पूंजीवाद पर निबंध: हिंदी में अर्थ और मेरिट्स | Here is an essay on ‘Capitalism’ for class 8, 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Capitalism’ especially written for school and college students in Hindi language.

Essay # 1. पूँजीवाद का अभिप्राय एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Capitalism):

परम्परावादी अर्थशास्त्री (Traditional Economists) अथवा प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री (Classical Economists) को पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली का निर्माता कहा जाता है । प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री एडम स्मिथ (Adam Smith) से जे.एस.मिल (J.S Mill) तक सभी प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली के विकास में योगदान दिया है ।

पूंजीवाद के विषय में विद्वानों में भिन्न-भिन्न मत है । पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली की परिभाषा विभिन्न विद्वानों ने इसकी विशेषताओं के आधार पर की है ।

पूंजीवाद की कुछ मुख्य परिभाषाएँ निम्न है:

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लॉक्स एवं हूट (Loucks and Hoot) के अनुसार- पूंजीवाद आर्थिक संगठन की एक ऐसी प्रणाली है जिसमें व्यक्तिगत स्वामित्व पाया जाता है और मानवकृत एवं प्राकृतिक साधनों को व्यक्तिगत लाभ के लिए प्रयोग किया जाता है ।

पीगू ने पूंजीवाद को परिभाषित करते हुए लिखा है:

पूंजीवादी अर्थ प्रणाली वह है जिसमें उत्पत्ति के भौतिक साधनों का अधिकार अथवा उपयोग का अधिकार कुछ ही व्यक्तियों के पास होता है । और इन साधनों का संचालन इन व्यक्तियों द्वारा इस प्रकार किया जाता है कि इनकी सहायता से जो वस्तुएँ अथवा सेवाएँ उत्पन्न हो उनके द्वारा लाभ कमाया जाये । पूंजीवादी अर्थव्यवस्था वह है, जिसमें उत्पत्ति के साधनों का प्रमुख भाग पूंजीवादी उद्योगों में कार्यरत होता है ।

पीगू. की यह परिभाषा पूंजीवाद की निम्नलिखित विशेषताओं पर प्रकाश डालती है:

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1. पूंजीवाद प्रणाली में निजी संपत्ति का अधिकार होता है । जिसका प्रयोग उन व्यक्तियों के द्वारा स्वयं के लाभ के लिए किया जाता है ।

2. उत्पत्ति के साधनों पर जिन व्यक्तियों का अधिकार होता है वे सरकारी नियंत्रण से पूर्णत: मुक्त होते है । दूसरे शब्दों में उनकी उत्पादन क्रियाओं पर सरकार का कोई नियंत्रण एवं हस्तक्षेप नहीं होता ।

3. उत्पादन का एकमात्र उद्देश्य लाभ अर्जित करना है । और इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही उत्पादक विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन में साधनों का आबंटन करते है ।

बेन्हम (Benham) के अनुसार- पूँजीवादी अर्थव्यवस्था, आर्थिक तानाशाही की प्रतिरोधी है । उत्पादन के क्षेत्र में कोई केन्द्रीय आयोजन नहीं होता । राज्य के द्वारा लगाये गए प्रतिबन्धों को छोड़कर प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने को स्वतंत्र होता है ।

ADVERTISEMENTS:

प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार आर्थिक फैसले और आर्थिक क्रियाएँ करता है । क्योंकि वह प्रत्येक उत्पत्ति के साधन का स्वामी है । जिनको वह अपनी इच्छानुसार किसी भी प्रयोग में लगाकर आय अर्जन कर सकता है ।

जी.डी.एच.कोच (G.D.H. Cole) के अनुसार- पूंजीवाद लाभ के लिए उत्पादन की वह प्रणाली है जिसके अन्तर्गत उत्पादन के उपकरणों तथा सामग्री पर व्यक्तिगत स्वामित्व होता है । तथा उत्पादन मुख्य रूप से मजदूरी के श्रमिकों द्वारा किया जाता है । तथा इस उत्पादन पर पूंजीपति स्वामियों का अधिकार होता है ।

सिडनी वैब (Sydney Webb) और बी.वैब (B. Webb) के अनुसार- पूंजीवाद या पूंजीवादी प्रणाली या पूंजीवादी सभ्यता शब्द का अर्थ उद्योगों तथा कानूनी संस्थाओं के विकास की उस अवस्था से है जिसमें श्रमिकों का एक वर्ग अपने आपको उत्पादन साधनों के स्वामित्व से अलग पाता है और मजदूरी कमाने वाले वर्ग में सम्मिलित हो जाता है ।

इस वर्ग का जीवन-यापन, सुरक्षा तथा व्यक्तिगत, स्वतंत्रता केवल उन सीमित संख्या वाले पूंजीपतियों की इच्छा पर निर्भर करती है जो भूमि, पूजी, मशीन और कारखानों, आदि पर नियंत्रण रखते हैं । और ये सब कार्य उनके स्वयं के व्यक्तिगत एवं निजी लाभ के उद्देश्य से सम्पन्न किये जाते हैं ।

डॉ भारतन कुमारप्पा (Dr. Bharatan Kumarappa) ने अपनी पुस्तक ‘Capitalism, Socialism and Villagism’ में पूंजीवाद को परिभाषित करते हुए लिखा है कि- यह एक आर्थिक व्यवस्था है ।

जिसमें वस्तुओं का उत्पादन और वितरण व्यक्तिगत इकाईयों या व्यक्तियों के समूह द्वारा किया जाता है । ये व्यक्ति अपने संचित धन का प्रयोग और अधिक धन के संचय के लिए करते हैं । इस प्रकार पूंजीवाद के लिए दो तत्व महत्वपूर्ण है । निजी पूंजी एवं निजी लाभ ।

उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि पूंजीवाद एक ऐसी प्रणाली को व्यक्त करता है जिसमें अधिकांश श्रमिक उत्पत्ति के साधनों पर अधिकार से वंचित कर दिए जाते है और केवल मजदूर की श्रेणी में जीवन यापन करते है ।

ऐसे श्रमिकों की आजीविका उनकी सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता उन मुट्ठी-भर पूंजीपतियों पर निर्भर करती है जिनका उत्पत्ति के समस्त साधनों-भूमि, पूंजी, श्रम, संगठन आदि पर अधिकार होता है और जो सदैव व्यक्तिगत लाभ की भावना से आर्थिक क्रियाएँ करते हैं ।

Essay # 2. पूंजीवादी प्रणाली के गुण (Merits of Capitalist System):

पूंजीवादी प्रणाली के प्रमुख गुण निम्न प्रकार है:

1. स्वयं संचालित (Automatic):

पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली स्वयं संचालित होती है और उसमें किसी प्रकार के सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती । प्रत्येक व्यक्ति को अपनी संतुष्टि के अनुसार आर्थिक क्रियाओं को सम्पन्न करने का पूर्ण अधिकार होता है । व्यक्ति इस प्रणाली में स्वयं हित (Self-Interest) के उद्देश्य से क्रियाशील होता है ।

और उसे अपनी इच्छानुसार अपनी आय और अपने संसाधनों को अपने स्वयं के विवेक के प्रयोग करने का पूर्ण अधिकार होता है । दूसरे शब्दों में पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली व्यक्तियों को आर्थिक स्वतंत्रता (Economic Freedom) प्रदान करती है जो किसी अन्य आर्थिक प्रणाली में संभव नहीं ।

2. संसाधनों का अनुकूलतम प्रयोग और उत्पादकता में वृद्धि (Optimum Use of Resources and Increase in Productivity):

पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली में व्यक्तिगत लाभ को अधिकतम करने की चेष्ठा, आर्थिक स्वतंत्रता एवं स्पर्धा जैसे घटक समाज के संसाधनों का अनुकूलतम प्रयोग सम्भव बनाते हैं । प्रतिस्पर्धा के कारण उन्नति के संसाधन कम लाश वाले उत्पादन क्षेत्र से अधिक लाभ वाले उत्पादन क्षेत्र में स्वयं ही स्थानान्तरित होने लगे हैं जिसके कारण संसाधनों का अनुकूलतम प्रयोग संभव हो पाता है ।

संसाधनों के अधिकतम उत्पादकता वाले क्षेत्र में स्थानांतरित होने के कारण उत्पादकता में वृद्धि का दूसरा कारण यह है कि उत्पादकों एवं वितरकों में बाजार पर नियंत्रण के लिए पारस्परिक प्रतिस्पर्धा होती है, जिसके कारण प्रत्येक उत्पादक अपनी उत्पत्ति की मात्रा में वृद्धि करने के लिए सदैव सचेत रहता है ।

3. उत्पादन में प्रोत्साहन (Incentives in Production):

पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली प्रोत्साहनमूलक है । जिसके अन्तर्गत उत्पत्ति के क्रियाशील साधनों को यथेष्ट उत्साह प्रदान किया जाता है । उद्यमी के लिए उत्पादन का लाभ एक महत्वपूर्ण उत्साहमूलक तत्व है । इसके अतिरिक्त, व्यक्तिगत लाभ का उद्देश्य, जो पूंजीवाद की आधारभूत विशेषता है, एक सबल प्रोत्साहनमूलक तत्व है ।

व्यक्तिगत लाभ को अधिकतम करने के उद्देश्य से व्यक्ति उत्पत्ति के साधनों का अधिकतम क्षमता के साथ प्रयोग करते हुए आर्थिक क्रियाएँ सम्पन्न करता है । इस प्रकार उसका स्वयं हित का उद्देश्य पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली में उत्पादन एवं क्षमता वृद्धि के लिए एक सबल प्रोत्साहन (Incentive) बन जाता है ।

4. रहन-सहन के स्तर में सुधार (Rising Standard of Living):

यदि पूंजीवादी प्रणाली पर आधारित अमेरिकी (U.S.A) अर्थव्यवस्था के उदाहरण को लिया जाये तो यह स्वत: ही अनुभव किया जा सकता है कि अमेरिका के व्यक्तियों का रहन-सदन का स्तर पूंजीवाद के उद्गम के साथ ही विकसित होता रहा है ।

अमेरिका और अन्य पश्चिमी यूरोपीय पूंजीवादी देशों की आर्थिक प्रणाली व्यक्तिगत लाभ के उद्देश्य पर आधारित होने के कारण जनसंख्या वृद्धि के होते हुए भी व्यक्तियों की प्रति व्यक्ति आय और उनकी कार्यक्षमता में वृद्धि को संभव बनाती है । अमेरिका अर्थव्यवस्था में आय की असमानताओं के होते हुए भी समुदाय का प्रत्येक वर्ग देश के विकास एवं बढ़ती हुई आय से लाभान्वित हुआ है ।

5. तकनीकी विकास (Technological Progress):

पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली में तकनीकी विकास की संभावनाएँ सदैव उपस्थित रहती है । इस प्रणाली में उत्पादक अधिकतम लाभ के उद्देश्य से सदैव नई-नई उत्पादन तकनीकों को विकसित करने के लिए प्रयास करता हैं और आविष्कार एवं अन्वेषण उसकी आर्थिक क्रियाओं का अभिन्न अंग बन जाते हैं ।

प्रत्येक उत्पादक स्वयं को पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली की प्रतिस्पर्धा में बनाएं रखने के लिए तकनीकी विकास एवं उत्पादन प्रक्रिया में उनके उपयोग का सहारा लेता है । ताकि वह अन्य उत्पादों की तुलना में बाजार के बड़े भाग पर अपना अधिकार कर सके ।

6. लचीलापन (Flexibility):

पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली में लचीलेपन की विशेषता ही संसाधनों का पारस्परिक प्रतिस्थापन करके संसाधनों के अनुकूलतम प्रयोग को सम्भव बनाती है । इस प्रणाली के लचीलेपन के कारण ही उत्पत्ति के साधनों में गतिशीलता उत्पन्न होती है । और साधन कम लाभप्रद क्षेत्रों में स्थानान्तरित होकर अधिक लाभप्रद क्षेत्रों में क्रियाशील होते है ।

7. पूंजी निर्माण को प्रोत्साहन (Incentive to Capital Formation):

पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली में व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार एवं उत्तराधिकार के नियम के कारण बचत करने की प्रेरणा को प्रोत्साहन मिलता है, जिससे विनियोग एवं पूंजी निर्माण की दर में वृद्धि होती है । तथा उत्पादन भी प्रोत्साहित होती है ।

8. योग्यतानुसार पुरस्कार (Remuneration is Based on Ability):

पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली में योग्यता एवं कार्यकुशलता को समुचित रूप से पुरस्कृत किया जाता है । योग्य एवं अधिक यथा श्रमिकों को ऊँचा पारिश्रमिक देकर पुरस्कृत किया जाता है । इस प्रकार पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली में प्रेरणा (Incentives) की उपस्थिति श्रमिकों को अपनी दक्षता, योग्यता एवं कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करती है ।

9. आर्थिक विकास की दर में वृद्धि (Increase in the Rate of Economic Development):

 

पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली में बचत, विनियोग एवं पूजी निर्माण की दर अधिक होने के कारण विकास की दर तीव्र गति से बढ़ती है । पूंजीपति वर्ग अपने लाभ को अधिक करने की चेष्ठा में पूर्ण दक्षता एवं कुशलता में वृद्धि करके उत्पादकता में वृद्धि का प्रयास करते हैं ।

साथ ही श्रमिक वर्ग भी अधिक मजदूरी के रूप में पुरस्कार प्राप्त करने की प्रेरणा के कारण अपनी कार्यकुशलता में वृद्धि करता है । तकनीकी सुधार नव-प्रवर्तन (Innovations) एवं श्रम-विभाजन आदि के कारण पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली में उत्पादकता में निरन्तर वृद्धि होती रहती है जिससे अर्थव्यवस्था में विकास की दर को प्रोत्साहन मिलता है ।

10. लोकतान्त्रिक स्वरूप को दृढ़ आधार (Strong Base for Democratic Character):

पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली में उपभोक्ता की प्रभुसत्ता के कारण अर्थव्यवस्था में एक लोकतांत्रिक स्वरूप को दृढ़ आधार मिलता है । पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत उपभोक्ताओं के बहुमत की इच्छा का सम्मान एवं पालन किया जाता है तथा अर्थव्यवस्था की आर्थिक क्रियाएं बहुमत द्वारा ही नियंत्रित एवं संचालित होती है ।

जिसके फलस्वरूप लोकतान्त्रिक शक्तियाँ मजबूत होती है । इसके अतिरिक्त पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का संस्थागत ढाँचा भी अर्थव्यवस्था में लोकतान्त्रिक स्वरूप की स्थापना करता है ।

Essay # 3. पूंजीवादी प्रणाली के दोष (Demerits of Capitalism):

पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली के दोषों को निम्नलिखित बिन्दुओं के रूप में क्रमबद्ध किया जा सकता है:

1. सम्पत्ति एवं आय की असमानताएँ (Inequality of Income and Wealth):

पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली में आय और सम्पत्ति का असमान वितरण होता है जो समाज में सामाजिक एवं राजनीतिक असमानताएँ उत्पन्न करता है । आय की असमानताओं के कारण देश की संपत्ति और पूंजी का केन्द्रीकरण कुछ ही व्यक्तियों के हाथों में हो जाता है ।

और समाज में गरीब और अमीर की खाई बढ़ जाती है । आय की यह असमानता समाज में एक असंतुलन उत्पन्न करती है । और समाज दो वर्गों में बंट जाता है । सम्पन्न (Have) एवं विपन्न (Have-Not) । जिसके फलस्वरूप समाज में वर्ग संघर्ष उत्पन्न होता है ।

आय की असमानताओं के कारण एवं उत्पत्ति के संसाधनों पर कुछ ही व्यक्तियों का अधिकार हो जाने के कारण अमीर और अधिक अमीर और गरीब और होता चला जाता है । जिसके कारण समाज के लाभ के अवसर सम्पन्न वर्ग के हाथों में केन्द्रित होकर रह जाते है ।

इसका परिणाम यह होता है कि साधन सम्पन्न और अपेक्षाकृत कम क्षमता वाले लोग उत्पत्ति की क्रियाओं पर आधिपत्य स्थापित कर लेते हैं और अपेक्षाकृत अधिक उत्पादन क्षमता वाले श्रमिक साधनों के अभाव में उत्पादन क्रिया में स्वतंत्र रूप से भाग नहीं ले पाते हैं ।

आय की असमानता पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली के निजी सम्पत्ति के अधिकार के कारण उत्पन्न होती है । उत्तराधिकार का नियम ही समाज को वर्गों में बांटता है । उत्तराधिकार का नियम वंशानुगत सम्पत्ति के हस्तान्तरण को सम्भव बनाता है ।

जिससे अमीर और गरीब की खाई वंशानुगत आधार पर बढ़ती चली जाती है । आय की इस बढ़ती असमानता के कारण अर्थव्यवस्था पर कुछ सम्पन्न लोगों का ही अधिकार हो जाता है ।

2. सामाजिक अशान्ति एवं वर्ग-संघर्ष (Social Unrest and Class Struggle):

पूंजीवादी आर्थिक आधार पर समाज का दो वर्गों में विभाजन होने के कारण सामाजिक शोषण उत्पन्न होता है, जो वर्ग संघर्ष (Class Struggle) का मार्ग प्रशस्त करता है । पूंजीपत्तियों की लाभ में वृद्धि करने की लिप्सा उत्पादन प्रक्रिया को पूंजी गहन बना देती है ।

जिसके कारण श्रमिकों का स्थान पूंजीगत उपकरण ले लेते हैं । और व्यक्तियों की बढ़ती बेरोजगारी के कारण उनकी आर्थिक स्थिति और दयनीय हो जाती है । दूसरे शब्दों में, पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली में श्रमिकों की कोई सुरक्षा नहीं होती और सदैव अपने निष्कासन से भयभीत रहते हैं ।

श्रमिकों का शोषण एवं असुरक्षता की भावना श्रमिकों को श्रम संघ के रूप में संगठित करती है, जिससे हड़ताल और तालाबंदी आरंभ होती है । जिसके परिणामस्वरूप उत्पादन में कमी आती है । और साथ ही साथ सामाजिक अशान्ति उत्पन्न होती है ।

3. एकाधिकारी प्रवृत्ति का उदय (Emergence of Monopoly Tendency):

पूंजीवादी प्रणाली में पूर्ण प्रतियोगिता की उपस्थिति अपरिहार्य होने के कारण एकाधिकारी प्रवृत्तियों का बढ़ना पूंजीवादी देशों की अर्थव्यवस्था में दृष्टिगोचर होता है ।

एकाधिकारी प्रवृत्तियों का बढ़ना उत्पादकों के मध्य गलाकाट प्रतियोगिता (Cut-Throat Competition) का परिणाम है, जिसमें प्रत्येक उत्पादन अपने प्रतिद्वन्दी को उत्पादन प्रक्रिया से बाहर निकालने एवं बाजार पर अधिक आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास करता है ।

एकाधिकारी प्रवृत्तियों के बढ़ने से अर्थव्यवस्था में अनेक अवांछनीय परिणाम उपस्थित होते हैं, जिससे उपभोक्ताओं की अधिकतम संतुष्टि पर पहला आघात पहुँचता है । प्रतियोगिता के कारण बाजार में वस्तुओं की कृत्रिम कमी उपस्थित की जाती है । ताकि कीमतों में वृद्धि करके एकाधिकारी लाभ को बढ़ाया जा सके ।

4. पूर्ण रोजगार प्राप्त करने में असफल (Failure to Provide Full-Employment):

स्पर्धात्मक आर्थिक प्रणाली में यह मान लिया गया है कि यह स्वयं संचालित होती है और पूर्ण रोजगार के बिन्दु को इस प्रणाली में सहज रूप से प्राप्त कर लिया जाता है ।

किन्तु 1930 की महामन्दी के बाद प्रो.जे.एम. कीन्स ने अपने रोजगार सिद्धान्त में यह स्पष्ट किया है कि संतुलन पूर्ण रोजगार के बिन्दु पर नहीं मिलता, बल्कि पूर्णरोजगार स्तर से पहले ही अर्थव्यवस्था सन्तुलन की दशा प्राप्त कर लेती है, जिसे प्रो.कीन्स ने पूर्ण रोजगार की पूर्व दशा (Under-Full-Employment) कहा है ।

इस प्रकार पूंजीवादी प्रणाली में पूर्ण रोजगार स्तर प्राप्त न होने के कारण प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों का सम्पूर्ण प्रयोग नहीं हो पाता जिसके कारण समाज में संसाधनों का अपव्यय होता है ।

5. अनियोजित उत्पादन (Unplanned Production):

केन्द्रीकृत नियोजन की अनुपस्थिति के कारण पूंजीवादी प्रणाली में उत्पादन अनियोजित रहता है । स्पर्धा के कारण प्रत्येक उत्पादक अधिक से अधिक लाभ अर्जित करने का प्रयास करता है । जिसके कारण अर्थव्यवस्था में अति-उत्पादन (Over-Production) की दशा उपस्थित होती है । और व्यापार चक्र उपस्थित होते हैं जो अर्थव्यवस्था की असंतुलित दशाओं की सूचना देते हैं ।

6. उत्पत्ति के साधनों का अपव्यय (Wastage of Factors of Production):

पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली में प्रतियोगिता के कारण उत्पत्ति के साधनों का एक बड़ा भाग विज्ञापन एवं प्रचार में व्यय कर दिया जाता है । साथ ही प्रतियोगी फर्में प्रतियोगिता के कारण वस्तुओं का अनावश्यक उत्पादन कर लेती हैं । जिससे कई बार अति उत्पादन की समस्या उत्पन्न हो जाती है और उत्पत्ति के साधनों का अनावश्यक अपव्यय होता है ।

7. सामाजिक कल्याण की अनुपस्थिति (Absence of Social Welfare):

पूंजीवाद आर्थिक प्रणाली में व्यक्तिगत हित एवं कल्याण की भावना सर्वोपरि होती है तथा सामाजिक कल्याण की भावना पूर्ण रूप से अनुपस्थित रहती है । लाभ उद्देश्य पर ही उत्पादक वर्ग कार्य करता है ।

तथा जन कल्याण एवं आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन की उपेक्षा करता है । इस अधिकतम व्यक्तिगत लाभ की भावना के कारण समाज में श्रमिक वर्ग का शोषण होता है, तथा जन कल्याण का उद्देश्य गौण होकर रह जाता है ।

8. व्यापार चक्रों की उपस्थिति (Presence of Trade Cycle):

पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली में मांग एवं पूर्ति बलों के स्वतंत्र कार्य करने के कारण समय-समय पर मांग एवं पूर्ति बलों में असंतुलन उपस्थित होते रहते हैं, जिसके कारण व्यापार चक्र के उच्चावचन, अर्थव्यवस्था में आर्थिक अस्थिरता बनाए रखते हैं । व्यापार चक्रों के उच्चवचनों-मन्दीकाल (Depression) तथा स्फीति काल (Inflation) दोनों का ही समाज के विभिन्न वर्गों पर दुष्प्रभाव पड़ता है ।

9. सामाजिक परजीविता (Social Parasitism):

पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली में उत्तराधिकार के नियम के कारण अनर्जित आय पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानान्तरित होती रहती है । जिसके कारण समाज में पूंजी एवं धन का केन्द्रीकरण होता चला जाता है ।

सम्पन्न वर्ग का उत्तराधिकारी बिना किसी त्याग, परिश्रम एवं प्रयास के एक बड़ी सम्पत्ति का मालिक बन जाता हैं, जिससे समाज में आय की असमानताएँ तो बढ़ती है, साथ ही सम्पन्न वर्ग परजीवि होता चला जाता है । सामाजिक परजीविता की यह बुराई इस कार्य को आलसी विलासी बना देती है ।

10. बेरोजगारी का भय (Fear of Unemployment):

पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली में पूर्ण रोजगार स्तर पर अर्थव्यवस्था को लम्बे समय तक बनाए रखना संभव नहीं लाभ की इच्छा में जब उद्यमी उत्पादन करते चले जाते हैं तब अति-उत्पादन (Over-Production) की समस्या उत्पन्न होती है जिसके कारण उद्यमी उत्पादन स्तर का संकुचन करते है । परिणामस्वरूप बेरोजगारी एवं गरीबी की समस्या उत्पन्न होती है ।

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