भारत में सहकारी बैंकिंग | Read this article in Hindi to learn about the growth and and review of cooperative banking in India.

भारत में सहकारी बैंकिंग का विकास (Growth of Cooperative Banking in India):

भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सहकारिता का महत्वपूर्ण योगदान है । यही सहकारिता का विकास मुख्य रूप में कृषकों को सस्ती दर से ऋण उपलब्ध कराने के उद्देश्य से हुआ है । इस उद्देश्य मई पूर्ति के लिये सन् 1904 में “सहकारी ऋण समिति अधिनियम” (Co-Operative Credit Societies Act) पारित किया गया । फलतः देश के अनेक भागों में साख समितियों की स्थापना हुई ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सहकारिता आन्दोलन अधिक तेजी से विभिन्न दिशाओं में फैला । सरकर द्वार नियुक्त ”अखिल भारतीय ग्राम-ऋण समिति – 1954” एवं ”बैकुण्ठलाल मेहता समिति – 1960” के सुझावों ने सहकारिता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया । भारतीय पंचवर्षीय योजनाओं में भी सहकारिता को बहुत ऊँचा स्थान दिया गया ।

वास्तव में, सहकारिता के देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास का आधार बनाय गया । योजनाओं में इस बात को बल दिया गया है कि कृषि, कुटीर व लघु उद्योग, थोक व खुदा व्यापार, गृह निर्माण आदि क्षेत्रों में सहकारिता को अधिकाधिक अपनाया जाए ।

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इसके साथ ही सरकार की सक्रिय सहयोग से योजना-काल के दौरान सहकारिता आन्दोलन के विकास-विस्तार के लिये अनेक संस्थाएं स्थापित की गईं एवं महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का क्रियान्वयन किया गया ।

भारत में कृषि एवं ग्रामीण विकास के क्षेत्र में सहकारी-साख संस्थाओं का तेजी से विस्तार हुआ है और आएं कृषि के क्षेत्र में आधार स्तम्भ बन चुकी है । सहकारी साख के क्षत्र में मुख्यतः तीन एवं बैंकिंग संस्थाओं का विस्तार हुआ है ।

ये हैं:

(अ) प्राथमिक कृषि साख समितियाँ,

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(ब) सहकारी केन्द्रीय बैंक, और

(स) राज्यीय सहकारी बैंक ।

(अ) प्राथमिक साख समितियां (Primary Credit Societies):

सहकारी साख समितियाँ जिसे सामान्यतः प्राथमिक कृषि साख समितियाँ भी कहते हैं, दस या अधिक व्यक्तियों से आरम्भ की जा सकती है प्रत्येक सदस्य का हिस्सा सामान्यतः नाम मात्र का होता है जिससे कि गरीब से गरीब किसान की समिति का सदस्य बन सके । सदस्यों का दायित्व असीमित होता है, अर्थात् समिति के असफल होने की अवस्था में उसकी सम्पूर्ण हानि का प्रत्येक सदस्य पर पूर्ण दायित्व रहता है ।

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समिति का प्रबन्ध एक निर्वाचित संस्था द्वारा किया जाता है, जिसके अध्यक्ष, सचिव एवं कोषाध्यक्ष आदि रहते है । प्रबन्ध मण्डल के सदस्य अवैतनिक होते है । समिति द्वारा मुख्यतः कृषि कार्यों के लिए अल्पकालीन ऋण, जो कि सामान्यतः एक वर्ष में कम अवधि के होते है, दिये जाते है । इन ऋणों पर ब्याज दर, व्यापारिक बैंकों के समान या उमसे कुछ कम रहती है ।

देश में स्वतंत्रता के बाद स प्राथमिक कृषि साख समितियों का महत्व क्रमशः बढ रहा है । तालिका से स्पष्ट है कि जहाँ वर्ष 1950-61 में इन समितियों ने केवल 23 करोड रु. के ऋण दिये थे, बढकर 1960-61 में 202 करोड़ रु. वर्ष 1970-71 में 578 करोड रु. और 1999-2000 में 1300 करोड रु. और 2004-05 में 15,790 करोड रु. हो गये । स्पष्ट है कि इन समितियों द्वारा कृषि-विकास के लिये दिए गए ऋण में तेजी से वृद्धि हुई है ।

देश में प्रथम तीन पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान प्राथमिक कृषि साख समितियों के विस्तार पर बहुत अधिक ध्यान दिया गया, किन्तु इसके बाद रिजर्व बैंक द्वारा इन समितियों के पुनर्गठन एवं पुनरुद्धार का कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया । एवं कमजोर समितियों को बन्द कर दिया जिससे जहां समितियों की संख्या तो कम हुई, किन्तु कारोबार में वृद्धि हुई ।

प्राथमिक कृषि साख सहकारी समितियों को मुख्यतः केन्द्रीय सहकारी बैंकों द्वारा धन राशि उपलब्ध कराई जाती है । मार्च, 2000 तक प्राथमिक कृषि साख समितियों के बकाया ऋण (Loan Outstanding) 21,100 करोड रु. से भी अधिक थे ।

प्राथमिक कृषि साख समितियों की कमजोरियां:

यद्यपि पिछले 50 वर्षों में प्राथमिक कृषि साख समितियों द्वारा उपलब्ध कराए गए ऋणों में तेजी से वृद्धि हुई है तथापि संगठन एवं वित्त की दृष्टि से सहकारी समितियों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है । कृषि क्षेत्र के लिए ऋण उपलब्ध कराने के बारे में उनकी क्षमता बहुत सीमित है ।

अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण पुनरावलोकन समिति के प्राथमिक ऋण समितियों की निम्नलिखित कमजोरियाँ बताई हैं:

(i) सहकारी कृषि साख समितियों द्वारा अभी तक कृषकों द्वारा लिए गए कुल ऋणों का एक छोटा-सा भाग दिया जाता है,

(ii) छोटे एवं सीमान्त कृषकों को अपनी आवश्यकताओं के लिए ऋण प्राप्त करने में अनेक कठिनाइयाँ होती है ।

(iii) अधिकांश कृषि साख सहकारी समितियाँ आर्थिक दृष्टि से कमजोर है और वे कृषि-उत्पादन से सम्बन्धी ऋणों की आवश्यकता को पूर्णतः सन्तुष्ट करने में असमर्थ है,

(iv) प्रत्येक स्तर पर बकाया ऋणों की मात्रा में सोचनीय वृद्धि हो रही है जो सहकारी-साख संगठनों की विफलता को व्यक्त करती है, और

(v) सहकारी कृषि साख समितियाँ उधार लेने वाले कृषकों को पर्याप्त मात्रा में उचित समय पर ऋण उपलब्ध कराने में असफल रही हैं ।

(ब) केन्द्रीय सहकारी बैंक (Central Cooperative Banks):

केन्द्रीय सहकारी बैंक एक निर्दिष्ट क्षेत्र में प्राथमिक कृषि-साख समितियों के संघ है जिनका कार्यक्षेत्र सामान्यतः एक जिला होता है । इसलिए इन्हें जिला सहकारी बैंक भी कहा जाता है ।

केन्द्रीय सहकारी बैंक के वित्तीय स्रोत तीन होते है:

(i) बैंक की अपनी हिस्सा पूँजी और रक्षित निधि (Reserves),

(ii) जनता की जमा-राशि, और

(iii) राज्यीय सहकारी बैंक से प्राप्त ऋण ।

केन्द्रीय सहकारी बैंक का मुख्य कार्य ग्रामीण प्राथमिक सहकारी समितियों को ऋण देना है । प्रारम्भ में केन्द्रीय बैंकों की संख्या में तेजी से विस्तार हुआ था, किन्तु तीसरी पंचवर्षीय योजना से रिजर्व बैंक ने कमजोर बैंकों को पुन स्थापित करने एवं उन्हें सुदृढ़ बनाने के प्रयास किए हैं ।

वर्ष 1999-2000 तक देश में कुल 367 केन्द्रीय सहकारी बैंक कार्यरत थे और 2004-05 में बढ्‌कर 410 हो गये । इन बैंकों द्वारा दिए गए ऋणों की मात्रा में तेजी से विस्तार हुआ है । वर्ष 1950-51 में केन्द्रीय सहकारी बैंकों द्वारा केवल 83 करोड रु. के ऋण दिए गए थे, जो बढकर वर्ष 1970-71 में 894 करोड रु., वर्ष 1999-2000 में 47,630 करोड रु. और वर्ष 2004-05 में 63,550 करोड रु. हो गए ।

स्पष्ट है कि पिछले तीन दशकों में केन्द्रीय सहकारी बैंकों द्वारा ग्रामीण विकास के लिये बड़ी मात्रा में ऋण उपलब्ध कराए गए । किन्तु यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि कृषि के विस्तृत क्षेत्र एवं निर्भर व्यक्तियों की संख्या को देखते हुए ये ऋण पर्याप्त नहीं हैं ।

(स) राज्यीय सहकारी बैंक (State Cooperative Bank):

राज्यीय सहकारी बैंक, जिसे शीर्ष बैंक (Apex Bank) भी कहा जाता है। यह बैंक प्रत्येक राज्य में सहकारी ऋण संरचना (Credit Structure) का शीर्ष बैंक होता है । यह बैंक राज्य के केन्द्रीय सहकारी बैंक को वित्तीय सुविधाएँ उपलब्ध कराता है और उनके कार्यों को नियंत्रित करता है ।

राज्यीय सहकारी बैंक रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया से उधार लेता है और उसके तथा केन्द्रीय सहकारी बैंकों और प्राथमिक सहकारी समितियों के मध्य कडी के रूप में काम करता है । राज्यीय सहकारी बैंक केवल सहकारी साख आन्दोलन को ही सहायता नहीं देती, वरन् अन्य सहकारी उद्यमों (Co-Operative Enterprises) को भी वित्तीय सहायता एवं अन्य प्रोत्साहन भी देती है ।

तालिका से स्पष्ट होता है कि वर्ष 1950-51 में केवल 15 राज्यीय सहकारी बैंक देश में कार्यरत थे, जिनकी संख्या बढकर वर्ष 1970-71 में 25 वर्ष 1999-2000 में 29 एवं वर्ष 2004-05 में 50 हो गई । इन बैंकों द्वारा दिये गए ऋणों में भी तेजी से वृद्धि हुई है ।

वर्ग 1950-51 में जहाँ राज्यीय सहकारी बैंकों द्वारा केवल 42 करोड़ रु के ऋण वितरित किए गए थे, बढकर वर्ष 1970-71 में 748 करोड रु., वर्ष 1999-2000 में 38,250 करोड रु. एवं वर्ष 2004-05 में 49,490 करोड रु. हो गए । स्पष्ट है कि राज्यीय सहकारी बैंकों के कार्यकलापों में वर्ष 1970-71 से तेजी से विस्तार हुआ है ।

 

सहकारिता के अन्य स्वरूप (Other Forms of Cooperatives):

प्रारंभिक अवस्था में भारत में सहकारिता का एक ही रूप विकसित हुआ था और वह था, कृषि साख सहकारिता ।

सहकारिता के अन्य स्वरूप भी विकसित हुए के अन्य स्वरूपों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है:

(अ) गैर-साख सहकारिता (Non-Credit Cooperatives) और

(ब) गैर-कृषि सहकारिताएं (Non-Agricultural Cooperatives) ।

इन दोनों प्रकार की सहकारी संस्थाओं का विस्तार निम्न क्षेत्रों में हुआ है:

(i) सहकारी विपणन समितियाँ (Cooperative Marketing Services):

भारतीय कृषकों को अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता । छोटे एवं सीमान्त कृषकों को कृषि-उपज मण्डियों तक पहुँचने में अनेक कठिनाइयाँ आती है । फलतः सहकारी विपणन समितियों के द्वारा कृषकों की उपज के अतिरेक का विक्रय किया जाता है । इससे कृषकों को अपनी उपज का उचित मूल्य प्राप्त हो जाता है ।

(ii) सहकारी क्रय-विक्रय समितियां (Cooperative Buying-Selling Services):

ये समितियाँ ग्रामीण क्षेत्रों में कृषकों के लिये बीच, खाद, कृषि-उपकरणों और मशीनों आदि का क्रय करता है । इनकी वित्त पूर्ति की भी अन्य संस्थाओं से मिलकर व्यवस्था की जाती है । इसके साथ ही अपने सदस्यों की कृषि-उपजों का विक्रय का काम भी करती है ।

(iii) विनिर्माण एवं विधायन समितियाँ (Manufacturing and Processing Societies):

वर्तमान समय में सहकारिता के क्षेत्र का बहुत अधिक विस्तार हो गया है । अब सहकारिता के क्षेत्र के अन्तर्गत चीनी, तिलहनों, फलो एवं सब्जियों रेशम उत्पादन, सूत कातना, पशु-पालन आदि का विनिर्माण एवं विधायन के कार्य भी किए जाते है । वर्तमान में 255 चीनी मिलें सहकारी क्षेत्र के अंतर्गत है और इनसे प्रतिवर्ष औसतन 75 लाख टन चीनी का उत्पादन होता है ।

(iv) उपभोक्ता सहकारिताएं (Consumer Cooperatives):

वर्तमान में उपभोक्ता क्षेत्र में भी सहकारिता का महत्वपूर्ण योगदान है । वर्तमान में लगभग 22 हजार प्राथमिक उपभोक्ता सहकारी समितियाँ, 627 केन्द्रीय उपभोक्ता सहकारी स्टोर और 30 राज्यीय स्तर के उपभोक्ता सहकारी फेडरेशन और राष्ट्रीय उपभोक्ता फेडरेशन कार्यरत हैं ।

(v) अन्य सहकारी समितियां (Other Cooperatives):

वर्तमान में सहकारिता का प्रवेश अनेक क्षेत्रों में हो गया है और सम्बन्धित क्षेत्रों में सहकारी समितियाँ कार्यरत हैं उदाहरणार्थ- भूमि-पुनरुद्धार समितियाँ, फसल रक्षा समितियाँ, पशु अभिजनन समितियाँ, सहकारी कृषि समितियाँ, बहुउद्देश्यीय सहकारी समितियाँ आदि ।

भारत में सहकारी बैंकिंग का मूल्यांकन (Review of Cooperative Banking in India):

भारत में सहकारी आन्दोलन को आरम्भ हुए लगभग 100 वर्ष हो चुके हैं । सहकारी आन्दोलन के आलोचकों का मत है कि यह आन्दोलन न तो ग्रामीण जनता की गरीबी मिटाने में सफल हुआ है और न ही इसके परिणामस्वरूप कृषि-उत्पादन में वृद्धि, उन्नत विपणन दशाएँ उन्नत जीवन स्तर आदि ही प्राप्त हुए है ।

देशी बैंकर्स एवं साहूकारों को भी सर्वथा समाप्त नहीं किया जा सका है, किन्तु सहकारी साख की उपलब्धियों को देखते हुए यह आलोचना ठीक नहीं है । वर्तमान में सहकारी बैंकिंग व्यवस्था के द्वारा कुल कृषि ऋणों का लगभग आधे भाग की पूर्ति की जा रही है ।

मार्च, 2000 में 92,000 कृषि साख समितियाँ, 367 केन्द्रीय सहकारी बैंक एवं 29 राज्यीय सहकारी बैंक देश में कार्यरत थे और इन सभी सहकारी संस्थाओं ने वर्ष 1999-2000 में कुल 99,480 करोड रु. के ऋण ग्रामीण क्षेत्रों में प्रदान किए, किन्तु सहकारी बैंकों एवं समितियों में अनेक कामजोरियाँ भी पैदा हो गई है जिसके कारण यह आन्दोलन अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल ।

ये कामजोरियाँ निम्न प्रकार है:

(i) भारत में सहकारी बैंकों एवं समितियों के कार्यकलाप सहकारिता के सिद्धांतों पर आधारित न होकर सरकारी विभागों की तरह संचालित होते हैं । यही कारण है कि किसानों ने सहकारी बैंकों एवं साख समितियों को आमतौर पर ऋण देने वाली सरकारी संस्था समझ लिया है ।

सहकारी बैंकों एवं सहकारी समितियों के अधिकारी एवं कर्मचारी सहकारिता के आदर्शों के साथ-साथ व्यापारिक बैंकों की प्रभावी संचालन तकनीकी से भी अनभिज्ञ हैं । उन्हें न तो उचित प्रशिक्षण मिला है और न ही वे ग्रामीणों की वित्तीय आवश्यकताओं से परिचित है ।

(ii) सहकारी बैंकों एवं साख समितियों में वित्त की कमी एक मूल समस्या बनी हुई है । प्रारम्भ में यह सोचा जाता था कि सदस्य अपनी बचतों को इन संस्थाओं में जमा करके कार्यकारी पूंजी (Working Capital) में बडा अंशदान में आधा प्रतिशत अपनी जमा राशियों पर देने का अधिकार है, तथापि ये संस्थाएँ जनता से प्रत्याशित जमा आकर्षित नहीं कर पाई ।

(iii) रिजर्व बैंक राज्यीय सहकारी बैंकों को रियायती दर पर ऋण उपलब्ध कराने के लिए सदैव तत्पर रहता है । इसी प्रकार नाबार्ड द्वारा भी इन्हें पर्याप्त वित्तीय सुविधाएं उपलब्ध हैं, किन्तु राज्यीय सहकारी बैंक एवं केन्द्रीय सहकारी बैंक इन सुविधाओं का समुचित लाभ नहीं उठाते ।

(iv) सहकारी बैंक कृषकों को केवल कृषि कार्यों के लिये ऋण प्रदान करते हैं, जबकि कृषकों को कृषि कार्यों के अलावा अन्य कार्यों के लिए भी ऋणों कि आवश्यकता होती है । अतः सहकारी बैंकों और समितियों का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों की समग्र वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करना होना चाहिए ।

(v) सहकारी बैंकों एवं साख समितियों को न केवल व्यापारिक बैंकों एवं क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों से प्रतिस्पर्धा करना पडती है, वरन देशी बैंकर्स एवं साहूकारों से भी इन्हें प्रतियोगिता करनी होती है, किन्तु सहकारी संस्थाएँ अपनी कमजोर वित्तीय स्थिति के कारण इस प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं कर पातीं ।

(vi) सहकारी संस्थाओं पर अनियमितताओं पक्षपात एवं भाई-भतीजावाद के आरोप भी लगाए जाते हैं । प्रायः कहा जाता है कि ऋण एवं अन्य सुविधाएँ जरूरतमन्द किसानों की अपेक्षा धनी किसानों और पदाधिकरियों के सम्बन्धियों तथा मित्रों को ही उपलब्ध होती है ।

ऋणों की वसूली में भी यही स्थिति रहती है जिसके कारण ऋणों की समुचित वसूली नहीं हो पाती । आशय यह है कि सहकारी बैंकों एवं समितियों का प्रबन्ध योग्य, कुशल एवं समर्पित अधिकारियों के हाथों में नहीं है ।

(vii) सहकारिता के क्षेत्र में एक कमजोरी दृष्टिकोण की भी है । सरकार ने इस आन्दोलन के एक सरकारी विभाग बना दिया है जिससे इसमें क ओर नियमवादिता और अदूरदर्शिता की वे सभी बुराइयां आ गई है जो सरकारी विभागों में आय तौर पर पाई जाती है । फलतः सहकारी बैंकों में भी अफसरशाही का बोलबाला है ।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि भारत में सहकारी बैंकिंग व्यवस्था वित्तीय साधनों की कमी वसूली में असफलता, प्रबन्धकीय अक्षमता और सरकारी नियंत्रणों की अधिकता के कारण पूर्णतः सफल नहीं रही है । ये संस्थायें जन-साधारण की जमाओं को प्राप्त करने के स्थान पर शासन एवं अन्य स्रोतों से सहायता प्राप्त करने पर अधिक निर्भर रहती है ।

फलतः इस प्रवृत्ति ने बैंकिंग व्यवस्था को ही समुचित रूप से अपनाया नहीं है, किन्तु यहां यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि कई राज्यों, जैसे आंध्रप्रदेश एवं कर्नाटक में सहकारी बैंक अधिक सफल रहे है । अतः सहकारी बैंकों को इन राज्यों में अपनाए गए सुधारों पर ध्यान देना चाहिए ।