पूंजीवाद और वैश्वीकरण की प्रक्रिया | Process of Capitalism and Globalization in Hindi.

इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि हम जिस युग में रह रहे हैं वह वैश्वीकरण का युग है । जन संचार के क्षेत्र में क्रांति आ जाने से दुनिया भर के लोगों में अभूतपूर्व संबंधों का विस्तार हुआ है । आज न केवल स्थानीय स्तर पर संपर्क स्थापित हुए है बल्कि मनुष्य और संगठनों के बीच भी अंत: संबंध स्पष्ट है । वैश्वीकरण को आमतौर पर समस्त विश्व में बाजार पूंजीवाद के उदय से जोड़ा जाता है ।

पूंजी, वस्तुओं और श्रम का मुक्त प्रवाह तथा तकनीक के विकास को इस प्रक्रिया से जोड़ा जाता है । इसे समाजवाद के पतन और भारत, चीन एवं पूर्वी एशिया की अद्भुत सफलता के साथ ही ‘इतिहास के अंत’ की उद्‌घोषणा के साथ अंकित किया जाता है ।

हालांकि वैश्वीकरण प्रक्रिया के मूल कारकों को लेकर विचारकों के भिन्न-भिन्न मत हैं । कुछ विचारक इसे ज्ञानोदय का परिणाम तो कुछ विचारक इसे आधुनिक और निरतरशील प्रक्रिया मानते हैं । जो भी हो पर इस घटनाक्रम का मूल कारक सामान्यत: ”वॉशिंगटन सर्वसम्मति” को माना जा सकता है जिसने दूसरे देशों को व्यापार प्रत्यक्ष निवेश और अल्पकालिक पूजी लाभ हेतु अपने बाजार खुले रखने के लिए प्रोत्साहित किया ।

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ऐसा माना जा रहा था कि निजी पूंजी के अंत: प्रवाह और मुक्त व्यापार से ”तृतीय विश्व” के देशों को सशक्त व पोषणकारी विकास हासिल करने में मदद मिलेगी और फलस्वरूप गरीबी का स्तर भी घटेगा । अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एक, और विश्व बैंक जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने सभी राष्ट्रों पर पूंजी-बाजार उदारीकरण के लिए दबाव डाला और इन संस्थाओं का वित्तीय-बाजार विचारधारा में विश्वास था ।

इन संस्थाओं ने किसी भी तरह से आयात बाधाओं को कम करके राजनीतिक व्यवस्था की स्थिरता और स्वस्थ आर्थिक प्रबंधन के लिए विकासशील और अल्पविकसित देशों को निर्देश भी दिए । उदारीकरण निजीकरण और वैश्वीकरण को उन्नत पूंजीवादी देशों का भरपूर समर्थन मिला ।

इस प्रयास ने विश्व को अल्प अवधि में समाहित कर लिया और इससे विरोधाभासी परिणाम पैदा हुए । एक ओर इसने तकनीकी उन्नति के माध्यम से दुनिया को आपस में जोड़ दिया तो दूसरी ओर इसने तृतीय विश्व के देशों के लिए पर्यावरणीय हास संपदा के असमान वितरण, समाज के एक बड़े भाग का उपेक्षीकरण और विश्व आतंकवाद (राज्य व गैर-राज्य दोनों कर्ताओं द्वारा) की समस्याएं खड़ी कर दीं ।

अभूतपूर्व आर्थिक संवृद्धि के साथ-साथ समय-समय पर होने वाले आर्थिक संकटों से विकासशील देशों की दशा झलकती है और, इसी कारण वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था की भिन्न-भिन्न व्याख्याएं की जाती हैं । विभिन्न विचारक आधुनिक विश्व और इसके विकास को अलग-अलग नजरिए से देखते है । तथापि कोई भी आधुनिक विश्व के विकास में पूंजीवाद के महत्त्व को अनदेखा नहीं करता, बल्कि विभिन्न विचारकों ने इस विकास प्रक्रिया में पूंजीवाद के योगदान के महत्त्व को लेकर कई विचार प्रतिपादित किए है ।

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मोटे तौर पर साहित्य के दो भाग है जो विभिन्न प्रकार से वैश्वीकरण की प्रक्रिया पर चर्चा करते है । इनमें से पहले साहित्य का संबंध अतर्राष्ट्रीय संबंधों से है तो दूसरा विश्व व्यवस्था सिद्धांत से जुड़ा है । पहले दृष्टिकोण के विचारक राष्ट्र-राज्य व्यवस्था के विकास और विस्तार पर ध्यान केंद्रित करते हैं । वे एक एकात्मक प्रभुत्व संपन्न कर्ता के रूप में राज्य का वर्णन करते है जिसकी अतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका है ।

हालांकि वर्तमान वैश्वीकृत विश्व में राज्य की भूमिका को लेकर कई सैद्धांतिक मान्यताएं हैं पर अधिकांश विचारक राज्य के निजी मामलों के प्रबंधन और नियंत्रण में प्रभुत्वसपन्न सत्ता के पतन के संदर्भ में वैश्वीकरण के विकास का विश्लेषण करते है । कुछ विद्वान इसे नकारते हैं और वर्तमान युग में भी राज्य के महत्त्व को स्वीकार करते है । यद्यपि गिडेस इस मत से सहमत नहीं हैं और वे इस दृष्टिकोण के बारे में दो सीमाओं का जिक्र करते है ।

उनके अनुसार- इस प्रकार के दृष्टिकोण में वैश्वीकरण का केवल एक ही आयाम शामिल है अर्थात् अतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में राज्य का अन्य राज्यों व संगठनों के साथ अतर्राष्ट्रीय समन्वयन पर यह उन सामाजिक संबंधों को अनदेखा करता है जो राज्यों के बीच या बाहर नहीं बल्कि राज्य की सीमाओं को भी बाटते हैं । वे आगे कहते है कि राष्ट्रराज्य व्यवस्था का बढ़ता एकीकरण पिछली दो सदियों के इतिहास को अनदेखा नहीं करता जिससे यह पुष्ट होता है कि राष्ट्र-राज्य की प्रभुत्वसपन्न सत्ता का हास नहीं हुआ है ।

वे वैश्वीकरण के द्वंद्वात्मक स्वरूप और विश्व भर में असमान विकास की प्रक्रिया के प्रभाव पर चिंतन करते हैं । उनका तर्क है कि ‘विभिन्न प्रकार की संधियों युद्धों या आर्थिक और राजनीतिक बदलावों के कारण अन्य राज्यों की प्रभुता बढ़ने से कुछ राज्यों या राज्यों के समूहों की स्वायत्तता का प्राय: ह्रास हुआ है’ ।

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विश्व व्यवस्था उपागम ”अतर्राष्ट्रीयतावादी उपागम” से काफी अलग है । इस विचारधारा के प्रमुख समर्थक वॉलरस्टीन ने अपनी मूल धारणा मार्क्सवादी साहित्य से ग्रहण की । इस विचारधारा के विकास में साम्राज्यवाद की समीक्षा करने वाले विद्वान जैसेकि हॉब्सन, लक्जमबर्ग, बुखारिन, हिलफर्डिंग और लेनिन के नाम उल्लेखनीय हैं ।

लेनिन के अनुसार- एकाधिकारी पूंजीवाद के विकास से विश्व अर्थव्यवस्था में एक द्वि-पंक्ति संरचना का भी विकास हुआ जिसके अंतर्गत विकसित देशों (या केंद्र) ने अल्प विकसित देशों (या परिधि) का शोषण करना शुरू कर दिया । उनका मानना है कि केंद्र और परिधि के बीच का संरचनात्मक विभाजन प्रत्येक देश के बुर्जुआ (मध्यवर्ग) और सर्वहारा (श्रमजीवी वर्ग) के बीच संबंधों के स्वरूप का निर्धारण करता है ।

वॉलरस्टीन ने इस सिद्धांत को आगे बढ़ाया और पूंजीवाद के विकास या ‘विश्व अर्थव्यवस्थाओं’ के संदर्भ में आधुनिक विश्व और पुराने साम्राज्यों के बीच अतर स्थापित किया । इन दो प्रकार के सामाजिक संगठनों के बीच अतर इस बात से संबंधित है कि संसाधन वितरण से जुड़ निर्णय किस प्रकार लिए जाते हैं ।

”विश्व साम्राज्य या व्यवस्था” में एक केंद्रीकृत राजनीतिक व्यवस्था अपनी शक्ति का प्रयोग करके परिधिगत क्षेत्रों से केंद्रीय क्रोड क्षेत्र तक संसाधनों का पुनर्वितरण करती है । इसके विपरीत एक ”विश्व अर्थव्यवस्था” में राजनीतिक सत्ता का कोई एक केंद्र नहीं होता और संसाधनों का बटवारा किसी केंद्रीय आदेश द्वारा नहीं बल्कि बाजार के माध्यम से होता है । इस प्रकार वॉलरस्टीन आधुनिक वैश्वीकृत विश्व में बदलाव के लिए बाजार पूंजीवादी के विकास को उत्तरदायी मानते हुए उस पर ध्यान केंद्रित करते है ।

वे आधुनिक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की संरचना में एक नया मध्यस्थ स्तर अर्थात् ‘अर्ध-परिधि’ को शामिल करते हैं । ये तीन आर्थिक सत्र अर्थात् ‘केंद्र’, ‘अर्ध-परिधि’ और ‘परिधि’ वाणिज्यिक और उत्पादन संबंधों द्वारा आपस में जुड़े हुए हैं । विश्व अर्थव्यवस्था में ये तीन क्षेत्र शोषणकारी रीति से जुड़े हुए हैं । जिसमें ‘केंद्र’ के देश अल्प विकसित परिधिगत देशों का शोषण करते है ।

वॉलरस्टीन के अनुसार- अर्ध-परिधि क्षेत्र विश्व अर्थव्यवस्था को श्रम का स्रोत प्रदान करक बड़ी अहम भूमिका निभाता है । यह श्रम का स्रोत केंद्र में वेतनमान पर किसी भी ऊपरी दबाव का सामना करता है और इस प्रकार विश्व व्यवस्था की राजनीतिक संरचना को स्थिर बनाए रखता है ।

केंद्र में शामिल देशों की कुछ प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं:

(1) केंद्रीय देशों में आमतौर पर लोकतांत्रिक सरकारें होती हैं ।

(2) श्रमिकों के रोष को शांत रखने के लिए उन्हें उच्च वेतन प्रदान किए जाते हैं ।

(3) ये देश सामान्यत: विकासशील देशों से कच्चे माल का आयात करते है ।

(4) ये देश अधिक-से-अधिक लाभ अर्जित करने के लिए परिधि या अर्ध-परिधि क्षेत्र में अपनी पूजी का निवेश करते है ।

(5) ये अपने कुछ विशिष्ट देशों में कल्याणकारी सेवाएं प्रदान करते है ।

अर्ध-परिधि देशों की कुछ प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं:

(i) अर्ध-परिधि देशों में आमतौर पर सत्तावादी सरकारों का शासन देखने मिलता है ।

(ii) वे तैयार माल और कच्चे माल दोनों का निर्यात करते है ।

(iii) कच्चा माल का आयात ।

(iv) केंद्रीय देशों की तुलना में इन देशों में वेतनमान कम होता है ।

(v) कल्याणकारी सेवाएं भी कम होती हैं ।

परिधिगत देशों की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं:

(1) गैर-लोकतांत्रिक सरकारें ।

(2) कच्चे माल का निर्यात ।

(3) तैयार माल का आयात ।

(4) जीवन-निर्वाह से कम वेतनमान ।

(5) कल्याणकारी सेवाओं का अभाव ।

इस प्रकार वॉलरस्टीन का मानना है कि ऐसे शोषणकारी संबंध ही आधुनिक विश्व अर्थव्यवस्था में गिरावट और आधुनिक वैश्विक पूंजीवाद के आगमन का कारण है । यद्यपि गिडेस के विचार वॉलरस्टीन से अलग है और वे आधुनिक वैश्वीकृत विश्व के विश्लेषण में राजनीतिक और सैन्य कारकों को अनदेखा करके “आर्थिक” कारक पर ही अधिक बल देने के कारण वॉलरस्टीन की आलोचना करते है । उनका तर्क है कि वैश्वीकरण के चार आयाम है जो आधुनिक विश्व की जटिलताओं को स्पष्ट करते हैं ।

ये चार आयाम इस प्रकार हैं:

(i) विश्व पूंजीवाद अर्थव्यवस्था

(ii) राष्ट्र-राज्य व्यवस्था

(iii) विश्व सैन्य-व्यवस्था और

(iv) अतर्राष्ट्रीय श्रम विभाजन ।

उनके अनुसार- विश्व अर्थव्यवस्था में शक्ति का प्रमुख केंद्र पूंजीवादी राज्य हैं जहां उत्पादन का संबंध पूंजीवादी आर्थिक उद्यमों से है । उनका तर्क है कि ‘इन राज्यों की घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक नीतियों में आर्थिक गतिविधियों के संचालन के कई रूप शामिल है, पर उनके आर्थिक और राजनीतिक संस्थागत संगठन ने एक अलगाव की प्रवृत्ति अपनाई हुई है ।

इसके कारण व्यावसायिक निगमों की वैश्विक गतिविधियों के लिए व्यापक क्षेत्र सुलभ हो जाता है । इस प्रकार ये एक विशिष्ट राज्य में अपना आधार स्थापित करते हुए भी अन्य दूसरी प्रादेशिक साझेदारियां भी हासिल कर सकते हैं ।’ इस प्रकार से बहुराष्ट्रीय या पराराष्ट्रीय निगमों अथवा व्यावसायिक उद्यमों के पास आर्थिक शक्ति होती है और साथ ही घरेलू और विदेशी मामलों में राजनीतिक नीतियों को प्रभावित करने का सामर्थ्य भी होता है ।

बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बजट कई अल्प विकसित देशों की तुलना में बड़ा होता है । हालांकि कुछ ऐसे क्षेत्र होते है जैसे कि घरेलू प्रदेश पर नियंत्रण या हिंसा पर एकाधिकार जिसमें बहुराष्ट्रीय निगम राज्य से मुकाबला नहीं कर सकते । ऐसे ही राज्य के पास सैनिक शक्ति होती है और उसका एक राजनैतिक/कानूनी अस्तित्व होता है जिससे कोई औद्योगिक निगम छेड़छाड़ नहीं कर सकता ।

इस प्रकार गिडेंस का तर्क है कि अगर विश्व राजनीतिक व्यवस्था में राष्ट्र-राज्य प्रधान कर्ता हैं, तो इस विश्व अर्थव्यवस्था के भीतर निगम प्रभुत्वशाली एजेंट हैं और इनके आपसी व्यापारिक संबंधों तथा राज्यों व उपभोक्ताओं के बीच विभिन्न कंपनियां (उत्पादक निगम, वित्तीय कंपनियां और बैंक) लाभांश के लिए उत्पादन पर निर्भर करती है । इस प्रकार, इनके प्रभाव के विस्तार से पूजी बाजार सहित वस्तु बाजार की एक वैश्विक लड़ी बनने लगती है ।

अत: पूंजीवादी या समाजवादी राज्य, सभी राष्ट्र-राज्य आर्थिक हितपूर्ति के लिए कार्य करते हैं और पूंजी निर्माण के लिए प्रमुख रूप से औद्योगिक उत्पादन पर निर्भर है । विश्व राजनीतिक व्यवस्था में उनका प्रभाव उनकी संपन्नता और सैनिक सामर्थ्य के स्तर से निर्धारित होता है ।

मार्गेन्थो के अनुसार- राज्य अपनी शक्ति प्रभुता से हासिल करते हैं और वे आर्थिक मशीन की तरह संचालित नहीं होते बल्कि वे अपने प्रादेशिक अधिकार के लिए एक कर्ता के रूप में कार्य करते हैं । इनका सरोकार अपनी राष्ट्रीय संस्कृति को संपोषित करना और दूसरे राज्यों या राज्यों के गुटों के साथ रणनीतिक रूप से भूराजनैतिक साझेदारी करने से है ।

गिडेंस का तर्क है कि कई बार कुछ राज्यों के बीच समन्वित गतिविधियों से सम्मिलित राष्ट्रों की व्यक्तिगत प्रभुत्ता का हास हो जाता है । सैन्य शक्ति के वैश्वीकरण में विश्व के एक भाग से दूसरे भाग तक अस्त्र-शस्त्रों व सैन्य संगठन की तकनीकों का आदान-प्रदान शामिल है । सैनिक गठबंधन युद्ध संबंधी गतिविधियां भी वैश्वीकरण से जुड़ी हुई है ।

गिडेंस का मत है कि सैनिक गठबंधन न ही राज्य की प्रभुता को कम करते है और न ही ये अपने प्रदेश की रक्षा में हिंसा से निपटने के लिए राज्य की क्षमता को सीमित करते है । उत्तरी कोरिया जैसा आर्थिक रूप से कमजोर देश भी सैनिक रूप से शक्तिशाली है और परमाणु हथियार रखता है ।

अत: वैश्वीकरण के युग में व्यावसायिक या बहुराष्ट्रीय निगम एक राज्य की सैनिक शक्ति को चुनौती नहीं दे सकते । युद्ध का स्वरूप भी विश्वव्यापी हो गया है जो पहले दो विश्व युद्धों से स्पष्ट प्रमाणित है । वर्तमान परमाणु युग में परमाणु हथियारों का स्वामित्व विभिन्न देशों को आपस में लड़ने से रोकता है । हालांकि प्रदेश से बाहर सैनिक घटनाक्रमों में भागीदारी को रोकना थोड़ा कठिन है । यह शीत युद्ध और अफगानिस्तान एवं इराक के नवीनतम मामलों से स्पष्ट है ।

आधुनिक समय में औद्योगिक विकास का स्वरूप वह चौथा पहलू है जिस पर गिडेंस प्रकाश डालते है । उनके अनुसार- आधुनिक उद्योग श्रम विभाजन पर आधारित है । यह केवल व्यावसायिक कार्य के स्तर पर ही नहीं बल्कि औद्योगिक कौशल के रूप और कच्चे माल के उत्पादन की दृष्टि से प्रादेशिक वैश्वीकरण पर भी आधारित है ।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से वैश्विक अंतर्निर्भरता प्रक्रिया को बढ़ावा मिला है । सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांति ग्लोबल मीडिया के तीव्र विकास जनसंचार और परिवहन में बदलाव ने समस्त विश्व को एक धागे में पिरो दिया है । गिडेंस आगे कहते हैं कि उद्योगवाद उत्पादन का एक सीमित क्षेत्र नहीं है बल्कि यह दैनिक जीवन के अनेक पहलुओं को छूता है और भौतिक पर्यावरण में मानव की आपसी क्रियाओं के स्वरूप को भी प्रभावित करता है ।

इस प्रकार गिडेंस वैश्वीकरण के विकास में सिर्फ पूंजीवादी को ही एक गतिशील कारक नहीं मानते । वे राजनीतिक सैनिक और आर्थिक कारकों को भी महत्त्व देते हैं । इन सब कारकों ने आधुनिक विश्व के विकास में योग दिया है । दूसरी ओर, समाजवादियों और मार्क्सवादियों ने अन्य कारकों का जिक्र तो किया है पर वे आधुनिक विश्व के निर्माण में पूंजीवाद की प्रक्रिया पर ही अधिक बल है ।

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