हरित क्रान्ति पर निबंध! Here is an essay on ‘Green Revolution’ in Hindi language.

भारत कृषि प्रधान देश है । यहाँ शुरू से ही खेती करना सबसे उत्तम कार्य माना जाता रहा है । बीते समय में देश को सोने की चिड़िया कहे जाने के पीछे एक कारण यहाँ की खेती का अति समृद्ध होना भी था, किन्तु अंग्रेजी शासकों ने भारत पर कब्जा कर न केवल यहाँ की शिक्षा व्यवस्था और अर्थ तन्त्र को चौपट कर दिया, बल्कि वे सोना उपजाने वाली यहाँ की मिट्टी के साथ भी न्याय न कर सके, फलस्वरूप अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ हम भारतीय कृषि कार्यों में भी पिछड़ते चले गए ।

वर्ष 1943 में देश में भीषण अकाल पड़ा, जिसे ‘बंगाल अकाल’ के नाम से जाना जाता है । इस अकाल में लगभग 40 लाख लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी थी । उसके बाद द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने के दौरान अंग्रेजी सरकार की गलत नीतियों और कुव्यवस्था के कारण देश में फिर से अन्न सकट की स्थिति उत्पन्न हो गई ।

भारत के नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के अनुसार, ‘द्वितीय विश्वयुद्ध का उन्माद, जिसमें ब्रिटिश शासकों ने अन्न आपूर्ति को बहुत कम प्राथमिकता दी, अन्न सकट का एक अति महत्वपूर्ण कारक था ।”  अन्ततः वर्ष 1947 में हमारा देश आजाद हुआ, किन्तु बंगाल अकाल की दहशत अब भी देश पर छाई थी ।

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भारत को अन्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाना देश के निर्माताओं के सामने एक गम्भीर चुनौती थी । स्वतन्त्रता प्राप्ति के कुछ ही वर्षों बाद भारत को वर्ष 1962 में चीन और 1966 में पाकिस्तान द्वारा जबरन थोपे गए युद्धों का सामना करना पड़ा ।

इस भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान अमेरिका ने भारत के साथ पहले से किए गए समझौते को दरकिनार कर अन्न भरकर भारत भेजे जा रहे अपने जहाज को पुन अपने देश लौटा लिया, ताकि भारत पाकिस्तान के सामने घुटने टेक दे, किन्तु विश्व को ”जय जवान, जय किसान” का नारा देने बाले हमारे तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री लालबहादुर शास्त्री के बुलन्द इरादों के सामने पाकिस्तान की एक न चली और युद्ध में उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा ।

अमेरिका द्वारा ऐसे समय में भारत को अन्न की सहायता बन्द किए जाने से देश को अन्न सकट से जूझना पड़ा, किन्तु अमेरिका द्वारा उत्पन्न की गई यही प्रतिकूल परिस्थिति देश में हरित क्रान्ति के सूत्रपात का कारण बनी, जिसकी चिंगारी जल्द ही समूचे देश में फैल गई और मिट्टी से जुडे दूरदर्शी प्रधानमन्त्री शास्त्री जी के नेतृत्व में देश कुछ ही वर्षों में अनाज के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो गया ।

किसानों को देश का अन्नदाता मानने वाले शास्त्री जी ने एक बार कहा भी था- ”भोजन लोगों के जीवन-मरण का प्रश्न है, हमें लोगों को पर्याप्त भोजन देना ही चाहिए ।” प्रोफेसर सत्यप्रकाश ने ठीक ही कहा है कि शास्त्री जी ने देश को सैन्य गौरव का तोहफा ही नहीं दिया, बल्कि हरित क्रान्ति का सूत्रपात कर कृषि क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाने का काम भी किया ।

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विश्व को हरित क्रान्ति का मन्त्र देने वाला देश मैक्सिको है । इसके जनक विश्व के महान् कृषि वैज्ञानिक डॉ. नॉरमन बोरलॉग माने जाते है । द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात अमेरिका के सामने जापान का पुनर्निर्माण किए जाने का प्रश्न आ खडा हुआ । कृषि अनुसन्धान सेवा के एस सिसिल सैल्मन जब बिजयी अमेरिकी सेना सहित जापान पहुँचे तब उनका ध्यान नोरिन नामक गेहूँ की किस्म पर गया, जिसके दाने बहुत बड़े-बड़े थे ।

सैल्मन द्वारा इस किस्म के अमेरिका भेजे जाने के तेरह वर्षों के शोध के पश्चात गेहूँ की गेम्स नामक किस्म तैयार की गई । गेम्स का मैक्सिको के गेहूँ की सर्वोत्तम किस्म से संकरण करवाकर डॉ. नॉरमन बोरलॉग ने एक अन्य नई किस्म तैयार की ।

वर्ष 1976 से 2001 के दौरान अन्तर्राष्ट्रीय गन्ना और गेहूँ विकास केन्द्र ‘सीआईएमएमवाईटी’ में चलाए जा रहे गेहूँ कार्यक्रम में नोबेल शान्ति पुरस्कार विजेता डॉ नॉरमन का साथ भारत में जन्मे कृषि वैज्ञानिक डॉ. संजय राजाराम ने भी दिया ।

डॉ. राजाराम ने उच्च उत्पादकता वाली गेहूँ की 480 से भी अधिक किस्में तैयार कीं, जिनके बीज छ: महादेशों के 61 राष्ट्रों में भेजे गए, फलस्वरूप हरित क्रान्ति के बाद के वर्षों में गेहूँ के उत्पादन में 200 मिलियन टन से भी अधिक की वृद्धि हुई । इस उपलब्धि हेतु डॉ. राजाराम को ‘2014 वर्ल्ड फूड प्राइज’ से नवाजा गया ।

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भारत में हरित क्रान्ति का जनक श्री सी सुब्रह्मण्यम को माना गया है, जो वर्ष 1965 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय देश के कृषि मन्त्री थे । पूसा में गेहूँ की नोरिन किस्म के बीज के सफल परीक्षण के पश्चात देश को खाद्यान्न सकट से उबारने के लिए वर्ष 1965 में तत्कालीन कृषि मन्त्री ने नोरिन के 18 हजार टन बीज आयात करवाए और देश में हरित क्रान्ति का बिगुल फूँका ।

कृषि विज्ञान केन्द्रों के जरिए देश के कृषकों को गेहूँ की इस नई किस्म और कृषि की अत्याधुनिक तकनीक की जानकारी प्रदान की गई । देश में बडी संख्या में नहरों व कुँओं का निर्माण किया जाने लगा । साथ-ही-साथ अन्न भण्डारण की समस्या से निपटने के लिए काफी संख्या में गोदाम भी बनाए जाने लगे इन सब कार्यों में कृषि मन्त्री को देश के महान् कृषि वैज्ञानिक श्री एमएस स्वामीनाथन का पूर्ण सहयोग मिला । उन्नत किस्म के बीजों का प्रयोग कर वैज्ञानिक विधि से खेती करने का परिणाम सकारात्मक निकला ।

आशातीत पैदावार हुई और देश वर्ष 1970 तक आते-आते खाद्यान्न के मामले में पूर्णतः आत्मनिर्भर हो गया । नि:सन्देह इसका श्रेय तत्कालीन कृषि मन्त्री के साथ-साथ हमारे मेहनती किसानों और देश के लिए समर्पित कृषि वैज्ञानिकों को जाता है हरित क्रान्ति में अधिकाधिक कृषि योग्य भूमि का प्रयोग किए जाने, एक कृषि सत्र में दो फसलें तैयार करने, उन्नत किस्मों के बीजों का इस्तेमाल करने रासायनिक खादी व कीटनाशकों का प्रयोग एवं समुचित सिंचाई पर विशेष ध्यान दिया गया, किन्तु इसके अन्तर्गत गहन कृषि जिला कार्यक्रम, कृषि शिक्षा, भू-संरक्षण, किसानों को बैंकों की सुविधाएँ प्रदान करना जैसे लक्ष्य भी रखे गए ।

हरित क्रान्ति से रबी, खरीफ व जायद फसलों के क्षेत्र में विशेष लाभ देखने को मिले किसानों को खेती में थोडी लागत बढाने पर अच्छी आय की प्राप्ति होने लगी । इस क्रान्ति के परिणामस्वरूप देश न सिर्फ कृषि उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हुआ, बल्कि यहाँ से बडी मात्रा में अनाज निर्यात भी किए जाने लगे ।

बिल गेट्‌स के शब्दों में- ”60-70 के दशकों में हुई हरित क्रान्ति के दौरान वैज्ञानिकों ने चावल, गेहूँ एवं मक्के की नई किस्मों के बीज तैयार किए, जिसके परिणामस्वरूप पैदावार बढ़ गई ।”  भारत में हरित क्रान्ति का प्रारम्भ दो चरणों में हुआ । पहला चरण वर्ष से 1980-81 तक और दूसरा चरण वर्ष 1980-81 से 1996-97 तक माना जाता है ।

इस क्रान्ति के फलस्वरूप पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु आदि राज्यों के खेतों का कायाकल्प हो गया । वही खेत जो कल तक देश की बड़ी आबादी का पेट भर पाने में अक्षम थे, अब सोना उगल रहे थे ।

70 के दशक का अन्त आते-आते हमारा देश अनाज के निर्यात से अच्छी विदेशी मुद्रा कमाने लगा और हरित क्रान्ति से लाभान्वित होने वाले देशों की श्रेणी में आ खड़ा हुआ । हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप वर्ष 1978-79 के दौरान देश में 31 मिलियन टन रिकॉर्ड अनाज का उत्पादन हुआ ।

निश्चय ही हरित क्रान्ति के लाभों की अनदेखा नहीं की जा सकती, लेकिन इस क्रान्ति को कायम रखने हेतु लम्बे समय तक खेतों में बडे पैमाने पर रासायनिक खादों और कीटनाशक दवाइयों के प्रयोग करने के कारण कुछ दुष्परिणाम भी सामने आए, जिनका पता काफी वर्षों बाद चला ।

रासायनिक खेती से एक ओर खाद्यान्नों की गुणवत्ता और पौष्टिकता में कमी आने लगी, तो दूसरी ओर सोना उगलने वाली भारत की कृषि भूमि की उर्वरता भी कम होने लगी । इतना ही नहीं रासायनिक खेती से उत्पादित अनाजों के प्रयोग के दुष्प्रभाव मानव में होने वाली घातक बीमारियों के रूप में भी सामने आए ।

एण्डोसल्फान जैसे खतरनाक कीटनाशक के प्रयोग के दौरान एवं तत्पश्चात् त्वचा एवं आँखों में जलन साथ-ही-साथ शरीर के अंगों को निष्क्रिय बनाने बाले दुष्प्रभाव देखे गए । इन कीटनाशकों का घातक प्रभाव केवल मानव समुदाय तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि कई पक्षियों व कीट-पतंगों की प्रजातियों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया ।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के स्टॉक होम सम्मेलन के दौरान 12 घातक कीटनाशकों के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाया गया है ।  वास्तव में देखा जाए, तो खेतों में खतरनाक रसायनों का प्रयोग करने के परिणामस्वरूप अन्न, फल व सब्जियों तक में उनके जहरीले तत्व समाहित हो जाते हैं और बाद में यही जहरीले तत्व हमारी कोशिकाओं में संचित होकर कैंसर जैसी घातक बीमारी के कारण बनते है । खेतों में खतरनाक रसायनों का प्रयोग भू-जल को प्रदूषित करने का भी एक बड़ा कारक है ।

हरियाणा मृदा प्रयोगशाला द्वारा जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार, 90 के दशक तक हरियाणा में भूमि की उर्वरता कायम रही, पर उसके पश्चात् मिट्‌टी में आयरन, जिंक, मैंगनीज आदि पोषक तत्वों की कमी देखी जाने लगी । 21वीं सदी के आते-आते अधिक रासायनिक खादों व कीटनाशकों को प्रयोग करने वाले राज्यों की कृषि उत्पादन क्षमता घट गई ।

शुरू में राजस्थान की भूमि बंजर होती देखी गई, पर आगे चलकर हरियाणा और पंजाब में भी यह समस्या गम्भीर होती गई । भूमि को बंजर होने से बचाने के उद्देश्य से वर्ष 1992 में ग्रामीण बिकास मन्त्रालय के अन्तर्गत बंजर भूमि विकास विभाग का गठन किया गया ।

कृषि विशेषज्ञों के अनुसार, जैविक खादों का प्रयोग कर देश की भूमि को बंजर होने से बचाया जा सकता है । इधर हाल के वर्षों में सरकार द्वारा जैविक खेती को बढ़ावा दिए जाने के साथ-साथ देश के कृषक भी इसमें रुचि लेने लगे है ।

वर्ष 2009 में स्वतन्त्रता की 62वीं वर्षगाँठ पर देश को सम्बोधित करते हुए तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री मनमोहन सिंह ने कहा था- ”अब वह समय आ गया है, जब देश के किसान और वैज्ञानिक कृषि क्षेत्र में आधुनिक तरीकों की खोज करें । आज देश को एक और हरित क्रान्ति की जरूरत है, जिससे कृषि उत्पादन बढ़ाया जा सके ।”

उन्होंने यह भी कहा था कि आने वाले पाँच वर्षों में हम कृषि क्षेत्र में 7% विकास दर प्राप्त कर लेंगे । और यही से देश में दूसरी हरित क्रान्ति की नींव रखी गई । वर्ष 2011 में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त देश के शीर्ष कृषि वैज्ञानिक एवं भारत में हरित क्रान्ति के प्रमुख द्वधारों में से एक श्री एम एस स्वामीनाथन ने कहा था-”हरित क्रान्ति से सर्वाधिक लाभान्वित होने वाले राज्यों में अब सदाबहार क्रान्ति की आवश्यकता है । हरित क्रान्ति वाले क्षेत्रों के समर्थन के बिना प्रस्तावित राष्ट्रिय खाद्य सुरक्षा कानून को क्रियान्वित करना भी कठिन होगा ।”

इससे एक वर्ष पूर्व भी देश में कृषि सकट की सम्भावना जताते हुए उन्होंने कहा था- ”भारत का भविष्य बन्दूक से नहीं, अनाज से जुडा है ।” और सचमुच यह ऐसा बिकट समय था, जब देश के किसान आत्महत्या करने लगे थे और खेती करना चुनौतीपूर्ण हो गया था ।  बढ़ती जनसंख्या के कारण देश में खाद्यान्न संकट और गहराता जा रहा था ।

देश की इतनी बड़ी आबादी का पेट भरने हेतु दूसरी हरित क्रान्ति के अतिरिक्त कोई विकल्प न था ।  अत्याधुनिक तकनीक द्वारा मिट्‌टी के परीक्षण के आधार पर उचित फसल लगाकर, जल संग्रहण को बढ़ावा देकर, उचित फसल चक्र को अपनाकर, उच्च उत्पादन क्षमतायुक्त हाइब्रिड बीजों एवं जैव तकनीक का इस्तेमाल कर देश को आने वाले अन्न संकट से उबारा जा सकता था और इसी के लिए दूसरी हरित क्रान्ति की आवश्यकता महसूस की गई थी ।

दूसरी हरित क्रान्ति में धान सहित दलहन और तिलहन का उत्पादन करने वाले भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में कृषि के विकास पर विशेष ध्यान रखा गया । पहली हरित क्रान्ति की अपूर्व सफलता के बावजूद देश दलहन आपूर्ति हेतु निर्यात पर ही निर्भर रहा, इसलिए दूसरी हरित क्रान्ति के द्वारा देश में दलहन उत्पादन को बढाने का लक्ष्य रखा गया ।

वर्ष 2010-11 के लिए विभिन्न पूर्वी राज्यों को कृषि क्षेत्र में विकास हेतु Rs.400 करोड आवण्टित किए गए, जिनमें बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, पश्चिम बंगाल राज्य शामिल थे । वर्ष 2011-12 फसल वर्ष में लगभग 26 करोड़ टन खाद्यान्न का उत्पादन दर्ज किया गया ।

इस प्रकार दूसरी हरित क्रान्ति के भी सकारात्मक परिणाम देखने को मिलने लगे एसोचैम के अनुसार, भारत में दलहन की प्रतिव्यक्ति उपलब्धता कम है, जो चिन्ता का विषय है देश में लगभग दो से ढाई करोड़ हैक्टेयर भूमि में दलहन की खेती की जाती है, जहाँ वार्षिक उत्पादन डेढ से दो करोड़ टन के आस-पास है, लेकिन देश की बड़ी जनसंख्या को ध्यान में रखते हुए दलहन की पर्याप्त आपूर्ति हेतु उत्पादन और बढ़ाने की आवश्यकता है ।

संप्रग सरकार में कृषि मन्त्री रहे श्री शरद पवार का कहना है- ”दूसरी हरित क्रान्ति खेतों में मेहनत करने वाले कृषकों और प्रयोगशालाओं में काम करने वाले वैज्ञानिकों का प्रतिफल है । आज भारत विश्व में चावल का सबसे बड़ा निर्यातक देश है । गेहूँ व कपास के निर्यात में भी हम दूसरे स्थान पर है । दूध उत्पादन में भी हम अव्वल देशों की श्रेणी में है, किन्तु हमें आज भी देश के कृषकों को प्रोत्साहित करने के साथ-साथ कृषि अनुसन्धान क्षेत्र में और अधिक वैज्ञानिकों को लाने की आवश्यकता है ।”

केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आने के बाद वर्ष 2014 में आम बजट में वित्त मन्त्री श्री अरुण जेटली ने दूसरी हरित क्रान्ति को और धारदार बनाने की घोषणा की है ।  उनके अनुसार, दूसरी हरित क्रान्ति में प्रोटीन क्रान्ति को महत्व दिया जाएगा । उनका कहना है कि अनाज की अच्छी पैदावार के बावजूद देश में दलहन, अण्डा, मीट, मछली की भारी कमी है ।

दालों की कमी निर्यात से पूरी की जाती है । इस हरित क्रान्ति में सन्तुलित खाद एवं कीटनाशक के प्रयोग के साथ सिंचाई व आधुनिक तकनीक पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है ।  पूर्वी राज्यों में प्रोटीनयुक्त फसल यानि दलहन के उत्पादन के साथ कुकर, पशुधन व मत्स्यपालन को प्रोत्साहन देने का लक्ष्य रखा गया है, ताकि इन क्षेत्रों में भी भारत आत्मनिर्भर हो सके ।

वर्तमान समय में फसलों को सर्वाधिक हानि रोगों और कीटों से पहुँचती है, किन्तु जैव-प्रौद्योगिकी का प्रयोग कर इनसे मुक्ति पाना सम्भव है । जैव-प्रौद्योगिकी से फसलों की तापरोधी प्रजातियाँ विकसित की जा सकती हैं । यह प्रौद्योगिकी कटाई के पश्चात फसलों में होने वाली क्षति को रोकने में भी कारगर है ।

पत्तियों के कचरे व गोबर आदि से पोषण पाने वाले केंचुए से निर्मित बर्मीवॉश जैसे कीटनाशकों का प्रयोग करना खेतों के लिए अच्छा है ।  कार्बनिक खादी के प्रयोग को बढ़ावा देकर मिट्टी की उर्वरा शक्ति को कम होने से रोका जा सकता है । साथ-ही-साथ उत्पाद की गुणवत्ता और पौष्टिकता भी बचाई जा सकती है ।

ये पर्यावरण को स्वच्छ रखने में भी सहायक हैं । इस हरित क्रान्ति में मधुमक्खी पालन के साथ-साथ औषधीय पौधों की खेती करने हेतु भी किसानों को जागरूक करने की आवश्यकता है । आज देश के कृषकों को राष्ट्रीय कृषक आयोग के दिशा-निर्देशों का गम्भीरतापूर्वक पालन करने की आवश्यकता है ।  वैश्विक तापमान के उतार-चढ़ाव के अनुकूल उपयुक्त फसल चक्र अपनाया जाना भी अति आवश्यक है ।

खेती के क्षेत्र में सहकारिता को अपनाया जाना चाहिए, ताकि भूमि का अधिक-से-अधिक लाभ लिया जा सके । उचित परिवहन अनुकूल विपणन एवं समुचित भण्डारण की व्यवस्था करना भी कृषि क्षेत्र में विकास के लिए अत्यन्त अनिवार्य है । किसानों को अधिक-से-अधिक सुविधाएं देकर उनकी समस्याओं का निवारण करने पर विशेष जोर दिया जाना चाहिए ।

कृषकों को कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध कराए जाने से उनका मनोबल बढ़ता है, जिससे वे अधिक उत्पादन करने को प्रोत्साहित होते है ।  संयुक्त राज्य अमेरिका के विदेश मन्त्री श्री जॉन केरी का कहना है- ”आने बाले तीन दशकों में विश्व की जनसंख्या दो विलियन हो जाएगी । ऐसे में हरित क्रान्ति समय की माँग है ।”

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