भारत में वाणिज्यिक बैंकिंग पर निबंध | Essay on Commercial Banking in India in Hindi language!

Essay # 1. भारत में व्यापारिक बैंकों का प्रारम्भ (Introduction to Commercial Banking in India):

भारत में व्यापारिक बैंकों का इतिहास अति प्राचीन नहीं है । 19वीं शताब्दी के प्रारंभ से ही इनका इतिहास प्रारंभ होता है । प्रारंभ में अंग्रेजों द्वारा स्थापित एजेंसी गृह असफल हो गए थे जिससे अधिकोषण व्यवसाय करने वाली संस्थाओं की स्थापना की गयी और देश में व्यापारिक बैंकों की स्थापना प्रारंभ हो गयी ।

20वीं शताब्दी से देश में वाणिज्यिक अधिकोषों के विकास में गति मिली और वे प्रगति के पथ पर अग्रसर होते गए । जिन बैंकों की स्थापना भारतीय कंपनी अधिनियम के अंतर्गत हो, उन बैंकों को व्यापारिक बैंक या मिश्रित पूंजी वाले बैंक कहते हैं । इन बैंकों में पूँजी एक से अधिक व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा प्रदान की जाती है । इसमें रिजर्व बैंक, स्टेट बैंक एवं विनिमय बैंकों को सम्मिलित नहीं किया जाता है ।

Essay # 2. भारत में व्यापारिक बैंकों का वर्गीकरण (Classification of Commercial Banking in India):

व्यापारिक बैंकों को दो आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है जो कि निम्न हैं:

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(A) अनुसूची आधार पर:

अनुसूची के आधार पर व्यापारिक बैंकों का निम्न भागों में विभाजित किया जा सकता है:

(1) अनुसूचित बैंक (Scheduled Bank):

जिन बैंकों ये रिजर्व बैंक ने अपनी सारणी नं. 2 सम्मिलित कर लिया है उन्हें अनुसूचित बैंक कहते है । इस श्रेणी में वे बैंक सम्मिलित किए जाते हैं, जिनके संबंध में यह पूर्ण विश्वास हो कि समस्त कार्य जमाकर्ताओं के हित में किया जाएगा ।

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अनुसूचित बैंकों की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं:

(i) मांग एवं काल दायित्व:

इन बैंकों को अपने माँग एवं काल दायित्व का 3 प्रतिशत भाग रिजर्व बैंक के पास नकद जमा करना होता है । रिजर्व बैंक इस प्रतिशत को 3 से 15 प्रतिशत के मध्य रख सकता है तथा बैंकों को अतिरिक्त राशि जमा करने के आदेश भी दे सकता है ।

(ii) विशेष सुविधाएँ:

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रिजर्व बैंक इन बैंकों में विशेष सुविधाएँ प्रदान करता है तथा प्रतिभूतियों की आड़ पर आवश्यक ऋण प्रदान करता है तथा रुपये भेजने की सुविधाएँ भी प्रदान करता है ।

(iii) पूँजी व कोष:

इन बैंकों की चुकता पूँजी एवं कोष मिलाकर कम से कम 5 लाख रुपये होना चाहिए ।

(iv) रिपोर्ट:

इन बैंकों को अपनी प्रगति की रिपोर्ट प्रति सप्ताह रिजर्व बैंक को भेजनी पड़ती है तथा रिपोर्ट न भेजने पर जुर्माना भी किया जा सकता है ।

(2) गैर-अनुसूचित बैंक (Non-Scheduled Bank):

जिन बैंकों को रिजर्व बैंक ने अपनी सारणी नं. 2 में सम्मिलित नहीं किया है उन्हें गैर-अनुसूचित बैंक कहते हैं । इन बैंकों पर रिजर्व बैंक का नियंत्रण कम होता है ।

(B) पूँजी के आधार पर वर्गीकरण:

पूँजी के आधार पर बैंकों को निम्न भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

(i) प्रथम वर्ग:

इस वर्ग में उन बैंकों को सम्मिलित किया जाता है जिनकी चुकता पूँजी एवं सुरक्षित कोष दोनों को मिलाकर राशि 5 लाख रुपये से अधिक हो ।

(ii) द्वितीय वर्ग:

इस वर्ग में उन बैंकों को रखा जाता है जिनकी दत्त पूँजी एवं कोष 1 लाख व 5 लाख रुपए के अंतर्गत हो ।

(iii) तृतीय वर्ग:

इस वर्ग में उन बैंकों को सम्मिलित किया जाता है जिनकी पूंजी व कोष की राशि 50 हजार व 1 लाख रुपये के मध्य हो ।

(iv) चतुर्थ वर्ग:

इस वर्ग में उन बैंकों को रखा जाता है जिनकी पूँजी व कोष 50 हजार रुपये से कम ।

Essay # 3. भारत में वाणिज्यिक बैंकों की वर्तमान संरचना (Present Structure of Commercial Banks in India):

भारत में अल्पकालीन साख मध्यकालीन साख प्रदान करने में वाणिज्यिक बैंकों का महत्वपूर्ण योगदान है । भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात से ही वाणिज्यिक बैंकों ने अपार प्रगति की है । वर्तमान में देश में विभिन्न बैंकों की 1,00,000 से भी अधिक बैंक शाखाएँ कार्यरत् है जो भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम की द्वितीय अनुसूची में शामिल है, जिन्हें अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक कहा जाता है ।

जुलाई 1969 में 14 बड़े बैंकों और अप्रैल 1980 में 6 अन्य बैंक में के राष्ट्रीयकरण के पश्चात भारत के केन्द्रीय बैंक रिजर्व बैंक आफ इंडिया प्रमुख उद्देश्य देश के ग्रामीण क्षेत्रों सहित सम्पूर्ण देश में बैंकिंग सुविधाओं का प्रसार करना रहा है ।

वाणिज्यिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात सरकार का वित्तीय क्षेत्र में लगभग एकाधिकार स्थापित ले गया है । विदेशी बैंकों और निजी क्षेत्र के बैंकों की संख्या कम होने के कार्य सरकारी क्षेत्र के वाणिज्यिक बैंकों का व्यापक विकास हुआ है ।

भारत में वाणिज्यिक बैंकों की प्रगति को निम्न बिन्दुओं के अंतर्गत समावेशित किया जा सकता है:

1. शाखा विस्तार:

राष्ट्रीयकरण के पश्चात से ही देश में वाणिज्यिक बैंकों की शाखाओं का निरंतर विस्तार हुआ है । राष्ट्रीयकरण के समय वर्ष 1969 में जहां कुल वाणिज्यिक बैंक शाखाओं की संख्या 8262 थी वहीं वर्ष 2014 में इनकी संख्या बढ़कर 1,18,450 हो गई है । वर्ष 1969 में कुल वाणिज्य बैंक शाखाएँ 8262 थीं जो वर्ष 2014 में बढ़कर 118450 हो गई है । इस अवधि में वाणिज्य बैंक की शाखाओं में लगभग 14 गुना वृद्धि हुई है ।

वर्ष 1969 में भारतीय स्टेट बैंक समूह की कुल शाखाएँ 2462 थीं, जो उस समय की कुल वाणिज्य बैंक शाखाओं (8262) का लगभग 30 प्रतिशत थीं । वर्ष 2014 में भारतीय स्टेट बैंक की कुल शाखाएँ 21684 है जो वाणिज्य बैंक शाखाओं (118450) का लगभग 18 प्रतिशत है ।

भारत के राष्ट्रीयकृत बैंकों की शाखाएँ वर्ष 1969 में 4553 थीं, जो वर्ष 2014 में बढ़कर 59270 हो गई हैं । इस अवधि में राष्ट्रीयकृत बैंक की शाखाओं में लगभग 13 गुना वृद्धि हुई है । बैंकिंग तंत्र के विकास में विदेशी बैंकों ने भी अपना योगदान दिया है । वर्ष 1969 से वर्ष 2014 की अवधि में विदेशी बैंकों की शाखाओं की संख्या 130 से बढ़कर 317 हो गई है । यह वृद्धि बैंकिंग विकास के लिये एक सकारात्मक संकेत है ।

2. विकास प्रेरित बैंकिंग व्यवस्था:

बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पूर्व तक वाणिज्यिक बैंकों का संबंध वाणिज्य क्षेत्रों को अल्पकालीन उधार देना था । विगत वर्षों में बैंकिंग व्यवस्था का चहुंमुखी विकास होने के कारण अब यह व्यवस्था विकास प्रेरित हो गई है । अब वाणिज्य बैंक औद्योगिक एवं कृषि क्षेत्र में भी बड़ी मात्रा में ऋण दे रहे हैं । परम्परागत बैंकिंग के स्थान पर अब सामाजिक आर्थिक बैंकिंग ने अपना विशिष्ट स्थान ग्रहण कर लिया है ।

3. जमाओं में अप्रत्याशित वृद्धि:

भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात से ही बैंक निक्षेपों में वृद्धि का क्रम जारी है । वर्ष 1950-51 में भारत में बैंक में जमा राशि केवल 820 करोड़ रुपये थी । बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात वर्ष 1970-71 में यह राशि बढ़कर 5910 करोड़ रुपये हो गई ।

इसके पश्चात से ही यह राशि तीव्र गति से बढ़ती रही है । बैंकों के प्रति बढ़ते विश्वास, बैंक शाखाओं में विस्तार तथा बैंक के द्वारा बचत की गई एवं आकर्षक योजनाओं को लागू करने के कारण हुई है ।

4. जमाओं की संरचना:

भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंक जमाओं के बारे में एक नवीन प्रवृत्ति यह रही है कि इनकी रचना का क्रम विपरीत हो गया है । पहले माँग जमा राशि (Demand Deposits) समय जमा राशि (Time Deposit) से अधिक हुआ करती थी- अब कुल जमाओं में समय जमाओं का भाग माँग जमाओं की तुलना में अधिक होगा या है ।

वर्ष 1969 में कुल जमा में समय जमा का भाग अधिक था यह कुल जमा का लगभग 55 प्रतिशत था । विगत वर्षों में कुल जमाओं में वृद्धि का क्रम निरन्तर जारी है । मार्च 2014 की स्थिति में कुल जमा में समय जमा का योगदान लगभग 90 प्रतिशत हो गया है ।

5. साख सुविधाओं का विस्तार:

भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् से ही बैंकों द्वारा प्रदान की जाने वाली ऋण एवं अग्रिम राशियों में वृद्धि का क्रम जारी है । साख की मात्रा में वृद्धि के पीछे सरकार और बैंकिंग नीतियों के साथ-साथ बैंकों के साधनों में वृद्धि, लोगों में बचत एवं विनियोग के प्रति बढ़ती जागरूकता एवं देश की अर्थव्यवस्था में विकास की बढ़ती हुई दर प्रमुख कारक है ।

बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् साख सुविधाओं में अभूतपूर्वक वृद्धि हुई है । राष्ट्रीयकरण के समय वर्ष 1969-70 में बैंकों द्वारा प्रदत्त ऋण एवं अग्रिम राशि केवल 3599 करोड़ रुपये थी, जो वर्ष 2000-01 में बढ़कर 511430 करोड़ रुपये और वर्ष 2011-11 में बढ़कर 3942083 करोड़ रुपये हो गई- 31 मार्च 2014 की स्थिति में भारत के वाणिज्यिक बैंकों द्वारा कुल प्रदत्तव्ण 6139045 करोड़ रुपये है जो भारतीय बैंकिंग तंत्र के विकास की दिशा में एक उत्साहजनक अवस्था को प्रदर्शित कर रही है ।

विशेषज्ञों का मत है कि अब बैंक उद्योग, व्यापार एवं कृषि जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों के लिये भी साख संबंधी सुविधाएँ उपलब्ध कराने लगे हैं, अतः लोग बैंक, की साख सुविधाओं का भरपूर लाभ ले रहे हैं और लोगों का रुझान बैंकिंग तंत्र की ओर बढ़ रहा है ।

6. प्राथमिक क्षेत्रों को उधार:

भारत में वाणिज्यिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात प्राथमिक एवं पहले उपस्थित क्षेत्रों को अधिक से अधिक उधार दिया जाने लगा है । पहले इन क्षेत्रों में कुल साख का एक छोटा हिस्सा ही प्राप्त हो पाता था, किन्तु बैंकों की राष्ट्रीय नीति निर्देशों में कुल जमाओं का काम से कम 40 प्रतिशत भाग प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों को दिया जाना अनिवार्य किये जाने के प्रावधान के पश्चात् वाणिज्य बैंकों ने इस दिशा में उल्लेखनीय कदम उठाये है ।

वर्ष 1969 में वाणिज्य बैंकों द्वारा कुल दिये गये ऋणों का केवल 14.9 प्रतिशत भाग प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को प्राप्त हुआ था, जो बढ़कर वर्ष 2006 में 37.2 प्रतिशत, वर्ष 2012 में 32.3 प्रतिशत और वर्ष 2014 में 35.1 प्रतिशत हो गया है । वर्ष 2008 में प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को दिया जाने वाला ऋण कुल बैंक साख 44.6 प्रतिशत था, जो राष्ट्रीयकरण के पश्चात् अब तक सर्वोच्च स्तर रहा है ।

उल्लेखनीय है कि प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र के अंतर्गत, लघु उद्योग आदि क्षेत्र आते हैं, जिनका राष्ट्र की उन्नति में विशेष योगदान होता है । निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि राष्ट्रीयकरण के पश्चात् प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को प्राप्त ऋणों में वृद्धि हुई है, किन्तु यह वृद्धि पर्याप्त नहीं है और इस दिशा में अधिक प्रयासों की आवश्यकता है ।

7. बैंकों का एकीकरण:

भारतीय बैंकों को सुदृढ़ एवं मजबूत करने की दृष्टि से तथा बैंकों को असफल होने से बचाने के लिये उनके परस्पर एकीकरण या विलीनीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन दिया गया है । कमजोर बैंकों में आपस में मिलाकर एक नई बैंक बनाने अथवा कमजोर एवं अनार्थिक बैंकों को किसी शक्तिशाली बैंक में मिला देने अथवा विलीनीकरण की प्रवृति भारतीय बैंकिंग नवीन प्रवृत्ति रही है ।

भारतीय बैंकों में सुदृढ़ किये जाने के उद्देश्य में दृष्टिगत रखते हुए 1960 से 1969 की अवधि में 212 बैंकों का विलीनीकरण किया गया । एकीकरण या विलीनीकरण की प्रक्रिया से देश में बैंकों की संख्या कम अवश्य हुई है, किन्तु बैंकों का आकार बढ़ गया है, जिससे वे अधिक कार्यकुशल तथा शक्तिशाली हुए हैं ।

25 अगस्त 1985 को बैंक ऑफ कोचीन लिमिटेड का भारतीय स्टेट बैंक में विलय किया गया, जो बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् विलीनीकरण का एक बड़ा कदम था । दिसम्बर 1991 में श्री एम. नरसिंहम समिति ने अपनी प्रस्तुत रिपोर्ट में और बैंकों के एकीकरण का सुझाव दिया था ।

8. ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सुविधाओं का विस्तार:

बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पूर्व तक भारत में बैंकिंग का विस्तार केवल शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित था, किन्तु बैंकों की नवीन शाखा नीति के अनुसार 200 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में एक ग्रामीण बैंक तथा 10 किलोमीटर क्षेत्र में एक ग्रामीण बैंक तथा 10 किलोमीटर की परिधि में एक ग्रामीण शाखा के प्रावधन के पश्चात् ग्रामीण क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दिया गया है ।

वर्ष 1969 में ग्रामीण क्षेत्र में मात्र 1812 शाखाएँ थीं जो कि कुल शाखाओं का 22.2 प्रतिशत था । 30 जून 2014 की स्थिति में ग्रामीण क्षेत्र में 46976 शाखाएँ है, जो कुल शाखाओं का 38.7 प्रतिशत है ।

9. बैंकों की लाभदायकता:

विगत वर्षों में भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में लाभ की स्थिति में संतोषजनक नहीं माना जा सकता । निजी क्षेत्र के अनुसूचित बैंक और विदेशी बैंकों में से कई बैंक अभी भी हानि में चल रहे है । भारतीय स्टेट बैंक समूह और राष्ट्रीयकृत बैंकों के लाभों में वृद्धि दिखाई देती है, किन्तु यह वृद्धि भी पर्याप्त नहीं है ।

प्रत्येक बैंक समूह में लाभ की स्थिति में वृद्धि हो रही है, किन्तु भारतीय रिजर्व बैंक के प्रतिवेदन के अनुसार कुल कार्यकारी पूँजी के अनुपात में यह वृद्धि महत्वहीन है । हालांकि राष्ट्रीयकृत बैंकों ने भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास में उल्लेखनीय योगदान किया है, किन्तु उनकी शाखाओं की संख्या के मान से भी यह वृद्धि अपर्याप्त प्रतीत होती है ।

निजी क्षेत्र के बैंक और विदेशी बैंकों का प्रदर्शन भी संग्रहणीय रहा है, किन्तु भारतीय रिजर्व बैंक के प्रतिवेदन के अनुसार कुछ निजी एवं विदेशी बैंक घाटे में चल रहे है अथवा उनके लाभों में बीच के वर्षों में कमी दर्ज की गई है ।

10. ऋण जमा अनुपात:

विगत वर्षों में भारत में वाणिज्यिक बैंकों के ऋण जमा अनुपात में निरंतर उतार-चढ़ाव होता रहा है । ऋण जमा अनुपात का आशय बैंकों की कुल जमा में से दिये गये ऋण की मात्रा के अनुपात से है ।

वर्ष 1951 में ऋण जमा अनुपात 65 प्रतिशत था, जो बैंकों के राष्ट्रीयकरण के समय वर्ष 1969-70 में 77.5 प्रतिशत हो गया था । राष्ट्रीयकरण के पश्चात् इस अनुपात कभी वृद्धि कभी कमी दर्ज की जाती रही है । वर्ष 2014 के अंत में यह अनुपात 77.6 प्रतिशत है ।

कुछ वर्षों से ऋण जमा अनुपात में लगभग स्थिरता बनी हुई है जो इस बात का प्रतीत है कि बैंक ऋणों की राशि में उनकी जमाओं की तुलना में कम वृद्धि हुई है । विशेषज्ञों का मत है कि बैंक जमा पर ब्याज की दर कम होने के कारण बैंक जमाए घटी हैं तथा ऋण की मात्रा बढ़ी है ।

11. बैंकों में नवीन प्रौद्योगिकी:

भारत में बैंकों में यंत्रीकरण और कम्प्यूटरीकरण की प्रौद्योगिकी को बैंकिंग तंत्र की कहा जा सकता है । बैंकों में कम्प्यूटरीकरण की योजना का प्रारम्भ रंगराजन समिति की सिफरिशों के आधार पर किया गया था । वर्तमान में लगभग सभी बैंक शाखाएँ पूर्ण रूप से कम्प्यूटरीकृत है ।

कोर बैंकिंग और इंटरनेट बैंकिंग की सुविधा प्रारंभ होने से ग्राहक अब बैंक, की ओर अधिक आकर्षित हो रहे हैं । लगभग सभी भारतीय बैंकों ने अपनी कुछ शाखाओं में रुपये जमा करने और पासबुक प्रिंट करने वाली मशीने भी लगाई हैं । आजकल लगभग सभी बैंकों ने अपने एटीएम भी स्थापित किये हैं, जिनसे चौबीसों घंटे न केवल राशि निकली जा सकती है अपितु एक खाते से दूसरे खाते में राशि का हस्तांतरण, मिनी स्टेटमेंट, खाते के शेष की जानकारी, दूसरे बैंक के एटीएम से नकद राशि का आहरण आदि सुविधाएँ भी प्राप्त की जा सकती है ।

बैंकिंग तंत्र में नवीन प्रौद्योगिक के इस्तेमाल से न केवल ग्राहकों में समय की बचत हो रही है, अपितु बेहतर सुविधाएं प्राप्त होने से बैंकों की विश्वसनीयता में भी वृद्धि हो रही है ।

बैंकिंग प्रणाली पर नरसिम्हम समिति (1991) की सिफारिशें (Recommendations of the Narasimham Committee on the Banking System):

नरसिम्हम समिति की सिफरिशों का आधार यह मूल धारणा है कि बैंक जनता से प्राप्त संसाधनों के ट्रस्टी है और इनका प्रयोग ऐसे ढंग से किया जाना चाहिए कि इनके स्वामियों अर्थात् जमाकर्ताओं को अधिकतम लाभ प्राप्त ले ।

इस समिति ने बैंकों की वित्तीय शक्ति और लाभदायकता को उन्नत करने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए हैं:

(i) बैंकों के लाभदायक प्रयोगों के लिए अधिक धन राशि उपलब्ध कराने के लिए कानूनी तरलता अनुपात (Statutory Liquidity Ratio) को घटाकर 25 प्रतिशत और नकद आरक्षण अनुपात (Cash Reserve Ratio) कम करके कुल जमा के 5 प्रतिशत तक लाना चाहिए ।

(ii) कानूनी तरलता अनुपात के अधीन जो सरकारी और अर्ध-सरकारी प्रतिभूतियाँ सरकार द्वारा बैंकों से प्रस्तुत की जाती है, उन पर ऊँची ब्याज दर देनी चाहिए ।

(iii) बैंकों को उधार की न्यूनतम ब्याज दर निश्चित करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए ।

(iv) प्राथमिकता क्षेत्र के लिए उधार की मात्रा कुल उधार के वर्तमान 40 प्रतिशत से कम करके 10 प्रतिशत कर देनी चाहिए ।

(v) सभी रियायती ब्याज दरें समाप्त कर देनी चाहिए ।

(vi) सभी संदिग्ध ऋणों की देखभाल के लिए परिसम्पत्ति पुनर्निर्माण निधि (Assets Reconstruction Fund) कायम करना चाहिए ।

(vii) अतिरिक्त आय प्राप्त करने के लिए बैंकों को नई योजनाएं चालू करनी चाहिए, जैसे- व्यापारिक बैंकिंग अनुषंगियां (Merchant Banking Subsidiaries), पारस्परिक निधियाँ (Mutual Funds), जोखिम पूंजी कम्पनियां (Venture Capital Companies), आढ़त सेवाएं (Factoring Services) और क्रेडिट कार्ड (Credit Card) आदि ।

(viii) शाखा विस्तार को कड़े रूप में वाणिज्यिक आधार पर ही बढावा देना चाहिए और बैंकों को आपस में शाखाओं की अदला-बदली की इजाजत होनी चाहिए ।

(ix) बैंक को राशियाँ प्राप्त करने के नए स्रोत ढूंढ़ने चाहिए । उदाहरणार्थ- जमा-प्रमाण पत्रों (Certificates of Deposits) द्वारा बैंक को काफी जमा-राशि प्राप्त हो सकती हैं जिसे बाद में निगम क्षेत्र को अधिक लाभदायक ब्याज दर पर उधार दिया जा सकता है ।

(x) बैंक 365 दिन के ऐसे ट्रेजरी बिल जारी कर सकती है जिन पर अधिक ब्याज दर प्राप्त हो ।

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