भारत में क्षेत्रवाद और राष्ट्रीयता पर निबंध | Essay on Regionalism and Nationalism in India | Hindi.

भारत में राष्ट्र के लिए अखिल भारतीय चेतना के समक्ष इसकी विशाल संस्कृति के परस्पर कई खंडों में बंटी क्षेत्रीय संस्कृतियों की देश के रूप में व्याख्या करने की एक स्थापित परम्परा रही है । यहाँ के विविध भाषा-भाषी क्षेत्रों में संस्कृति के कई रंग इस बात की पुष्टि भी करते हैं ।

यहाँ तक कि साहित्य में मध्य देश, बंगदेश, कलिंग यह कार्य करते हैं । यह बात और है कि लगभग सर्वस्वीकृत रूप में मध्ययुगीन इतिहास के पहले पाटलिपुत्र तथा कन्नौज एवं मध्य युग में ‘दिल्ली’ हिमालय से रामेश्वरम्‌पर्यंत भारतभूमि की राजधानी मानी जाती रही है । यही भारत में राष्ट्रीय विविधता एवं क्षेत्रीयता के संतुलनकारी अंत:सम्बन्ध का नियामक रहा है ।

भारत में क्षेत्रीयता के इतिहास पर दृष्टि डालें तो यह प्राक मध्ययुगीन सामंतवादी शासन की विभाजित व्यवस्था तक चली जाती है । ब्रिटिश काल में बड़े ही सुनियोजित ढंग से इस क्षेत्रीयता को एकीकृत शासन में पृथकतावादी भावना से मजबूत बनाए रखा गया ।

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वस्तुतः भारत में ही नहीं संसार के अनेक भागों में ऐसा ही हुआ है । यूरोपीय जातियाँ पंद्रहवीं सोलहवीं और सत्रहवीं शती में जब संसार के विभिन्न भागों में पहुँचती तो उन्होंने अपने आधुनिक संसाधनों और कूटनीतिक दाँव-पेंचों के सहारे स्थानीय निवासियों को अपने अधीन कर लिया ।

तथापि शासन की प्रणाली कुछ इस ढंग की रखी कि औपनिवेशिक शासितों को कभी एकजुट होने की कोई संभावना नहीं छोड़ी जाती थी । औपनिवेशिक भारत में अठ्‌ठारहवीं और उन्नीसवीं शती के विद्रोह स्थानीय एवं क्षेत्रीय ही बने रहे क्योंकि इनके पीछे स्थानीय मुद्दे और समस्याएं ही कार्य कर रहीं थीं ।

ऐसा नहीं है, कि राष्ट्रीय संघर्ष के दौरान क्षेत्रीयता की अपनी भावना, विशेषकर भाषा एवं संस्कृति को राष्ट्रवाद के पक्ष में पूरी तरह बुला देने की ही त्यागवृत्ति जाग गयी हो । स्वाधीनता की लड़ाई के दौरान ही यह प्रश्न उठने लगा था कि स्वतंत्र भारत में विभिन्न भाषाभाषियों की स्थिति क्या होगी?

क्या उन्हें अपनी क्षेत्रीय संस्कृति की अस्मिता की रक्षा करने दी जायेगी और उनकी अपनी पहचान सुरक्षित रह सकेगी? उसी समय कांग्रेस ने यह वायदा किया था कि, स्वाधीनता के बाद देश के सभी राज्यों का ‘भाषा’ के आधार पर गठन किया जायेगा ।

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यही वह आधार था, जिसके तहत छठे दशक में ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ बनाया गया और उसकी सिफारिशों में कहीं-कही फेरबदल करके अधिसंख्य राज्यों का पुनर्गठन किया गया । यह कार्य किसी भी तरह से सफलतापूर्वक नहीं हुआ, बल्कि एक दशक तक चले इस पुनर्गठन-पुनर्निर्माण में कई संकटकारी दौर भी आए ।

विभाजन के पूर्व एक विभाजनकारी चेतना का सकट तो था, ही देश को उपराष्ट्रीयता और क्षेत्रीयता के तमाम सवालों से गुजरना पडा । भाषा, क्षेत्रीय वैशिष्ट्य और प्रशासनिक फेरबदल के प्रयत्न तो ऊपरी थे. महत्वपूर्ण था सिमटती राजनैतिक प्रतिबद्धता को रोकना ।

आंध्र प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों के गठन की बात छोड़ दे तो पूर्वोत्तर भारत के अनेक राज्य नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम आदि का अस्तित्व एक बड़ी राष्ट्रीय प्रसव वेदना का परिणाम था । अभी कुछ समय पूर्व बिहार से कटकर झारखण्ड मध्य प्रदेश से कटकर छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश से कटकर उत्तराचल के राज्य बने तथा अन्य अनेक राज्यों के बनने की चर्चा भी चल रही है ।

क्षेत्रीयता के सवाल से सभी ओर पहवान का संकट है । अनेक क्षेत्रीय, भाषाई, धार्मिक और नस्लीय वर्गों को यह भय सताता रहता है कि कुछ समुदाय जनसंख्या बल, आर्थिक शक्ति, राजनैतिक प्रभुता या अपनी पंथिक आक्रामकता से उनकी अलग पहचान को लुप्त कर देंगे ।

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भारत में क्षेत्रीयता की उभरती नवीन प्रवृत्ति, विशेष रूप से आठवें दशक के उत्तरार्द्ध एवं नव दशक की राजनैतिक और आर्थिक प्रवृत्तियों की उपज है । स्थायित्व भरे राजनैतिक परिदृश्य में स्थानीय आवश्यकताओं की अनदेखी और तीन से पाँच प्रतिशत के बीच की विकास दर ने क्षेत्रीयता को और विसगतिपूर्ण तथा और प्रासंगिक बना दिया ।

आर्थिक विसगति ने ही पूरे देश में देशव्यापी आप्रवासन को बढावा दिया । इससे आर्थिक रूप से सम्पन्न कुछ क्षेत्रों तथा संभावना वाले क्षेत्रों पर प्रवासी जनसंख्या का दबाव बढता चला गया । इस नजरिए की पुष्टि इसी तथ्य से होती है कि भारत में अपनी पहचान के लिए सबसे बड़ा सकट असम के सम्मुख रहा है, शायद इतना किसी अन्य प्रदेश को नहीं रहा ।

लम्बे समय तक इस प्रदेश पर बंगाल का प्रभाव रहा । बड़ी मात्रा में बाला-भाषी वहाँ गए। अस्सी और नब्बे के दशक में असम में बाग्लादेशियों की जितनी घुसा, हुई उतनी कहीं और नहीं देखी गई । इसके बाद असम के चाय के बागानों, कोयला खदानने, रेलवे, प्लाईबुड बनाने वाली फैक्टरियों तेल उद्योग, ईंट बनाने वाले भट्ठों तथा अन्य अनेक उद्योगों में काम करने वाले हिन्दी-भाषी मजदूर बड़ी संख्या में यहाँ आए ।

असमी भाषियों की यह शंका निर्मूल नहीं थी कि, वे कुछ समय बाद अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक हो जायेंगे । इस संदर्भ में त्रिपुरा जैसे राज्य का उदाहरण सामने है । त्रिपुरावासियों की एक जायज शिकायत है कि बांग्लाभाषी लोग इतनी बड़ी संख्या में यहाँ आकर बस गए हैं कि । अब त्रिपुरा एक तरह से बंगाल हो गया है ।

जनगणना और क्षेत्रीय असंतुलन से उत्पन्न ऐसी समस्याएं देश के अन्य भागों में भी होती रही हैं । चार दशक पहले महाराष्ट्र विशेष रूप से मुम्बई में जब बाल ठाकरे के नेतृत्व में ‘शिवसेना’ का उदय हुआ, तो उनके अभियान का निशाना मुम्बई में बसने वाले दक्षिण भारतीयों के विरुद्ध था ।

ठाकरे को यह लगने लगा था, कि मराठी अस्मिता और मराठी पहचान के लिए एक गहरा सकट उत्पन्न होने लगा है । उत्तर भारतीयों के प्रति भी उनका आक्रोश समय-समय पर इसी प्रकार उभर आता था । हाल ही में बाल ठाकरे ने अपने एक वक्तव्य में बडी आक्रामक भाषा में चेतावनी दी है कि महाराष्ट्र में रहना है तो अनिवार्यतः मराठी सीखनी और बोलनी पड़ेगी ।

पंजाब में भी एक सुगबुगाहट प्रायः सुनाई देती है, क्योंकि उत्तर प्रदेश और बिहार से पंजाब आने वालों की संख्या निरंतर बढी है । वहाँ यह आशंका घर करने लगी है, कि यदि यही सिलसिला बना रहा तो पंजाब में जनसंख्या का संतुलन ही बिगड़ जायेगा और वह हिन्दी-भाषी प्रदेश बन जायेगा ।

दिल्ली जैसे अन्य बड़े शहरों में बिहार और उत्तर प्रदेश की एक बड़ी जनसंख्या के पलायन से यह बात लगभग साबित भी होने लगी है । अपनी भाषा और क्षेत्र की निजता स्थिर रखने और राज्य के बाहर के लोगों के प्रभुत्व से उसे बचाए रखने के लिए अनेक राज्यों ने कई प्रतिबंधात्मक उपाय तक कर रखे हैं ।

इसके मूल में काफी हद तक राजनैतिक लाभ की आकांक्षा ही झलकती है । जम्मू-कश्मीर में किसी अन्य प्रदेश के नागरिक को न तो नागरिकता मिल सकती है, न ही वहाँ कोई अचल सम्पत्ति ही खरीद सकता है । हिमाचल प्रदेश म भी कोई गैर हिमाचली सम्पत्ति नहीं खरीद सकता ।

ऐसे ही कुछ प्रतिबंध नागालैंड, गोवा पूर्वोत्तर क्षेत्र की जनजातियों के लिए हैं । यदि असम में या मुम्बई में अथवा जम्मू-कश्मीर में हिन्दी-भाषियों पर इसलिए संकट आता है, कि वे बिहार या अन्य राज्यों से आए हुए हैं, तो उसकी प्रतिक्रिया में बिहार में अन्य राज्यों में असम या जम्मू-कश्मीर के लोग कठिनाई का सामना कर सकते हैं ।

असम सरकार ने इस आशंका को महसूस करते हुए बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल में बसने वाले असमिया लोगों की सुरक्षा के लिए केन्द्र सरकार से विशेष याचना की है । वर्ष 2003 में उत्तर-पूर्व में रेलवे में आरक्षण के प्रश्न पर स्थानीय एवं बाहरी लोगों के बीच तनाव उत्पन्न हो गया था । इस समय प्रतिक्रिया स्वरूप बिहार के अनेक रेलवे स्टेशनों पर असम के यात्रियों के साथ दुर्व्यवहार हुआ था । मुम्बई में तो गत चार दशकों से गैर हिन्दी-भाषियों के सिर पर तलवार लटकती रही है ।

भारत में इस क्षेत्रीयता के विकराल होते स्वरूप के राजनैतिक समाधान के प्रयास भी होते रहे हैं । ‘क्षेत्रीय परिषदों’ के गठन का आधार भले ही आर्थिक विकास का योजनागत प्रयास रहा हो, पर इसके द्वारा दोहरे लाभ की आशा की जाती रही है । क्षेत्रीय परिषदों ने परस्पर सम्पर्क और साझा आर्थिक-सामाजिक परियोजनाओं से एक यूनिट के रूप में कार्य किया है ।

यही कारण है, कि आर्थिक मसले पर भले ही कोई बड़ी संतुलनकारी प्रगति न दिखी हो; पर मीडिया सम्पर्क और यातायात तथा संचार ने क्षेत्रवादी चेतना को अखिल भारतीय भावना से जोड़ जरूर दिया है । कई मामलों में क्षेत्रीय दलों के सहयोग वाली साझा सरकारी के प्रयोग ने भी क्षेत्रीय भावना को तुष्ट किया है तथा अस्मिता को नए ढंग से परिभाषित किया है ।

उदारीकरण एवं उत्तर-आधुनिक दौर में आज जब राष्ट्रीयता की प्रश्नावली निरर्थक घोषित की जा रही है, वास्तव में क्षेत्रीयता, राष्ट्रवाद की छत्रछाया में ही प्रासंगिक रूप से व्याख्यायित की जा सकती है, अन्यथा तमाम लोकतांत्रिक देशों में विघटनकारी प्रवृत्तियों का उभार एवं पूरी शासन व्यवस्था का अर्थ केन्द्रित होते जाना, क्षेत्रवाद और राष्ट्रवाद, दोनों की सटीक भविष्यवाणी करने वाला होगा । वस्तुतः अस्मिता और पहचान की वर्तमान दुविधा पर राष्ट्रीय स्तर पर विचार होना चाहिए और आवश्यक हो तो इस संबंध में कुछ नीति भी बनाई जानी चाहिए ।

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