लोकतंत्र: लोकतंत्र पर निबंधों का संकलन | Democracy: Compilation of Essays on Democracy in Hindi!

Essay Contents:

  1. लोकतंत्र का अर्थ (Meaning of Democracy)
  2. लोकतंत्र का सिद्धांत (Theory of Democracy)
  3. उदार लोकतंत्र के लक्षण (Characteristics of Liberal Democracy)
  4. लोकतंत्र का औचित्य (Justification for Democracy)
  5. लोकतंत्र की त्रुटियाँ (Errors of Democracy)

Essay # 1. लोकतंत्र का अर्थ (Meaning of

Democracy):

लोकतंत्र (प्रजातंत्र) के अंग्रेजी पर्याय ‘डेमोक्रेसी’ शब्द का उद्‌भव ग्रीक मूल के शब्द ‘डेमोस’ से हुआ है जिसका अर्थ है ‘जनसाधारण’ और ‘क्रेसी’ शब्द का अर्थ है, ‘शासन’ या ‘सरकार’ । अतः ‘लोकतंत्र’ का अर्थ ‘जनता का शासन’ है ।

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अब्राहम लिंकन ने गैटिसबर्ग भाषण (1861) में लोकतंत्र की जो परिभाषा दी है, वह इसके शब्दार्थ के बहुत निकट है । उनके अनुसार लोकतंत्र ”जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए” (Government of the people, by the people, for the people) शासन प्रणाली है ।

जेम्स बाइरन के शब्दों में, ”लोकतंत्र शब्द का प्रयोग हेरोडोटस के काल से ही ऐसी शासन प्रणाली का सकेत देने के लिए होता रहा है जिसमें कानून कीं दृष्टि से राज्य की नियामक सत्ता किसी विशेष वर्ग या वर्गों के हाथों में नहीं रहती बल्कि समुदाय के सभी सदस्यों में निहित होती है ।”

उपर्युक्त परिभाषाओं का आशय यह है कि लोकतंत्र में सत्ता का अंतिम सूत्र जनसाधारण के हाथों में रहता है ताकि सार्वजनिक नीति जनता की इच्छा के अनुसार और जनता के हित-साधन के उद्देश्य से बनाई जाए । इस प्रणाली में शासन संचालन का काम जनता के प्रतिनिधियों को सौंपा जा सकता है परंतु उन्हें निश्चित अंतराल के बाद फिर से जनता का विश्वास प्राप्त करना होगा ।


Essay # 2.

लोकतंत्र का सिद्धांत (Theory of Democracy):

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मैक्फर्सन ने अपनी पुस्तक ‘लोकतंत्रीय सिद्धांत के पुनरुद्वार’ के तहत प्रजातंत्र के अनुभववादी सिद्धांत की आलोचना करते हुए लोकतंत्र के नैतिक आधार को पुन: पुष्ट करने पर बल दिया है । मैक्फर्सन ने अमेरिकी लेखकों शुम्पीटर-डाल और रॉबर्ट ए. डाल को लोकतंत्र के अनुभववादी सिद्धांत का प्रतिनिधि मानते हुए इसे शुम्पीटर-डाल धुरी (Schumpeter Dahl Axis) कहा है ।

मैक्फर्सन के अनुसार, लोकतंत्र के परम्परागत सिद्धांत, जिसे जे.एस. मिल, बार्कर, ए.डी. लिंडसे, आदि विचारकों ने विकसित किया था, को मानव जाति के नैतिक उत्थान का साधन माना गया था । इसके विपरीत शुम्पीटर और डाल ने लोकतंत्र को ऐसी यंत्र-व्यवस्था माना है जिसका वास्तविक कार्य राजनीतिक बाजार में मांग और पूर्ति का संतुलन कायम रखना है । इसका ध्येय विभिन्न समूहों के परस्पर-विरोधी हितों में समायोजन स्थापित करना है ।

लोकतंत्र के सिद्धांत की इस त्रुटि को दूर करने के लिए उसके नैतिक आधार का पुनरुद्धार आवश्यक है । इसके परिणामस्वरूप उदार लोकतंत्र का स्वरूप परिवर्तित हो जाएगा जिसे मैकफर्सन ने ‘उत्तर-उदार लोकतंत्र’ (Post Liberal Democracy) का नाम दिया है । इसके तहत मनुष्य को एक ‘कर्ता’ या ‘सृजनकर्ता’ के रूप में देखा जाएगा न कि उपयोगिताओं के उपभोक्ता के रूप में ।

अतः इसमें मनुष्य की ‘विकासात्मक शक्ति’ के विस्तार का पूरा अवसर होगा और किसी के पास ‘दोहन शक्ति’ की गुंजाइश नहीं रहेगी, अर्थात् कोई किसी का शोषण नहीं कर पाएगा । दूसरे शब्दों में, वास्तविक लोकतंत्र का आधार मनुष्यों की ‘सृजनात्मक स्वतंत्रता’ है, भौतिक संतुष्टि मात्र नहीं ।

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i. लोकतंत्र का चिरसम्मत सिद्धांत (Classical Theory of Democracy):

प्लेटो और अरस्तु ने एथेंस में लोकतंत्र के सक्रिय रूप को देखा था परंतु प्राचीन यूनानी नगर-राज्यों में लोकतंत्र का जो रूप प्रचलित था, उसे आदर्श शासन प्रणाली नहीं माना जा सकता । प्लेटो ने लोकतंत्र की निदा की है क्योंकि उसके अनुसार जन-साधारण इतने शिक्षित नहीं होते कि वे ‘सर्वोत्तम शासकों और सबसे बुद्धिमतापूर्ण नीतियों’ का चयन कर सकें ।

फिर अरस्तु ने लोकतंत्र को ‘बहुत सारे लोगों का शासन’ कहकर इसकी आलोचना की है क्योंकि ये ‘बहुत सारे लोग’ साधारणतः निर्धन, अशिक्षित और अयोग्य होते हैं । एक आदर्श एवं स्थिर शासन प्रणाली की तलाश करते-करते अरस्तु इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यह ‘अभिजाततंत्र’ (Aristocracy) और ‘लोकतंत्र’ (Democracy) का मिश्रण होना चाहिए ।

इसे उसने ‘मिश्रित संविधान’ (Mixed Constitution) कहा है जिसमें सत्ता तो कुलीनवर्ग के हाथों में रहेगी परंतु शासन की नीतियों के लिए जनसाधारण की सहमति प्राप्त की जाएगी । इस तरह अरस्सू ने स्वयं ‘लोकतंत्र’ को तो नहीं सराहा परंतु आदर्श शासन प्रणाली में उसे उपयुक्त स्थान देने का समर्थन अवश्य किया ।

ii. लोकतंत्र की आधुनिक अवधरणा (Modern Notion of Democracy):

लोकतंत्र की आधुनिक अवधारणा आधुनिक युग की परिस्थितियों की देन है । लगभग 16वीं सदी से विश्व के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन में ऐसे परिवर्तनों का सिलसिला शुरू हुआ, जिसमें मध्ययुगीन सामंती प्रणाली का हारा हुआ और ‘व्यक्ति’ या ‘मनुष्य’ को सर्वत्र नई प्रतिष्ठा मिली ।

जॉन लॉक ने इंग्लैण्ड की गौरवमय क्रांति (1688) के अवसर पर यह विचार व्यक्त किया था कि मनुष्य के कुछ प्राकृतिक अधिकार होते हैं जिन्हें उससे कोई भी छीन नहीं सकता, इनमें ‘जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति’ के अधिकार (Rights to Life, Liberty and Property) का विशेष स्थान था । इन्हीं अधिकारों की रक्षा के लिए मनुष्य परस्पर सहमति से राज्य की स्थापना करते हैं ।

फिर, अमेरिकी स्वतंत्रता (1776) और फ्रांसीसी क्रांति (1789) के प्रवर्तकों ने पुराने प्रतिष्ठित वर्गों के विशेषाधिकारों की चुनौती देते हुए यह सिद्धांत प्रस्तुत किया कि सब मनुष्य जन्म से स्वतंत्र और समान हैं ।

इन सब विचारों के प्रभाव से ‘जनसाधारण’ को ‘विवेकशून्य’ और ‘आज्ञाकारी’ प्रजा से ऊपर उठकर शासकों का चुनाव करने वाले और उन पर निगरानी रखने वाले नागरिकों का दर्जा मिल गया । इस तरह जनता को जनता-जनार्दन की पदवी मिल गई जिससे ‘लोकतंत्र’ के विचार को प्रतिष्ठा मिली ।

ब्रिटिश विचारक ए.वी. डायसी और जेमन ब्राइस ने लोकतंत्र की चिरसम्मत संकल्पना को अलग तरीके से व्याख्यायित किया है । डायसी ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘Law and Public Opinion in England During the Nineteenth Century -1905’ के अंतर्गत माना कि लोकतंत्र में विधि-निर्माण बहुमत से निर्धारित होता है ।

उसके अनुसार लोकतंत्र में जनता के पसंद के विपरीत विधि बनाना नादानी होगी । वहीं जेम्स ब्राइस ने अपनी कृतियों ‘The American Commonwealth -1893’ और ‘Modern Democracies – 1921’ के अंतर्गत यह विचार व्यक्त किया है कि लोकतंत्र ‘जनसाधारण का शासन है जिसमें वे वोटों के माध्यम से अपनी प्रभुसत्ता सम्पन्न इच्छा को व्यक्त करते हैं ।’

और भी संक्षेप में कहा जाए तो यह ‘बहुमत का शासन’ है । बाइस का कहना है कि यद्यपि ‘जन-कल्याण’ का कार्य तो सभी शासन प्रणालियाँ करती हैं तथापि लोकतंत्र का एक अतिरिक्त कार्य यह है कि वह लोगों को आत्म-शिक्षा के लिए प्रेरित करता है ।

लोकतंत्र सीधे-सीधे ‘जनता का शासन’ नहीं है ।

इसमें जनसाधारण दो तरह से अपनी सत्ता का प्रयोग करते हैं:

(i) वे ऐसे लक्ष्य निर्धारित करते हैं जिनकी पूर्ति करना उनकी सरकार का ध्येय होना चाहिए; और

(ii) वे उन लोगों की निगरानी करते हैं जिनके हाथों में वे प्रशासन की बागडोर सौंप देते हैं ।


Essay # 3. उदार लोकतंत्र के लक्षण (Characteristics of Liberal Democracy):

आधुनिक लोकतंत्र को मुख्य रूप से ‘उदार लोकतंत्र’ (Liberal Democracy) के रूप में जाना जाता है । हालाँकि उदारवाद और लोकतंत्र की उत्पत्ति भिन्न-भिन्न परंपराओं से हुई है परंतु आधुनिक काल में लोकतंत्र की सामान्य धारा उदारवाद के साथ इतनी निकट से जुड़ गई है कि सामान्य भाषा में, जब तक ‘लोकतंत्र’ शब्द के साथ कोई अन्य विशेषण न लगाया जाए, तब तक उसका अभिप्राय ‘उदार लोकतंत्र’ ही समझा जाता है ।

उदार लोकतंत्र के समर्थक लोकतंत्र की संस्थाओं और प्रक्रियाओं पर विशेष बल देते हैं और इसी के आधार पर यह जाँच करते हैं कि किसी देश में लोकतंत्र है या नहीं? उनका मानना है कि जनसाधारण की इच्छा को शासन का आधार बनाने के लिए ये प्रक्रियाएं और संस्थाएं अनिवार्य हैं । अन्य कोई ढांचा चाहे कितना ही उन्नत क्यों न हो, लोकतंत्र की भावना को कार्य-रूप नहीं दे सकता ।

उदार लोकतंत्र के निम्नलिखित लक्षण स्वीकार किए जाते हैं:

1. राजनीतिक दलों की बहुलता ताकि राजनीतिक सत्ता के लिए मुक्त प्रतिस्पर्धा हो सके ।

2. राजनीतिक पद किसी विशिष्ट वर्ग तक सीमित न रहे ।

3. सार्वजनीन वयस्क मताधिकार (Universal Adult Franchise) पर आधारित आवधिक चुनाव ।

4. नागरिक स्वतंत्रताओं की व्याख्या ।

5. न्यायपालिका की स्वाधीनता ।


Essay # 4.

लोकतंत्र का औचित्य (Justification for Democracy):

लोकतंत्र के पक्ष में साधारणतः निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं:

1. सत्ता के दुरुपयोग की रोकथाम:

सत्ताधारी की निरंकुशता से बचाव का उपाय यह होगा कि उसके हाथों में निस्सीम और निरंकुश सत्ता न दी जाए । उसपर सर्वसाधारण का अंकुश और सार्थक नियंत्रण रहे । विचारशील व्यक्ति केवल कुशल प्रशासन ही नहीं चाहता, वह संवेदनशील प्रशासन की कामना भी करता है । सिद्धांतत: लोकतंत्र एक संवेदनशील शासन प्रदान करने का प्रयत्न अवश्य करता है ।

2. शासन के कार्य में जनसाधारण के सहयोग की आशा:

किसी भी शासन प्रणाली के अंतर्गत कुशल प्रशासन चलाना तो विशेषज्ञों का ही काम है परंतु लोकतंत्र में ये विशेषज्ञ सर्व-साधारण के प्रति उत्तरदायी होते हैं, इसलिए उन्हें जनजीवन के निकट आकर और जनमानस की थाह लेकर ही निर्णय करने पड़ते हैं ।

जनता का विश्वास प्राप्त करके प्रशासन चलाना तो सुगम होता ही है, जनता भी शासन में हिस्सेदारी की भावना से अधिक उत्साहित और सुखी अनुभव करती है । यदि चिकित्सक अपने रोगी का विश्वास प्राप्त कर लेता है तो रोगी जल्दी स्वस्थ हो जाता है ।

3. सार्वजनिक मुद्‌दों पर स्वतंत्र चर्चा से जन-शिक्षा को प्रोत्साहन:

प्रजातंत्र को जन-शिक्षा का बहुत बडा प्रयोग कहा गया है । स्वतंत्र चर्चा के फलस्वरूप जनता को राष्ट्र की समस्याओं के बारे में अपनी राय बनाने का मौका मिलता है, लोगों के सोचने-समझने का ढंग सुधरता है और उनके हृदय में ज्ञान की ज्योति जगती है ।

सी.डी. बर्न्स का कहना है कि ”सारी शासन-व्यवस्था एक शिक्षा प्रणाली होती है, परतु सर्वोत्तम शिक्षा आत्मविश्वास है । अतः सर्वोत्तम शासन-पद्धति स्वशासन है जो कि लोकतंत्र का पर्याय है ।”

4. परस्पर सद्‌भावना और सम्मान का विस्तार:

लोकतंत्र में लोग एक-दूसरे के विचारों और भावनाओं का सम्मान करना सीखते हैं जिससे उनका नैतिक स्सर उन्नत होता है । इससे व्यक्ति का चरित्र निर्माण होता है और राष्ट्रीय चरित्र का विकास होता है । ब्राइस के शब्दों में, ”मताधिकार मिलने पर व्यक्तियों की गरिमा बढ़ जाती है ।”

परंतु यह भी ध्यान देने योग्य है कि जब तक समाज में अत्यधिक आर्थिक विषमता रहेगी तब तक कोरी राजनीतिक समानता से न तो व्यक्ति की गरिमा बढेगी और न उसका मनोबल ऊँचा होगा ।

5. देशभक्ति की भावना का संचार:

भावनात्मक स्तर पर भी प्रजातंत्र के अनेक लाभ पहचाने जाते हैं । इससे देशभक्ति की भावना को बढावा मिलता है । व्यक्ति के मन में जब यह विश्वास पैदा होता है कि देश में उसका अपना शासन है, तो देश के प्रति उसका अनुराग बढ़ जाता है ।

लोकतंत्र में चूंकि व्यक्तियों को अपनी शिकायतें सरकार तक पहुँचाने का अवसर मिलता है, इसलिए विद्रोह की संभावनाएं कम हो जाती हैं । प्रजातंत्र का आदर्श समानता का सिद्धांत है और सच्चे अर्थों में समानता की स्थापना होने पर विद्रोह का मूल कारण भी समाप्त हो जाएगा ।

एक बात और भी है कि जनतंत्र में लोकमत जागृत होने पर शासन उसकी मांग को ज्यादा दिनों तक अनसुना नहीं कर सकता, उस पर तुरत ध्यान दिया जाता है, जिससे शासन में कार्यकुशलता आ जाती है ।


Essay # 5.

लोकतंत्र की त्रुटियाँ (Errors of Democracy):

प्रत्येक शांसन प्रणाली की भाँति लोकतांत्रिक प्रणाली में भी कुछ त्रुटियाँ पाई जाती हैं जिनके कारण लोकतंत्र की आलोचना की जाती है ।

प्रजातंत्र के विरोध में अनेक तर्क दिए जाते हैं, जो निम्नलिखित हैं:

1. भीड़तंत्र (Mobocracy):

प्रजातंत्र के विरोधी यह तर्क देते हैं कि जनसाधारण प्रायः अशिक्षित, जाहिल और लापरवाह होते हैं, इसलिए उनके मत को अहमियत देने से भीड़तंत्र को बढावा मिलता है । परिणाम यह होता है कि ‘गुणवत्ता’ की जगह ‘परिमाण’ को प्राथमिकता दी जाती है । इसीलिए मुहम्मद इकबाल ने कहा है कि ”जुमहूरियत इक तर्जे हुकूमत है, जिसमें, बंदों को गिना करते हैं तोला नहीं करते ।”

2. अकुशलता (Inefficiency):

इस प्रणाली में सरकार को जनमत का राख देखकर काम करना पड़ता है, और रुख को पता करने में समय लगता है । परिणाम यह होता है कि सरकार साहसपूर्ण निर्णय लेने से डरती है और काम धीरे-धीरे होता है । अतः लोकतंत्रीय शासन प्रायः अकुशल सिद्ध होता है ।

3. भ्रष्ट नेतृत्व (Corrupt Leadership):

चूँकि आम जनता का राजनीतिक विवेक बहुत निम्न स्तर का होता है, इसलिए लोकतंत्र में नेता (Demagogue) जनता की भावनाओं से खिलवाड करके वोट बटोर लेते हैं और फिर नारेबाजी की आड़ में अपने स्वार्थों को बढ़ावा देते हैं । भ्रष्ट राजनेता अनेक स्थानों या संस्थाओं के प्रभावशाली लोगों के साथ सौदेबाजी करके जनता को उल्लू बनाते हैं । राजनीतिक दलों में गुटबंदी को बढावा मिलता है, और सत्ता हाथ में आ जाने पर ये दल प्रमुख पदों पर अपने चहेतों को बिठाकर भ्रष्टाचार को बढावा देते हैं ।

4. अतिव्यय (Extravagance):

जनतंत्र के विरुद्ध एक तर्क यह दिया जाता है कि यह बहुत ही खर्चीली शासन-पद्धति है । इसमें प्रचार, चुनाव, जनमत के संगठन, इत्यादि पर अरबों रुपया खर्च होता है । यदि वही धन अन्य रचनात्मक कार्यों में लगाया जाए, तो राष्ट्र की प्रगति में सहायक सिद्ध होगा ।

इससे जुडा हुआ एक तर्क यह भी है कि बड़े-बड़े उद्योगपति और व्यापारी राजनीतिक दलों को चंदा देते हैं और जब सत्ता हाथ में आ जाती है तो ये दल अपने वित्तदाताओं को उचित-अनुचित लाभ पहुँचाने के लिए बाध्य हो जाते हैं । इससे भ्रष्टाचार को बढावा मिलता है और अन्ततः जनसाधारण को नुकसान उठाना पड़ता है ।

जनतंत्र की सफलता की शर्तें:

प्रजातंत्र की सफलता के लिए कुछ आवश्यक शर्तें हैं- लोकतंत्र में जनसाधारण को शिक्षित, संवेदनशील और उत्तरदायित्व की भावना से परिपूर्ण होना चाहिए । दूसरे शब्दों में, लोकतंत्रीय राज्य को सार्वजनिक शिक्षा की विस्तृत व्यवस्था करनी चाहिए और जनसम्पर्क के साधनों की सहायता से लोगों में मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था जगानी चाहिए ।

यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि लोकतंत्र उन्हीं देशों में सफल हुआ है जहाँ स्वस्थ जनतंत्रीय परंपराएं रही हैं । जिन देशों में प्रजातंत्र के लिए अनुकूल संस्कृति की नींव रखे बिना केवल प्रजातंत्र का राजनीतिक ढांचा खडा कर दिया गया, वही वह अधिक दिनों तक नहीं टिक पाया ।

दूसरे, लोकतंत्र के सार्थक रूप से कार्य करने के लिए देश में शांति और व्यवस्था का वातावरण होना चाहिए । यदि देश में उपद्रव या संकट उपस्थित हो तो लोकतंत्र को तब तक स्थगित रखना जरूरी होगा जब तक स्थिति सामान्य न हो जाए । यही कारण है कि लोकतंत्रीय संविधानों में प्रायः ‘आपातकालीन व्यवस्थाएं’ रखी जाती हैं ।

तीसरे, लोकतंत्र की सफलता के लिए यथासंभव ‘आर्थिक समानता’ और ‘सामाजिक न्याय’ की स्थापना भी आवश्यक है । यदि समाज की आर्थिक व्यवस्था घोर विषमता को जन्म देती है तो उस पर ‘राजनीतिक लोकतंत्र’ का पर्दा डालकर वंचित वर्गों को ज्यादा दिन तक गुमराह नहीं किया जा सकता ।

अंततः लोकतंत्र की सफलता के लिए यह भी आवश्यक है कि सामाजिक स्तर पर विभिन्न वर्गों को विविध विशेषाधिकार न मिले हों, न किसी वर्ग को नीची निगाह से देखा जाता हो ।

सारांशत: जहाँ प्रजातंत्र स्थापित करना हो वहाँ केवल प्रजातंत्रीय शासन प्रणाली स्थापित कर देना पर्याप्त नहीं । यदि उसके साथ उपयुक्त सामाजिक परिवर्तन नहीं लाए जाएंगे तो लोकतंत्रीय शासन प्रणाली अंदर से चरमराकर टूट जाएगी ।


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