अन्य देशों के साथ भारत के रिश्ते पर निबंध | Essay on India’s Relationship with other Countries in Hindi.

भारत के सामने आज सबसे बडी चुनौती पड़ोसियों से संबंध सुधारने की है । चीन से संबंधों के सामान्यीकरण का दारोमदार सीमा-विवाद के हल पर अधिक निर्भर है । पाकिस्तानने परमाणु कार्यक्रम तथा अमेरिका और कोरिया द्वारा दी जाने वाली शस्त्र सहायता भारत के लिए चिंता का मामला है ।

इसे विडंबना ही समझा जा सकता है कि आज पाकिस्तान और भारत के संबंध भारत-बंगलादेश संबंधों की अपेक्षा मधुर नहीं है । श्रीलंका भी भारत को दक्षिण एशिया में दादागिरी के हैसियत वाला देश मानता रहा है उधर नेपाल भी भारत की सहायता के बजाय चीन से अधिक निकट संबंध रखे हुए है ।

अतः आज भारत के सामने सबसे बडी चुनौती यही है कि वह अपने पडोसियो से मधुर संबंध कैसे बनाये तथा साथ ही अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका राष्ट्रीय हितों को ध्यान रखते हुए प्रभावी तरीके से निभाए । भारत के पडोसी देशों में पाकिस्तान, नेपाल, चीन, बंगलादेश, भूटान और श्रीलंका प्रमुख है । जिनके साथ भारत के संबंधों का वर्णन विस्तृत रूप में किया जाएगा ।

1. भारत-पाकिस्तान संबंध (India-Pak Relation):

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एशिया महाद्वीप में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की समाप्ति के साथ एक नये संघर्ष की शुरूआत हुई जिसके परिणाम स्वरूप इस क्षेत्र में शांति शब्द का ही लोप हो गया । यह संघर्ष है दो पड़ोसी देशों का संघर्ष जिसे भारत-पाक संघर्ष के नाम से जाना जाता है । पाकिस्तान की विदेश नीति का आधार भारत विरोध रहा है । कश्मीर का प्रश्न इस नीति की प्रमुख अभिव्यक्ति है ।

कश्मीर को प्राप्त करने के लिए कभी अमेरिका तथा ब्रिटेन का पिछलग्गू बने रहने की नीति तो कभी चीन की चापलूसी यही संकेत देती है कि उसका भारत विरोध हमेशा बना रहेगा । भारत-पाक संघर्ष की प्रकृति को सही रूप से समझने के लिए भारत-विभाजन में निहित तथ्यों का अध्ययन करना अपरिहार्य है । विभाजन की घटना ने दो समुदायों के बीच घृणा, अविश्वास और वैमनस्य को स्पष्ट ढंग से उजागर किया है ।

कुलदीप नैय्यर के शब्दों में- ”विभाजन के लिए आप किसी को भी दोषी ठहरायें वास्तविकता यह है कि इस पागलपन ने दो समुदायों और दो देशों के बीच दो पीढियों से भी अधिक समय तक के लिए संबंधों में कड़वाहट उत्पन्न कर दी ।”

भारत-पाक संबंधों को प्रभावित करने वाली समस्याएँ मुख्यतः तीन प्रकार की है:

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1. विभाजन से उत्पन्न होने वाली समस्याएं:

इन समस्याओं में हैदराबाद विवाद बहुत महत्वपूर्ण था हैदराबाद का निजाम स्वतंत्र राज्य का सपना संजोये हुए था । पाकिस्तान इसमें सहयोग दे रहा था, परिणामस्वरूप हैदराबाद की लूटमार स्थिति से निपटने के लिए भारत को सैनिक कार्यवाही करनी पडी और हैदराबाद रियासत को भारत में सम्मिलित कर लिया गया ।

पाकिस्तान ने इस प्रश्न को संयुक्त राष्ट्र में उठाया लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला । दूसरे जूनागढ़ के प्रश्न पर जनमत संग्रह के माध्यम से जूनागढ भारत में सम्मिलित हुआ, पाकिस्तान ने जूनागढ़ को लेकर भारत विरोधी प्रचार किया । तीसरे, ण अदायगी का प्रश्न उत्पन्न हुआ । दोनों देशों के बीच विभाजन के बाद आमदनी और कर्ज का बटवारा एवं लागत धन के बीच संतोषजनक बंटवारा करना था भारत ने तो ऋण अदा कर दिया परंतु पाकिस्तान ने ऐसा नहीं किया ।

चौथे, विभाजन के बद शरणार्थियों की समस्या उभर कर आई । पाकिस्तानी क्षेत्र से भागकर आए शरणार्थियों की समस्या आज भी बनी हुई है और पाकिस्तान ने इसको सुलझाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है ।

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कश्मीर विवाद:

पाकिस्तान और भारत के बीच कश्मीर का विवाद प्रमुख है । भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर स्थित कश्मीर भारत और पाकिस्तान को जोड़ता है । यहाँ के हिंदू राजा ने विलय के लिए कोई निर्णय नहीं लिया था कि तभी 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया ।

कश्मीर के राजा ने भारत से सहायता मांगी तथा भारत में विलय का प्रस्ताव रखा । भारत ने प्रस्ताव स्वीकार कर अपनी सेनाएँ कश्मीर भेज दी तथा कश्मीर को भारत में मिला लिया गया लेकिन जो हिस्सा पाकिस्तान ने कब्जा लिया वह आज भी उसके पास है तथा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के नाम से जाना जाता है ।

1 जनवरी 1949 को दोनों के बीच युद्ध विराम हो गया तथा दोनों देशों ने संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया । संयुक्त राष्ट्र के अनुसार कश्मीर में जनमत संग्रह कराना था लेकिन पाकिस्तान के बगदाद पैक्ट में शामिल होने तथा पाक-अधिकृत कश्मीर को न छोड़ने के कारण भारत ने जनमत संग्रह को स्वीकार नहीं किया ।

इसके बाद 1954 को अनुच्छेद 370 के अंर्तगत भारत ने कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दे दिया । इसके बाद भी पाकिस्तान बार-बार कश्मीर का प्रश्न उठाता रहा है ।

1965 में भारत-पाक युद्ध:

अप्रैल 1965 में कच्छ के रन को लेकर भारत-पाक में युद्ध छिड़ गया । पाकिस्तानी सेना कश्मीर में आ घुसी 14 सितंबर 1965 को सुरक्षा परिषद के एक प्रस्ताव पर 22 सितंबर 1965 को दोनों देशों में युद्ध बंद हो गए । इसके बाद ताशकंद समझौता संपन्न हुआ ।

ताशकंद समझौता:

10 जनवरी 1966 को सोवियत संघ के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप भारत-पाक के रिश्तों को सामान्य करने के लिए ताशकंद में एक समझौते पर हस्ताक्षर किये गए जिसे ताशकंद समझौता कहा जाता है । इस समझौते के अंर्तगत दोनों देशों में एक-दूसरे के आंतरिक मामलों के प्रत्यार्वतन तथा एक-दूसरे की हस्तगत की हुई संपत्ति की वापसी के आधार पर भी हस्ताक्षर किये ।

भारत-पाक युद्ध 1971 तथा शिमला समझौता:

पूर्वी पाकिस्तान (बंगलादेश) पर पश्चिमी पाकिस्तान के बढ़ते अत्याचारों के कारण बंगालियों ने स्वतंत्रता की माँग शुरू कर दी । परिणामस्वरूप पाकिस्तानी सेना ने वही मारकाट शुरू कर दी जिससे तंग आकर बंगालियों ने भारत में शरण लेनी शुरू कर दी । इसी समय पाकिस्तानी सेनाओं ने भारत के हवाई अड्‌डों पर भी बमबारी कर दी और युद्ध भड़क गया ।

युद्ध में पाकिस्तानी सेना ने भारत की सेनाओं के सामने आत्मसमर्पण कर दिया । बंगलादेश को स्वतंत्रता प्राप्त हुई तथा एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा हुई । इसके बाद दोनों देशों में वार्ता हुई और 3 जुलाई 1972 को शिमला में एक समझौता हुआ जिसके अंर्तगत दोनों देशों ने परस्पर संघर्ष को समाप्त करने की घोषणा की ।

दोनों ने बिना एक-दूसरे को क्षति पहुंचाए कश्मीर में 17 दिसंबर, 1971 को हुए युद्ध विराम के फलस्वरूप नियंत्रण रेखा को स्वीकार करने को राजी हो गए साथ ही भारत ने पाकिस्तान की जीती हुई 5,139 वर्ग मील भूमि उसे लौटा दी ।

2. भारत विरोधी नीति तथा जिहाद की नीति से उत्पन्न होने वाली समस्याएं:

भारत-पाक संबंधों में कटुता और वैमनस्य कई बार साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से भी उत्पन्न हो जाता है । धार्मिक और साम्प्रदायिक वैमनस्य को पाकिस्तान के शासक जान बूझकर बनाये रखना चाहते हैं ।

पाकिस्तान ने इसका सहारा लेकर कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों को समर्थन दिया है तथा जिहाद के नाम पर कश्मीरियों को भड़काकर उसे भारत से पृथक करने की योजना पर वह कार्यवाही करता आ रहा है लेकिन भारत ने कश्मीर में स्वतंत्र चुनाव कराके इस स्थिति पर लगभग काबू पा लिया है ।

3. पाकिस्तान की सीटों, सेंटो की सदस्यता तथा भारत की किलेबंदी से उत्पन्न होने वाली समस्याएं:

पाकिस्तान सीटों (1955) तथा सेटों (1955) जैसे सैनिक संगठनों का सदस्य बनकर अपनी सैनिक शक्ति को बढ़ाने के लिए भारत विरोधी प्रचार का सहारा लेकर, अमेरिका तथा अन्य देशों से सैनिक सहायता ली है । अन्य बडी शक्तियों के बहकावे में आकर पाकिस्तान भारत के विरूद्ध चीन तथा बंगलादेश को भारत विरोधी मुहिम में साथ देकर भड़का रहा है ।

साथ ही पाकिस्तान में आतंकवाद को प्रोत्साहन देकर भारत के आंतरिक मामलों में हमेशा हस्तक्षेप किया है । मुम्बई बम विस्फोट, संसद पर हमला, आदि में पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों का ही स्पष्ट हाथ रहा है ।

भारत-पाक संबंध सुधारने के प्रयत्न:

भारत-पाक संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में ताशकंद समझौता तथा शिमला समझौता महत्वपूर्ण प्रयास थे । 1974 में दोनों देशों के बीच डाक, तार, यात्रा, आदि विषयों पर समझौता हुआ । 14 अप्रैल, 1978 को सलाल-जल विद्युत परियोजना पर सलाल-जल संधि हुई । दोनों देशों के बीच 17 दिसंबर, 1985 को एक छ: सूत्री समझौता हुआ जिसके अंर्तगत एक-दूसरे के परमाणु ठिकानों पर हमला नहीं करने का संकल्प पारित हुआ ।

जुलाई 1997 में पाकिस्तान की यात्रा भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने की और लाहौर घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किये गए । इसी के तहत दिल्ली, लाहौर बस चलाई गई तथा एक समझौता एक्सप्रैस गाड़ी दोनों देशों के बीच चली इसके अलावा दोनों देशों ने ‘सार्क’ की सदस्यता लेकर-आपसी सहयोग की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किये ।

2. भारत-श्रीलंका संबंध (India-Sri Lanka Relation):

भारत और श्रीलंका दोनों पडोसी एवं गुटनिरपेक्ष देश हैं दोनों के बीच अनेक समानताओं के बावजूद मतभेद की दीवारें भी कम ऊँची नहीं रही हैं । औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त होने का बाद दोनों देशों के बीच कुछ मुद्दों पर मामूली मतान्तर उभर कर सामने अवश्य आए, किंतु स्थिति नियंत्रण में रही लेकिन कुछ सालों के बाद दोनों पक्षों के बीच अनेक मसलों पर विवादों ने खतरनाक खाई पैदा की ।

भारतीय प्रवासियों की समस्या:

श्रीलंका में अधिकतर भारतीय प्रवासी 1948 में श्रीलंका के स्वतंत्र होने तक ब्रिटिश नागरिकों के रूप में समान अधिकारों एवं मताधिकार का लाभ उठाते थे परंतु 1948 के सीलोन नागरिकता अधिनियम एवं सीलोन संसदीय अधिनियम 1949 के द्वारा इन्हें मताधिकार से वंचित कर दिया गया । इस समस्या को सुलझाने के लिए भारतीय सरकार ने हस्तक्षेप किया ।

जनवरी 1954 में नेहरू कोरलावाला समझौता हुआ जिसके अनुसार:

(i) श्रीलंका सरकार उन सभी भारतीय मूल के लोगों के नाम रजिस्टर करेगी जो श्रीलंका में स्थायी रूप से रहने के इच्छुक हैं ।

(ii) भारतीयों के लिए श्रीलंका में एक चुनाव रजिस्टर बनेगा ।

(iii) जो श्रीलंका की नागरिकता नहीं चाहते उन्हें भारत वापिस भेज दिया जाएगा ।

श्रीलंका सरकार ने इन समझौते का ईमानदारी से पालन नहीं किया और भारतीय मूल के बहुत सारे व्यक्तियों को नागरिकता विहीन बना दिया । इससे एक बार फिर भारत श्रीलंका संबंधों में कटुता उत्पन्न हो गई ।

1956 के भाषा विवाद से यह समस्या और बढ़ गई परंतु श्रीमती भंडारनायके के प्रधानमंत्रीत्व काल में संबंध सुधरे और अक्टूबर 1964 में शास्त्री और भंडारनायके के बीच एक समझौता हुआ जिसके अनुसार:

(i) श्रीलंका में रह रहे वे सभी भारतीय नागरिक जो अभी तक किसी भी देश के नागरिक नहीं हैं वे भारत या श्रीलंका में से किसी एक की नागरिकता अपनाएं ।

(ii) समझौते के अनुसार 5,25,000 व्यक्तियों को भारत तथा 3,00,000 व्यक्तियों को श्रीलंका अपनी नागरिकता प्रदान करेगा ।

(iii) आने वाले 15 वर्षों के भीतर यह कार्य पूरा कर लिया जाएगा ।

कच्छदीप टापू का मामला:

कच्छद्वीप भारत और श्रीलंका के समुद्री तटों के बीच 200 एकड़ का एक छोटा सा द्वीप है । दोनों देश इस भूखंड पर अपना अधिपत्य जमाते हैं । विवाद को सुलझाने के लिए भारत ने 28 जून 1974 को एक समझौते के अनुसार कच्छदीप टापू पर श्रीलंका की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली ।

श्रीलंका की जातीय समस्या एवं भारत श्रीलंका संबंध:

श्रीलंका की कुल आबादी में से 13 प्रतिशत श्रीलंका के तमिल तथा 6 प्रतिशत भारतीय मूल के तमिल हैं । अनेक कारणों से श्रीलंका के तमिलों में असुरक्षा, अविश्वास और आतंक की भावना विद्यमान रही है । जयवर्द्धन की सरकार ने तमिलों के विरूद्ध घोर भेदभाव की नीति अपनाई । तमिल के कुछ उग्रवादी संगठनों ने Elam (LTTE) के नाम से पृथक राष्ट्र की माँग करते रहे हैं ।

भारत की चिंता इस समस्या में यह होती है कि इन घटनाओं में श्रीलंका के लोग भारत में शरणार्थी बन कर आ जाते हैं । इसके अलावा श्रीलंका सरकार ने इस समस्या में भारत के हस्तक्षेप के अलगाव अमेरिका, ब्रिटेन, पाकिस्तान में सैनिक सहायता के आश्वासन की भी माँग की । समस्या के समाधान के लिए भारत ने शुरू में बातचीत का रास्ता अपनाया परंतु वार्ताएँ विफल रहीं ।

श्रीलंका सरकार ने तमिल विद्रोहियों का सफाया करने के लिए जाफना की आर्थिक नाकेबंदी कर उस पर चौतरफा हमला कर दिया । अतएव जून 1987 में मानवीय आधार पर भारत ने जाफना की पीड़ित जनता को राहत सामग्री विमानों द्वारा पहुँचाई ।

राजीव-जयवर्द्धन समझौता:

दोनों प्रधानमंत्रियों के बीच 29 जुलाई 1987 को कोलम्बो में एक 18 सूत्रीय समझौता हुआ । इसे ‘कोलम्बो समझौता’ भी कहते हैं ।

जिसके अनुसार:

(i) उत्तरी प्रान्त में 48 घंटों के भीतर युद्ध विराम

(ii) तमिल उग्रवादियों द्वारा 72 घंटों में हथियार डालना

(iii) उत्तरी प्रान्त में जनमत संग्रह कराना

(iv) भारत में श्रीलंका के शरणार्थियों को श्रीलंका सरकार वापिस ले लेगी

(v) श्रीलंका में गिरफ्तार राजनीतिक लोगों को छोड़ दिया जाएगा आदि मुद्दों पर समझौता हुआ ।

श्रीलंका की बहुसंख्यक सिंहली जनता ने इसका तीव्र विरोध किया । यह समझौता भारत की कूटनीतिक सफलता मानी जाती है ।

श्रीलंका में भारतीय शांति सेनाएं:

राजीव-जयवर्द्धन समझौते के अंर्तगत, भारतीय शांति सेनाएँ श्रीलंका भेजी गई । शांति सेना का उद्देश्य जाफना के उग्रवादियों को घेरकर उन्हें आत्मसमर्पण के लिए बाध्य करना था । मुक्ति चीतों ने इस समझौते को स्वीकार नहीं किया और परिणामतः बडी संख्या में भारतीय जवान मारे गए । भारतीय नेताओं ने शांति सेना श्रीलंका भेजने की आलोचना की ।

प्रेमदासा ने राष्ट्रपति बनने के साथ भारत सरकार से शांति सेना की वापसी का अनुरोध किया । अतः जनवरी 1989 से शुरू होकर मार्च, 1990 तक सभी शांति सैनिक भारत वापिस लौट आए । भारत की शांति सेना तमिलों में आम सहमति का निर्माण करने में बिल्कुल असफल रही ।

भारत श्रीलंका आर्थिक सहयोग:

भारत श्रीलंका में तमिलों के जातीय मसले का ऐसा शांतिपूर्ण समाधान चाहता है जो उसकी सामान्य आकांक्षाओं के अनुरूप हो । साथ ही भारत श्रीलंका के साथ वाणिज्यिक, आर्थिक, औद्योगिक, वैज्ञानिक, तकनीकी तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में व्यापक स्तर पर द्विपक्षीय संबंधों को विकसित करना चाहता है ।

इसी के तहत 1991 में एक करार पर हस्ताक्षर किए गए । दोनों देशों के बीच 1992 से 1994 तक सांस्कृतिक आदान-प्रदान के कार्यक्रम पर हस्ताक्षर किये गए । भारत ने जनवरी 1996 में एक करार के जरिये श्रीलंका 105 करोड का नया ऋण भी दिया ।

निष्कर्ष:

भारत-श्रीलंका संबंध सामान्य बने रहे यह दक्षिण एशिया की राजनीतिक स्थिति तथा विश्व में बढ़ते आतंकवाद पर काबू पाने में एक सुअवसरित कदम होगा । इस संबंध में भारत ने श्रीलंका सरकार से सहयोग की भूमिका निभाने का आहवान किया है ।

भारत ने चंद्रिका कुमारतुंगा की योजना का स्वागत किया है जिसके तहत श्रीलंका की अखंडता की समस्या को सुलझाने की बात की गई है । अतः दोनों देशों ने सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक सहयोग के लिए द्विपक्षीय वार्ता के लिए आगे आकर संबंधों को और अधिक प्रगाढ़ बनाने की कोशिश की है ।

3. भारत-बंगलादेश संबंध (India-Bangladesh Relation):

भारत और बंगलादेश घनिष्ठ पड़ोसी हैं और इसलिए अपने विकास और उन्नति हेतु एक-दूसरे के साथ सहयोग कायम करने के लिए दोनों ने सहयोग का रास्ता अपनाया है । हालांकि दोनों के बीच किन्हीं मुद्दों पर तनाव भी उभरा है । भारत ने बंगलादेश के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जब 6 दिसंबर 1971 को भारत ने बंगलादेश को मान्यता दी उस समय पाकिस्तानी सेना बंगलादेश में अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत थी ।

10 दिसंबर 1971 को श्रीमती इंदिरा गाँधी और बंगलादेश के तत्कालीन कार्यवाहक राष्ट्रपति नजसता इस्लाम के मध्य संधि हुई जिसके अनुसार भारतीय सेनापति की अध्यक्षता में एक संयुक्त कमान का निर्माण किया गया । जब 16 दिसंबर 1971 को बंगलादेश में पाकिस्तानी सेना के कमांडर जनरल नियाजी ने हथियार डाल दिये तो स्वतंत्र बंगलादेश का निर्माण हो गया । स्वतंत्र बंगलादेश के निर्माण के समय से लेकर भारत-बंगलादेश संबंध मैत्रीपूर्ण रहे और 1972 में एक मैत्री संधि हुई ।

1972 की मैत्री संधि:

19 मार्च, 1972 को भारत-बंगलादेश के बीच एक मैत्री संधि हुई जिसकी अवधि 25 वर्ष की थी । इस संधि के द्वारा दोनों देशों ने एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने, एक-दूसरे की सीमाओं का आदर करने, एक-दूसरे के विरूद्ध किसी अन्य देश की सहायता नहीं करने, विश्व शांति और सुरक्षा को दृढ़ बनाने का संकल्प लिया ।

25 मार्च, 1972 को एक व्यापार समझौता हुआ जिसके अनुसार सीमाओं के दोनों तरफ सोलह-सोलह किलोमीटर तक स्वतंत्र व्यापार की व्यवस्था की । बांग्लादेश के आर्थिक पुनर्निर्माण के लिए भारत ने 25 करोड़ रुपये मूल्य का मील और सेवाएँ प्रदान करने का वचन दिया । 30 सितंबर, 1972 को दोनों देशों के बीच एक सांस्कृतिक समझौता हुआ ।

1974 में एक सीमा समझौता हुआ इस प्रकार 1975 तक संबंध मधुर बने रहे । 15 अगस्त, 1975 को शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या कर दी गई । फिर राजनीतिक उठा-पटक के बाद 24 मार्च, 1982 को जनरल इरशाद मुख्य ली प्रशासक बन गए । जनरल इरशाद ने भारत के विरूद्ध कठोर रूख अपनाया ।

फरक्का समस्या:

बांग्लादेश ने गंगा के पानी के बँटवारे की समस्या (फरक्का विवाद) को संयुक्त राष्ट्र तथा अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उछालकर इस विवाद को अंतर्राष्ट्रीय रूप देने का प्रयत्न किया । भारत ने बांग्लादेश को इसे अंतर्राष्ट्रीय रूप न देकर वार्ताओं के द्वारा हल करने के लिए मना लिया और 26 सितंबर, 1977 को एक समझौता हुआ जिसे फरक्का समझौता कहा जाता है ।

इसमें 2 व्यवस्थाएं की गई:

(i) अल्पकालीन व्यवस्था जिसके अनुसार 12 अप्रैल से 30 अप्रैल तक भारत को 20,800 क्यूबेक और बांग्लादेश को 34,700 क्यूबेक पानी मिलेगा,

(ii) दीर्घ कालीन व्यवस्था जिसके अंर्तगत दोनों देशों ने अपने ऊपर गंगा के प्रवाह को तेज करने की जिम्मेदारी ली और 1972 में स्थापित संयुक्त आयोग को इस संबंध में जाँच करके इस प्रस्ताव की व्यवहारिकता पर सिफारिशें देने की बात की लेकिन बांग्लादेश ने इसके स्थायी समाधान की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया बल्कि उसने गंगा जल वितरण व्यवस्था को बहुपक्षीय एवं अंतर्राष्ट्रीय बनाने का प्रयास किया ।

अल्पसंख्यकों की समस्या:

बांग्लादेश के हिंदू और बिहारी मुसलमान अपने आपको सुरक्षित महसूस नहीं करते, परिणामस्वरूप वे अवैध रूप से भारत में आते हैं जिससे भारत के सीमावर्ती प्रदेशों-त्रिपुरा, असम, बंगाल, मिजोरम में कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ जाती है । भारत के बार-बार कहने पर भी बांग्लादेश ने इसके लिए कोई प्रयास नहीं किया है ।

मुहरी नदी सीमा विवाद:

1974 के समझौते के अनुसार मुहरी नदी के पानी की मध्य रेखा ही भारत-बांग्लादेश की सीमा रेखा है । बांग्लादेश रायफल के अधिकारियों ने इस समझौते का उल्लंघन करके 1979 में भारतीय जमीन पर अपना दावा पेश कियां जिससे विवाद की स्थिति पैदा हुई है ।

नवमूर द्वीप विवाद:

नवमूर द्वीप बंगाल की खाड़ी में उभरा 12 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र है । यह महाद्वीप भारतीय सीमाओं में होने के बावजूद बांग्लादेश इस पर अपना दावा करता है । अगस्त 1981 में बंगलादेश के आठ युद्धपोतों ने इस पर कब्जा करने का विफल प्रयास किया । वर्तमान में यह द्वीप भारत के ही अधिकार में है । बांग्लादेश ने इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठाने का प्रयास किया है ।

चकमा शरणार्थियों की समस्या:

 

बांग्लादेश से भागकर भारत में शरण ले रहे शरणार्थियों को चकमा शरणार्थी कहा जाता है । भारत ने इन्हें बांग्लादेश से वापिस लेने को कहा है परंतु बांग्लादेश ने इस दिशा में कोई ठोस कदम अब तक नहीं उठाया है ।

1980 के बाद भारत बांग्लादेश संबंध:

1982 में जनरल इरशाद ने भारत का दौरा किया और एक स्मरण पत्र पर हस्ताक्षर किये जिसके अनुसार 1977 के फरक्का समझौते को रद्द कर दिया गया और संयुक्त नदी आयोग को अगले 18 महीने के लिए गंगा जल के बहाव पर अध्ययन करने के लिए कहा गया । 30 जुलाई, 1983 को दोनों देशों के बीच तीस्ता जल समझौता हुआ जिसके अनुसार दोनों देश सूखे मौसम के दौरान तीस्ता नदी के पानी के तदर्थ आधार पर बँटवारे पर सहमत हो गए ।

22 नवंबर, 1985 को फरक्का बाँध पर एक समझौता हुआ जिसके दोनों तरफ से आपसी स्वीकृति से गंगा जल के सामूहिक उपयोग पर सहमति हुई । बांग्लादेश में संसदीय प्रणाली की पुर्नास्थापना (सितंबर 1991) तथा बेगम खालिदा जिया के प्रधानमंत्री बनने से भारत-बांग्लादेश संबंधों में मधुरता के अवसर बढ़ गए 1 मई 1992 में खालिदा जिया ने भारत की यात्रा की और तीन समझौतों पर हस्ताक्षर किये गए – (क) बाहरी और आवासी भावनों के निर्माण के लिए भूखंडों के

आदान-प्रदान का समझौता (ख) सांस्कृतिक और शैक्षिक आदान-प्रदान (ग) दोहरे कराधान में संबंध करार के दस्तावेजों का आदान-प्रदान ।

तथापि भारत-बांग्लादेश के बीच अनेक विवादों पर मतभेद कायम रहा । कुछ सकारात्मक गतिविधियों के बावजूद दोनों देशों के हित महत्वपूर्ण विवादों जैसे-गंगा ब्रह्मपुत्र नहर के निर्माण, सीमा पर पट्टा लगाना, चकमा शरणार्थी, अवैध प्रवासियों का भारत में अप्रवासन, समुद्रतटीय रेखा सीमावर्ती क्षेत्र में शांति करना इत्यादि पर अलग थे ।

नब्बे के दशक के मध्यकाल के दौरान बांग्लादेश की आंतरिक राजनीतिक समस्याएँ बढ़ गई और वहाँ सरकार का परिवर्तन हुआ । नई प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजिद ने गंगा नदी जल बटवारे पर तेजी से कार्य करने का प्रयास किया ।

गंगा जल बंटवारा संधि:

शेख हसीना ने भारत यात्रा के दौरान दिसंबर 1996 में गंगा जल बंटवारे की संधि पर हस्ताक्षर किये संधि की अवधि तीस वर्ष रखी गई तथा 5 वर्ष में इसकी समीक्षा की बात कही गई है । संधि के तहत 70 हजार क्यूबेक पानी की मात्रा होने पर दोनों देश पानी का आधा-आधा बंटवारा करेंगे । संधि लागू करने के लिए संयुक्त समिति गठित करने का निर्णय लिया गया ।

निष्कर्ष:

भारत-बांग्लादेश के बीच कतिपय मतभेदों के बावजूद दोनों देशों के संबंध मधुर अधिक है । हालांकि बांग्लादेश ने कई बार पाकिस्तान के बहकावे में आकर भारत विरोधी प्रचार किया है परंतु ये अच्छे पड़ोसी के नाते इन सब पर शांति के साथ वार्ता करके कोई हल निकालने की नीति अपनाकर सबध मधुर बनाने की दिशा में कार्यवाही की है और भविष्य में भी करते रहने का वचन दिया है ।

4. भारत-नेपाल संबंध (India-Nepal Relation):

नेपाल भारत और तिब्बत के बीच स्थित है और भारत-चीन के मध्य बफर स्टेट के रूप में कार्य करता है । इसकी स्थापना पृथ्वी नारायण शाह ने (1723-1774) में की । नेपाल भारत के लिए सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है । उत्तर में भारत की सुरक्षा आज एक बड़ी सीमा तक नेपाल की सुरक्षा पर निर्भर करती है ।

भारत सरकार ने शुरू से ही नेपाल की राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिति दृढ़ करने की नीति अपनाई । नवंबर 1947 में दोनों देशों ने राजदूतों को नियुक्त कर दिया जुलाई 1950 में भारत और नेपाल के बीच दो संधियाँ हुई-एक राजनीतिक और दूसरी व्यापारिक ।

1950 की भारत-नेपाल मैत्री संधि:

31 जुलाई, 1950 को यह संधि संपन्न हुई । इसके अनुसार-दोनों देशों की सरकारें एक-दूसरे की संप्रभुत्ता, प्रादेशिक अखंडता और स्वतंत्रता का सम्मान करेगी, मतभेद बातचीत से हल किये जाएंगे, नेपाल अपनी सुरक्षा के लिए जरूरी सैन्य सामान के लिए भारतीय भाग का प्रयोग करेगा, दोनों देशों के नागरिकों को औद्योगिक और आर्थिक विकास में भागीदारी आवागमन आदि में छूट दी जाएगी ।

इस संधि को नेपाल के अभिजन नेपाल की सामारिक, राजनीतिक और कूटनीतिक स्थितियों को कमजोर करने वाली संधि मानकर इसमें संशोधन करने की माँग कर रहे हैं ।

भारत ने सदा संयुक्त राष्ट्र में नेपाल की सदस्यता की वकालत की और 1985 में उसके सदस्य बनने पर प्रसन्नता प्रकट की पर विभिन्न कारणों से 1953-54 में नेपाली जनता का आक्रोश उभर कर सामने आया है । टेका प्रसाद आचार्य के प्रधानमंत्रित्व काल में नेपाल की विदेश नीति चीन में विशेष रुचि लेने लगी ।

दोनों देशों ने एक-दूसरे के यही यात्राएँ की । 1962 के चीन युद्ध के समय नेपाल तटस्थ रहा परंतु चीनी आक्रमण से वह चौकन्ना अवश्य हो गया । 23 सितम्बर, 1964 को भारतीय विदेश मंत्री सरदार स्वर्ण सिंह ने नेपाल की यात्रा की और एक समझौता संपन्न हुआ जिसके अनुसार भारत ने नेपाल के लिए 9 करोड़ की लागत में सुमाली और मध्यवर्ती नेपाल में ओखटा घाटी के बीच 120 मील लंबी सड़क के निर्माण का निश्चय किया ।

जनवरी 1966 में इंदिरा गाँधी ने नेपाल की यात्रा की । 1972 में राजा वीरेन्द्र नेपाल के महाराजा बने उन्हें नेपाल के विकास कार्यक्रमों में सहायता देने के लिए भारत की सराहना की । जनता पार्टी सरकार ने 1977-79 के मध्य नेपाल में मधुर संबंध स्थापित करने पर बल दिया और 1976 से अधर में लटकती हुई व्यापार और आवगमन संधि को संपन्न किया ।

भारत-नेपाल पारागमन संधि:

इस संधि के तहत नेपाल अन्य देशों से व्यापार करने के लिए भारत के बंदरगाहों का उपयोग कर सकता है । पाँच दिसंबर, 1998 को इस संधि के समाप्त हो जाने के बाद 5 जनवरी, 1999 को एक समझौते पर हस्ताक्षर करके इसे 7 वर्ष तक के लिए बढ़ा दिया गया है । ऐसा माना जा रहा है कि यह संधि भारत-नेपाल संबंधों महत्वपूर्ण योगदान देगी ।

मुद्दा कालापानी का:

नेपाल, भारत और तिब्बत से जुड़ा यह भाग प्रारंभ से ही भारत के अधिकार क्षेत्र में रहा है । नेपाल दावा कर रहा है कि यह भू-भाग उसका है वास्तव में यह एक छोटा सा क्षेत्र है जहाँ से काली नदी निकलती है । सन् 1818 की सिगौली की संधि में इस क्षेत्र को भारत का अंग माना गया था, पर नेपाल अब इसे स्वीकार नहीं कर रहा है ।

नेपाल की कम्यूनिस्ट पार्टी ने इसके लिए आंदोलन भी छेड़ रखा है । भारत ने इस को सामारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मानते हुए इसे अपने भू-भाग का हिस्सा ही बनाये रखा है ।

1980 के बाद भारत-नेपाल संबंध:

1980 के बाद भारत-नेपाल संबंधों में कुछ कड़वाहट पैदा हुई परंतु संबंध सुधारने की कोशिशें भी होती रहीं । 10 की व्यापार और विभिन्न संधि का नवीनीकरण से नेपाल ने इंकार कर दिया । जून 1990 में जाकर ही इस का नवीनीकरण एक समझौते के तहत किया जा सका । 5 दिसंबर, 1991 को गिरजा प्रसाद ने भारत की यात्रा की और पाँच समझौतों पर हस्ताक्षर किये ।

अक्टूबर 1992 में नरसिंह राव की नेपाल यात्रा के दौरान भारत में नेपाली निर्यात के पक्ष में कई तरह की रियायतों की घोषणा की । मई 1995 में नेपाल ने ‘सार्क’ के आठवें शिखर सम्मेलन में ‘सार्क’ के चार्टर में संशोधन की बात की ।

महाकाली संधि:

5 जनवरी, 1996 को भारत और नेपाल के बीच महाकाली नदी को लेकर एक संधि हुई । भारत ने इस नदी में पानी लेने के संबंध में नेपाल के समान अधिकारों तथा इस नदी संबंधी भविष्यकालीन कार्यक्रमों से नेपाल को होने वाले अंध लाभों के प्रति सहमति व्यक्त की ।

जनवरी 1996 में भारत नेपाल निर्यात को बढ़ावा देने के उद्देश्य से भारत-बांग्लादेश सीमा के फुलवारी नामक स्थान पर एक दूसरा व्यापार केंद्र खोलने पर सहमति हुई । प्रधानमंत्री गुजराल ने जून 1997 में अपनी नेपाल यात्रा के दौरान एक विद्युत व्यापार समझौता तथा नागरिक उड्डयन के क्षेत्र में एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किये ।

फिर भी यदा-कदा नेपाल भारत के संबंध तनावपूर्ण भी रहे हैं । नेपाल ने अपने को ‘शांति क्षेत्र’ घोषित करने की माँग की है भारत संपूर्ण महाद्वीप को शांति क्षेत्र घोषित करना चाहता है । भारत के IC-814 विमान को आतंकवादियों द्वारा अपहरण करने के कारण भी सबध तनावपूर्ण हुए ।

नेपाल में पाकिस्तानी आतंकवादियों के शिविर होने के सबूत मिलने की बात भारत ने उठाई है । नेपाल ने इसके लिए ठोस प्रयास करने की बात कही है । वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के प्रयास से दिल्ली से काठमांडू तक की बस सेवा का भी शुभारंभ किया गया ।

निष्कर्ष:

भारत और नेपाल के बीच अंतरंग रिश्ता रहा है लेकिन दोनों देशों के बीच कई द्विपक्षीय समझौतों में मतभेद का बिंदु भी स्पष्ट होता है । भारत-नेपाल कटुता संबंधों के लिए कुछ हद तक चीन को भी जिम्मेदार माना जा सकता है ।

भारत-नेपाल संबंध प्रगाढ़ हो इसके लिए जरूरी है जो भी द्विपक्षीय व्यापारिक संधि है । उसे जारी रखा जाए । साथ ही ‘सार्क’ के तहत तरजीही व्यापारिक आदान-प्रदान को विस्तारित किया जाना चाहिए ।

5. भारत-चीन संबंध (India-China Relation):

भारत के उत्तर में स्थित चीन एक बडा और शक्तिशाली राज्य है । भारत और चीन के पडोसी होने के नाते दोनों का संबंध बहुत पुराना है । प्राचीन काल में ही दोनों के मध्य सांस्कृतिक संबंध रहे हैं । पहले विदेशी अधिपत्य में आने के कारण दोनों के मध्य दूरियाँ बढ़ती गई । 1948 में चीन में कोमिन्ताग सरकार के पतन के बाद दोनों देशों के मध्य अंर्तसंबंधों की महता बढती गई ।

भारत पहला ऐसा गैर-साम्यवादी राष्ट्र था जिसने चीन को मान्यता प्रदान की । भारत ने पड़ोसी के प्रति शांति तथा सहयोग का दृष्टिकोण अपनाया है । नेहरू ने सितंबर 1946 में अपने भाषण में कुछ, ”चीन अपने इतिहास के साथ एक महान शक्तिशाली देश है, वह हमारा पड़ोसी है, वह युगों से हमारा मित्र रहा है, और यह मित्रता बने रहेगी, बढ़ेगी, फूलेगी ।”

लेकिन चीन की कठोर नीति के फलस्वरूप भारत-चीन संबंधों का प्रारंभ ठीक ढंग से न हो सका । चीन ने भारत को पश्चिमी साम्राज्यवाद का पिछलग्गु और नेहरू को बुर्जुआ साम्राज्यवादियों का दास बताया । इस तरह 1952 तक चीन का व्यवहार भारत के प्रति नकारात्मक रहा । 1950 में चीन ने तिब्बत पर सैनिक नियंत्रण कर लिया तो भारत ने इसका विरोध किया ।

सितंबर 1952 में भारत-चीन के मध्य समन्वयात्मक समझौता हुआ और भारतीय मिशन को लहासा में महावाणिज्य दूतावास का दर्जा दे दिया गया । इस तरह चीन-तिबत आक्रमण की बातें भारत द्वारा भुला दी गई ।

 

पंचशील सिद्धांत एवं तिब्बत समझौता:

प्रधानमंत्री नेहरू और चाउ-एन-लाई के मध्य 29 अप्रैल, 1954 को 8 वर्षीय व्यापार एवं परस्पर संधि पर समझौता हुआ । इस समझौते में चीन एवं भारत ने पाँच सिद्धांतों को मानने का संकल्प किया जिसे पंचशील सिद्धांत कहा जाता है । इस समझौते से दोनों देशों के मध्य मैत्री संबंधों में प्रागढ़ता दृष्टिगत हुई । चीन ने भारत की प्रभुसत्ता एवं सीमाओं के प्रति सम्मान प्रकट करने का वचन दिया । भारत द्वारा तिब्बत पर चीन की प्रभुसत्ता स्वीकार कर लेने में भी दोनों देशों के मध्य निकटता आई ।

जून 1954 में चीनी प्रधानमंत्री ने भारत की यात्रा की भारतीय इतिहास में चीनी-भारतीय संबंध के इस काल को ‘प्रमोद काल’ कहा जाता है । उस समय दोनों देशों के बीच हिंदी-चीन भाई-भाई की अवधारणा स्पष्टतः परिलाक्षित होती थी । 1 अप्रैल 1955 को लहासा प्रलेख पर हस्ताक्षर, संयुक्त राष्ट्र में चीन के प्रवेश को समर्थन के भारतीय सहयोग के फलस्वरूप चीन ने भी गोआ के मामले में भारत को सहयोग दिया ।

भारत चीन सीमा विवाद:

1959 में चीन में प्रकाशित कुछ मानचित्रों में चीन ने एक भारतीय हिस्से को चीन का हिस्सा प्रदर्शित कर रखा था । भारत ने इस पर आपत्ति जताई इसके अलावा चीन ने बाराहोती में एक सैनिक शिविर स्थापित कर लिया और सिलांग क्षेत्र पर अतिक्रमण कर सीमा को पार कर लिया । साथ ही उसने निक्यांग-तिबत सड़क के निर्माण का कार्य भी शुरू कर दिया ।

इस तरह 1957 तक चीन भारतीय सीमाओं का उल्लंघन थे करता रहा । सितंबर 1958 में चीन ने नेफा में घुसपैठ प्रारंभ कर दी । अंततः इन घटनाओं ने सीमा विवाद का रूप ले लिया । इसी बीच तिब्बत को स्वतंत्र घोषित कर दिया गया । तिब्बत के नेता दलाई लामा ने भारत में राजनीतिक शरण ली । इस बीच नेहरू के आमंत्रण पर चाउ-एन-लाई भारत आए और सीमा विवाद निर्धारण पर बातचीत की लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला ।

चीन ने भारतीय सीमाओं का अतिक्रमण निरंतर जारी रखा । चीन ने नेफा क्षेत्र पर अधिकार कर लिया और 20 अक्टूबर, 1962 को चीन ने भारत पर युद्ध की शुरूआत की इस युद्ध में नेफा में भारत की पराजय हुई और 21 नवंबर, 1962 को चीन ने एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा कर दी ।

कोलम्बो प्रस्ताव:

 

भारत और चीन के मध्य सीमा विवाद में उपजे युद्ध के कारण आई कटुता एवं सुलह के लिए एशिया एवं अफ्रीका के कुछ मित्र राष्ट्रों ने पहल की और 10-12 दिसंबर 1962 को कोलम्बों में एक सम्मेलन आयोजित किया इसके अनुसार:

(i) वर्तमान नियंत्रण रेखा भारत-चीन सीमा विवाद के समाधान का आधार मानी जाएगी ।

(ii) पूर्वी क्षेत्र में वर्तमान नियंत्रण रेखा को युद्ध विराम रेखा माना जाएगा ।

(iii) मध्य क्षेत्र में सीमा का निर्धारण शांतिपूर्ण तरीकों से होगा ।

(iv) इन प्रस्तावों की स्वीकृति से दोनों देश आपसी वार्ता का निर्णय ले सकते है, का प्रस्ताव रखा गया ।

युद्धोत्तर काल में आपसी संबंधों में गतिरोध:

चीन के आक्रमण से भारत-चीन संबंधों में कटुता आ गई भारत की हार से पाकिस्तान भी प्रोत्साहित हुआ और 1965 में उसने भारत पर आक्रमण कर दिया लेकिन भारत ने पाकिस्तान को करारी मात दी । चीन के आक्रमण के बाद भारत ने अपनी सुरक्षा व्यवस्था को व्यवस्थित किया । दिसम्बर 1962 से लेकर 1970-71 तक भारत एवं चीन के मध्य की सारी बातें भुला दी गई ।

दोनों देशों के कूटनीतिक संबंध भी प्रभारी राजदूत स्तर तक आ गए । 1965 के युद्ध में चीन ने पाकिस्तान को हर संभव सहायता प्रदान की । चीन सरकार ने पुन: विवाद उठाने की दृष्टि से 16 सितंबर, 1965 को भारत को अल्टीमेटम दिया । इस तरह 1962 से 1970-71 तक के भारत-चीन संबंधों को टकराव एवं तनाव का काल कहा जाता है ।

भारत एवं चीन संबंधों का सामान्यीकरण:

1965 में पाकिस्तान पर विजय से भारत दक्षिण एशिया में एक नेता के रूप में उभरकर आया । 1971 में भारत-सोवियत मित्रता संधि से भी चीन को डर लगने लगा । इसके परिणामस्वरूप चीन को भारत के साथ संबंध सुधारने की आवश्यकता हुई । 1971 में चीन के राजदूत ने मास्को में भारतीय राजदूत से मुलाकात कर संबंधों में मधुरता लाने का प्रयास किया ।

नवंबर 1971 में चीन ने अफ्रीकी एशियाई मैत्री टेबिल टेनिस प्रतियोगिता का आयोजन किया । इसमें भारत ने भी भाग लिया । इसे ‘पिंगपाग कूटनीति’ का जन्म भी कहा जाता है । 1973 में भारत-चीन सीमा पर लाउडस्पीकर प्रचार युद्ध को बंद कर दिया गया । भारत ने 1974 में पोखरण में अणु परीक्षण किया जो शांतिपूर्ण रहा । अप्रैल 1976 में भारत ने चीन में अपना राजदूत नियुक्त किया प्रत्युत्तर में चीन ने भी अपना राजदूत भारत में नियुक्ति किया ।

1977-79 के मध्य भारत और चीन के मध्य व्यापारिक संपर्कों में वृद्धि हुई । अप्रैल 1977 में भारत एवं चीन ने 13.2 करोड रूपये मूल्य की एक व्यापार संधि पर हस्ताक्षर किये इस दौरान दोनों देशों के मध्य खेल, सांस्कृतिक, इस्पात, विज्ञान एवं तकनीकी में व्यापक सहयोग किया गया ।

1980 में श्रीमती इंदिरा गाँधी की सरकार ने सीमा विवाद को लेकर चीन के साथ कई बालाएं की । 1981,82,83 में तीन वार्ताएँ हुई इन सभी में सीमा विवाद का कोई हल नहीं निकल पाया ।

1986 में संबंधों में पुन: दरार आ गई चीन ने जून 1986 में अरूणाचल प्रदेश में घुसपैठ करना शुरू कर दिया, इस तरह दोनों देशों के बीच फिर कट्टरता उत्पन्न हो गई । संबंधों में पुन: सुधार दिसंबर 1988 की राजीव गाँधी की चीन यात्रा के साथ हुआ । 1986 में भारत-चीन के मध्य 140 मिलियन डॉलर का व्यापार किया गया ।

सितंबर 1989 में एक व्यापारिक समूह की योजना बनाई गई । सितंबर 1989 में एक व्यापारिक समझौता संपन्न हुआ । फरवरी 1992 में बम्बई और शंघाई में महावाणिज्य दूतावास खोलने का निर्णय लिया गया । 1993 में चीन में भारत उत्सव का आयोजन किया जो दोनों देशों के मध्य अत्यंत सुखद परिस्थिति का प्रतीक था ।

चीन के राष्ट्रपति की भारत यात्रा 1996 के समय एक 11 सूत्रीय समझौते पर हस्ताक्षर किये गए । भारत द्वारा 1998 में परमाणु परीक्षण किये जाने को चीन ने शंका की दृष्टि से देखा । इसी दौरान रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीस ने चीन को शत्रु नं. 1 की संज्ञा दे डाली । चीन ने अमेरिका तथा अन्य देशों के साथ मिलकर NPT एवं CBPT पर हस्ताक्षर करने के लिए भारत को बाध्य करना प्रारंभ कर दिया ।

26 फरवरी, 1999 को भारत ने संबंधों में मिठास लाने की पहल करते हुए एक मंत्रालय स्तरीय प्रतिनिधिमंडल वार्षिक विचार-विमर्श के लिए चीन भेजा । चीन ने भी इसे सकारात्मक दृष्टिकोण कहा । फरवरी 2000 में भारत ने चीन को WTO सदस्यता प्राप्त करने के लिए समर्थन दिया ।

मई 2000 में भारतीय राष्ट्रपति की चीनी यात्रा के दौरान दोनों देशों ने व्यापार संबंधों में वृद्धि लाने की प्रतिबद्धिता प्रकट की । सितंबर 2003 में चीन ने भारत का सिक्किम क्षेत्र को उसका अखंड प्रदेश मान लिया । 2014 में चीन के राष्ट्रपति ने भारत की यात्रा की जो दोनों देशों के बीच संबंधों को सामान्य बनाने में काफी सहायक सिद्ध हुई है ।

निष्कर्ष:

भारत-चीन संबंध के अब तक के अवलोकन में स्पष्ट है कि भारत और चीन के बीच शांति और टकराव दोनों तरह के संबंध रहे हैं । अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में आए बदलाव के परिप्रेक्ष्य में तथा विश्व में एकमात्र महाशक्ति अमेरिका की दादागिरी रोकने, मजबूत आर्थिक संबंधों की स्थापना के लिए, एशिया में शक्ति संतुलन तथा शांति स्थापना के लिए, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र का पुर्नगठन करने आदि मुद्दों पर दोनों देशों के मधुर संबंधों से ही प्रगति की जा सकती है ।

6. भारत-अमेरिका संबंध (India-America Relation):

भारत और अमेरिका दोनों ही लोकतंत्र के सबसे मजबूत आधार वाले देश कहे जाते हैं । दोनों के बीच कुछ समानताएँ होने के बावजूद समय-समय पर ऐसे तनाव भी उभरे है जिससे दोनों देशों के घनिष्ठ मैत्री संबंधों की स्थापना के मार्ग में कठिनायाँ उपस्थित हुई है । स्वाधीनता से पहले भारत-अमेरिका में कोई संबंध स्थापित नहीं था ।

20वीं शताब्दी के पहले दशक में लाला हरदयाल तथा गदर पार्टी के अनेक कार्यकर्ताओं ने अमेरिका में अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष के लिए समर्थन व सहायता प्राप्त करने की कोशिश की । प्रथम विश्व युद्ध के बाद भारत-अमेरिका एक-दूसरे के संपर्क में आने लगे ।

रूजल्वेट ने भारतीय स्वतंत्रता का समर्थन भी किया । अंतरिम सरकार के गठन के बाद प्रधानमंत्री नेहरू ने अपने रेडियो भाषण में अमेरिका के लोगों को बधाई संदेश देते हुए यह आशा व्यक्त की थी कि अमेरिका अंतर्राष्ट्रीय जगत में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा । उपर्युक्त पृष्ठभूमि में भारत-अमेरिका संबंधों का ढाँचा खडा करने की कोशिश की गई ।

भारत अमेरिकी संबंधों का विकास:

1947 के बाद भारत अमेरिकी संबंधों के विकास की यात्रा का वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता है:

1. नेहरू युग और भारत अमेरिका संबंध (1947-64):

नेहरू युग में भारत-अमेरिकी संबंधों की नींव पडी । नेहरू का व्यक्तित्व और दर्शन अमेरिकी नीति-निर्माताओं की समझ से परे रहा । साम्यवाद तथा साम्यवादी गुट के प्रति दोनों देशों के दृष्टिकोण भिन्न थे । भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई, अमेरिका ने इसकी आलोचना की । भारत ने उपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवाद के विरोध की नीति अपनाई जबकि अमेरिका ने औपनिवेशिक शक्तियों का समर्थक बनकर तीसरी दुनिया के राष्ट्रों में अपनी छवि को धूमिल कर दिया ।

पाकिस्तान को सैनिक सहायता देकर अमेरिका ने भारत की तटस्थता का विरोध किया । अमेरिका ने बहुत सारी सैनिक संधियों से अपने आपको जोड लिया लेकिन भारत ने इसका समर्थन नहीं किया । कश्मीर मसले पर अमेरिका ने पाकिस्तान का पक्ष लिया । कोरिया युद्ध में भारत ने अपने सैनिक दरते को भेजने से इंकार कर दिया । इसके अलावा हिंद चीन का प्रश्न, जापान के साथ संधि तिब्बत का प्रश्न, तथा गोआ के मुद्दों पर दोनों देशों के बीच कटुता के भाव नजर आये ।

संबंधों में कटुता के अतिरिक्त नेहरू युग में सहयोग के आधार भी ढूँढ़े गए । दोनों देशों के राजनीतिकों ने एक-दूसरे के यहाँ यात्राएँ की । अमेरिका ने भारत को आर्थिक सहायता देना आरंभ किया । स्वेज नहर संकट के समय अमेरिका की नीति का भारत ने समर्थन किया ।

मई 1960 में सी॰एल॰ 480 नामक एक समझौता हुआ जिसके अंर्तगत अमेरिका ने भारत को पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न भेजने का आश्वासन दिया । कुल मिलाकर नेहरू युग में भारत के साथ अमेरिका ने दोहरी नीति अपनाई ।

2. शास्त्री और भारत-अमेरिका संबंध (1964-65):

दिसंबर, 1964 को भारत-अमेरिका के बीच एक समझौता हुआ जिसके अनुसार अमेरिका ने भारत को तारापुर में आणविक शक्ति का संयंत्र स्थापित करने के लिए आठ करोड डॉलर दिये । 1964 में खाद्यान्न सकट के समय भी अमेरिका ने खाद्यान्नों की पूर्ति की किंतु 1965 में दोनों देशों के संबंधों में तनाव आया ।

अमेरिका की वियतनाम पर बम वर्षा की भारत ने कड़ी निंदा की । 1965 में भारत-पाक युद्ध के दौरान पाकिस्तान द्वारा अमेरिका शस्त्रों के प्रयोग में तनाव पैदा हुआ यद्यिपि अमेरिका तटस्थ था परंतु उसने भारत के साथ तटस्थता तथा पाकिस्तान के साथ मित्रतापूर्ण व्यवहार किया ।

3. इंदिरा गाँधी और भारत-अमेरिका संबंध (1967-77 तथा 1980-84):

इंदिरा गाँधी युग में भारत के संबंध अमेरिका के साथ नफरत भरी मोहब्बत की विशेष भावना से प्रभावित रहे । इंदिरा गाँधी ने 18 मार्च, 1967 को अमेरिका की यात्रा की । भारत-पाक युद्ध के बाद अमेरिका ने बंद की गई आर्थिक सहायता को पुन: आरंभ किया । इजराइल के प्रश्न पर भारत ने अरब राष्ट्रों का जबकि अमेरिका ने इजराइल का पक्ष लिया ।

1970 में भारत सरकार ने लखनऊ व त्रिवेन्दम में स्थित अमेरिकी सांस्कृतिक केंद्र बंद करा दिये क्योंकि इन केंद्रों के माध्यम से कुछ आवांछित कार्य किये जाते थे इससे अमेरिकन सरकार अप्रसन्न हुई और दोनों देशों के बीच मतभेद बढ़ते गए । बांग्लादेश संकट के समय अमेरिका ने युद्ध प्रारंभ करने का दोष भारत पर मढ़कर आर्थिक सहायता बंद कर देने की धमकी दी ।

सुरक्षा परिषद् में अमेरिका ने भारत-विरोधी प्रस्ताव पारित कराने की कोशिश की किंतु सोवियत वीटो के कारण वे निरस्त हो गए । 15 मार्च, 1973 को अमेरिका ने पाकिस्तान को सैनिक सहायता देने के निर्णय का भारत ने विरोध किया । डियागो गार्शिया में अमेरिकी अड्डे का भारत ने विरोध किया । भारत द्वारा 1974 में पोखरण परमाणु परीक्षण पर अमेरिका ने तीव्र रोष उत्पन्न किया । इस बीच संबंध सुधारने के भी प्रयत्न हुए ।

18 फरवरी 1974 को अमेरिका ने 1,664 करोड रूपये की धनराशि अनुदान के रूप में दी । 27 जुलाई, 1982 को इंदिरा गाँधी ने अमेरिका की यात्रा की और सहयोग की पेशकश की । जून 1983 में भारत-अमेरिका आर्थिक सहयोग की बैठक हुई ।

4. जनता सरकार और भारत अमेरिकी संबंध (1977-80):

जनता पार्टी ने असली गुटनिरपेक्षता की बात की तथा कार्टर प्रशासन ने भारत के साथ संबंधों में मधुरता की बात की । 1 जनवरी, 1979 को अमेरिकी राष्ट्रपति कार्टर ने भारत का दौरा किया तथा दोनों देशों के बीच पारस्परिक विश्वासों, मान्यताओं तथा दायित्वों के आधार पर संबंधों को प्रगाढ़तर बनाने की अपील की ।

इस यात्रा के दौरान भारत-अमेरिकी संयुक्त आयोग की बैठक हुई जिसमें-आर्थिक और व्यापारिक, विज्ञान और तकनीकी तथा शिक्षा और संस्कृति में सहयोग बढाने के निर्णय हुए अमेरिकी दबाव के आगे न झुकते हुए भारत ने NPT पर हस्ताक्षर न करने का अपना निर्णय बरकरार रखा । इस समय अमेरिका ने भारत को 6 करोड डॉलर की आर्थिक सहायता देने की पेशकश की । संक्षेप में जनता सरकार की विदेश नीति अमेरिकी परस्त नहीं कही जा सकती थी ।

5. राजीव गाँधी और भारत अमेरिका संबंध (1984-89):

राजीव गाँधी चाहते थे कि भारत और अमेरिका के बीच पुराने मतभेद समाप्त हों और सकारात्मक सहयोग स्थापित हो । नवंबर, 1984 में दोनों देशों के बीच उच्च तकनीकी हस्तातंरण संबंधी एक समझौता हुआ ।

जून, 1985 में राजीव गाँधी ने अमेरिका की यात्रा की । राजीव, गाँधी ने अमेरिका के ‘स्टारवार’ कार्यक्रम को आलोचना की । इनके प्रत्युत्तर ने अमेरिका ने भारत को दी जाने वाली 6 करोड की सहायता कम करके 3.5 करोड़ डॉलर कर दी ।

इसके अतिरिक्त अमेरिका ने भारत को पाकिस्तान के साथ अणु शस्त्र बनाने वाले एक ही श्रेणी में रखा जिसके लिए भारत ने आपत्ति प्रकट की । भारत का कहना था कि उसका परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण उद्देश्य के लिए है जबकि पाकिस्तान की तैयारी परमाणु बम बनाने की है ।

6. वी॰पी॰ सिंह, चन्द्रशेखर युग और भारत अमेरिका संबंध (1989-91):

वी॰पी॰ सिंह के समय अमेरिका भारत का सबसे बडा व्यापार भागीदार रहा । इस अवधि में भारत-अमेरिकी संबंध सामान्य बने रहे । अमेरिका ने अप्रैल, 1991 से स्पेशल 301 के तहत भारत पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय किया । बाद में इसे स्थगित कर दिया गया । खाड़ी संकट में भारत ने अमेरिकी विमानों का इंधन नहीं भरने दिया इससे थोड़ा तनाव संबंधों में उत्पन्न हुआ । परंतु अमेरिका ने भारत को दी जाने वाली आर्थिक सहायता जारी रखी ।

7. पी॰वी॰ नरसिंह राव और भारत अमेरिकी संबंध (1991-96):

शीत युद्ध के समाप्त हो जाने से भारत-अमेरिकी संबंधों में रचनात्मक प्रभाव पड़ा और द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत बनाने के प्रयत्न आरंभ हुए । अमेरिका ने भारत द्वारा प्रारंभ किये गए उदारीकरण कार्यक्रम का स्वागत किया । अमेरिका ने भारतीय उद्योगों में निवेशक के तौर पर अमेरिका सबसे बड़ा भागीदार रहा । इस बीच भारत ने अपनी विदेश नीति में परिवर्तन किया तथा इजराइल के साथ राजनीतिक संबंध स्थापित किये ।

भारत ने संयुक्त राष्ट्र में इजराइल विरोध प्रस्ताव को रह करने संबंधी अमेरिकी सुर में सुर मिलाया । फिर भी अनेक मुद्दों पर मतभेद भी उभरे । अमेरिका ने एन॰पी॰टी॰ (NPT) हस्ताक्षर करने का दबाव बढाया, भारत ने मना कर दिया । इसके अलावा भारत को रॉकेट प्रौद्योगिकी न देने के लिए अमेरिका ने रूस पर भी दबाव बढाया ।

8. एच॰डी॰ देवगोडा-इन्द्रकुमार गुजराल और भारत-अमेरिका संबंध (1996-98):

दैवगोड़ा सरकार ने सी॰टी॰बी॰टी॰ (CTBT) पर हस्ताक्षर से इंकार कर अमेरिका के महाशक्ति संपन्न को चुनौती दे डाली । अमेरिका की ओर से उसे आर्थिक प्रतिबंधों की धमकी दी गई । क्लिंटन प्रशासन ने भारत के कड़े विरोध के बावजूद ब्राउन संशोधन कानून 1996 के अंर्तगत पाकिस्तान को 368 मिलियन अमेरिकी डॉलर के आधुनिकतम हथियार प्रदान किये जिसे भारत ने प्रतिरक्षा के विषय में चिंता प्रकट की ।

अमेरिका ने WTO (1990) में भारत पर पेटेंट अधिनियम (1970) के अंर्तगत शीघ्रातिशीघ्र संशोधित करने के लिए अमेरिका के बीच एक महत्वपूर्ण प्रत्यपूर्ण संधि पर हस्ताक्षर हुए । इस प्रकार इस युग में भारत-अमेरिकी सबध मिले जुले रहे ।

9. अटल बिहारी वाजपेयी और भारत-अमेरिकी संबंध (1998 से 2004):

वाजपेयी की गठबंधन सरकार ने जो परमाणु नीति अपनाई उससे अमेरिकी प्रशासन चिन्तित हुआ । गठबंधन सरकार ने परमाणु नीति की पुर्नसमीक्षा की घोषणा की । मई, 1998 में भारत ने पोखरण में परमाणु विस्फोट कर अपने को विश्व की परमाणु शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया । अमेरिका ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया ।

भारत ने एन॰पी॰टी॰ (NPT) और सी॰टी॰बी॰टी॰ CTBT पर हस्ताक्षर नहीं करने की नीति को तब तक जारी रखने का निर्णय किया जब तक कि इसमें पर्याप्त संशोधन नहीं कर दिये जाते । कारगिल युद्ध 1999 के बाद अमेरिका ने भारत की सुरक्षा के प्रति रुचि दिखाई ।

क्लिटन ने मार्च, 2000 में भारत की यात्रा की और सहयोग के कई क्षेत्रों विशेषकर आर्थिक सहयोग पर हस्ताक्षर किए । अमेरिका भारत के साथ अफगानिस्तान के मुद्दे पर सलाह लेने को तैयार हो गया है । 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका पर की आतंकवादी कार्यवाही के बाद भारत ने आतंकवाद को समाप्त करने के उद्देश्य से अमेरिका को हर तरह के सहयोग का वादा किया है ।

दिसंबर 2001 में भारतीय संसद पर हमले के संदर्भ में अमेरिका ने चिंता प्रकट की । भारत ने डब्ल्यू॰टी॰ओ०॰ (WTO) सम्मेलन में विकासशील देशों के लिए आर्थिक व्यवस्था अपनाने का मुद्दा उठाया । अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने भारत-पाकिस्तान संबंधों को पुन: बहाल करने की कोशिश के तहत भारत को कशमीर मुद्दे पर सहयोग की बात की लेकिन दूसरी तरफ जार्ज बुश ने अफगानिस्तान युद्ध के बाद पाकिस्तान को भारी आर्थिक सहायता देकर भारत को चिंतित किया ।

इस प्रकार आतंकवादी कार्यवाही के बाद ऐसा लगता है कि भारत-अमेरिकी संबंध मधुरता के मार्ग में जाते दिखाई नहीं देते । वहीं दूसरी तरफ अमेरिका ने भारत-पाकिस्तान के मामले में दोहरी नीति अपनाकर संबंधों को और अधिक तनावपूर्ण बनाया है ।

10. मनमोहन सिंह सरकार और भारत-अमेरिकी संबंध 2004 से 2013 अब तक:

इस दौरान भारत-अमेरिकी संबंधों में कोई नया मोड़ नहीं आया है, ये पहले जैसे ही है ।

11. मोदी सरकार:

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी विदेश नीति में अमेरिका को सर्वोपरि स्थान दिया है । उनके आग्रह पर पहली बार अमरीका का कोई राष्ट्रपति भारत के गणतंत्र दिवस परेड में मुख्य अतिथि बना ।

निष्कर्ष:

भारत-अमेरिकी संबंधों के अब तक के विवेचन से स्पष्ट है कि भारत-अमेरिकी संबंध उतार-चढाव भरे रहे है । अमेरिका ने भारत को दक्षिण एशिया में एक ताकत के रूप में न उभरने देने के लिए पाकिस्तान को बार-बार उकसाया है । साथ ही अफगानिस्तान पर कब्जा करके उसने इस क्षेत्र में भारतीय गतिविधियों पर अंकुश लगाने की कार्यवाही की है । अतः भविष्य में भारत-अमेरिकी संबंध तभी मधुर बने रह सकते हैं जब दक्षिण ऐशियाई क्षेत्र में शांति स्थापित रहे ।

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