लोकतंत्र: मतलब, चरणों और वर्तमान स्थिति | Lokatantr: Matalab, Charanon Aur Vartamaan Sthiti | Democracy: Meaning Stages and Present Status

Read this article in Hindi to learn about:- 1. लोकतंत्र का अर्थ (Meaning of Democracy) 2. लोकतंत्रीकरण के चरण (Stages of Democratization) 3. वर्तमान में लोकतंत्र की स्थिति (Present State of Democracy).

लोकतंत्र का अर्थ (Meaning of Democracy):

विश्व अधिकाधिक लोकतांत्रिक बनता जा रहा है और हम इसी दौर के साक्षी हैं । 1989 में लोकतंत्रीय व्यवस्थाओं की संख्या केवल प्रथम विश्वयुद्ध के उपरांत एक अल्प अवधि को छोड़कर, इतिहास में पहली बार एकतंत्रीय अथवा स्वेच्छाचारी व्यवस्थाओं की संख्या को पार करके आगे निकल गई । सन् 1975 से सन् 2000 के बीच लोकतंत्रीय व्यवस्थाओं की संख्या दुगुने से भी अधिक हो गई ।

फलत: विश्व की अधिकांश जनता अब सहर्ष रूप से लोकतांत्रिक शासन के अधीन है । अपने मौजूदा चरण में लोकतंत्र ने अपना विस्तार पश्चिमी यूरोप उत्तरी अमेरिका के पूर्व उपनिवेशों, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड तक कर लिया है । लोकतंत्र अब दक्षिण यूरोप (उदाहरण-स्पेन), पूर्वी यूरोप (उदाहरण-पोलैंड), लैटिन अमेरिका (उदाहरण-अर्जेटीना), एशिया (उदाहरण-ताईवान) और अफ्रीका के भागों (उदाहरण-दक्षिण अफ्रीका) में भी फैल चुका है । ऐसे द्रुत विकास से लोकतंत्र की एक भूमंडलीय लहर सी चल पड़ी है ।

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मानव इतिहास में पहली बार विश्व आबादी का एक बड़ा भाग स्वतंत्र रूप से चुनी गई सरकारों के अंतर्गत शासित है । सैमुअल हंटिग्टन (1995) ने इसे “लोकतंत्रीकरण की तीसरी लहर” की संज्ञा दी है और वे इसे मानवजाति के इतिहास की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि में से एक मानते हैं । चूंकि लोकतंत्र का विस्तार हुआ है इसलिए इसके संचालन में काफी विविधताएं है । अत: वर्तमान युग में लोकतंत्र के विभिन्न स्वरूपों का ज्ञान अनिवार्य है ।

लोकतंत्र एक विवादित संकल्पना है । कोई भी राजनीतिक शब्दावली इतनी विवादास्पद नहीं है जितनी कि ”लोकतंत्र” और ”लोकतांत्रिक” शब्द की परिभाषाएँ हैं । इसके कारण किसी भी राज्य का अपनी शैली से अपने स्वरूप का निर्धारण करना आसान बन गया है ।

भूतपूर्व सोवियत संघ और पश्चिमी यूरोप के साम्यवादी राज्यों, चीनी गणराज्य, उत्तरी कोरिया और उत्तरी वियतनाम सभी ने स्वयं को लोकतंत्र की संज्ञा दी । इसी प्रकार कुछ अवधि पूर्व जनरल स्टॉसर पैरागुए, इंडोनेशिया के श्री सुकर्ण और मिस्र के नासिर ने भी स्वय को लोकतांत्रिक बताया ।

लोकतंत्र का एक संज्ञा या फिर उद्देश्य के रूप में प्रयोग किया जा सकता है । जब इसका संज्ञा के रूप में प्रयोग किया जाता है तो यह एक भाववाचक शब्द बन जाता है जो इस विचार का प्रतिपादन करता है कि एक देश की शासन व्यवस्था किस प्रकार की होनी चाहिए ।

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इतना ही नहीं यह एक उच्च मूल्य का प्रतीक है । जो भी हो, पर अमूर्त प्रत्यय अस्पष्ट होते हैं । लोकतंत्र की धारणा को ठोस अभिव्यक्ति देने के लिए इसे एक राज्य की राजनीतिक संस्थाओं से जोड़ना जरूरी है । अब प्रश्न यह है कि लोकतंत्र का मूल सिद्धांत क्या है ? इसका मूल भाव स्व-शासन है ।

इस शब्द की उत्पत्ति यूनानी भाषा के डेमोक्रेटिया शब्द से हुई है जिसका अर्थ है जनता द्वारा शासन अत: शाब्दिक अर्थों में लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ शासितों द्वारा शासकों के निर्वाचन से नहीं बल्कि इन दोनों में किसी भी प्रकार के अलगाव की अस्वीकृति से भी है । लोकतंत्र का मॉडल एक प्रत्यक्ष लोकतंत्र है । यह स्वशासित सरकार का ऐसा रूप है जिसमें वयस्क नागरिक समानता और स्वतंत्र अभिव्यक्ति की दृष्टि से सामूहिक नीति-निर्माण में सहभागिता दिखाते हैं ।

लोकतंत्र का जन्म स्थान प्राचीन एथेंस में 461 और 322 ईसा पूर्व के बीच है । एथेंस यूनान का एक प्रमुख नगर-राज्य था । एथेंस राज्य अरस्तू द्वारा वर्णित लोकतांत्रिक सिद्धांत के आधार पर संचालित होता था । यह सिद्धांत नगर-राज्य के भीतर सरकार की सभी संस्थाओं पर लागू था । सभी नागरिकों को सभी की बैठकों में शामिल होने, शासकीय परिषद् में कार्य करने और नागरिक न्याय सभा में बैठने की अनुमति थी ।

प्राचीन एथेस के परंपरागत लोकतंत्र की तुलना में आधुनिक लोकतंत्र प्रत्यक्ष की बजाय प्रतिनिध्यात्मक है । अब स्वशासित सरकार का नहीं अपितु निर्वाचित सरकार का सिद्धांत प्रभावी है । जोसेफ शुम्पीटर (1943, 271) का तर्क है कि आज के लोकतांत्रिक राज्य में एक स्वतंत्र वोट के लिए खुली प्रतियोगिता है । अब जनता यह निर्णय नहीं लेती कि सरकार क्या कार्य करेगी बल्कि उनकी लोकप्रिय भूमिका तो यह निर्णय करना है कि कौन शासन संभालेगा ।

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आज के समय में सभी वयस्क नागरिकों के पास मतदान का अधिकार होना लोकतंत्र की सबसे पहली शर्त है । दूसरे, चुनाव प्रतियोगितापूर्ण मुक्त और निष्पक्ष होते हैं । तीसरे, वोटर (मतदाता) यह निर्णय लेते है कि सरकार के प्रमुख पदों पर किन्हें आसीन किया जाए ।

स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के माध्यम से चुने गए शासकों की जवाबदेही को सुनिश्चित करने के लिए विधि का शासन आवश्यक है । जनता को सरकार की समीक्षा के लिए अभिव्यक्ति का अधिकार देने, राजनीतिक दलों का गठन करने और मुक्त एवं निष्पक्ष चुनावों में पद के लिए प्रतियोगिता की स्वतंत्रता होनी भी जरूरी है ।

इस बात को लेकर व्यापक सहमति है कि चुनावों में भागीदारी का अधिकार सभी वयस्क नागरिकों को मिलना चाहिए । पर यदि गरीबी या उपेक्षा के कारण नागरिक अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग ही न करें तो क्या होगा ? और यदि प्रत्येक अंतराल पर होने वाले चुनावों में कुछ नागरिकों को राजनेताओं के साथ समाजीकरण का अवसर देकर निर्णायक मत को प्रभावित किया जाता है तो ऐसे लोकतंत्र के बारे में क्या कहा जा सकता है ? इन प्रश्नों के उत्तर देते हुए जोसेफ ए. शुम्पीटर कहते है कि नागरिकों की भूमिका काफी हद तक चुनावी प्रत्याशियों से प्रभावित होती है । धनी व्यक्ति नीति-निर्माण में नागरिकों की सक्रिय सहभागिता को प्रभावित करते है । ऐसा लोकमत संग्रह या नागरिक न्याय सभाओं में विचार-विमर्श अथवा विमर्शपूर्वक मतदान द्वारा किया जाता है ।

राजनीतिक समानता के महत्त्व जैसे प्रश्न के संबंध में न्यूनतावादी और विस्तृत दृष्टिकोणों के बीच अतर भी किया जा सकता है । न्यूनतमवादी औपचारिक रूप से मतदान की समानता की बात करते हैं । उनका आग्रह है कि नागरिकों को केवल एक मत का अधिकार दिया जाए और यदि चुनाव मतदान प्रणाली बहुसंख्यक मतों का प्रावधान करती है तो सभी नागरिकों को बराबर मात्रा में मत देने का अधिकार मिलना चाहिए ।

पर हमें औपचारिक प्रावधान से आगे बढ़कर राजनीतिक समानता का विस्तार करने की जरूरत है और लोगों की आय, शिक्षा, व्यवसाय आदि में अंतर पर ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि ये भी राजनीतिक प्रक्रियाओं और उनमें भागीदारी को प्रभावित करते हैं ।

अंतत: प्रतियोगी बहुदलीय चुनावों के साथ लोकतंत्र की तुलना के विचार की भी काफी आलोचना की गई है । टेरी कार्ल (1986) का तर्क है कि सैनिक आधिपत्य और मानव अधिकार हनन के कारण 1980 और 1990 के दशक में लैटिन अमेरिका की कई व्यवस्थाएं नियमित और स्वतंत्र चुनावों के बावजूद अधिक लोकतांत्रिक नहीं जान पड़ती । इन देशों को लोकतंत्र की श्रेणी में रखने का अर्थ होगा ”निर्वाचनवाद की भ्रामकता” का शिकार होना ।

उपरोक्त वर्णन को ध्यान में रखते हुए लोकतंत्र को एक बहुआयामी प्रक्रिया कहा जा सकता है । रॉबर्ट डाहल (1971) लोकतांत्रिक सरकार के दो आयामों का उल्लेख करते हैं राजनीतिक प्रक्रिया में जन-सहभागिता और पद प्राप्ति के लिए राजनीतिक दलो में प्रतियोगिता । वे प्रजातांत्रिक प्रक्रिया के पांच मापदंडों का वर्णन करते है सक्रिय सहभागिता, मतदान की समानता, जनजागृति कार्यक्रम का संचालन और अंतर्वेशन ।

डाहल (1989 – 2002) का तर्क है कि यदि ये सभी मानदंड पूरे हो जाए तो निम्नलिखित सात संस्थापक सुनिश्चितताएं भी पूर्ण हो जाएंगी:

(i) निर्वाचित राजनीतिक अधिकारी,

(ii) स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव,

(iii) मताधिकार (वस्तुत: सभी वयस्कों के लिए मताधिकार),

(iv) जन कार्यालयों के संचालन का अधिकार,

(v) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता,

(vi) सूचना का वैकल्पिक स्रोत,

(vii) संगठनात्मक स्वायत्तता (संगठन के निर्माण की आजादी) ।

लोकतंत्रीकरण के चरण (Stages of Democratization):

विश्वव्यापी लोकतंत्रीकरण की प्रक्रियाओं का विभिन्न उपनामों के माध्यम से विश्लेषण और वर्णन करने का प्रयास किया गया है । इनमें सबसे प्रचलित ”चरण” वेब्स की अवधारणा है । सैमुअल हंटिंगटन इनमें तीन अंतर स्पष्ट करते हैं ।

पहले, आधुनिक लोकतंत्र का उदय 1828 और 1926 के बीच ”लोकतंत्रीकरण की प्रथम लंबी धारा” में हुआ । इस पहले चरण में लगभग 30 देशों ने न्यूनतम रूप से लोकतांत्रिक राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना की । इन देशों में ये नाम शामिल हैं- अर्जेंटीना, ऑस्ट्रिया, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैंड न्यूजीलैंड, स्कैडिनेवियन देश और संयुक्त राज्य अमेरिका ।

हंटिंग्टन द्वारा वर्णित 1922 से 1942 के बीच पहली प्रतिवर्तित लहर के दौरान इनमें से अनेक लोकतंत्रीय व्यवस्थाओं का बाद में फासीवाद, साम्यवाद अथवा सैनिक आधिपत्य ने तख्ता उलट दिया था । हालांकि, उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में अमेरिका व ग्रेट ब्रिटेन सहित कई देशों में लोकतंत्र को मजबूती मिली ।

हटिंग्टन के अनुसार- लोकतंत्रीकरण के दूसरे चरण की शुरुआत द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हुई और यह 1960 के दशक तक जारी रही । हालांकि, जैसा पहले दौर में हुआ था वैसा इस दौर में नहीं हुआ । इस काल में निर्मित कुछ नई लोकतंत्रीय व्यवस्थाएं इतनी मजबूत नहीं थी ।

उदाहरण के लिए- लैटिन अमेरिका के कई प्रदेशों में निर्वाचित सरकारों का सैनिकों ने जल्द ही तख्ता उलट दिया परंतु पश्चिमी जर्मनी आस्ट्रिया, जापान और इटली में अधिनायकतंत्र के विध्वंस से 1945 के बाद सुस्थापित लोकतंत्रीय व्यवस्थाओं का उदय हुआ । तीसरी लहर की शुरुआत 1974 में हुई ।

इस दौर की प्रमुख बातें ये थी:

(i) 1970 के दशक में दक्षिणी यूरोप (यूनान, पुर्तगाल और स्पेन) में दक्षिणपंथी अधिनायकतंत्र का अंत,

(ii) 1980 के दशक में अमेरिका के अधिकांश भाग में सैनिक शासन की वापसी तथा,

(iii) 1980 के दशक के अंत तक सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में साम्यवाद का विघटन ।

रेन्सके डोरेन्सप्लीट ने हंटिंग्टन के वर्गीकरण को चुनौती दी और उन्होंने बर्लिन दीवार के गिरने तथा सोवियत संघ के विघटन, शीत युद्ध के अंत व दुनिया के अनेक भागों में इसके तहलके से मध्य एवं पूर्वी यूरोप में तत्कालीन घटनाक्रमों के आधार पर 1989-90 में इसके चौथे चरण की शुरुआत की बात की । कुछ अन्य विद्वानों जैसेकि ग्रीन (1999) ने कुछ महत्वपूर्ण समाकृतिक बदलावों के संवेगों की बात की ।

इक्कीसवीं सदी के मोड़ पर लोकतंत्र की एक बड़ी लहर ने प्रत्येक महाद्वीप को छुआ । लैटिन अमेरिका के अधिकांश भाग को हाल ही में उस अधिकारवादी शासन व्यवस्था से मुक्ति मिली है जो मानव अधिकार हनन के मामलों सहित आइबेरो-अमेरिकन निरंकुशतावाद का प्रतीक था ।

ऐसी ही प्रवृत्ति पूर्व और दक्षिण एशिया के कुछ देशों से स्पष्ट थी जहां सैन्य-समर्थित शासन व्यवस्थाएं जन आंदोलनों के समक्ष अटल प्रतीत होती थीं । इक्कीसवीं सदी के निरंकुशतावाद के प्रतीक सोवियत संघ और सत्तावादी यूगोस्लाविया का विघटन हो गया । वे 10 राज्य जो सोवियत या पूर्वी ब्लॉक के भाग थे 28 अलग-अलग राज्यों में बट गए और उनमें से अधिकांश राज्य राजनीतिक स्वतंत्रता की होड़ में दौड़ लगा रहे थे ।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के काल (1948 से) में नवोदित स्वतंत्र राज्यों के रूप में कई नई लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं अस्तित्व में आईं । एशिया के अंतर्गत 1947 में भारत व पाकिस्तान (अब पृथक) और 1963 में इंडोनेशिया स्वतंत्र हुए । 1950 के दशक के मध्य में उप-सहारा अफ्रीका के अंतर्गत घाना और सूडान ऐसे पहले देश थे जिन्हें आजादी मिली । इसके बाद 1960 के दशक से स्वतंत्रता की एक महान लहर चल पड़ी ।

प्रारंभ में अधिकांश नव स्वतंत्र राज्यों में लोकतांत्रिक संविधान अपनाए गए । इसका निर्माण पूर्व औपनिवेशिक शक्ति के मॉडल अर्थात् पूर्व ब्रिटिश प्रदेशों की वेस्टमिस्टर प्रकार की संसदीय व्यवस्था और फ्रैकोफोन राज्यों की अध्यक्षीय व्यवस्था के बाद किया गया । हालांकि इनमें से कुछ ही राज्यों में यह दृढ़ हो पाई ।

आज भी भारत इनमें से विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का उदाहरण प्रस्तुत करता है जबकि इसके पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश विभाजन के बाद जल्द ही सैनिक शासन में परिवर्तित हो गए । अफ्रीका में सिर्फ बोत्स्वाना और छोटा-सा मॉरीशस ही लोकतंत्र के रूप में अभी तक क्रियाशील है । अफ्रीका के बाकी राज्य सैनिक अधिनायकतंत्र और सत्तावादी एकदलीय शासन व्यवस्था का चित्र प्रस्तुत करते हैं ।

लैटिन अमेरिका में युद्ध के बाद के शुरुआती वर्षों में अर्जेंटीना, ब्राजील, बोलीविया आदि कई देशों का पुनलोकतंत्रीकरण हुआ और मताधिकार का विस्तार महिलाओं तक किया गया । पर यहां भी स्थिति अस्थिर थी और इनमें से भी कई देश 1960 और 70 के दशक में सैन्य शासन व्यवस्था में पहुंच गए खासकर 1964 में ब्राजील और 1973 में चिली । सिर्फ 1948 के बाद कोस्टारिका और 1958 के बाद वेनेजुएला निरंतर अपने लोकतांत्रिक संविधानों को लेकर स्थिर बने हुए हैं ।

अन्य जगहों पर टर्की के अंतर्गत फिलिपींस में पहले बहुदलीय चुनाव हुए पर 1966 के बाद यह भी राष्ट्रपति मैवास की अध्यक्षता में सत्तावादी शासन में बदल गया और यूनान में भी 1968 में सैनिक शासन ने तख्ता उलट दिया । संपूर्ण उत्तरी अमेरिकी और मध्य पूर्वी भाग लोकतांत्रिक आदोलनों से अनछुआ रह गया और सऊदी अरब, जॉर्डन एवं मोरक्को में पारंपरिक राजतंत्रों की तरह या इराक व सीरिया की तरह सैनिक तानाशाही अथवा मिस्र या ट्‌यूनीशिया में सत्तावादी एकदलीय व्यवस्था की भांति स्थिर बना रहा ।

वर्तमान में लोकतंत्र की स्थिति (Present State of Democracy):

साम्यवादी एकदलीय राज्य का लोकतांत्रिक राज्य में बदलाव अवश्यभावी नहीं था । लोकतंत्रीकरण का संबंध तो राजनीतिक परिवर्तन की खुली प्रक्रिया से है जो लोकतंत्रीकरण के तीन विभिन्न रास्ते चुन सकती है । पहला मार्ग सफल लोकतंत्रीकरण का मार्ग है जो एक नए लोकतंत्र से चलकर एक सुदृढ़ लोकतंत्र तक अपना रास्ता तय करता है ।

उत्तर साम्यवादी लोकतंत्रीकरण दूसरा मार्ग है जिसमें वे सभी देश शामिल हैं जिन्होंने अभी तक सुदृढ़ लोकतंत्र का उच्च स्तर तो हासिल नहीं किया है पर फिर भी वे चुनावी लोकतंत्र के मध्यम स्तर तक पहुंच चुके हैं । इसे संपूर्ण उदारवादी लोकतंत्र के विभिन्न तत्त्वों और संस्थाओं से रहित एक आशिक लोकतंत्र की संज्ञा दी जा सकती है ।

तीसरा मार्ग उत्तर-सोवियत राजनीतिक बदलाव से जुड़ा है । इसमें वे देश शामिल हैं जो लोकतंत्र को अपनाने में पूरी तरह से असफल रहे है और किसी भी महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक तत्त्व सिद्धांत या संस्थाओं के बगैर निरंकुश शासनतंत्र के रूप में समाप्त हो गए हैं । स्लोवेनिया, हंगरी, पोलैंड, लिथुआनिया और स्लोवाकिया सुस्थापित लोकतंत्र के आदर्श उदाहरण हैं ।

इन्होंने एक उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना की है । ये सभी देश विधि के शासन, शक्ति के स्पष्ट पृथक्करण, संविधानवाद राजनीतिक कर्ताओं व संस्थाओं की बहुलता मानव व राजनीतिक अधिकारों के पूर्ण सम्मान तथा मीडिया की स्वतंत्रता व राजनीतिक सध निर्माण को प्राप्ति का दावा कर सकते हैं ।

लोकतंत्रीकरण के द्वितीय विकास का मार्ग इन देशों में देखा जा सकता है उत्तर सोवियत देश जैसेकि एस्टोनिया, यूक्रेन, जार्जिया और रूस । जब एक राजनीतिक व्यवस्था लोकतंत्र की न्यूनतम परिभाषा को पूर्ण करने लगे तो उसे चुनावी लोकतंत्र का नाम दिया जा सकता है ।

अगर एक राजनीतिक व्यवस्था प्रतियोगी और बहुपार्टी चुनाव संपन्न कराती है तो इसका अर्थ है कि उसने चुनावी लोकतंत्र का स्तर हासिल कर लिया है । चुनावी लोकतंत्र की यह संकल्पना सीमाबद्ध है । यह विश्वव्यापी चुनावों की संस्थाओं व प्रक्रियाओं पर लागू नहीं होती और यह राजनीतिक संस्थाओं के लोकतंत्रीय स्वरूप पर ध्यान नहीं देती ।

एक चुनावी लोकतंत्र पूर्ण या सुदृढ़ लोकतांत्रिक व्यवस्था की किसी भी रीति को पूरा नहीं करता । एस्टोनिया एक चुनावी लोकतंत्र है जिसके राजनीतिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रताओं का स्तर ऊंचा है पर यह यूरोपीय यूनियन का सिर्फ एक नया सदस्य है जिसने अभी तक सुदृढ़ लोकतंत्र का स्तर हासिल नहीं किया है ।

”ऑरेंज क्रांति” के द्वारा यूक्रेन ने चुनावी लोकतंत्र का स्तर प्राप्त किया है । दक्षिणी कॉकैसस में ”रोज क्रांति” द्वारा जार्जिया ने भी यही स्तर हासिल किया है । ”ट्‌यूलिप क्रांति” ने किर्गिस्तान को चुनावी लोकतांत्रिक समूह के अंतिम छोर पर रखा है । यूक्रेन रेंज जार्जिया (रोज) व किर्गिस्तान (ट्‌यूलिप) में तथाकथित रंगीन क्रांतियां 1989 से 1991 के बीच की प्राथमिक क्रांति के बाद द्वितीय लोकतांत्रिक क्रांतियों का भाग हैं ।

ये सभी देश सतही लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया में है । लोकतंत्र ने अभी समाज के विशिष्ट वर्ग में गहरी जड़ें नहीं जमाई हैं । इनकी ऐतिहासिक भूमिका सिर्फ सुदृढ़ लोकतंत्र को हासिल करना ही नहीं बल्कि निरंकुश शासन व्यवस्थाओं को चुनावी लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्तर तक लाना भी है ।

अंतत: उत्तर सोवियत यूरेशिया में लोकतांत्रिक क्रांतियों का तीसरा मार्ग उन उत्तर-सोवियत देशों से संबंधित है जो लोकतंत्र को अपनाने में पूरी तरह से असफल रहे हैं और निरंकुश शासनतंत्र तक ही सीमित होकर रह गए । न्यूनतम एकतंत्रीय शासन प्रदेश तजाकिस्तान में राजनीतिक व नागरिक स्वतंत्रताओं का स्तर बहुत छोटा है । अन्य देश जैसेकि कजाकिस्तान और अजरबैजान भी नागरिक स्वतंत्रताओं व राजनीतिक अधिकारों के प्रति न्यूनतम समर्थन दर्शाते हैं ।

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