Here is an essay on ‘लोकतंत्र पर निबंध | Essay on Democracy in Hindi’ for class 7, 8, 9, 10, 11  and 12!

Essay Contents:

  1. भारत मे लोकतंत्र का परिचय (Introduction to Democracy in India)
  2. भारत में संसदीय लोकतन्त्र की आवश्यकता (Need of Parliamentary Democracy in India)
  3. राजनीतिक दलों की लोकतन्त्र में महत्वपूर्ण भूमिका (Importance of Political Parties in Democracy)
  4. प्रथम तीन लोक सभा चुनाव तथा कांग्रेस का वर्चस्व (First Three Lok Sabha Elections and Congress Supremacy)
  5. भारत में विरोधी दलों अथवा विपक्ष की भूमिका (Role of Opposition Parties or Opposition in India)

Essay # 1. Introduction to Democracy in India (भारत मे लोकतंत्र का परिचय):

भारत के लिये लोकतंत्र का अपनाया जाना भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन व जनता की आकांक्षाओं का स्वाभाविक परिणाम था । भारत के संविधान की प्रस्तावना का पहला वाक्यांश ‘हम भारत के लोग’ यह संकेत देता है कि भारत में शासन की अन्तिम शक्ति जनता में निहित है तथा भारत का संविधान भारतीयों द्वारा अपने लिये बनाया गया है ।

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संविधान में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को स्थान दिया गया है । लोकतंत्र वह शासन प्रणाली है जिसमें शासक वर्ग न केवल जनता द्वारा निर्वाचित होता है, वरन् अपने कार्यों के लिये जनता के प्रति उत्तरदायी होता है । उत्तरदायी होने का तात्पर्य यह है कि जनता यदि शासन के कार्यों से संतुष्ट नहीं है तो वह उन्हें बदल सकती है ।

इसके लिये नियमित अन्तराल पर चुनावों की व्यवस्था की गयी है तथा सभी नागरिकों को बिना किसी भेद-भाव के चुनावों में भाग लेने का अवसर प्रदान किया गया है । राष्ट्रीय आन्दोलन के समय से ही कांग्रेस तथा भारतीय जनता की आस्था लोकतंत्र में मजबूत हो गयी थी क्योंकि भारत के लोगों ने ब्रिटिश तानाशाही के अत्याचारों को देखा था तथा उसका विरोध किया था ।

1929 में कांग्रेस ने लाहौर अधिवेशन में जहाँ पूर्ण स्वराज की माँग की वहीं 1931 के कराची अधिवेशन में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का प्रस्ताव पारित किया गया । इन अधिकारों में भाषण व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा, समानता का अधिकार, सार्वभौमिक मताधिकार, धार्मिक स्वतन्त्रता तथा धर्मनिरपेक्षता आदि के अधिकारों को शामिल किया गया था ।

इसी तरह कांग्रेस ने आधिकारिक तौर पर 1935 में संविधान सभा की माँग की जिससे भारतीय अपनी इच्छानुसार शासन व्यवस्था की स्थापना कर सकें । इस माँग को 1938 में पुन: दोहराया गया । कांग्रेस ने अपने 1936 व 1937 के अधिवेशनों में समाजवाद लोकतंत्र व कल्याणकारी राज्य से संबन्धित प्रस्ताव भी पारित किये ।

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भारत जब आजाद हुआ तो नये संविधान द्वारा इन प्रस्तावों में निहित मूल्यों व धारणाओं को व्यवहारिक रूप देने का प्रयास किया गया । अत: भारत के लिये लोकतन्त्र राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान पुष्ट हुई भारतीय जनता की आकांक्षाओं का स्वाभाविक परिणाम था ।

लोकतंत्र को व्यवहारिक रूप देने के लिये वर्तमान में सामान्यतया दो प्रकार की शासन प्रणालियों को अपनाया जाता है- अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली तथा संसदात्मक शासन प्रणाली । अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में कार्यपालिका का कार्यकाल निश्चित होता है तथा वह व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होती है ।

अमेरिका में इसी प्रणाली को अपनाया गया है । इसके विपरीत संसदात्मक शासन प्रणाली में कार्यपालिका अर्थात् मंत्रिपरिषद् का कार्यकाल अनिश्चित होता है, क्योंकि वह व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होती है । उदाहरण के लिये भारत में केन्द्रीय मंत्रिपरिषद व्यवस्थापिका के लोकप्रिय सदन लोक सभा के प्रति उत्तरदायी होती है । भारत व ब्रिटेन में संसदात्मक प्रणाली को अपनाया गया है ।


Essay # 2.

भारत में संसदीय लोकतन्त्र की आवश्यकता (Need of Parliamentary Democracy in India):

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भारत की संविधान सभा में इस बात पर सदस्यों में बहस हुई थी कि भारत लोकतंत्र की अध्यक्षात्मक प्रणाली अपनायी जाये अथवा संसदात्मक प्रणाली अपनायी जाये । अन्तिम फैसला संसदीय प्रणाली के अपनाने के पक्ष में हुआ ।

भारत में संसदीय प्रणाली को अपनाने के दो कारण थे:

(i) प्रथम, भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान से ही यह प्रणाली व्यवहार में थी तथा इसका भारतीयों को व्यवहारिक ज्ञान व अनुभव था ।

(ii) दूसरे, अध्यक्षात्मक प्रणाली की तुलना में संसदात्मक प्रणाली अधिक लोकतान्त्रिक होती है, क्योंकि इसमें कार्यपालिका अर्थात मंत्रिपरिषद के तानाशाही होने की संभावना कम होती है । इसका कारण यह है कि संसद, (भारत में लोक सभा) कभी भी मंत्रिपरिषद को अविश्वास प्रस्ताव पारित कर हटा सकती है ।

दोनों ही प्रणालियों का संचालन राजनीतिक दलों के बिना संभव नहीं है । संसदीय प्रणाली में तो राजनीतिक दलों के बिना सरकार का निर्माण ही नहीं किया जा सकता क्योंकि उसी पार्टी को सरकार बनाने का अवसर प्रदान किया जाता है जिसे लोक सभा में बहुमत प्राप्त हो ।

लोकतंत्र में एक से अधिक दलों को राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने की अनुमति मिलना आवश्यक है । यदि किसी देश में एक ही दल को राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने की अनुमति प्राप्त है तो उसे लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता । वर्तमान में चीन शासन प्रणाली का उदाहरण है । अमेरिका तथा ब्रिटेन द्विदलीय प्रणाली के उदाहरण हैं तथा भारत बहुदलीय प्रणाली का उदाहरण है ।


Essay # 3.

राजनीतिक दलों की लोकतन्त्र में महत्वपूर्ण भूमिका (Importance of Political Parties in Democracy):

लोकतान्त्रिक प्रणाली चाहे किसी प्रकार की हो, उसे व्यवहारिक रूप देने में राजनीतिक दल महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ।

दलों की निम्न भूमिका महत्वपूर्ण है:

(i) वर्तमान में राज्यों की बड़ी जनसंख्या के कारण प्रत्यक्ष प्रजातंत्र संभव नहीं है । अत: अप्रत्यक्ष प्रजातंत्र ही वर्तमान में लोकतंत्र का व्यवहारिक रूप है अप्रत्यक्ष प्रजातंत्र में चुनाव आवश्यक हैं तथा चुनावों के आधार पर बहुमत की सरकार बनाने के लिये राजनीतिक दल आवश्यक हैं ।

(ii) राजनीतिक दल जनता में राजनीतिक जागरूकता उत्पन्न करते हैं तथा राजनीतिक भागीदारी को बढ़ाते हैं, जोकि लोकतंत्र की सफलता के लिये आवश्यक है ।

(iii) राजनीतिक दल सरकार व जनता के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाते हैं तथा जनता की समस्याओं से सरकार को अवगत कराते हैं ।

(iv) विपक्षी दल के रूप में राजनीतिक दल सरकार की तानाशाही व मनमानेपन पर रोक लगाते हैं । अत: रातनीतिक दल न केवल लोकतंत्र को व्यवहारिक रूप देने अपितु लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने के लिये आवश्यक हैं ।

राजनीति व सरकार में प्रभुत्व के आधार पर भारतीय राजनीति को सुविधा की दृष्टि से तीन युगों में बाँटा जा सकता है:

(i) एकदलीय प्रभुत्व का युग, 1952 से 1967 तक, जिसमें केन्द्र में बिना किसी चुनौती के कांग्रेस पार्टी का शासन रहा । इस काल में दूसरे दलों का प्रभाव नगण्य था ।

(ii) कांग्रेस पार्टी की चुनौतियों तथा उसके वर्चस्व की पुनर्स्थापना का युग, 1967 से 1989 तक, जिसमें केन्द्र तथा राज्यों दोनों स्तरों पर कांग्रेस को नये दलों से चुनौती का सामना करना पड़ा तथा उसने पुन: अपने वर्चस्व की स्थापना का प्रयास किया ।

(iii) गठबन्धन की राजनीति का युग, 1989 से अब तक, जिसमें कांग्रेस के प्रभुत्व में कमी आयी क्षेत्रीय दलों का महत्व बढ़ा तथा केन्द्रीय स्तर पर गठबन्धन की नयी राजनीति का आरंभ हुआ । गठबन्धन की राजनीति का मतलब है कि कई दलों द्वारा मिल-जुलकर सरकार का गठन क्योंकि किसी भी दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं प्राप्त हो पा रहा है । वर्तमान में भारत की केन्द्रीय राजनीति में दो गठबन्धन सक्रिय हैं-प्रथम कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन अर्थात् यू. पी. ए. तथा दूसरा भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन अर्थात् एन. डी. ए. ।


Essay # 4.

प्रथम तीन लोक सभा चुनाव तथा कांग्रेस का वर्चस्व (First Three Lok Sabha Elections and Congress Supremacy):

देश के प्रथम तीन लोकसभा चुनावों में केन्द्रीय स्तर पर कांग्रेस को न केवल सबसे बड़े दल के रूप में मान्यता प्राप्त हुई बल्कि विरोधी पार्टियों की स्थिति अत्यंत कमजोर थी । राज्य स्तर पर भी कुछ अपवादों एका छोड़कर इस काल में कांग्रेस को राजनीतिक वर्चस्व की स्थिति प्राप्त थी ।

(1) प्रथम लोकसभा चुनाव (First Lok Sabha Election):

भारत में नया संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया था । 24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा को ही अंतरिम संसद के रूप में मान्यता प्रदान की गयी थी तथा उसके अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को राष्ट्रपति के रूप में मान्य कर दिया गया था । देश में पहले चुनाव कराना एक कठिन कार्य था । यद्यपि चुनाव आयोग का गठन जनवरी 1950 में ही हो गया था लेकिन चुनाव सम्पन्न कराने में उसे 2 वर्ष का समय लग गया ।

इस चुनाव में लोकसभा के 489 सदस्यों के साथ-साथ 3200 विधानसभा सदस्यों के चुनाव भी सम्पन्न कराये गये थे । चुनाव आयोग का सबसे कठिन कार्य मतदाता सूचियों को तैयार करना था क्योंकि भारत में पहली बार सार्वभौमिक मताधिकार के अंतर्गत सभी को मतदान देने का अधिकार दिया गया था । उस समय भारत में 17.6 करोड़ मतदाता थे जिनमें 85 प्रतिशत निरक्षर थे ।

इसीलिये मतपत्रों पर प्रत्याशियों के लिये नाम के साथ-साथ उनका चुनाव चिह्न भी अंकित किया गया था । लोक सभा व विधान सभा की सभी सीटों के लिये 18,000 प्रत्याशी मैदान में थे तथा चुनावों के लिये सारे देश में 22,4,000 मतदान केन्द्रों की स्थापना की गयी थी । भारत का पहला आम चुनाव विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक चुनाव था ।

पहली लोकसभा के चुनाव अक्टूबर 1951 से फरवरी 1952 के मध्य सम्पन्न हुये, लेकिन इन्हें 1952 के चुनावों के नाम से जाना जाता है । क्योंकि अधिकांश सीटों के लिए चुनाव जनवरी 1952 में ही सम्पन्न हुये ।

इन चुनावों में कांग्रेस को लोकसभा की कुल 489 सीटों में से कुल 364 स्थान प्राप्त हुये । भारतीय साम्यवादी पार्टी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थी । जिसे 16 स्थान प्राप्त हुये । तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में भारतीय समाजवादी पार्टी को 12 स्थान प्राप्त हुये । इस प्रकार लोकसभा में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत प्राप्त था । जवाहरलाल नेहरू देश के पहले निर्वाचित प्रधानमंत्री बने ।

जहाँ तक राज्य विधानसभाओं के चुनावों का सवाल है, जम्मू व कश्मीर त्रावणकोर-कोचीन (केरल) मद्रास तथा उड़ीसा को छोड्‌कर सभी राज्यों की विधानसभाओं में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ । फिर भी जम्मू व कश्मीर को छोड्‌कर अन्य सभी राज्यों में भी कांग्रेस की सरकारों का गठन हुआ । जम्मू व कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस की सरकार का गठन हुआ ।

(2) दूसरे आम चुनाव (Second General Election):

दूसरे आम चुनाव 1957 में सम्पन्न हुये । इन चुनावों में भी लोकसभा की 494 सीटों में कांग्रेस पार्टी को 371 सीटें प्राप्त हुयीं । इस बार भारतीय साम्यवादी पार्टी दूसरी बड़ी पार्टी के रूप में 27 सीटों पर विजय हासिल करने में सफल रही । प्रजा सोशलिस्ट पार्टी तीसरी सबसे बड़ी पार्टी थी जिसे 19 सीटें प्राप्त हुयीं । इस चुनाव में भी कांग्रेस को तीन चौथाई सीटों पर जीत हासिल हुई ।

जहाँ तक राज्य विधानसभाओं का सवाल है पहली बार केरल में भारतीय साम्यवादी पार्टी के नेतृत्व में गठबन्धन सरकार का गठन हुआ । केरल की सरकार दो वर्ष ही चल पायी तथा वहाँ पर 1959 में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया । अन्य कुछ राज्यों में यद्यपि कांग्रेस को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ था, लेकिन कांग्रेस सरकार बनाने में सफल रही ।

(3) तीसरे आम चुनाव (Third General Election):

तीसरे आम चुनाव 1962 में सम्पन्न हुये । इसमें लोकसभा की कुल 494 सीटों में से कांग्रेस को 361 सीटों पर विजय प्राप्त हुई । तीसरी बार लगातार भारतीय साम्यवादी पार्टी दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी तथा उसे 29 स्थान प्राप्त हुये । तीसरे स्थान पर स्वतत्र पार्टी रही जिसे 18 स्थान प्राप्त हुये । चौथे स्थान पर जनसंघ पार्टी को 14 स्थानों पर जीत मिली तथा पाँचवें स्थान पर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को 13 स्थान प्राप्त हुये ।

यद्यपि इन चुनावों में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिल गया था लेकिन विपक्षी पार्टियों की बढ़ती हुई उपस्थिति भी महत्त्वपूर्ण थी । राज्य विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस पार्टी बहुमत प्राप्त करने में सफल रही । इस प्रकार कांग्रेस का यह वर्चस्व 1967 तक बरकरार रहा ।

समाजवादी दल (Samajwadi Dal):

भारत में समाजवादी पार्टी की सर्वप्रथम स्थापना 1934 में कांग्रेस के अन्दर एक समूह के रूप में हुई थी । उस समय इसका नाम कांग्रेस समाजवादी पार्टी था । 1948 में कांग्रेस की सदस्यता के नियमों में परिवर्तन किया गया तथा यह निर्धारित किया गया कि कोई भी सदस्य एक साथ दो पार्टियों का सदस्य नहीं हो सकता । इससे जय प्रकाश नारायन तथा समाजवादियों को कांग्रेस छोड़नी पड़ी तथा 1948 में एक अलग समाजवादी पार्टी की स्थापना की गयी, जिसका नाम भारतीय समाजवादी पार्टी अथवा एस. पी. आई. रखा गया ।

प्रथम चुनाव में समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन उत्साहवर्द्धक नहीं था, यद्यपि उनकी उपस्थिति देश के विभिन्न क्षेत्रों में थी समाजवादियों की विचारधारा लोकतांत्रिक समाजवाद पर आधारित थी । उन्होंने अपनी विचारधारा को एक तरफ कांग्रेस से तथा दूसरी तरफ साम्यवदियों से अलग रूप में प्रस्तुत किया ।

उन्होंने कांग्रेस की इस बात के लिए आलोचना की कि उसकी नीतियों में मजदूरों और किसानों की अवहेलना होती है तथा पूँजीपतियों व जमीदारों के हितों का साधन किया जाता है । उनकी विचारधारा साम्यवादियों से भी भिन्न थी क्योंकि उसमें सामाजिक बदलाव के लिए हिंसा व उग्र आंदोलन के लिए स्थान नहीं था । लोकतान्त्रिक समाजवाद में समाजवाद की स्थापना लोकतान्त्रिक तरीकों से की जाती है ।

 

भारतीय साम्यवादी पार्टी (Indian Communist Party):

भारत में साम्यवादी विचारधारा को रूस की 1917 की साम्यवाद क्रांति से प्रोत्साहन मिला । पहली बार मानवेन्द्र नाथ राय ने मास्को में भारतीय साम्यवादी पार्टी की स्थापना की थी, लेकिन वह आगे नह बढ़ सकी । तत्पश्चात् 1925 में कानपुर में भारतीय साम्यवादी पार्टी की स्थापना की गयी ।

राष्ट्रीय आन्दोलन के समय 1941 तक साम्यवादियों ने कांग्रेस की व्यापक रणनीति के अंतर्गत ही स्वतंत्रता आन्दोलन भाग लिया । कांग्रेस तथा साम्यवादियों में मतभेद की स्थिति 1941 तब उत्पन्न हुई जब रूस के प्रभाव में आकर भारत के साम्यवादियों द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन को समर्थन देने की घोषणा की जबाव इस मामले में कांग्रेस का रूख तटस्थ था ।

1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में भी इसी कारण साम्यवादियों ने हिस्सा नहीं

लिया । फिर भी आजा के पूर्व ही साम्यवादियों के संगठन का विस्तार हो चुका था तथा पूरे देश में साम्यवादी पार्टी के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता भी विद्यमान थे ।

साम्यवादी पार्टी का विभाजन:

सोवियत संघ तथा चीन में वैचारिक मतभेद होने के परिणामस्वरूप 1964 में भारतीय साम्यवादी पार्टी का दो पार्टियों में विभाजन हो गया- भारतीय साम्यवादी पार्टी-सी. पी. आई. तथा मार्क्सवादी साम्यवादी पार्टी- सी. पी. एम. । इनमें भारतीय साम्यवादी पार्टी सोवियत संघ की विचारधारा की पक्षधर थी जबकि मार्क्सवादी पार्टी चीन की विचारधारा से प्रेरित थी ।

आज भी दोनों दलों की वैचारिक स्थिति यही है । फिर भी सी. पी. एम. की तुलना में सी. पी. आई. को अधिक उदार माना जाता है । वर्तमान भारतीय राजनीति में सी. पी. एम. अधिक प्रभावशाली है । 1967 में एक बार फिर भारत के साम्यवादियों में विभाजन हुआ तथा क्रांतिकारी नीतियों तथा हिंसात्मक बदलाव के समर्थक लोगों ने अपना अलग गुट बना लिया जिन्हें नक्सलवादियों के नाम से जाना जाता है ।

इन्हें नक्सलवादी इसलिये कहा जाता है, क्योंकि इनके आन्दोलन की शुरुआत पश्चिम बंगाल के ‘नक्सलबारी’ नामक स्थान से हुई थी । यद्यपि 1991 में सोवियत संघ का विघटन हो गया है, फिर भी ये दोनों पार्टियाँ भारत की वर्तमान राजनीति में इसी रूप में विद्यमान हैं ।

वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण के वर्तमान युग में भारत की साम्यवादी पार्टियों को भी वैचारिक उथल-पुथल का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि ये पार्टियाँ अपने मौलिक रूप में पूँजीवाद पर आधारित वैश्वीकरण की विरोधी हैं । ये सरकार की किसान तथा मजदूर विरोधी नीतियों का विरोध करते हैं । विदेश नीति में ये अमेरिका के साथ भारत के घनिष्ठ सम्बन्धों के पक्षधर नहीं है, क्योंकि अमेरिका एक पूँजीवादी देश है ।

भारतीय जनसंघ (Bharatiya Jana Sangh):

भारतीय जनसंघ की स्थापना 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा की गयी थी । वैचारिक समर्थन की दृष्टि से इसकी जबड़े स्वतंत्रता आन्दोलन के समय स्थापित राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा हिन्दू महासभा में निहित है । वैचारिक दृष्टि से भारतीय जनसंघ अन्य राजनीतिक दलों से इस अर्थ में भिन्न थी कि इसने भारत में एक राष्ट्र व एक संस्कृति के विचार का समर्थन किया ।

राष्ट्रीय जनसंघ का मानना था कि भारतीय संस्कृति और परम्पराओं के आधार पर ही एक आधुनिक और मजबूत भारत का निर्माण हो सकता है । इस पार्टी ने अपनी अखण्ड भारत की कल्पना के अंतर्गत पाकिस्तान और भारत के पुन: विलय का समर्थन किया ।

पार्टी हिन्दी को राजभाषा बनाये जाने की प्रबल समर्थक थी तथा अल्पसंख्यकों के प्रति सरकार की तुष्टिकरण की नीति की विरोधी थी । उन्होंने भारत को सैनिक रूप से मजबूत राष्ट्र बनाने के लिए आणविक शस्त्रों के विकास का भी प्रबल समर्थन किया ।

स्वतंत्र पार्टी (Independent Party):

स्वतंत्र पार्टी की स्थापना अगस्त 1959 में सी. राजगोपालाचारी, के. एम. मुन्शी, एन.जी. रंगा, मीनू मसानी, पीलू मोदी आदि कांग्रेसी के विरुद्ध थे । 1959 में कांग्रेस पार्टी ने अपने नागपुर प्रस्ताव में भूमि सीलिंग लागू करने, खाद्यान्न का व्यापार राज्य द्वारा अपने हाथ में लेने तथा सहकार कृषि का प्रस्ताव पारित किया । कांग्रेस के उक्त नेता इस प्रस्ताव से सहमत नहीं थे, अत: विरोधस्वरूप उन्होंने स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की ।

स्वतंत्र पार्टी वैचारिक दृष्टि से यह चाहती थी कि आर्थिक गति- विधियों में राज्य का नियन्त्रण कम-से-कम होना चाहिए । वे मुक्त अर्थव्यवस्था के समर्थक थे । उनका मानना था कि निजी स्वतंत्रता के माध्यम से ही आर्थिक स्वतंत्रता को प्राप्त किया जा सकता है । स्वतंत्र पार्टी ने राज्य की योजनागत विकास नीति, सरकारी क्षेत्र के बढ़ते प्रभाव तथा उद्योगों के राष्ट्रीयकरण की नीति का विरोध किया ।

राष्ट्रीयकरण का तात्पर्य है- राज्य द्वारा निजी उद्योगों को अपने नियन्त्रण में करना उदाहरण के लिए 1969 में भारत सरकार द्वारा 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था । इसके विपरीत स्वतंत्र पार्टी उदारवादी आर्थिक नीतियों की समर्थक थी जिसमें करों की मात्रा कम-से-कम रखी जाये तथा लाइसेन्स राज को उदार बनाया जाए ।

दूसरे विभिन्न विरोधी हितों व विचारधाराओं में समायोजन की कला भी कांग्रेस को राष्ट्रीय आन्दोलन से विरासत में प्राप्त हुई थी । चूंकि राष्ट्रीय आन्दोलन का उद्देश्य सत्ता प्राप्त करने की बजाए देश की आजादी प्राप्त करना था अत: विभिन्न वर्गों और विचारधाराओं को कांग्रेस के साथ सहयोग करने में कोई असुविधा नहीं थी ।

लेकिन जैसे ही कांग्रेस पार्टी आजादी के बाद एक राजनीतिक पार्टी के रूप में सामने आयी उसे अन्य वर्गों तथा विचारधाराओं से प्रतियोगिता का सामना करना पड़ा तथा राष्ट्रीय आन्दोलन की विरासत धीरे-धीरे क्षीण होने लगी । अन्तत कांग्रेस के जनाधार में कमी आयी तथा वर्तमान में अन्य पार्टियों की तरह वह भी एक राजनीतिक पार्टी के रूप में अस्तित्व में है । जो विशेष स्थिति उसे 1952-67 की अवधि में प्राप्त थी, वैसी स्थिति अब नहीं है ।


Essay # 5.

भारत में विरोधी दलों अथवा विपक्ष की भूमिका (Role of Opposition Parties or Opposition in India):

लोकतंत्र की सफलता के लिये सशक्त विरोधी दल का होना अनिवार्य है । विरोधी दल अपनी सकारात्मक तथा प्रभावी भूमिका द्वारा सरकार के मनमानेपन पर अंकुश लगाते हैं; सरकार की समस्याओं को जनता तक पहुचाते हैं तथा नीतियों के निर्माण को व्यापक आधार प्रदान करते भारत में आरंभिक दो दशकों तक कांग्रेस के वर्चस्व के कारण विरोधी दल मजबूत स्थिति में नहीं थे । बाद के वर्षों में उनकी भूमिका अधिक प्रभावशाली रही है ।

इस सम्बन्ध में निम्न बिन्दु उल्लेखनीय हैं:

1. 1967 तक केन्द्र में कांग्रेस का वर्चस्व था तथा साम्यवादी पार्टी सबसे बड़ा विपक्षी दल था । फिर भी विपक्षी दलों जैसे समाजवादी पार्टी जनसंघ साम्यवादी पार्टी आदि के नेताओं ने संसद में सकारात्मक बहस के द्वारा सरकार की नीतियों की कमजोरियों को उजागर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई ।

2. 1970 के दशक में आपातकाल के दौरान विपक्षी नेताओं विशेषकर जयप्रकाश नारायन ने आपातकाल का विरोध किया तथा विपक्षी दलों में एकता स्थापित करने में मदद की । परिणामत 1977 में पहली बार केन्द्र में जनता पार्टी की गैर-कांग्रेसी सरकर बनी ।

3. गठबन्धन सरकारों के वर्तमान युग में विपक्ष अधिक सशक्त हो गया है लेकिन विपक्ष की भूमिका राजनीतिक अधिक हो गयी है तथा विरोध के लिये विरोध की राजनीति का सहारा लिया जा रहा है । फिर भी सरकार की नीतियों व कार्यप्रणाली की कमियों व अनियमितताओं को उजागर करने में विपक्ष सफल रहा है । सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर करने, आर्थिक उदारीकरण अथवा कीमतों में वृद्धि जैसे मुद्‌दों को उठाने में विपक्ष ने वर्तमान समय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।

फिर भी भारत में विपक्षी दलों में एकता का अभाव तथा राजनीतिक विरोध पर अधिक बल देने के कारण विपक्ष की भूमिका भारत में अधिक प्रभावी नहीं हो पायी है ।


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