शरीर में उत्पन्न हुए हैं ।

देश की प्रगति के लिए उद्योगों का विकास तो रोका नहीं जा सकता । अत: यदि हमें घातक गैसों से होने वाले प्रदूषण से बचना है तो गैसों की संभावित दुर्घटनाओं के स्रोतों एवं प्रयोग किए जा रहे रसायनों पर सुरक्षात्मक तथा उपचारात्मक व्यवस्था का प्रबंध करना होगा ।

उद्योगों में जो पदार्थ काम में लाए जाते हैं और जो विषाक्तता अथवा रोग का कारण बनते हैं, वे सामान्यतया ठोस, द्रव अथवा गैस के रूप में पाए जाते हैं । निर्माण को प्रक्रिया में इनसे धूलि, धूम, वाष्प, गैसें तथा हानिकर किरणें निकल सकती हैं ।

कार्य के दौरान ये वस्तुएँ श्वास द्वारा, मुख द्वारा अथवा त्वचा द्वारा ही प्रभावित कर सकती हैं । अधिकांश मामलों में ये श्वास द्वारा ग्रहण की जाती हैं और इस प्रकार श्वास ही शरीर में इनके पहुँचने का मुख्य मार्ग होता है । फेफड़ों में पहुँचकर ये पदार्थ रक्त द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हैं और अंगों में पहुँचकर रोग उत्पन्न करते हैं ।

बहुत-से व्यावसायिक रोग महीनों या कई वर्षों तक लगातार उसी प्रकार का काम करते रहने के बाद प्रकट होते हैं । बहुत धीरे-धीरे विकसित होने के कारण प्रारंभिक अवस्था में इन रोगों का पता नहीं चलता और यह कर्मी के लिए हानिकारक सिद्ध होता है ।

इसलिए विषैले पदार्थों से काम करने बाले कर्मियों की समय-समय पर डॉक्टरी जाँच आवश्यक होती है । अधिकांश पदार्थों का त्वचा पर अथवा आँख, नाक और मुख की श्लेष्म झिल्ली पर स्थानिक प्रभाव होता है ।

यह प्रभाव निम्न रूपों में प्रकट हो सकता है:

1. एग्जीमा,

2. त्वक् दाह (अम्ल व बेस द्वारा),

3. मुहाँसे (पेराफिन तेल द्वारा),

4. ऐंथ्रेक्स (ऐंथ्रेक्स किटाणु द्वारा),

5. कैंसर (एक्स किरण आदि के द्वारा),

6. हाथों, पैरों और नासिका भित्ति पर व्रण (क्रोमियम यौगिक द्वारा),

7. श्वास नली में क्षोभ (अम्ल, धूम व कुहासा द्वारा),

8. आँखों में सूजन (विद्युत आर्क वैल्डिंग के कारण) ।

इन स्थानिक प्रभावों के अलावा रक्त में मिल जाने पर ये विषैले पदार्थ फेफड़ों, यकृत, मस्तिष्क आदि अंगों के कार्यों में विकार उत्पन्न कर सकते हैं जिसका परिणाम उग्र विषाक्तता अथवा चिरकारी विषाक्तता हो सकता है ।

यह शरीर में पहुंचने वाली विष की मात्रा तथा शरीर में इसके संचित होते रहने की अवधि पर निर्भर करता है । उद्योगों में अनेक प्रकार के पदार्थों का उपयोग किया जाता है । यदि इन्हें समुचित सावधानियों के साथ प्रयोग में न लाया जाए तो ये अधिकांशत: किसी न किसी रूप में रोग उत्पन्न कर सकते हैं ।

ये पदार्थ हैं:

(क) सीसा, पारा, क्रोमियम, मैंगनीज, जस्ता, कैडमियम, बैरीलियम, रेडियम, आर्सेनिक आदि धातुएँ तथा उनके यौगिक ।

(ख) अम्ल, बेस आदि कार्बनिक व अकार्बनिक रसायन ।

(ग) श्वासावरोधी गैसें (मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड हाइड्रोसायानक एसिड गैस आदि), क्षोभकारी गैसें (अमोनिया, क्लोरीन, सल्फर डाइऑक्साइड) तथा संवेदनाहारी रसायन (ईथर, कार्बन टेट्राक्लोराइड, बैंजीन, एनीलीन, नाइट्रोबैंजीन) ।

(घ) हानिकर धूलि, जो कि निम्न प्रकार की हो सकती है:

1. खोई, रूई, सन, आटा, जूट, लकड़ी तथा कोयला आदि वानस्पतिक धूलि;

2. कार्बन, ग्रेफाइट, सीमेंट एसबेस्टास, सिलिका आदि की अकार्बनिक धूलि;

3. कार्बन डाइसल्काइड, ट्राइक्लोरोएथिलीन क्लोरोफार्म, बैंजीन आदि जैसे विलायक ।

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