भारत के वनों पर निबंध | Essay on the Forests of India in Hindi. Here is an essay on the ‘Forests of India’ for class 8, 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Forests of India’ especially written for school and college students in Hindi language.

भारत के वनों पर निबंध | Essay on the Forests of India


Essay Contents:

  1. भारत की प्राकृतिक वनस्पतियों के वर्ग (Classification of Forests)
  2. राष्ट्रीय वन नीति (National Forest Policy)
  3. भारत वन स्थिति रिपोर्ट, 2015 (India State of Forest Report 2015)
  4. सामाजिक वानिकी (Social Forestry)
  5. प्राकृतिक संसाधनों का सर्वेक्षण (Survey of Natural Resources)
  6. वनों का महत्व (Importance of Forest)

Essay # 1. भारत की प्राकृतिक वनस्पतियों के वर्ग (Classification of Forests):

भारत अत्यधिक विविधतापूर्ण जलवायु एवं मृदा का देश है । इसीलिए यहाँ उष्णकटिबधीय वनों से लेकर टुंड्रा प्रदेश तक की वनस्पतियों पायी जाती हैं ।

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भारत की प्राकृतिक वनस्पतियों को निम्न वर्गों में बांटा जा सकता है:

1. उष्णकटिबंधीय सदाहरित वन (Evergreen Tropical Forest):

200 सेमी. से अधिक वर्षा के क्षेत्रों में ये वन मिलते हैं । इसके मुख्य क्षेत्र सह्याद्रि (पश्चिमी घाट), शिलांग पठार, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह और लक्षद्वीप हैं । उत्तरी सह्याद्रि प्रदेश में इन वनों को ‘शोलास वन’ के नाम से जाना जाता है । विषुवतीय वनों की तरह ही इन वनों की लकड़ियाँ कठोर होती हैं एवं वृक्षों की अनेक प्रजातियाँ मिलती है ।

पेड़ों की ऊँचाई 60 मीटर से भी अधिक मिलती है । यहाँ पाए जाने वाले प्रमुख वृक्ष महोगनी, आबनूस, जारूल, बाँस, बेंत, सिनकोना और रबर है । ये वन मसालों के बागानों के लिए भी महत्वपूर्ण हैं । रबर और सिनकोना दक्षिणी सह्याद्रि और अंडमान-निकोबार में मिलते हैं । अंडमान-निकोबार का 95% भाग इन्हीं वनों से ढँका है ।

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2. उष्णकटिबंधीय आर्द्र पर्णपाती वन (Tropical Moist Deciduous Forest):

यह 100 से 200 सेमी. वर्षा क्षेत्र में मिलती है । इसके मुख्य क्षेत्र सह्याद्रि के पूर्वी ढलान, प्रायद्वीप के उत्तर पूर्वी पठारी भागों, शिवालिक श्रेणी के सहारे भाबर व तराई प्रदेश हैं । ये विशेष रूप से मानसूनी वन हैं । यहाँ के प्रमुख पेड़ सागवान, सखुआ, शीशम, आम, महुआ, बाँस, खैर, त्रिफला व चंदन हैं ।

ये सभी आर्थिक दृष्टिकोण से मूल्यवान हैं । सागवान (Teak), सखुआ (Sal) व शीशम के लकड़ियाँ फर्नीचर बनाने में काम आती हैं । रेल के स्लीपर बनाने में सखुआ लकड़ी का प्रयोग किया जाता है ।

3. उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन (Tropical Dry Deciduous Forests):

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ये वनस्पतियाँ 70 से 100 सेमी. वर्षा क्षेत्र में मिलती हैं । इन वनों में ऊँचे पेड़ों का अभाव मिलता है । शुष्क सीमान्त की ये वन कंटीले वनों और झाड़ियों में बदल जाते हैं । अत्यधिक चराई यहाँ पर मुख्य समस्या है ।

4. कंटीले वन व झाड़ियाँ (Barbed Forest):

ये वन गुजरात से लेकर राजस्थान व पंजाब के उन भागों में मिलती हैं, जहाँ वर्षा 70 सेमी. वार्षिक से कम होती है । मध्यप्रदेश के इंदौर से आंध्रप्रदेश के कुर्नूल तक ये पठार के मध्य भाग में अर्द्धचन्द्राकार पेटी में मिलते हैं । यहां की प्रमुख वनस्पतियाँ बबूल, खैर, खजूर, नागफनी, कैक्टस आदि हैं ।

5. पर्वतीय वन (Montane Forest):

चूँकि ऊँचाई बढ़ने पर जलवायुविक दशाओं विशेषकर तापमान व वर्षा में परिवर्तन आते हैं, इसीलिए पर्वतीय भागों में ऊँचाई के साथ वनस्पतियों के स्वरूप में क्रमिक परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं । यहाँ ऊँचाई के बढ़ते क्रम में उष्णकटिबंधीय से लेकर अल्पाइन वनस्पतियाँ तक मिलती है ।

1500 मी. तक की ऊँचाई तक पर्णपाती वन मिलते हैं । 1500 से 3500 मी. की ऊँचाई तक कोणधारी सदाहरित वन मिलती हैं, जिनके वृक्षों की लकड़ियाँ मुलायम होती हैं । यहाँ देवदार, स्प्रूस, सिल्वरफर, चीड़ आदि के छोटी व सूच्चाकार पत्तियाँ वाले वन मिलते हैं ।

पूर्वी हिमालय के अधिक वर्षा के क्षेत्रों में इस ऊँचाई पर ओक, मैग्नेलिया व लॉरेल के चौड़ी पत्तीवाले सदाहरित वन मिलते हैं । अल्पाइन वनस्पतियाँ 2800 मी. से 4800 मी. की ऊँचाई तक मिलते हैं । यहाँ प्रारम्भ में चिनार व अखरोट के पेड़ एवं अल्पाइन चारागाह हैं, जबकि अधिक ऊँचाई पर कोई वनस्पति नहीं मिलती ।

6. ज्वारीय वन (Tidal Forests):

ये वन मुख्यत: उन भागों में मिलते हैं जहाँ नदियों का ताजा जल समुद्री जल से मिलता है एवं परिणामस्वरूप दलदली भाग बन जाता है । गंगा, गोदावरी, कृष्णा आदि के निम्न डेल्टाई भाग इन वनस्पतियाँ के आदर्श उत्पत्ति क्षेत्र है ।

यहाँ प्रमुख वनस्पतियाँ मैग्रोव, सुन्दरी, कैजुरीना, केवड़ा एवं बेंदी के वृक्ष हैं । ज्वारीय वन समुद्री कटाव को रोकते हैं एवं इनकी लकड़ियाँ जल में सड़ती नहीं है । ये भी एक प्रकार के उच्च जैव-विविधता युक्त सदाहरित वन ही हैं ।


Essay # 2. राष्ट्रीय वन नीति (National Forest Policy):

भारत में सबसे पहले 1894 ई. में वन नीति का निर्माण हुआ जिसको 1952 ई. में तथा 1988 ई. में संशोधित किया गया । 1988 ई. की संशोधित नीति वनों की सुरक्षा, संरक्षण तथा विकास पर जोर देती है । ‘राष्ट्रीय वन नीति-1988’ के अनुसार भारत में 33% वन क्षेत्र की प्राप्ति का लक्ष्य रखा गया है ।

इसके अनुसार मैदानी भागों में 20% तथा पर्वतीय भागों में 60% क्षेत्र को वनाच्छादित करने की आवश्यकता है । 2015 ई. तक देश में 33% वन क्षेत्र प्राप्ति का लक्ष्य रखा गया है ।


Essay # 3. भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2015 (India State of Forest Report 2015):

14वीं वन स्थिति रिपोर्ट, 2015 (ISFR : India State of Forest Report – 2015) 4 दिसम्बर, 2015 को जारी की गई, जो कि अक्टूबर, 2013 से फरवरी, 2014 के उपग्रह आँकड़ों पर आधारित है । ISFR-2015 के अनुसार ISFR-2015 में ISFR-2013 की तुलना में वनावरण में सर्वाधिक वृद्धि तमिलनाडु (2,501 वर्ग किमी.) में तथा सर्वाधिक कमी मिजोरम (306 वर्ग किमी.) में हुई है ।

रिपोर्ट के अनुसार, देश में कुल वनावरण 70.17 मिलियन हेक्टेयर (7,01,673 वर्ग किमी.) है, जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 21.34 प्रतिशत है ।

ISFR-2013 की तुलना में ISFR-2015 में 3,775 वर्ग किमी. के वन क्षेत्र की वृद्धि हुई है । ISFR-2015 के, अनुसार देश में कुल वृक्षावरण 9.26 मिलियन हेक्टेयर (92,572 वर्ग किमी.) है, जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 2.82 प्रतिशत है ।

इस प्रकार देश में कुल वनावरण एवं वृक्षावरण 79.42 मिलियन हेक्टेयर (7,94,245 वर्ग किमी.) है जो कि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 24.16 प्रतिशत है ।

राज्यों में क्षेत्रफल की दृष्टि से सर्वाधिक वन क्रमशः मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, ओडिशा तथा अरुणाचल प्रदेश में जबकि न्यूनतम क्रमशः गोवा, हरियाणा, पंजाब, मिजोरम तथा सिक्किम में है । संघीय क्षेत्रों में क्षेत्रफल की दृष्टि से सर्वाधिक एवं न्यूनतम वन क्रमशः अंडमान एवं निकोबार तथा लक्षद्वीप (शून्य) में है ।


Essay # 4. सामाजिक वानिकी (Social Forestry):

पेड़ लगाने को प्रोत्साहित करने वाला यह कार्यक्रम 1976 ई. से ही चल रहा है । वनारोपण को जन-आंदोलन बनाना इस नीति का लक्ष्य है । इसमें गैर-सरकारी संगठनों का भी सहयोग लिया जा रहा है । इस कार्यक्रम का उद्देश्य वनक्षेत्र का विकास, ईंधन व चारे की आपूर्ति, उद्योगों के लिए कच्चा माल उपलब्ध कराना तथा वनारोपण द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर उत्पन्न करना है ।

सामाजिक वानिकी के तीन तत्व हैं जो निम्न हैं (Three Elements of Social Forestry):

i. कृषि वानिकी (Agroforestry):

किसानों को मुफ्त बीज व छोटे पौधे देकर अपने खेतों में वृक्षारोपण हेतु प्रोत्साहित करना ।

ii. ग्रामीण या सामुदायिक वानिकी (Community Forestry):

गाँवों की सामूहिक उपयोग वाली सार्वजनिक भूमियों पर जन-समूहों द्वारा वृक्षारोपण । यह सामाजिक वानिकी का समुदाय नियोजित कार्यक्रम है ।

iii. शहरी या सार्वजनिक वानिकी (Urban or Public Forestry):

सड़कों, नहरों, टैंकों तथा अन्य सार्वजनिक भूमियों पर वन विभाग द्वारा तेजी से बढ़ने वाले पौधों को लगाया जाना । कनाडा तथा स्वीडेन के तकनीकी सहयोग से चलाया जाने वाला सामाजिक वानिकी केन्द्र नियोजित कार्यक्रम है ।

इसे विश्व बैंक से वित्तीय सहयोग मिलता है । वर्तमान समय में इस कार्यक्रम के अंतर्गत सबसे अधिक सफलता कृषि वानिकी को ही मिल सकी है । सामाजिक वानिकी के अधिक सफल नहीं होने का मुख्य कारण जन-भागीदारी व जन-सूचना का अभाव रहा हैं ।

यूकेलिप्टस जैसे पारिस्थितिक-आतंकवादी (Ecological Terrorist) पौधों का चयन भी इस कार्यक्रम की असफलता का कारण रहा है, क्योंकि इससे अन्य पौधों का विकास रुक जाता था । अभी भी जन-भागीदारी बढ़ाने, भूमिहीनों व जनजातियों को इस अभियान में शामिल करने तथा पर्यावरण संरक्षण, मृदा-संवर्द्धन व जल संरक्षण की दिशा में काफी कुछ किया जाना बाकी है ।


Essay # 5. प्राकृतिक संसाधनों का सर्वेक्षण (Survey of Natural Resources):

पर्यावरण और वन मंत्रालय विभिन्न पर्यावरण व वानिकी कार्यक्रमों के नियोजन, संवर्द्धन, समन्वय और क्रियान्वयन की निगरानी भारत सरकार के प्रशासनिक ढाँचे में एक केन्द्रीय संस्था के रूप में कार्य करते हैं ।

वनस्पति, जीव-जंतुओं, वनों और वन्य जीवन का संरक्षण और सर्वेक्षण, प्रदूषण की रोकथाम व नियंत्रण, वनीकरण और वनह्रास के क्षेत्रों को फिर से हरा-भरा बनाना और पर्यावरण की रक्षा करना इस मंत्रालय के उत्तरदायित्व है ।

यह देश के प्राकृतिक संसाधनों से संबंधित सर्वेक्षण तथा सूचीकरण के लिए भी उत्तरदायी है एवं लुप्त होने की आशंका वाली प्रजातियों के जर्म-प्लाज्म और जीन-बैंकों का भी गठन करता है ।

अनाइकुटी (थुवाईपैथी, कोयंबटूर) में देश का पहला प्राइवेट बायो-डाईवर्सिटी पार्क खोला गया है जिसमें 150 प्रजातियों के पक्षी और जानवर तथा 520 प्रजाति के पौधे देखने को मिलेंगे । जम्मू-कश्मीर में डल झील के समीप सिराज बाग एशिया का सबसे बड़ा ट्‌यूलिप उद्यान है ।

यहाँ 60 रंगों में ट्‌यूलिप के 12 लाख से अधिक पौधे हैं । उत्तराखंड के रानीचौड़ी (टिहरी) में देश का प्रथम वानिकी एवं बागवानी विश्वविद्यालय स्थापित किया गया है । यमुना नदी के रिवर बेड पर 300 एकड़ क्षेत्र में भारत का ‘पहला बायोडायवर्सिटी पार्क’ स्थापित किया जा रहा है ।

यहां दिल्ली के इको सिस्टम का संरक्षण किया जाएगा । नार्वे के सहयोग से चेन्नई में एक जैव विविधता नीति और विधि केन्द्र (Centre for Biodiversity Policy and Law-CEBOL) बनाया जा रहा है ।

1. 1890 ई. में स्थापित भारतीय वानस्पतिक सर्वेक्षण विभाग (Indian Botanical Survey Department), कोलकाता देश के वानस्पतिक संसाधनों का सर्वेक्षण और उनकी पहचान करता है ।

2. 1916 ई. में स्थापित भारतीय प्राणी सर्वेक्षण विभाग (Indian Zoological Survey Department), कोलकाता देश के जीव-जन्तुओं का सर्वेक्षण करता है । इसके देश के विभिन्न भागों में 16 प्रादेशिक केन्द्र हैं । यह ‘फौना ऑफ इंडिया’ का प्रकाशन भी करता है ।

3. 1981 ई. में देहरादून में भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग (Indian Forest Survey Department) की स्थापना हुई । पर्यावरण मंत्रालय के अंतर्गत कार्य करने वाला यह ऐसा संगठन है, जो वन संसाधनों से संबंधित सूचनाओं व आंकड़ों का एकत्रीकरण के अलावा प्रशिक्षण, अनुसंधान व विस्तारण का कार्य करता है । इसके 4 प्रादेशिक कार्यालय बंगलौर, कोलकाता, नागपुर व शिमला में हैं ।


Essay # 6. वनों का महत्व (Importance of Forest):

वनों के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनों ही लाभ हैं । प्रत्यक्ष लाभ जहाँ आर्थिक रूप से लाभकारी होते हैं वहीं अप्रत्यक्ष लाभों के अंतर्गत पारिस्थितिक संतुलन व टिकाऊ विकास में इनकी भूमिका को शामिल किया जाता है । वनों से भारत में 4,000 से अधिक किस्मों की लकड़ियाँ प्राप्त हो रही हैं ।

इनमें सखुआ, सागवान, शीशम, देवदार आदि इमारती लकड़ियाँ महत्वपूर्ण हैं, जिन पर हमारा प्लाईवुड उद्योग, काष्ठगोला उद्योग, इमारती लकड़ी उद्योग आदि निर्भर हैं । कागज, दियासलाई, कत्था, रेशम, लाह, बीड़ी, पत्तल, खिलौना, लकड़ी चीरना, प्लाईवुड, औषधि आदि उद्योगों के लिए वनों से ही कच्चा माल प्राप्त हो रहा है ।

डाबर, ऊँझा, झंडू, वैद्यनाथ, हमदर्द, हिमालया तथा पतंजलि आदि औषधि उद्योगों के लिए कच्चे माल वनों से ही मिल रहे हैं । पलास व कुसुम के पौधों पर लाह के कीटों एवं शहतूत के पौधों पर रेशम के कीटों का पालन किया जाता है । वन पशुओं के लिए चारा भी उपलब्ध कराते हैं । घरेलू ईंधन का लगभग 55% अभी भी वनों से प्राप्त हो रहा है ।

कुछ जगह वनों से प्राप्त काष्ठ-कोयला, पत्थर-कोयला का विकल्प बनकर आए हैं । उदाहरण के लिए भद्रावती में लोहे को गलाने के लिए काष्ठ कोयले का प्रयोग किया जा रहा है । वनों से संबंधित उद्योग धंधों में लाखों लागों को रोजगार मिला हुआ है एवं अरबों रुपये के राजस्व की प्राप्ति होती है । वर्तमान समय में भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1.7% वनों से ही प्राप्त हो रहा है ।

वनों के अप्रत्यक्ष लाभ पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने में अत्यधिक महत्वपूर्ण है । यह वायुमण्डल में ऑक्सीजन की उपलब्धता को बढ़ाता है एवं विषैली गैसों की मात्रा को कम करता है । वन मृदा अपरदन को रोकने में सहायक हैं, एवं मिट्‌टी की प्राकृतिक उर्वरता को भी बनाए रखते हैं ।

ये भूमिगत जलस्तर को बढ़ाते हैं एवं नदियों की गति को कम करते हैं, जिनसे क्रमशः सूखा व बाद नियंत्रण में मदद मिलती है । वन जंगली जीव जंतुओं के प्राकृतिक आश्रय है एवं जैव विविधता के विशाल भंडार हैं ।

वर्तमान समय में वनों की समस्याओं को दूर करने के लिए विविध उपाय किए जा रहे हैं । वनों की वैज्ञानिक व चक्रीय कटाई पर बल दिया जा रहा है तथा यह ध्यान रखा जा रहा है कि अपरिपक्व वृक्षों की कटाई नहीं हो । एक प्रकार के वृक्षों को एक ही समूह में लगाया जा रहा है ताकि उनके आर्थिक लाभों को बढ़ाया जा सके ।

वन क्षेत्रों को सुलभ यातायात से संबद्ध किया जा रहा है तथा इनके औद्योगिक उपयोगों को बढ़ाने पर बल दिया जा रहा है । वनों के बारे में एक बेहतर दृष्टिकोण विकसित करने के लिए प्रयास हो रहे हैं ।

इस हेतु कर्मचारियों व स्थानीय लोगों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है तथा वन विद्यालयों व वन विश्वविद्यालयों की स्थापना की जा रही है । वनारोपण व सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों में जन-जागरूकता बढ़ाने के लिए स्वयंसेवी संगठनों की भी मदद ली जा रही है ।


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