भारत छोड़ो आंदोलन पर निबंध | Essay on Quit India Movement

1934 के आसपास सविनय अवज्ञा आंदोलन की समाप्ति के बाद कांग्रेस के अंदर गंभीर मतभेद पैदा हो गए, जैसे इससे पहले असहयोग आंदोलन की वापसी के बाद हुए थे ।

जहाँ गांधी सक्रिय राजनीति से कुछ समय के लिए अलग हो गए, वहीं समाजवादी और दूसरे वामपंथी तत्त्वों ने मई 1934 में कांग्रेस समाजवादी पार्टी (कांसपा) का गठन किया; इनमें सबसे प्रमुख जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता, युसुफ मेहर अली, नरेंद्र देव और मीनू मसानी थे ।

समाजवाद से सहानुभूति होने के बावजूद औपचारिक रूप से नेहरू कभी इस दल में शामिल नहीं हुए, जिसकी ”विचारधारा” में सुमित सरकार के शब्दों में ”अस्पष्ट और घालमेल उग्र राष्ट्रवाद से लेकर मार्क्सवादी वैज्ञानिक समाजवाद की खासी जोरदार पैरवी तक” के तत्त्व शामिल थे ।

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तय हुआ कि कांसपा, जिसने संयुक्त  प्रांत जैसे प्रांतों में काफ़ी जोर पकड़ा, कांग्रेस के भीतर रहकर ही काम करेगी, उसके रुझान को एक समाजवादी कार्यक्रम की ओर मोड़ने की और रूढ़िवादी ”दक्षिणपंथियों” के प्रभुत्व को कम करने के प्रयास करेगी । लेकिन कांग्रेस का अंदरूनी विभाजन जल्द ही दो मुद्दों पर केंद्रित हो गया: विधायिकाओं में प्रवेश और पदों के स्वीकार पर ।

यह टकराव काफी तेज हो गया, पर 1936 की लखनऊ कांग्रेस में किसी तरह इसे टाल दिया गया । यहाँ राजेंद्र प्रसाद और वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में और गांधी के आशीर्वाद से प्रतिनिधियों के बहुमत ने इस राय को स्वीकार किया कि 1935 के कानून के अंतर्गत होने वाले चुनावों में भागीदारी और फिर प्रांतों में पद स्वीकार करने पर कांग्रेस के गिरते मनोबल को ऐसे समय में सहारा मिलेगा, जब सीधी कार्रवाई का विकल्प सामने नहीं था ।

अगस्त 1936 में बंबई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी (ए.आई. सी. सी.) की बैठक (अगस्त 1936) ने चुनावों में भाग लेने का फैसला किया मगर पद स्वीकार करने संबंधी निर्णय चुनावों के बाद तक के लिए टाल दिया गया ।

1937 के चुनावों के परिणाम, जिनमें दक्षिणपंथी और वामपंथियों ने संयुक्त रूप से प्रचार किया, कांग्रेस के लिए बहुत सुखद रहे और उसके बाद मार्च में ए. आई. सी. सी. ने नेहरू और कांसपा नेताओं की आपत्तियों को रद्द करके पद स्वीकार करने का निर्णय कर लिया ।

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अपने समझौते के उल्लेखनीय पक्ष को अपनाते हुए गांधी ने इस निर्णय का अनुमोदन किया, लेकिन विधायिकाओं से बाहर अहिंसा और रचनात्मक कार्यक्रम में अपनी आस्था व्यक्त की । नहरू का विरोध इस तर्क पर आधारित था कि प्रांतीय सरकारें चलाने पर कांग्रेस को ”साम्राज्यिक ढाँचे का कार्यक्रम जारी रखने” का जिम्मेदार ठहराया जाएगा और इस तरह वह उसी जनता के साथ छल करेगी, जिसके ”भारी मनोबल” को कांग्रेस ने कभी  स्वयं उभारा था । कुछ ही सालों के अंदर उनकी (नेहरू की) बात सही साबित होने वाली थी !

कांग्रेस ने उन नए मतदाताओं को संबोधित करके 1937 के चुनाव जीते, जिनमें कुछ औद्योगिक मजदूर और किसान शामिल थे और कुछ दलित भी शामिल थे । लेकिन अगले दो वर्षो में कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के कामकाज ने इन सभी समूहों का मोहभंग किया ।

कुछेक जातिगत निर्योग्यताओं की समाप्ति और मंदिर-प्रवेश के विधेयकों से दलित और उनके नेतागण किस तरह अप्रभावित रहे; ये विधेयक कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के सांकेतिक विधायी कार्यक्रम थे और इन्होंने रस्मी कार्रवाइयों से अधिक कुछ भी नहीं किया ।

कांग्रेस की जीत ने किस तरह औद्योगिक मजदूर वर्ग की आशाओं और आकांक्षाओं को जगाया और इसके कारण बंबई, गुजरात, संयुक्त प्रांत, और बंगाल में ऐसे समय में मजदूरों के जुझारूपन और औद्योगिक असंतोष में वृद्धि हुई, जब कांग्रेस भारतीय पूँजीपतियों के साथ निर्णायक ढंग से और भी घनिष्ठ होती जा रही थी ।

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इसके कारण कांग्रेस के रवैये में एक स्पष्ट मजदूर विरोधी परिवर्तन आया, जिसका साकार रूप बंबई में 1938 का औद्योगिक विवाद कानून (बॉम्बे ट्रेड्स डिस्प्यूटेस ऐक्ट) था । उतने ही महत्त्वपूर्ण थे किसान मोर्चे के विकासक्रम, जहाँ कांग्रेस ने चुनाव जीतने के लिए किसानों के बढ़ते जुझारूपन का उपयोग किया था, मगर बाद में उसे उन किसान मतदाताओं की आशाओं पर पूरी तरह खरा उतरना कठिन लगने लगा, जो मौजूदा खेतिहर संबंधों में कुछ अतिवादी परिवर्तनों की आशा कर रहे थे ।

बिहार में किसान सभा का आंदोलन स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में शुरू हुआ, जिन्होंने किसानों को उनके दखली अधिकारों पर जमींदारों के हमलों के विरुद्ध लामबंद करने के लिए 1929 में बिहार प्रांतीय किसान सभा का गठन किया था ।

स्वामी सहजानंद की ही बात मानें तो आरंभ में सभा का उद्देश्य वर्गीय सामंजस्य को बढ़ावा देना था, ताकि जमींदारों और असामियों का बढ़ता टकराव व्यापक राष्ट्रवादी मोर्चे को हानि न पहुँचाए । लेकिन जब 1933 में उसका (सभा का) पुनरूत्थान हुआ तो वह समाजवादियों के प्रभाव में अधिकाधिक आती गई, यहाँ तक कि 1935 में उसने जमींदारी के उन्मूलन को अपने कार्यक्रम में शामिल कर लिया ।

इस समय तक सभा की सदस्यता बढ़कर 33,000 हो चुकी थी । यह बात भी याद रखनी होगी कि इस किसान आंदोलन ने किसानों का एक व्यापक मोर्चा बनाने की कोशिश की । हालांकि उसे नेतृत्व और मुख्य जनाधार धनी दखलदार असामियों से मिला, पर उसमें मंझोले और गरीब किसानों की भी काफी भागीदारी रही ।

लगभग उन्हीं दिनों कांसपा नेता एन. जी. रंगा के नेतृत्व में मध्य आंध्र के जिलों में भी किसान सभा के आंदोलन ने जोर पकडा । उन्होंने 1933-34 में अनेक किसान मोर्चो का आयोजन किया और 1933 में एल्लोर के जमींदारी रैयत सम्मेलन में उनके नेतृत्व में जमींदारी के उन्मूलन की माँग उठाई गई ।

1935 में रंगा और ई. एम. एस. नंबूदरीपाद ने मद्रास प्रेसीडेंसी के दूसरे भाषायी क्षेत्रों में भी किसान आंदोलन को फैलाने की कोशिश की, एक दक्षिण भारतीय किसान-खेत मजदूर संघ का गठन किया और एक अखिल भारतीय किसान संगठन की चर्चा शुरू की ।

पड़ोस के उड़ीसा प्रांत में भी, जिसे नई संवैधानिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत 1936 में गठित किया गया था, औपचारिक रूप से 1935 में ही उत्कल किसान संघ का गठन कांग्रेस समाजवादियों के नेतृत्व में हो चुका था, जो कटक, पुरी और बालासोर जैसे तटवर्ती जिलों में कुछ अतिवादी माँगों पर जुझारू किसान आंदोलनों का संगठन कर रहे थे ।

इसके पहले ही सम्मेलन के एक प्रस्ताव में जमींदारी के उन्मूलन को अपने कार्यक्रम में शामिल किया गया था । किसान मोर्चे पर इन सभी उग्र विकासक्रमों का चरमोत्कर्ष अप्रैल 1936 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के समय अखिल भारतीय किसान सभा का गठन था, और स्वामी सहजानंद सरस्वती उसके पहले अध्यक्ष चुने गए ।

अगस्त में पारित किसान घोषणापत्र में कुछ उग्र माँगे शामिल थीं, जैसे जमींदारी का उन्मूलन, खेतिहर आमदनी पर आरोही आयकर, सभी असामियों के लिए दखलदारी के अधिकार तथा व्याजदरों और ऋणों में    कमी ।

अनेक कांसपा नेता और 1935 में एक ”संयुक्त मोर्चा” की रणनीति अपनाने के बारे में कोमिनटर्न के फैसले के बाद साम्यवादियों ने भी किसान सभा की सदस्यता ली; संयुक्त प्रांत, बिहार और उड़ीसा जैसे जिन प्रांतों में आंदोलन पहले से मौजूद था, वहाँ उसे मजबूत बनाने में मदद दी; और अन्य प्रांतों में भी आंदोलन को फैलाने में मदद दी, जैसे बंगाल में, जहाँ एक प्रांतीय किसान सभा का गठन मार्च 1937 में हुआ ।

अपने कांसपाई सदस्यों के ही कारण किसान सभा कांग्रेस की अंग बनी रही और प्रांतीय कांग्रेस समितियों से उसके गहरे संबंध बने रहे । कांग्रेस के समाजवादी सदस्यों ने उसे भी अधिक उग्र बनाया; दिसंबर 1936 में फैज़पुर अधिवेशन में कांग्रेस ने आखिरकार एक खेतिहर कार्यक्रम स्वीकार किया । रजवाड़ों में भी लोकतांत्रिक और सामंत विरोधी आंदोलनों की दिशा में एक स्पष्ट परिवर्तन आया ।

ऑल इंडिया स्टेट्‌स पीपुल्स कॉन्फ्रेंस का गठन तो देशी रजवाड़ों में राष्ट्रवादी आंदोलन के समन्वय के लिए 1927 में ही हो चुका था, परंतु अभी तक कांग्रेस उसके प्रति उपेक्षा का रवैया ही अपनाती आ रही थी । 1934 में तो बंबई कांग्रेस ने खास तौर पर रजवाड़ों में अहस्तक्षेप की नीति अपनाने का प्रस्ताव पारित किया था ।

लेकिन यह स्थिति 1936 से बदलने लगी, जब नेहरू ने इस सगंठन के पाँचवें सत्र में भाग लिया और जन-आंदोलन की आवश्यकता पर बल दिया । ए. आई. सी. सी. ने अक्तूबर 1937 में रजवाड़ों के जन-आंदोलन को नैतिक और भौतिक समर्थन देने का निर्णय किया ।

पर गांधी अभी भी सावधानी बरत रहे थे; वे इस परिवर्तन को पसंद नहीं करते थे और चाहते थे कि हरिपुरा का आगामी कांग्रेस अधिवेशन इस नीति की समीक्षा करे । स्पष्ट है कि कांग्रेस के अंदर ”वामपंथ” का यह उभार वल्लभभाई पटैल, भूलाभाई देसाई, सी. राजगोपालाचारी और, राजेंद्र प्रसाद जैसे ”दक्षिणपंथियों” को पसंद नहीं था, जो अतिवादी आंदोलन की नीति पर अभी भी संवैधानिक राजनीति को प्राथमिकता देते थे, और न प्रतिबद्ध गांधीवादियों को पसंद था, जो रचनात्मक कार्यक्रम में विश्वास रखते थे ।

लेकिन चुनाव करीब आ रहे थे इसलिए प्रांतीय किसान सभाओं ने जो सांगठनिक आधार तैयार किए थे, उनकी वे शायद ही उपेक्षा कर सकते थे; कुछ प्रांतों में वामपंथी दबाव के अंतर्गत उन्होंने अपने चुनाव घोषणापत्र में जमींदारी के उन्मूलन को शामिल करने की हामी भरी ।

1937 के चुनावों में समाजवादी और दक्षिणपंथी नेता मिलकर काम करते रहे और उनको कांग्रेस की शानदार जीतों का लाभ मिला, जो कुछ प्रांतों में तो एकदम अप्रत्याशित थीं । इसलिए जुलाई 1937 के बाद जब कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने आठ प्रांतों में शासन संभाला, तो ग्रामीण जनता ने उसका स्वागत ऐसे मुक्तिदायी अनुभव के रूप में किया, जिसकी विशेषता एक वैकल्पिक सत्ता की स्थापना थी ।

लेकिन मंत्रिमंडलों के गठन ने जहाँ बड़ी आशाएँ जगाई और किसानो को और भी जुझारू बनाया, वहीं सत्ता में दक्षिणपंथी वापस आ गए और उन्होंने कांग्रेम की समाजवादियों के चंगुल से छुड़ाने की कोशिश शुरू कर दी ।

बिहार में किसान सभा बकाश्त जमीन के सवाल पर एक शक्तिशाली किसान आंदोलन खड़ा कर रही थी; वहाँ स्थायी दखलदारियों को हाल के वर्षो में अल्पकालिक दखलदारियों मे बदल दिया गया था । वहाँ कांग्रेस के रूढ़िवादी नेतृत्व ने जमींदारों के साथ नए सिरे से गठजोड़ और उनसे औपचारिक ”समझौते” किए ।

कांग्रेस के प्रस्तावित दखलदारी कानूनों में जब जमींदारों के दबाव के कारण काफी समझौता किया गया तब किसान अप्रभावित रहे और उन्होंने बकाश्त जमीनों की बहाली के लिए 1938-39 में किसान सभा के नेतृत्व में एक जुझारू आंदोलन चलाया ।

बिहार के एक बड़े भाग में फैलने वाला यह आंदोलन गया, जिले के रेवड़ा और मांझियावाँ इलाकों में, शाहाबाद के छपरा इलाके में, मुंगेर के बड़हिया ताल में और कोसी दियारा क्षेत्र के संथाल बटाईदारों में सबसे मजबूत रहा ।

भागीदारी ने वर्ग और जाति की सीमाएँ तोड़ दीं तथा धनी भूमिहार और राजपूत किसानों के साथ दलित और गरीब भूमिहीन मजदूरों को भी खींचा । अपने बुनियादी वैचारिक रुझान में यह आंदोलन, जैसा कि स्टीफेन हेनिंघम का दावा है, ”सुधारवादी” था, क्योंकि इसने जमींदारी प्रथा के लिए कोई खतरा पैदा नहीं किया, बल्कि कुछ पहले से मौजूद अधिकारों की बहाली की कोशिश की और किसी अतिवादी कार्रवाई का सहारा नहीं लिया, जैसे लगानबंदी का या कर्जों की अदायगी पर रोक का ।

लेकिन जनता के स्तर पर इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि ग्रामीण बिहार के किसान जमींदारों की सत्ता को सफलता के साथ चुनौती दे रहे थे । इसलिए बौखलाए हुए जमीदारों ने कांग्रेस सरकार पर दबाव डाला कि वह बलप्रयोग का सहारा ले; जमींदारों के लठैतों और पुलिस  के दमन साथ-साथ जारी रहे और धीरे-धीरे आंदोलन का समापन हो गया ।

अब बिहार कांग्रेस अपने को किसान सभा से दूर रखने के प्रयास करने लगी और अपने सदस्यों को इसके साथ जुड़ने से मना कर दिया । संयुक्त प्रांत में भी कांग्रेसी मंत्रिमंडल से किसान सभा के कार्यकर्ताओं का मोहभंग हुआ; उस सरकार ने 1938 के उस दखलदारी कानून की धार को काफी  कुंद कर दिया, जिससे आरंभ में लगानों में आधे की कमी की आशा की गई थी ।

प्रांतीय किसान सभा के नरेंद्र देव और मोहनलाल गौतम जैसे नेताओं ने मंत्रिमंडल के विरुद्ध किसानों के प्रदर्शन कराए, लेकिन ऐसे प्रतिरोध नेहरू के प्रभाव के कारण सीमाबद्ध और इक्के-दुक्के ही रहे । उड़ीसा के किसान नेता भी उस समय कुंठित हो गए, जब कांग्रेसी मंत्रिमंडल ने प्रस्तावित दखलदारी कानून में जमींदार समर्थक संशोधन कर दिए और इस संशोधित कानून को भी गवर्नर ने तब तक रोके रखा, जब तक किसानों ने 1 सितंबर, 1938 को एक विशाल कृषक दिवस रैली नहीं की ।

पड़ोस के नीलगिरि, धेनकनाल और तलचर जैसे रजवाड़ों में जहाँ स्थानीय प्रजामंडलों ने किसान आंदोलन खड़े किए थे, ब्रिटिश रेजिडेंट के सक्रिय संरक्षण में राजाओं (दरबार) द्वारा अनियंत्रित दमन का सहारा लिया गया । परंतु उड़ीसा कांग्रेस अहस्तक्षेप की पुरानी नीति पर चलती हुई इसे चुपचाप देखती रही ।

उस समय तक कांग्रेस पर दक्षिणपंथियों का पूरा नियंत्रण हो चुका था और किसान सभाओं के खिलाफ उनका रोष बढ रहा था । अक्तूबर 1937 में किसान सभा ने आधिकारिक रूप से लाल झंडे को अपना लिया । 1938 में उसने अपने वार्षिक सम्मेलन में वर्ग-सहयोग के गांधीवादी सिद्धांत की भर्त्सना की और घोषणा की कि खेतिहर क्रांति उसका परम लक्ष्य है ।

फरवरी 1938 में हरिपुरा अधिवेशन ने एक प्रस्ताव द्वारा कांग्रेसियों के किसान सभाओं के सदस्य बनने पर रोक लगा दी, पर उसका क्रियान्वयन प्रांतीय शाखाओं पर छोड़ दिया गया । एक और महत्वपूर्ण क्षेत्र जहाँ कांग्रेसी नेतृत्व की सुविधाएं बहुत स्पष्ट होती जा रही थीं, वे थे भारतीय रजवाड़े । 1920  और 1930 के दशकों के दौरान कांग्रेस रजवाड़ों के मामलों में हस्तक्षेप करने से कतराती रही और प्रजा पर राजाओं के परंपरागत अधिकारों को मान्यता देती रही ।

रजवाड़ों की जनता ने स्वयं को प्रजामंडलों में संगठित किया, संवैधानिक परिवर्तनों और लोकतंत्रीकरण की मामूली माँगे उठाती रही और बाद में ऑल इंडिया स्टेट्‌स पीपुल्स कॉन्फ्रेंस नामक एक अखिल भारतीय संगठन से स्वयं को जोड़ लिया, जिसका गठन 1927 में हुआ था ।

हालांकि ये रजवाड़े ब्रिटिश भारत की राजनीतिक लहरों से कभी पूरी तरह अप्रभावित नहीं रहे, परंतु राजे-महाराजे अपने उपनिवेशी संरक्षकों के प्रति निष्ठावान बने रहे और राष्ट्रीय आंदोलन को दूर ही रखने की कोशिश करते रहे ।

इसलिए 1930 के दशक के उत्तरार्द्ध में नेहरू और बोस जैसे कांग्रेसी वामपंथी नेता रजवाड़ों को ब्रिटिश भारत के राजनीतिक घटनाक्रमों से जोड़ने के लिए उनमें अधिक हस्तक्षेप की वांछनीयता पर अधिक जोर देने लगे । जैसा कि इयान कॉपलैंड (1999) का अनुमान है, अब दक्षिणपंथी भी संभवत: प्रस्तावित संघीय केंद्र में सत्ता में आने के सपने देखने लगे थे और इसके लिए चाहते थे कि राजे-महाराजे उन लोगों में से अपने प्रतिनिधि मनोनीत करें जो प्रजामंडलों के करीव थे ।

विचारों और महत्त्वाकांक्षाओं के ऐसे संगम के कारण 1938 की हरिपुरा कांग्रेस में एक महत्त्वपूर्ण नीतिगत परिवर्तन आया, जब रजवाड़ों के जन-आंदोलनों को समर्थन देने संबंधी एक प्रस्ताव पारित किया गया । हालांकि उनको कोई सांगठनिक सहायता तो नहीं दी जाती पर कांग्रेस कार्यकारी समिति की एक विशेष उप-समिति के नेतृत्व में नेतागण व्यक्तिगत रूप से उनमें भाग ले सकते थे ।

फरवरी 1939 में नेहरू ने इस कॉन्फ्रेंस की अध्यक्षता स्वीकार की और त्रिपुरी कांग्रेस ने संयुक्त कार्रवाई की योजना का अनुमोदन किया । इस विकासमान स्थिति के फलस्वरूप 1938 के  अंत  और 1939 के आरंभ में अनेक रजवाड़ों में जन-आंदोलनों का अभूतपूर्व उभार हुआ; इनका नेतृत्व स्थानीय प्रमंडलों, कांग्रेस की गुप्त शाखाओं और ब्रिटिश भारत के बाहरी राजनीतिक नेताओं द्वारा किया जा रहा था ।

मैसूर, जयपुर, राजकोट, त्रावणकार, कश्मीर और हैदराबाद में महत्त्वपूर्ण आंदोलन चले; राजकोट में स्वयं गांधी ने एक अग्रणी भूमिका निभाई । जहाँ मैसूर और राजकोट जैसे कुछ रजवाड़ों ने कुछ अधिक समझौते का रुख अपनाया और कुछ सांकेतिक रियायतें दीं वहीं बड़े रजवाड़ों ने दबाव का जमकर विरोध किया और देर से ही सही, उनको अंग्रेज अधिकारियों की सहायता मिली ।

टकराव की ऐसी कतारबंदी के कारण शांतिपूर्ण प्रदर्शन जल्द ही अनेक हिंसक कार्यो में और आगे चलकर दक्षिण दकन में सांप्रदायिक दंगों में परिणत हो गए, जिसके कारण विवश होकर गांधी ने अप्रैल 1939 में यह आंदोलन वापस ले लिया । शरद ऋतु के आगमन तक स्थिति फिर सामान्य हो गई ।

इस आकस्मिक उभार का सबसे बड़ा राजनीतिक परिणाम यह हुआ कि 1935 के कानून में प्रस्तावित संघ के विचार के प्रति रजवाड़ों का विरोध और कठोर हो गया । दूसरे छोर पर संघ का मुद्दा कांग्रेस के पुराने नेताओं और उनके वामपंथी आलोचकों के बीच एक बड़े टकराव का कारण बन गया और मार्च 1938 के हरिपुरा अधिवेशन से लेकर अगले मार्च के त्रिपुरी अधिवेशन तक के काल में यह टकराव अपने चरम पर जा पहुँचा ।

इसका मुख्य कारण था कांग्रेस अध्यक्ष सुभाषचंद्र बोस का पुनर्निर्वाचन, जिनके उग्र संघ विरोधी रुख ने रूढ़िवादियों को रूष्ट कर रखा था । बोस ने गांधी की इच्छा के विरुद्ध जाकर चुनाव लड़ा और गांधी के अपने उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया को हराकर अध्यक्ष का चुनाव जीता ।

जैसा कि बी. आर. टॉमलिंसन का कथन है, यह चुनाव ”वैचारिक मुद्दों पर ”दक्षिण”  बनाम ”वाम”, ”संघ-समर्थन”  बनाम ”संघ-विरोध” ”मंत्रिमंडल-समर्थन”  बनाम ”मंत्रिमंडल-विरोध” पर-लड़ा गया था ।” गांधी ने इसे अपनी हार माना और कार्यकारी समिति के 15  में से 12 सदस्यों ने फौरन इस्तीफा दे दिया ।

त्रिपुरा कांग्रेस में खुला टकराव हुआ था, जहाँ बोस के इस आरोप की आलोचना करते हुए एक प्रस्ताव पारित हुआ कि गांधीवादी संघ के सवाल पर बिक जाएंगे । गांधी ने उनसे अपनी कार्यकारी समिति बनाने को कहा और हर तरह से सहयोग करने से इनकार कर दिया । बोस ने एक समझौते की कोशिश की, पर असफल रहे ।

आखिरकार अप्रैल 1939 में ए. आई. सी. सी. की कलकत्ता बैठक में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया और तुरंत उनकी जगह राजेंद्र प्रसाद ने ले ली । बोस ने फिर कांग्रेस के ही अंदर अपनी वामपंथी पार्टी फारवर्ड ब्लॉक बनाई, पर बंगाल प्रांत से बाहर उसे कोई समर्थन नहीं मिला ।

जब उन्होंने प्रांतीय कांग्रेस समितियों की अग्रिम अनुमति के बिना कांग्रेस वालों के सविनय अवज्ञा में भाग लेने पर रोक लगाने के बारे में ए. आई. सी. सी. के फैसले का विरोध किया, तो गांधी के इशारे पर कार्यकारी समिति ने उनको अनुशासनहीनता का दंड दिया; उनको अगस्त 1939 में कांग्रेस के सभी पदों से, और खासकर बंगाल कांग्रेस कमिटी की अध्यक्षता से, हटा दिया गया और तीन साल तक उनके कोई कार्यकारी पद ग्रहण करने पर रोक लगा दी गई ।

आगे चलकर गांधी ने जनवरी 1940 में चार्ल्स ए.फ. एंड्रच्यूज़ के नाम एक पत्र में सुभाष को ”मेरा बेटा” कहा पर ”परिवार का एक बिगड़ैल बच्चा” भी बतलाया, जिसको उसके भले के लिए ही एक सबक सिखाना जरूरी था । लेकिन बोस के इस लगभग निष्कासन का अर्थ यह नहीं था कि कांग्रेस बिखर जाती हालांकि यह निश्चित रूप से दक्षिणपंथियों द्वारा अपनी हस्ती फिर से जताए जाने का सूचक था ।

कांग्रेस के अंदर समाजवादी कमजोर हुए, पर पूरी तरह निकाले नहीं जा सके । इस चरण में हालांकि कुछ सदस्यों ने स्वतंत्रता को स्पष्टतया प्राथमिकता दी, पर अखिल भारनीय किसान सभा कांग्रेस की ही अंग बनी रही । लेकिन उसके सदस्यों ने जनता में कभी जिन आकांक्षाओं और जिस जुझारूपन का संचार किया था, उन पर कांग्रेसी मंत्रिमंडलो की रूढ़िवादी नीतियों के कारण ओस पड़ गई ।

कांग्रेस अपनी लोकप्रियता खोने लगी, जिसका संकेत उसकी सदस्यता में भारी गिरावट से- 1938-39 में 45 लाख के मुकाबले 1940-41 में 14 लाख से मिलता है । जनता में कुंठा की इसी भावना ने और साथ में एक बढ़ती उग्र मन:स्थिति ने भारत में 1942 में जन-आंदोलन के अगले दौर के लिए परिस्थिति तैयार की ।

सितंबर 1939 में दूसरे विश्वयुद्ध के आरंभ ने भारतीय राजनीति में नए तत्त्वों को जन्म दिया । इस युद्ध ने अंग्रेजों की नीतियों में भी परिवर्तन लाए और कांग्रेस की रणनीतियों में भी । वायसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने भारतीय जनमत से सलाह-मशविरा किए बिना भारत को जर्मनी के विरुद्ध इंगलैंड की युद्ध-घोषणा से जोड़ दिया ।

कांग्रेस कार्यकारी समिति ने स्पष्ट कर दिया कि वह युद्ध-प्रयासों का समर्थन तभी करेगी, जब अंग्रेज दो बुनियादी मुद्दों पर कुछ रियायतें दें: युद्ध के बाद स्वतंत्रता देने के संकल्प पर और केंद्र में तुरंत एक राष्ट्रीय सरकार के गठन पर ।

लेकिन लिनलिथगो ने 14 अक्तूबर को जो प्रस्ताव किया, वह इस माँग से बहुत कम था । विरोध में 29  और 30 अक्तूबर 1939 को कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने त्यागपत्र दे दिए । जिन्ना और मुस्लिम लीग ने इसे ”मुक्ति दिवस” के रूप में मनाया; दलित नेता अंबेडकर ने उनका समर्थन किया और ब्रिटेन की सरकार ने इस दरार से लाभ उठाने की बात सोची ।

इस चरण में युद्ध भारत की सीमाओं से अभी भी बहुत दूर था; फिर भी कई कांग्रेसी नेता फासीवाद के विरोध के सवाल पर सजग थे और इसलिए अंग्रेजों के युद्ध-प्रयासों का समर्थन करने के लिए तैयार थे, बशर्ते कुछ संवैधानिक रियायतों का वादा किया जाता । लेकिन लंदन की सरकार ऐसे किसी प्रस्ताव के लिए तैयार न थी, जो संवैधानिक प्रश्नों पर युद्ध के बाद किसी भी वार्ता में उसके हाथ बाँध देती ।

इसलिए लिनलिथगो की अगस्त 1940 के प्रस्ताव भी कांग्रेस की उम्मीदों से काफी कम थे कि एक अनिश्चित भविष्य  में औपनिवैशिक दर्जा दिया जाएगा, युद्ध के बाद संविधान संबंधी एक परामर्शदात्री संस्था बनाई जाएगी, वायसरॉय की एक्ज़िक्यूटिव काउंसिल का विस्तार करके उसमें कुछ भारतीय शामिल किए जाएँगे और एक युद्ध-परामर्श परिषद का गठन किया जाएगा ।

इस बीच  जापानी हस्तक्षेप और दिसंबर 1941 से तेजी के साथ जापान की जीतों  के कारण  युद्ध भारत के और निकट आ गया: दिसंबर 1941  और मार्च 1942 के बीच हांगकांग, बोर्नियो, मनीला, सिंगापुर, जावा, रंगून, सुमात्रा और अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह तेजी के साथ जापान के नियंत्रण में आ गए ।

5 अप्रैल को कोलंबो पर बमबारी हुई और फिर  दो भारतीय तटीय नगरों यानी विशाखापट्टनम और काकीनाडा पर बम गिरे । युद्ध-प्रयासों  में भारत का समर्थन अब स्पष्ट तौर पर आवश्यक हो गया था और इसलिए भारत के संवैधानिक भविष्य पर कुछ विचार-विमर्श की तात्कालिक आवश्यकता थी ।

कम से कम अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट और चीन के नेता च्यांग काई शेक यही बात विंस्टन चर्चिल से कह रहे थे, जो मई 1940 में लंदन में एक युद्धकालीन गठबंधन सरकार का प्रधानमंत्री बना । इसलिए मार्च-अप्रैल 1942 में क्रिप्स मिशन भारत आया, लेकिन वह संविधान संबंधी गुत्थी सुलझा सके, इसके पहले ही चर्चिल ने उसे वापस बुला लिया ।

इसका कारण क्या था, लेकिन उसकी (मिशन की) असफलता ने उस चीज के विरुद्ध कांग्रेस की कार्रवाई के लिए आधार बनाया, जिसे अनेक भारतीय अब एक साम्राज्यिक युद्ध मानने लगे थे जिसमें उन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध अनावश्यक घसीटा गया था ।

युद्ध पर आरंभ में कांग्रेसी राजनीतिज्ञों की प्रतिक्रियाएँ मिली-जुली रहीं । जहाँ नेहरू जैसे कुछ नेता फासीवाद विरोधी युद्ध के समर्थन की आवश्यकता के बारे में सजग थे, वहीं दूसरे (कांग्रेसी) वामपंथी नेता ब्रिटिश युद्ध-प्रयासों के विरुद्ध कार्रवाई के लिए बेचैन हो रहे थे, पर वे इस स्थिति में न थे कि कांग्रेस पर यह मुद्दा थोप सकें ।

दूसरी ओर, राजगोपालाचारी जैसे कुछ नेताओं का संसदीय राजनीति की प्रभावशीलता में पक्का विश्वास था और वे मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था का बेहतर से बेहतर उपयोग करना चाहते थे । गांधी दुविधा में थे: एक समय वे यह मानते थे कि यह युद्ध उनके अहिंसा के सिद्धांत के विरुद्ध था; फिर उन्होंने वायसरॉय से युद्ध-प्रयासों में पूरा समर्थन देने का वादा किया और इसके कारण कांग्रेस में अपने ही अनुयायियों की आलोचना का निशाना बने ।

आखिरकार मई 1940 की रामगढ़ कांग्रेस में उन्होंने सविनय अवज्ञा शुरू करने पर सहमति दी, पर कहा कि यह उन स्वयंसेवकों का ”वैयक्तिक सत्याग्रह” होगा, जो इसके लिए  स्वयं गांधी द्वारा चुने जाएँगे और वे भी सिर्फ युद्ध-विरोधी भाषण  देंगे ।

यह आंदोलन किसी भी तरह सफल नहीं रहा और इस बीच जापानी भारत की सीमाओं के और करीब आ गए, जबकि अंग्रेज किसी भी संवैधानिक परिवर्तन का वादा न करने पर अड़े रहे । 1942 में गांधी के रवैये में एक उल्लेखनीय परिवर्तन आया और वे असाधारण रूप से उग्र मनःस्थिति में दिखाई देने लगे ।

जब एक जापानी हमले की संभावना वास्तविक दिखाई देने लगी, तब गांधी ने यह मानने से इन्कार कर दिया कि जापानी हमारे मुक्तिदाता होंगे; वे मानते थे कि भारत का भारतवासियों के ही हाथ में होना फासी हमले के विरुद्ध सबसे अच्छी गारंटी होगा ।

इस बीच भारतवासियों के आर्थिक और सामाजिक जीवन पर युद्ध ने स्पष्ट रूप से प्रभाव डाला । उनमें से अनेक तो सहनशक्ति की सीमा तक पहुँच चुके थे और ब्रिटिश साम्राज्य के साथ आखिरी मुकाबला करने के लिए तैयार थे । युद्ध का आर्थिक प्रभाव भारतवासियों के विभिन्न समूहों के लिए आरंभ में लाभदायक रहा ।

मालों के दाम बड़े तो उद्योगपतियों, सौदागरों और बाजार के लिए उत्पादन करने वाले धनी किसानों का लाभ हुआ; उसने मंदी के बुरे प्रभावों को समाप्त कर दिया और किसानों पर लगान का दबाव कम किया । लेकिन 1942 में युद्ध से पैदा प्रमुख समस्या वह थी जिसे मैक्स हारकोर्ट ने ”दुर्लभता का संकट” कहा है; यह मुख्यत: चावल की आपूर्ति में कमी से पैदा हुई थी ।

अप्रैल और अगस्त के बीच उत्तर भारत  में खाद्यान्न के कीमतों का सूचकांक 60 अंक बढ़ा । यह अंतत: मौसम की खराब दशा के कारण हुआ और अंशत: बर्मी चावल की आपूर्ति बंद होने के कारण और अंग्रेजों की कठोर खरीद नीति के कारण हुआ ।

जहाँ खाद्यान्नों की बढ़ती कीमतों ने गरीबों पर चोट की, वहीं अमीरों पर अत्यधिक लाभकर, युद्धकोष की जबरन वसूली और युद्ध बॉन्डों की जबरन बिक्री की मार पड़ी । इस स्थिति से जनता में बौखलाहट की मानसिकता पैदा हुई और अंग्रेजों का राज स्पष्ट तौर पर हताशा और पतन के कगार पर खड़ा नजर आने लगा ।

इसकी पुष्टि शरणार्थियों के उन काफिलों से हुई, जो मलाया और बर्मा से वापस आ रहे थे और अपने साथ न केवल जापानी अत्याचारों की कहानियाँ लेकर आ रहे थे, बल्कि यह भी बता रहे थे कि दक्षिण-पूर्व एशिया में किस तरह अंग्रेजों की सत्ता ढह गई, किस तरह अंग्रेज अधिकारियों ने भारतीय शरणार्थियों को उनके हाल पर छोड़ दिया और उनको भूख, बीमारी और कष्ट झेलते हुए प्रतिकूल प्रदेशों में पैदल सफर करने के लिए मजबूर कर दिया ।

अब यह व्यापक भय फैला कि जापानी यदि हमला करते हैं, तो अंग्रेज भारत में यही काम करेंगे । यह भी कोई दूर की संभावना नहीं लगता था, क्योंकि अंग्रेजों ने तटीय बंगाल में एक कठोर ”वंचित करो” की नीति लागू करनी शुरू कर दी; वे नावों और साइकिलों समेत संचार के सारे साधन नष्ट करने लगे और इसके बदले में मुआवजे बहुत कम दे रहे थे ।

मई 1942 में भारत में अमेरिकी और ऑस्ट्रेलियाई सैनिक पहुँचने लगे और जल्द ही वे बलात्कार और असैनिक जनता के साथ नस्ली दुर्व्यवहार की कथाओं के नायक बन गए । अफवाहें पनपती रहीं और धुरी शक्तियों (Axis Powers) के प्रचारतंत्र से उनको हवा मिलती रही और सुभाष बोस के आजाद हिंद रेडियो से भी, जिसका बर्लिन से मार्च 1942 में प्रसारण आरंभ हुआ ।

भारत की जनता में साल के मध्य तक यह विश्वास आम हो चुका था कि अंग्रेजी राज का शीघ्र ही पतन होने वाला है और इसलिए यही समय है कि आखिरी फैसले तक भारत को लगभग दो सौ साल के उपनिवेशी शासन से मुक्ति दिलाई जाए । जुझारूपन की इस जन-भावना को समझने में गांधी पीछे नहीं रहे और उन्होंने अनुभव किया कि राज के साथ अंतिम टकराव का समय आ गया है ।

मई 1942 में उन्होंने लिखा: ”भारत को भगवान भरोसे छोड़ दीजिए । अगर यह कुछ ज्यादा हो, तो उसे अराजकता के भरोसे छोड़ दीजिए । यह व्यवस्थित और अनुशासित अराजकता समाप्त होनी चाहिए और अगर पूरी गैर-कानूनियत फैलती है, तो मैं इसका जोखिम उठाने को तैयार हूँ ।”

उन्होंने कांग्रेस के अंदर मुख्यत नेहरू की और राजगोपालाचारी की ओर से सीधी कार्रवाई के हर विरोध को झटक दिया और पार्टी को अंतिम संघर्ष के लिए अपने ”जीवन के सबसे बड़े संघर्ष” के लिए तैयार किया । जुलाई में कांग्रेस कार्यकारी समिति ने वैयक्तिक की जगह लोक सविनय अवज्ञा पर एक मसविदा प्रस्ताव को मंजूरी दी ।

बंबई में 8 अगस्त, 1942 को ए. आई. सी. सी. द्वारा पारित भारत छोड़ो प्रस्ताव ने यह तय किया कि अगर भारतवासियों को तुरंत सत्ता नहीं सौंपी जाती तो गांधी के मार्गदर्शन में यह लोक सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया जाएगा ।

इस अवसर पर गांधी ने अपना प्रसिद्ध ”करो या मरो” भाषण दिया, कहा कि यह अंतिम युद्ध एक ”निर्णायक युद्ध” होगा, और इसलिए भारतीय या तो आज़ादी छीनें या उसके लिए अपनी जानें गँवाएँ । इससे पहले से ही चिढ़ी बैठी भारतीय जनता की कल्पना को पंख लग गए और वह सुस्थापित सत्ता के पतन की आशा करने लगी ।

जैसा कि ज्ञानेंद्र पांडे का कथन है, गांधी ने इसे यह कहकर एक ”मनोवैज्ञानिक बढ़ावा” दिया कि हर कोई अब स्वयं को ”स्वतंत्र पुरुष या स्त्री” समझे और अगर नेतागण गिरफ्तार कर लिए जाएं, तो अपनी कार्रवाई का रास्ता खुद तय करे ।

उनका भय सही साबित हुआ, क्योंकि 9 अगस्त को तड़के ही गांधी समेत सभी अग्रणी कांग्रेसी नेता गिरफ्तार कर लिए गए और फिर तो जनता का अभूतपूर्व क्रोध भड़का, जिसे राष्ट्रवादी दंतकथाओं में ”अगस्त क्रांति” का नाम दिया जाता है । आंदोलन की इस असाधारण तीव्रता ने हरेक को हैरान कर दिया ।

वायसरॉय लिनलिथगो ने इसे ”1857 के बाद… का सबसे गंभीर विद्रोह” कहा । यह विद्रोह आरंभ होने से ही हिंसक और पूरी तरह अनियंत्रित रहा, क्योंकि कांग्रेस के नेतृत्व की पूरी पहली कतार इसके आरंभ से पहले ही सलाखों के पीछे थी । इसलिए इसे ”स्वत:स्फूर्त क्रांति” भी कहा जाता है, क्योंकि ”कोई भी पूर्वनिर्धारित योजना ऐसे तात्कालिक और एकरस परिणाम नहीं दे सकती थी ।”

हाल के अध्ययनों से भारत छोड़ो आंदोलन का जो इतिहास सामने आता है उससे पता चलता है कि यह एक बिना तैयार जनता का जोरदार जवाब ही नहीं था, हालाँकि हिंसा के अभूतपूर्व पैमाने के बारे में कांग्रेसी नेतृत्व ने कोई तैयारी नहीं की थी जैसा कि सरकार का दावा था ।

पहली बात यह कि पिछले दो दशकों के जन-आंदोलन ने, जिसे हाल के वर्षों में कांग्रेस से जुड़े विभिन्न संगठनों, जैसे: एटक, कांसपा, किसान सभा और फारवर्ड ब्लॉक के नेतृत्व के अंतर्गत कहीं बहुत अधिक जुझारू ढंग से चलाया गया था, ऐसे टकराव के लिए पहले ही जमीन तैयार कर रखी थी ।

9 अगस्त से पहले कांग्रेसी नेतृत्व ने एक 12-सूत्री कार्यक्रम तैयार कर रखा था जिसमें सत्याग्रह की सुपरिचित गांधीवादी विधियाँ ही शामिल नहीं थीं, बल्कि औद्योगिक हड़तालों को बढ़ावा देने, रेल रोकने और तार काटने, करों की अदायगी रोकने और समानांतर सरकारें स्थापित करने की एक योजना भी शामिल थी ।

कांग्रेसी स्वयंसेवकों में इन कार्यक्रमों की अनेक रूपरेखाएँ प्रचलन में थीं, जिनमें आंध्र प्रदेश कांग्रेस समिति द्वारा तैयार कार्यक्रम भी शामिल था; इसमें ऐसी तोड़-फोड़ की कार्रवाइयों के स्पष्ट निर्देश दिए गए थे । लेकिन जो कुछ वास्तव में हुआ, उसकी तुलना में यह भी एक नरम कार्यक्रम था ।

लेकिन आंदोलन जब आगे बढ़ा  तो ए. आई. सी. सी. ने ”किसानों को निर्देश” देना जारी रखा जिनमें आने वाले महीनों में जो कुछ होने वाला था उसका पूर्वानुमान करके कार्रवाई का तरीका बताया गया था । अहिंसा के प्रश्न पर गांधी उन दिनों उल्लेखनीय सीमा तक अस्पष्ट थे ।

5 अगस्त को गांधी ने कहा था, ”मैं आपसे अपनी अहिंसा की माँग नही कर रहा । आप तय करें कि आपको इस संघर्ष में क्या करना है ।” तीन दिन बाद, 8 अगस्त को, ए. आई. सी. सी. के प्रस्ताव पर बोलते हुए उनका आग्रह था: ”मुझ आज पूरे भारत पर विश्वास है कि वह एक अहिंसक संघर्ष शुरू करेगा ।”

लेकिन अहिंसा  के  इस  रास्ते से अगर जनता विचलित हो जाए तो भी “मैं नहीं डिगूँगा । मैं पीछे नहीं हटूँगा” दूसरे शब्दों में, 1942 में ”करो या मरो” के आह्वान की या देश की आज़ादी के लिए परम बलिदान करने के आह्वान की अपेक्षा लगता है अहिंसा का मुद्दा कम महत्त्वपूर्ण हो गया था ।

जनता ने चुनौती स्वीकार की, उसे अपने-अपने ढंग से व्याख्यायित किया और ये व्याख्याएँ कुछ हद तक निचले स्तरों के प्राय: गुमनाम कांग्रेसी नेताओं और छात्रों से प्रभावित थीं, जिन्होंने 9  और 11 अगस्त के बीच राष्ट्रीय और प्रांतीय नेताओं के गिरफ्तार कर लिए जाने के बाद नेतृत्व संभाल लिया था ।

इस बात से इनकार संभव नहीं कि इस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक मोड़ पर कांग्रेस और गांधी को लोकमानस में असंदिग्ध प्रतीकात्मक वैधता प्राप्त थी-जो कुछ हुआ, उनके नाम पर हुआ । लेकिन इन घटनाओं पर संगठन के रूप में कांग्रेस और व्यक्ति के रूप में गांधी का नियंत्रण कम ही था ।

ज्ञानेंद्र पांडे के शब्दों में, “गांधी ऐसे आंदोलन के निर्विवाद नेता थे, जिनपर उनका कम ही नियंत्रण था ।” सुमित सरकार ने भारत छोड़ो आंदोलन के तीन चरणों का पहचान की है । उसका आरंभ हड़तालों, बहिष्कार और धरनों के साथ एक शहरी विद्रोह के रूप में हुआ; इनको शीघ्र ही कुचल दिया गया ।

अगस्त के मध्य में यह गाँवों में केंद्रित हो गया, जहाँ एक बड़ा किसान विद्रोह सामने आया; रेल लाइनों और स्टेशनों, तारों और खंभों के रूप में संचार व्यवस्था की तोड़-फोड़ इसकी विशेषता थी; सरकारी इमारतों पर और उपनिवेशी सत्ता के किसी भी दूसरे गोचर प्रतीक पर हमले किए गए, और आखिर में छिटपुट इलाकों में ”राष्ट्रीय सरकारों” की स्थापना हुई ।

इसका जवाब सरकार ने भयानक दमन से दिया और आंदोलन मजबूर होकर भूमिगत हो गया । तीसरे चरण की विशेषता हिंसात्मक गतिविधियाँ थीं, जिनके द्वारा मुख्यत: संचार व्यवस्था को भंग करके युद्ध-प्रयासों में रुकावट डालना और विभिन्न साधनों का उपयोग करके प्रचार कार्य चलाना भी शामिल थे; इन साधनों में ”भारत में किसी जगह से” अभी तक गुमनाम किसी ऊषा मेहता द्वारा चलाया जा रहा गुप्त रेडियो स्टेशन भी शामिल था ।

ऐसे कार्यो में केवल शिक्षित युवकों ने भाग नहीं लिया, बल्कि साधारण किसानों के दस्तों ने भी रात के अँधेरे में तोड़-फोड़ की कार्रवाइयों कीं, जिनको ”कर्नाटक का तरीका” कहा जाने लगा । अहम बात यह है, कि इन तथाकथित ”क्रांतिकारी समूह” को जनता का असीमित समर्थन और संरक्षण प्राप्त था और इस तरह ब्रिटिश सरकार की शब्दावली में ”भूमिगत” की परिभाषा इतनी फैली कि पूरे राष्ट्र को समेटने लगी, क्योंकि अधिकारीगण अब किसी भी भारतीय पर भरोसा नहीं कर सकते थे ।

समय के साथ भूमिगत गतिविधियाँ तीन धाराओं में व्यवस्थित हो गई; इनमें से जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाले एक उग्रदल ने भारत-नेपाल सीमा पर छापामार युद्ध का संचालन किया, अरुणा आसफ अली जैसे कांग्रेस समाजवादियों के नेतृत्व वाले एक केंद्रवादी दल ने तोड़-फोड़ के लिए पूरे भारत में स्वयंसेवक भरती किए, और सुचेता कृपलानी व अन्य के नेतृत्व में गांधीवादी दल ने अहिंसक कार्रवाई और रचनात्मक कार्यक्रम पर जोर दिया ।

भारत छोड़ो आंदोलन में अभूतपूर्व पैमाने पर हिंसा का सहारा लिया गया और सरकार ने उसका इस्तेमाल दमन को उचित ठहराने के लिए किया । युद्धकालीन आपात-शक्तियों का प्रयोग करके पहली बार सेना का उपयोग किया गया, मूलत: जो एक नागरिकों का आंदोलन था उसे कुचलने के लिए अंग्रेजी सेना की कम नहीं, पूरी 57 बटालियनें लगाई गई ।

युद्ध की आवश्यकताओं का नाम लेकर चर्चिल ने इस त्वरित और निर्मम दमन को उचित ठहराया और आलोचनात्मक विश्व-जनमत को शांत किया । 1942 के अंत तक ”अगस्त क्रांति” को पूरी तरह कुचला जा चुका था और 1943 के अंत तक लगभग 92,000 लोग गिरफ्तार किए जा चुके थे ।

फिर भी पूरा भारत एक ही ढंग से उद्वेलित नहीं हुआ, क्योंकि अलग-अलग क्षेत्रों में आंदोलन की तीव्रता अलग-अलग रही । अगर हम हाल के अध्ययनों से सामने आने वाले क्षेत्रवार ब्यौरों की तुलना करें, तो लगता है कि यह आंदोलन सबसे मजबूत बिहार में था, जहाँ किसान सभा ने तैयारी के तौर पर मुख्य सांगठनिक कार्य किया था ।

यहाँ आग भड़की पटना नगर में जहाँ छात्रों ने पहल करके 11 अगस्त को सचिवालय पर एक विशाल रैली का आयोजन किया और असेंबली की इमारत पर कांग्रेस का झंडा लहराने की कोशिश की । छात्रों की पहल को शीघ्र ही जनता ने अपना लिया, जिसने रेलवे स्टेशनों नगरपालिका की इमारतों और डाकखानों को आग लगा दी और स्थानीय पुलिस असहाय नजर आती रही, यहाँ तक कि 12 तारीख को सेना बुलानी पड़ी ।

जमशेदपुर में आंदोलन 9 अगस्त को स्थानीय कांस्टेबुलरी की हड़ताल के साथ शुरू हुआ; 10 को और फिर 20 को टिस्को में हड़तालें हुई, जिसमें लगभग 30,000 मजदूरों ने भाग लिया । डालमिया नगर में भी 12 तारीख को मजदूरों की हड़ताल हुई और इन दोनों अवसरों पर प्रशासन प्रबंधकों की मिलीभगत के शक में गिरफ्तार रहा ।

लेकिन इससे भी महत्त्वपूर्ण था वह किसान-विद्रोह, जो अगले सप्ताह बिहार के लगभग हर जिले में हुआ । छात्रों की पहल के बाद हजारों किसानों ने स्थानीय खजानों की इमारतों और रेलवे स्टेशनों पर हमले करके उनको लूटा, निहत्थे यूरोपीय अफसरों को सरे-आम  कत्ल किया और इस तरह उपनिवेशी सत्ता की भौतिक उपस्थिति को समाप्त कर दिया । इक्के-दुक्के पुलिस थानों पर कब्जे करके उनको नष्ट कर दिया गया तथा निचले स्तरों की ग्रामीण पुलिस और स्थानीय नागरिक अधिकारियों ने बिना प्रतिरोध अपने ठिकाने खाली कर दिए ।

आंदोलन को जमींदारों और व्यापारियों का भी गुप्त समर्थन मिला जो धन दे रहे थे और भागीदारी ने जातियों की सीमाएँ तोड़ दीं । यहाँ निचली जातियों की भागीदारी का सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरण बाढ़ में गोपों और दुसाधों द्वारा एक समानांतर सरकार का गठन था, जिन्होंने अपना ”राज” कायम किया और कर वसूलने लगे ।

बिहार के किसान आंदोलन का अंग्रेज सेना ने निर्मम दमन किया, जिसे यातनाएँ देने और पूरे-पूरे गाँव जला देने की पूरी छूट दी गई थी । उसके बाद आंदोलन भूमिगत हो गया और 1943 के आस-पास से उसका समन्वय एक नया सांगठनिक ढाँचा करने लगा ।

इनको आजाद दस्ते या छापामार दस्ते कहा जाता था, जो मुख्यत: दक्षिणी बिहार में कार्यरत थे, तथा हथियारखानों खजानों और दूसरे सरकारी दफ्तरों पर हमले करते थे । जयप्रकाश नारायण जैसे कुछ कांसपा नेताओं ने इन दस्तों पर नियंत्रण बनाए रखने की कोशिश की, पर शीघ्र ही इन दस्तों ने निचली जातियों के भूमिहीन किसानों के पेशेवर डकैत गिरोहों से संबंध बना लिए और ऐसे कार्य करने लगे जिनको ”सामाजिक अपराध” कहा गया है ।

इस चरण में  कांसपा अपने आपको इन दस्तों से अलग करने लगी और आंदोलन आखिरकार 1944 में कुचल दिया गया । पूर्वी संयुक्त प्रांत के गाजीपुर और आजमगढ़ जिलों   में  बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र स्वयंसेवकों के आगमन ने, बल्कि उनके आगमन की अफवाह ने भी, स्थानीय किसानों को कार्रवाई में उतारा और वे रेल लाइनों और स्टेशनों पर तोड़-फोड़ करने लग और कोर्ट ऑफ वार्ड ऑफिस के कागजात जलाने लगे ।

लेकिन इन जिलों के अनेक स्थानों पर, जैसे शेरपुर-मुहम्मदपुर क्षेत्र में, जैसा कि ज्ञानेंद्र पांडे का कथन है, ”विश्वंस संदेश” और अहिंसा के गांधीवादी सिद्धांत के बीच एक ”असहज सह-अस्तित्व” था, क्योंकि कुछ प्रतिबद्ध गांधीवादी नेताओं ने उसकी अहिंसा की शुद्धता बनाए रखने की कोशिश की । जन-आंदोलन कहीं बहुत अधिक तीव्र था तो बलिया जिले में, जहाँ कुछ दिनों तक अंग्रेजी राज का अस्तित्व ही नहीं रहा, पर यहाँ भी अंतर्विरोधों ने आंदोलन को कमजोर किया ।

यहाँ कहानी कुछ अधिक भिन्न नहीं थी, क्योंकि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से आने वाले छात्र-नेताओं ने किसानों को कार्रवाई के लिए प्रेरित किया; इनमें इलाहाबाद के छात्र कब्जा की गई ”आजाद” रेलगाडी में आए ।

14 अगस्त को कई हजार किसानों ने रेलवे स्टेशन पर और बेल्थरा रोड स्टेशन पर खड़ी एक सैनिक आपूर्ति की गाड़ी पर हमला करके उनको लूट लिया; चार दिन बाद बाँसडीह कस्बे में थाना और तहसील की इमारतों पर कब्जा कर लिया; स्थानीय स्टेशन मास्टर और तहसीलदार ने कोई प्रतिरोध नहीं किया और स्थानीय कांग्रेसी नेताओं ने एक समानांतर प्रशासन की स्थापना का प्रयास किया ।

फिर 19 अगस्त को एक भारी भीड़ ने बलिया नगर पर कब्जा कर लिया तथा उसके भारतीय जिला मजिस्ट्रेट को खजाने के सारे नोट जलाने और सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करने पर मजबूर कर दिया । उसके बाद रिहा किए गए गांधीवादी नेता चित्तू पांडे आंदोलन को संचालित करने लगे और उन्हें ”स्वराज जिलाधीश” घोषित किया गया, जबकि उन्हें पता भी नहीं था कि आगे क्या करना है । इसलिए अगले दिन जब सेना पहुँची तो सारे नेता भाग गए और बलिया शहर वीरान नज़र आने लगा ।

इस तरह यहाँ पर भारत छोड़ो आंदोलन का नेतृत्व के अभाव में एक अपेक्षाकृत ”अपकर्षी अंत” (anti-climactic end) हुआ । बिहार और पूर्वी संयुक्त प्रांत के विपरीत भारत के दूसरे क्षेत्रों में भारत छोड़ो आंदोलन कम स्फूर्त और कम तीव्र रहा, मगर अधिक लंबा खिंचा ।

बंगाल में यह आंदोलन कलकत्ता में तथा हुगली, बाँकुड़ा, पुरुलिया, बीरभूमि और दीनाजपुर जिलों में चला; दीनाजपुर में तो इसमें संथालों तथा राजबंसी और पालिया जैसे दलित समूहो ने भी भाग लिया । लेकिन निस्संदेह यह सबसे मजबूत मेदिनीपुर जिले के तमलुक और कोंटाई (कंठी) संभागों में था जहाँ, जैसा कि हितेशरंजन सान्याल की टिप्पणी है, ”राष्ट्रीय आंदोलन 1930 तक ही किसानों की लोक-संस्कृति का अंग बन चुका था” तथा हाल कं वर्षो में कृषक सभाओं और फारवर्ड ब्लॉक ने उन्हें और भी संगठित किया था ।

मेदिनीपुर के तटीय क्षेत्रों में अप्रैल 1942 के बाद से ही सरकार ”वंचित करो” की नीति के तहत लगभग 18,000 नावें जला चुकी थी और इसके कारण किसान अपने यातायात के एक महत्त्वपूर्ण साधन से वंचित ही नहीं हुए, बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था पर भी इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ा ।

आम मूल्यवृद्धि और कठोर खरीद नीति के कारण समस्या और जटिल हुई । इसलिए अगस्त में जब स्थानीय कांग्रेसी स्वयंसेवकों और छात्रों ने एक खुले विद्रोह के लिए किसानों को लामबंद करना शुरू किया तो उनको एक उपजाऊ जमीन मिली ।

मेदिनीपुर में भारत छोड़ो आंदोलन का आरंभ 8 सितंबर के आस-पास हुआ और 10 से 20 हजार तक की भीड़ ने अनेक पुलिस थानों पर सुनियोजित आक्रमण किए । 30 तारीख तक इन दोनों संभागों में अंग्रेजों का प्रशासन लगभग समाप्त हो गया, और इसलिए यंत्रणा देने, बलात्कार करने और आंदोलन को निर्ममता से कुचलने का अधिकार देकर सेना भेजी गई ।

16 अक्तूबर को एक विनाशकारी चक्रवात और समुद्री लहरों ने, जिन्होंने लगभग 15,000 जानें लीं, स्थिति को और जटिल बना दिया । बदले के तौर पर स्थानीय जिलाधिकारी ने राहत भेजने से मना कर दिया । इसलिए कांग्रेस ने वैकल्पिक राहत शिविरों का आयोजन किया और इस कारण और अधिक लोकप्रिय हों गई ।

इससे भी अहम बात यह है कि कांग्रेस ने अब समानांतर सरकारों के गठन के लिए कदम उठाए: कोंटाई में नवंबर में स्वराज पंचायत का आरंभ हुआ, जबकि तमलुक में 17 दिसंबर से ताप्रलिप्त जातीय सरकार काम करने लगी ।

इस बादवाली सरकार के पास प्रशिक्षित स्वयंसेवकों की विद्युतवाहिनी थी, स्वयंसेविकाओं की भगिनी सेना थी और विप्लवी नाम का मुखपत्र था । उसने राहत कार्य चलाए मध्यस्थता की अदालतों में 1681 मामले हल किए, असैनिक प्रशासन चलाया, शक्तिशाली निष्ठावान जमींदारों, व्यापारियों और स्थानीय अधिकारियों से टक्कर ली, और निर्मम दमन के बावजूद वह अगस्त 1944 तक काम करती रही जब गांधी ने विद्रोह की समाप्ति का आह्वान किया । कंठी स्वराज पंचायत भी लगभग उन्हीं दिनों भंग कर दी गई ।

पड़ोसी उड़ीसा   में  भी आंदोलन वहीं सबसे अधिक मजबूत रहा, जहाँ किसान संघ और प्रजामंडलों ने पिछले आंदोलनों के दौरान किसानों को पहले ही तैयार कर रखा था । हमेशा की तरह उसका आरंभ कटक जैसे नगरों में हुआ, जहाँ हड़तालें हुईं और शिक्षा संस्थाएँ बंद रहीं, और आंदोलन फिर गाँवों में फैला, मुख्यत: कटक, बालासोर (बालेश्वर) और पुरी के तटवर्ती जिलों में ।

यहाँ किसानों को प्रेरणा एक ”आसन्न विनाश” की अफवाहों से मिलीं और उन्होंने उपनिवेशी सत्ता के सभी गोचर प्रतीकों पर हमले किए, उसे खुली चुनौती देकर थानों से कैदियों को रिहा करा लिया, स्थानीय पुलिसवालो की वर्दियाँ उतरवा दीं, चौकीदारी कर देने बंद कर दिए और कुछ मामलों में जमींदारों की कचहरियों पर हमले किए और सूदखोरों से धान की वसूली की ।

लेकिन जिलों का यह ग्रामीण विद्रोह, जिसमें जातियों की सीमाएँ तोड़कर लोगों ने भाग लिया, पुलिस दमन और सामूहिक जुर्माने के दबाव के कारण अक्तूबर-नवंबर तक लगभग समाप्त हो चुका था । नीलगिरि और धेनकनाल रजवाड़ों में जहाँ दलित और आदिवासी किसानों ने जंगल कानूनों के उल्लंघन किए, ओर प्रजामंडल नेताओं द्वारा विशाल प्रदर्शनों के लिए लामबंद किए गए, सामूहिक जुर्माने लगाए गए और अंग्रेज राजनीतिक एजेंट ने दमन की निगरानी की ।

लेकिन तलचर रजवाड़े में आंदोलन ने एक अनोखा रूप लिया । यहाँ स्थानीय राजा और उसके अंग्रेज संरक्षकों का राज खत्म करने के लिए स्थानीय प्रजामंडल के नेताओं ने हरेक के लिए रोटी, कपड़ा और मकान के वादे के साथ, एक ”लोक किसान स्वर्ग” के कार्यक्रम पर चासी-मुलिया राज कायम करने का निर्णय किया ।

6 सितंबर तक यह नया शासन रजवाड़े के अधिकांश भाग में अपनी सत्ता स्थापित कर चुका था और सत्ता के केंद्र को नष्ट करने के लिए चारों दिशाओं से लोग अब तलचर शहर की ओर उमड़ पड़े । 7 तारीख को शाही वायुसेना के विमानों से प्रदर्शनकारियों पर मशीनगनों से गोलियाँ चलाई गई और फिर निर्मम दमन का चक्र चला, लेकिन इसके बावजूद इस क्षेत्र में छापामार युद्ध लगभग मई 1943 तक जारी रहा ।

वैकल्पिक राज के सपने मलकानगिरि और नवरंगपुर में भी देखे गए, जहाँ करिश्माई नेता लक्ष्मण नायको ने आदिवासी और गैर-आदिवासी किसानों को जमा करके शराब और अफीम की दुकानों पर हमले किए और भीड़ भरी सभाओ में गर्व के साथ घोषणा की कि अंग्रेजी राज खत्म हुआ, अब उसकी जगह गांधीराज आ गया है जिसमें ‘मद्य-कर’ और जंगल-कर देने की जरूरत नहीं रही । पड़ोस के बस्तर रजवाड़े से बुलाए गए सैनिकों ने सितंबर के अंत तक इस आंदोलन को भी कुचल दिया ।

वैकल्पिक राष्ट्रीय सरकारों की स्थापना का यह प्रयोग महाराष्ट्र में सबसे सफल रहा, जहाँ गैर-ब्राह्मण आंदोलन के पैदा किए हुए सांगठनिक आधारों पर सतारा की प्रति-सरकार (समानांतर सरकार) ने जन्म लिया । बीसवीं सदी के आरंभ में बहुजन समाज को इसी आंदोलन ने जाति विरोधी और सामंत विरोधी कार्रवाइयों के लिए तैयार किया था और 1930 के दशक के दौरान उसने राष्ट्रवाद और कांग्रेस के साथ संबंध स्थापित कर लिए थे ।

1942 के अंतिम महीनों में जब सेना के दमन के कारण तोड़-फोड़ की हिंसक गतिविधियों का शुरूआती उभार दब गया, तो सतारा जिले में बहुजन समाज के युवक और शिक्षित सदस्यों ने एक प्रति-सरकार के गठन का निर्णय किया, जिसे औपचारिक रूप से फरवरी और जून 1943 के बीच बनाया गया जबकि अहम बात यह है कि दूसरे प्रांतों में भारत छोड़ो आंदोलन लगभग समाप्त हो चुका था ।

उसका एक लंबा-चौड़ा सांगठनिक ढाँचा था, जिसमें सेवा दल (स्वयंसेवक दल) और तूफान दल (ग्रामीण दल) थे, और नाना पाटिल उसके प्रमुख प्रेरणा-स्रोत थे । यह सरकार अनेक कार्य करती रही, जिनमें न्यायदान मंडलों (लोक अदालतों) का संचालन, रचनात्मक कार्यक्रमों के क्रियान्वयन और हथियारबंद तोड़-फोड़ के कार्यो का संचालन शामिल थे ।

बिहार के आज़ाद दस्तों के विपरीत उसने सतारा की ऊबड़-खाबड़ वादियों से स्थानीय डाकू गिरोहों का सफाया करने के लिए! कठोर लड़ाइयाँ लड़ी, ताकि उसकी अपनी सत्ता और वैधता स्थापित हो सके हालांकि इसमें मध्य श्रेणी के कुनबी किसानों का वर्चस्व था, पर इसने अपने सामंतवाद विरोधी और जाति विरोधी रुझान के कारण उसी तरह गरीब दलित किसानों की भागीदारी और हिमायत पाई ।

प्रति-सरकार को कांग्रेस समाजवादियों का समर्थन तो मिला, पर कांग्रेस कभी उस पर अपना वर्चस्व स्थापित नहीं कर सकी । इसलिए अगस्त 1944 में, जब गांधी ने समर्पण का आह्वान किया और अपने मेदिनीपुर के साथियों के विपरीत सतारा की प्रति-सरकार के अधिकांश सदस्यों ने महात्मा के आदेश को ठुकराने का निर्णय किया, तो वे उनके ”करो या मरो” वाले पिछले आह्वान पर कायम रहे ।

इसे कुचलने के विभिन्न ब्रिटिश प्रयासों के बावजूद यह समानांतर सरकार 1946 के चुनाव तक काम करती रही । पश्चिमी भारत के दूसरे भागों को लें तो भारत छोड़ो आंदोलन गुजरात के खेड़ा, सूरत और भड़ौच जिलों में और बड़ोदरा रजवाड़े में सबसे मजबूत था ।

यहाँ असहयोग आंदोलन के दिनों से ही कांग्रेस का एक मजबूत गढ़ था और माना जाता है कि गुजरात कांग्रेस समिति के नेता वल्लभभाई पटेल ने बंबई में गिरफ्तार किए जाने से पहले तोड़-फोड़ की कार्रवाइयों का एक खाका तैयार किया था ।

आंदोलन का आरंभ मजदूरों की हड़तालों बंद और झगड़ा के साथ अहमदाबाद और बड़ोदरा नगरों में हुआ और उसमें विभिन्न सामुदायिक ढाँचों का प्रयोग किया गया जैसे पोलों के जातिगत संगठनों तथा महाजनों या व्यापारियों के संगठनों का । अहमदाबाद में एक समानांतर ”आजाद सरकार” स्थापित हुई और यहाँ कांग्रेस के शीघ्र सत्ता में आने की आशा करके उद्योगपतियों ने राष्ट्रवादी लक्ष्य से सहानुभूति जताई ।

उन्होंने औद्योगिक हड़ताल खत्म करने के लिए कुछ भी नहीं किया जो मजदूरी में वृद्धि जैसी किसी आर्थिक माँग की बजाय शुद्ध राजनीतिक माँगों पर कोई साढ़े तीन माह तक चलती रही । देहातों का विद्रोह जो सितंबर से दिसंबर तक चला दूसरी जगहों की तरह तोड-फोड़ के कार्यो के आम ढर्रे पर आगे बढ़ा ।

लेकिन इस क्षेत्र में अतीत के आंदोलनों से एक प्रमुख भिन्नता इस बार किसी मालगुजारी रोको अभियान की अनुपस्थिति थी, क्योंकि धनी पाटीदार ऐसे समय में अपनी जायदादों की ज़ब्ती का जोखिम नहीं लेना चाहते थे, जब हाल की मूल्यवृद्धि के कारण उनमें समृद्धि आई थी ।

एक और अहम विशेषता यह रही कि वैसे तो आदिवासी किसानों ने अनेक स्थानों पर आंदोलन में भाग लिया, पर पाटीदारी के प्रभुत्व वाले कांग्रेसी मंत्रिमंडल से असंतुष्ट होकर दलित बड़ैया और पट्टनवाडिया किसानों ने खेडा और मेहसाना जिलों में भारत छोड़ो आंदोलन का सक्रिय विरोध किया ।

लेकिन भड़ौच, सूरत और नवसरी जिलों में ग्रामीण एकता ने जाति और वर्ग की सीमाओं को तोड़ दिया और फलस्वरूप इस क्षेत्र से तब तक के लिए अंग्रेजी राज का खात्मा हो गया, जब तक कि निर्मम दमन के सहारे उसे दोबारा स्थापित नहीं किया गया । पर इस दमन ने गांधीवादी कांग्रेस को और लोकप्रिय ही बनाया ।

जैसा कि विस्तृत क्षेत्रवार अध्ययनों से पता चलता है, भारत छोड़ो आंदोलन कुछ क्षेत्रों में तीव्र और शक्तिशाली था, तो दूसरे क्षेत्रों में कम शक्तिशाली था पर वहाँ लंबा चला । मद्रास प्रेसीडेंसी जैसे कुछ क्षेत्रों में यह बिलकुल मामूली था, न सिर्फ इसलिए कि मद्रास की राजनीति के राजगोपालाचारी जैसे अग्रणी नेताओं ने इस आंदोलन का विरोध किया, बल्कि दूसरे अनेक कारणों से भी, जैसे संविधानवाद का प्रभाव समाजवादियों की अनुपस्थिति, केरल के साम्यवादियों का विरोध, गैर-ब्राह्मणों की उदासीनता और उत्तर के प्रभुत्ववाले एक राजनीतिक अभियान के लिए दक्षिण की एक जोरदार चुनौती के कारण भी ।

लेकिन इससे भी अहम बात यह है कि ऐसे महत्त्वपूर्ण सामाजिक समूह भी थे जो सोच-समझकर आंदोलन से दूर रहे । उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण थे मुस्लिम, जो लगभग सभी क्षेत्रों में इस आंदोलन से अलग रहे और इसी कारण मुस्लिम लीग, जिसने इस आंदोलन का अनुमोदन नहीं किया, यह दावा कर सकी कि वह भारतीय मुसलमानों के बहुमत का प्रतिनिधित्व करती थी ।

लेकिन उनका अलगाव भले ही लगभग सार्वभौमिक रहा हो मुसलमानों ने संभवत: गुजरात के कुछ भागों को छोड्‌कर कहीं भी आंदोलन का सक्रिय विरोध नहीं किया और इस पूरे काल में सांप्रदायिक टकराव की कोई बड़ी घटना नहीं हुई ।

दूसरी ओर, दलित नेता डॉ भीमराव अंबेडकर ने भी, जो आंदोलन के आरंभ से ठीक पहले वायसरॉय की काउंसिल में श्रम सदस्य के रूप में शामिल हो चुके थे इसका समर्थन नहीं किया । लेकिन इस बारे में भी भले ही उनके अनेक समर्थक शामिल न हुए हों, विभिन्न क्षेत्रों में हमें भारत छोड़ो आंदोलन में दलितों की भागीदारी के साक्ष्य प्राप्त हैं और जातिगत एकता इस अभियान में कभी एक दुर्लभ वस्तु नहीं रही ।

यह बात भी याद रखनी जरूरी है कि हिंदू महासभा ने भी ”व्यर्थ, पौरुषहीन और हिंदुत्व के ध्येय के लिए हानिकर” कहकर भारत छोड़ो आंदोलन की निंदा की और विनायक दामोदर सावरकर, बी. एस. मुंजे और श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे दिग्गज हिंदू नेताओं ने पूरे दिल से अंग्रेजों के युद्ध-प्रयासों का समर्थन किया, जिनमें कांग्रेस का अभियान कथित रूप से पलीता लगा रहा था ।

लेकिन इस आधिकारिक लाइन के बावजूद एन. सी. चटर्जी के नेतृत्व में महासभा का एक मजबूत गुट उसमें भाग लेने के लिए उत्सुक दिखाई देता था और उसके दबाव में महासभा की कार्यकारी समिति को एक शर्म ढाँपनेवाला मगर स्पष्ट प्रस्ताव पारित करना पड़ा कि भारत की प्रतिरक्षा में तब तक समर्थन नहीं दिया जा सकता, जब तक कि भारत की स्वतंत्रता को तत्काल मान्यता न दी जाए । दूसरा हिंदू संगठन, यानी आर. एस. एस. भी अलग-थलग रहा, जिसका अब तक मुख्य आधार महाराष्ट्र में था ।

जैसा कि एक मेमो में बंबई की सरकार ने दर्ज किया: ”संघ ने सावधानी के साथ अपने को कानून के दायरे में रखा है और खास तौर पर उस उथल-पुथल में स्वयं को शामिल होने से रोके रखा है, जिसका आरंभ अगस्त 1942 में हुआ ।

दिसंबर 1941 में सोवियत संघ के युद्ध में शामिल होने के बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ऐसा एक और अहम राजनीतिक संगठन बन गई, जिसने अपनी ”जनयुद्ध” की रणनीति के कारण भारत छोड़ो आंदोलन का समर्थन नहीं किया ।

ऐसा कोई संगठन पाने की चिंता में जो कांग्रेस को उलझन में डाले और युद्ध-प्रयासों का समर्थन करे, अंग्रेज सरकार ने कम्युनिस्ट पार्टी पर से तुरंत वह प्रतिबंध उठा लिया, जो पार्टी पर 1934 से ही लगा हुआ था और पार्टी अब फासीवाद को मात देने के लिए युद्ध-प्रयासों के पक्ष में प्रचार करने लगी ।

लेकिन इस आधिकारिक लाइन के बावजूद इस बात के पर्याप्त साक्ष्य हैं कि अनेक कम्युनिस्ट अपने समय की देश-प्रेम की भावनाओं में बह गए और उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भाग लिया । दूसरी ओर, कम्युनिस्टों के नियंत्रण वाली ट्रेड यूनियनों और किसान सभाओं की लोकप्रियता और समर्थन में कमी आने लगी क्योंकि अपनी स्वयं की स्वतंत्रतावाद के अभियान को हानि पहुँचाकर दूर जारी एक युद्ध को समर्थन देने का तर्क अपने अनुयायियों को समझाना नेताओं के लिए कठिन होने लगा ।

यह तर्क दिया जा सकता है कि जब दलित किसानों और दूसरे गरीब वर्गो ने भारत छोड़ा आंदोलन में भाग लिया, तो उनकी प्रेरणा शिक्षित युवकों और मंझोली जातियों के किसानों की प्रेरणा से भिन्न थी । लेकिन फिर भी आंदोलन को एक ”दोहरा विद्रोह कहना अति सरलीकरण होगा, क्योंकि दृष्टिकोण संबंधी भिन्नताओं के बावजूद अंग्रेजों के विरुद्ध संयुक्त कार्रवाई के प्रश्न पर: विभिन्न वर्ग और समुदाय एक थे ।

11 अगस्त को पटना नगर को देखकर मतिभ्रम के शिकार साम्यवादी नेता राहुल सांकृत्यायन ने घोर आश्चर्य के साथ कहा था, ”नेतृत्व रिक्शाचालकों, इक्कावानों और ऐसे ही दूसरे लोगों के हाथ में जा चुका था, जिनका राजनीतिक ज्ञान बस इतना ही था कि अंग्रेज उनके दुश्मन हैं ।”

साम्राज्यवाद विरोध के इसी साझे और प्रमुख स्वर ने 1942 में हरेक को बाँधकर रखा और गाँवों में तो उसने उन सामंतविरोधी प्रवृत्तियों तक को पीछे धकेल दिया, जो देश के विभिन्न भागों में समय-समय पर सामने आ रही थीं ।

एक उत्पीड़क साम्राज्यिक व्यवस्था से त्वरित आजादी का वादा करके भारत छोड़ा आंदोलन ने भारतीय जनता के एक खासे बड़े भाग की कल्पना को, उनकी स्वतंत्रता-सबंधी अलग-अलग धारणाओं के बावजूद, पंख लगा दिए थे । भारत छोड़ो आंदोलन ने कांग्रेस को भी महत्त्वपूर्ण सबक सिखाए ।

पहली बात यह कि पराजय ने उन वामपंथियों की साख खत्म की, जो कार्रवाई की माँग कर रहे थे । दूसरी ओर, गांधी भी दुविधा में थे । कांग्रेसी स्वयंसेवक हिंसा को उन्हीं के इस कथन का हवाला देकर उचित ठहरा रहे थे कि आत्मरक्षा के लिए यह उचित है ।

उन्होंने हिंसा को उचित नहीं ठहराया पर औपचारिक रूप से उसकी निंदा नहीं की इसकी बजाय उन्होंने हिंसा के भड़कने के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया । वास्तव में जनता और स्वयंसेवकों पर न तो उनका कोई बस चला न दूसरे कांग्रेसी नेताओं का, और न ही इनमें से किसी ने ऐसी प्रतिक्रिया का अनुमान किया था जैसी भारत छोड़ा आंदोलन ने जगाई ।

1942 में भारतीय जनता की दृष्टि में गांधी और कांग्रेस वैचारिक  प्रतिबंधों के स्रोत नहीं, मुक्ति के प्रतीक थे । गांधी ने 10 फरवरी 1943 को 21 दिनों का जो अनशन शुरू किया, उसने प्रतीकात्मक रूप से आंदोलन में उनको एक बार फिर केंद्रीय स्थान दिलाया, पर एक नियंत्रक शक्ति के रूप में नहीं और न ही उन्होंने भूमिगत नेताओं के आत्मसमर्पण पर बल दिया ।

1944 में अपनी रिहाई के बाद भी जब उन्होंने आत्मसमर्पण का आह्वान किया, तो भी हर किसी ने उनकी बात नहीं सुनी । उन्होंने भी ऐसे लोगों की जमकर प्रशंसा की, जो उनके अहिंसा के मार्ग से स्पष्ट तौर पर दूर चले गए थे । सतारा की प्रति-सरकार के प्रसिद्ध नेता नाना पाटिल से उन्होंने कहा था, ”मैं उन लोगों में से एक हूँ, जो यह मानते हैं कि वीरों की हिंसा कायरों की अहिंसा से बेहतर होती है ।”

मगर कांग्रेस हाईकमान ने, जिसपर अब दक्षिणपंथियों का कब्जा था, जनता के इस उग्र व्यवहार की जमकर भर्त्सना की; वह अनुशासन और सुव्यवस्था की एक दशा की ओर वापस लौटना चाहती थी और इसलिए उसने टकराव की बजाय वार्ता के द्वारा समझौते की प्रार्थना की ।

इस आंदोलन के बाद कांग्रेस लगातार आंदोलन का रास्ता छोड़कर संविधानवाद की ओर झुकती चली गई । इस तरह, जैसा कभी डी. ए. लो ने कहा था, राज से टकराने की प्रक्रिया में कांग्रेस स्वयं ही राज बनती जा रही थी । अंग्रेजी राज ने भी महत्त्वपूर्ण सबक सीखे । सबसे पहले तो उसने यह महसूस किया कि युद्धकालीन सह-शक्तियों के बिना ऐसे उग्र जन-आंदोलनों से निबटना मुश्किल होगा ।

युद्ध जब समाप्त होगा तो इतने भारी विरोध के मुकाबले ताकत के बल पर भारत को अपने वश में रखना हर तरह से महँगा सौदा होगा, और इसलिए सम्मानजनक और सुव्यवस्थित ढंग से अलग होने के लिए समझौता-वार्ता की अधिक तत्परता दिखाई देने लगी ।

इन वार्ताओं में कांग्रेस को प्रमुखता प्राप्त होने वाली थी, क्योंकि वही अकेला राजनीतिक संगठन था जिसमें ऐसा जन-आंदोलन खड़ा करने की क्षमता थी और उसे अकेला ऐसा संगठन भी माना जा रहा था, जो भारत को एक स्थिर सरकार दे सकती थी ।

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