धर्मनिरपेक्षता पर निबंध! Here is an essay on ‘Secularism’ in Hindi language.

धर्मनिरपेक्ष राज्य का चरित्र यह है कि धर्म समाज का सामूहिक कार्य न होकर व्यक्ति का व्यक्तिगत कार्य है । प्राचीन और मध्य युग में धर्म को सामान्यतया समाज का सामूहिक कार्य माना जाता था । राजा और प्रजा सभी के द्वारा प्राकृतिक शक्तियों की पूजा की जाती थी ।

वस्तुतः धार्मिक जीवन के दो अंग-विश्वास और आडम्बर होते हैं इनमें विश्वास ही अधिक महत्वपूर्ण होता है । धर्म आन्तरिक विश्वास की वस्तु है, अतः उसे समाज का सामूहिक कार्य न मानकर व्यक्तिगत आस्था की वस्तु मानना चाहिए । इस प्रकार सभी व्यक्तियों को अपनी इच्छानुसार धार्मिक जीवन व्यतीत करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए ।

धर्मनिरपेक्ष राज्य धार्मिक उदारतावाद का प्रशंसक और धार्मिक कट्‌टरता का विरोधी होता है । ऐसे राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होता है । दूसरी ओर धर्म सापेक्ष राज्य का अपना विशेष धर्म होता है । उदाहरणार्थ पाकिस्तान तथा कई अरब राष्ट्रों ने इस्लाम को अपना धर्म घोषित कर रखा है ।

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लेकिन धर्मनिरपेक्ष राज्य सभी धर्मों को समान समझता है और इसके द्वारा किसी विशेष धर्म के प्रभाव को बढ़ाने या कम करने का कोई प्रयत्न नहीं किया जाता । धार्मिक स्वतन्त्रता के साथ धर्मनिरपेक्ष राज्य सभी नागरिकों को समान अधिकार भी प्रदान करता है ।

धर्मनिरपेक्ष राज्य के अंतर्गत कोई भी धर्म या उस धर्म से सम्बन्धित पुरोहित वर्ग राज्य के कानूनों से मुक्त नहीं होता । ऐसे राज्य में सभी नागरिकों को अपनी इच्छानुसार धार्मिक जीवन व्यतीत करने का तो अधिकार होता है, किन्तु उन्हें अन्य धर्मों के विरोध का अधिकार नहीं होता ।

नागरिकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे कोई भी ऐसा कार्य न करें जिससे अन्य धर्मों के अनुयायियों की धार्मिक भावना को आघात पहुँचे । धर्मनिरपेक्ष राज्य गाँधी जी के इस विचार को स्वीकार करता है कि ”विश्व के सभी धर्म विशाल-वृक्ष की पत्तियों की भाँति हैं और विभिन्न धर्मों के अनुयायी दूसरे धर्मों के साथ अपने प्रमुख या गौण भेदों पर जोर दिये बिना एक-दूसरे के साथ प्रसन्नतापूर्वक रह सकते हैं ।”

ऐसा राज्य सर्वाधिकार का विरोध करता है जिसमें राज्य को व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन पर नियन्त्रण रखने का अधिकार होता है । धर्मनिरपेक्ष राज्य स्वयं धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं करता और सामान्यतया उसके द्वारा ऐसी संस्थाओं को आर्थिक सहायता भी प्रदान नहीं की जाती जिसके पाठ्‌यक्रम में धार्मिक शिक्षा के लिए निश्चित और महत्त्वपूर्ण स्थान होता है ।

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किन्तु धार्मिक शिक्षा के निषेध का तात्पर्य यह नहीं लिया जाना चाहिए कि राज्य नैतिकता के नियमों को स्वीकार नहीं करता । धर्म विशेष पर आधारित न होते हुए भी ऐसा राज्य अधार्मिक नहीं होता । किसी विशेष धर्म से सम्बन्धित न होने पर भी इस प्रकार का राज्य सत्य, अहिंसा प्रेम और विश्वबन्धुत्व आदि सर्वमान्य सिद्धान्तों के प्रति आस्था रखता है और इस दृष्टिकोण से धर्म और नैतिकता से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध होता है ।

भारतीय जीवन में सदैव धर्म का विशेष महत्व रहा है । किन्तु कालान्तर में धर्म के संकुचित रूप का प्रचलन हो गया और भारतीय समाज में धर्म के नाम पर इतने मतमतान्तर प्रचलित हो गये कि इससे समाज विभिन्न टुकडो में विभक्त हो गया और राष्ट्रीय एकता को भीषण आघात पहुँचा ।

किन्तु जहाँ एशिया और यूरोप के अनेक देशों में धर्म के नाम पर भीषण युद्ध हुए वहीं भारत ने धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया । महान सम्राट अशोक प्रतापी राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य तथा हर्ष वर्धन के राज्य में कहीं भी धार्मिक भेदभाव का वातावरण नहीं रहा ।

मध्यकाल में मुगल सम्राट अकबर ने सभी धर्मों के अनुयायियों को अपने-अपने धर्म का आचरण करने की स्वतन्त्रता प्रदान की । अंग्रेजों के शासन काल में मुहम्मद इकबाल ने ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ता हमारा’ जैसे गीत की रचना कर राष्ट्रीय एकता का बल प्रदान किया ।

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स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गांधी की आस्था हिन्दू धर्म में थी, किन्तु उन्हें सभी धर्मों के लोग सम्मान की दृष्टि से देखते थे और अभी भी देखते हैं । इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता के मूलभूत तत्व भारतीय जन-मानस में सदा से विद्यमान रहे हैं । इसी बहुआयामी दृष्टि से प्रेरित होकर भारतीय संविधान के निर्माताओं द्वारा धर्मनिरपेक्षता के आदर्श को अपनाया गया ।

धर्म-स्वातन्त्र्य के अधिकार को मौलिक अधिकारों में समाविष्ट कर धर्मनिरपेक्ष राज्य के स्वरूप को संविधान-निर्माताओं ने ग्रहण कर लिया । संविधान की प्रस्तावना से ही यह स्पष्ट हो जाता है जिसके अनुसार भारत के लोगों ने देश के समस्त नागरिकों के लिए विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता सुनिश्चित करने के लिए दृढसंकल्प किया है ।

संविधान के 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में ”धर्मनिरपेक्ष” शब्द को समाविष्ट कर इस विचारधारा को पूर्णतया अपनाने का स्पष्ट सकेत दे दिया गया है । ईश्वर की पूजा कोई जैसे भी चाहे कर सकता है । कानून किसी व्यक्ति को किसी विशेष पूजा-पद्धति अपनाने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है ।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 में सार्वजनिक व्यवस्था सदाचार, स्वास्थ्य और मौलिक अधिकारों के अन्य उपबन्धों के अधीन रहते हुए ही सभी व्यक्तियों को अतःकरण की स्वतन्त्रता तथा धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है ।

धर्मनिरपेक्षता, साम्प्रदायिकता धर्मान्तरण आदि ऐसे मुद्दे है जिन पर भारत में सबसे अधिक चर्चा होती है और कोई समाधानपरक रास्ता नहीं दिखाई पड़ता । भारत की ख्याति हमेशा धर्मपरायण देश के रूप में रही है, विशेषकर महात्मा गांधी के समय तक हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई की एकता की बात होती थी और सभी धर्मों में ईश्वर एवं सत्य की अनुभूति करने का प्रयास किया जाता था ।

आजादी के बाद भारत के विभाजन का वातावरण कई वर्षों तक बना रहा, उमसे हुए खून-खराबे की वीभत्सता ने भारत को कई शब्द दिए, धर्मनिरपेक्षता उनमें से एक था । भारत के संविधान में भी धर्म निरपेक्षता को सबसे प्रमुख स्थान दिया गया । बाद में इस शब्द का स्थान पथ निरपेक्षता ने ले लिया ।

यदि हम धर्मातरण के इतिहास का अवलोकन करे तो इसका पहला ऐतिहासिक प्रमाण छठीं शताब्दी ई. पूर्व का मिलता है, जब गौतम बुद्ध ने स्वयं पाँच हिन्दुओं को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी और उन्हें बौद्ध बनाया । यही नहीं, बौद्ध धर्म ने सबसे पहले भारत की सीमा से बाहर जाकर सुदूर पूर्व के देशों में लोगों का धर्मांतरण कराया ।

हालांकि ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता है कि धर्मातरण के लिए किसी बौद्ध मतानुयायी ने किसी प्रकार की जोर-जबर्दस्ती की हो । धर्मातरण का दूसरा महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रमाण इस्लाम से संबंधित है ।  मुहम्मद साहब ने जब इस धर्म का सूत्रपात किया तब सबसे पहले अपनी पत्नी खदीजा का धर्मातरण कराया । तीसरी महत्त्वपूर्ण घटना ईसाई धर्म से संबंधित है, जब ईसा मसीह ने ईसाई धर्म की स्थापना की और सेंट थॉमस समेत 12 शिष्यों का धर्मांतरण कराया ।

मध्य युग में भी धर्मातरण के द्वारा लोगों को इस्लाम धर्म में दीक्षित किया जाता रहा । कभी लोगों को स्वेच्छा से तो कभी जबरन धर्मांतरण करना पड़ा । आधुनिक काल में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर लाखों दलितों के साथ बौद्ध बन गए, जो कि धर्मांतरण की एक बड़ी घटना थी ।

धर्मांतरण के क्षेत्रीय और भौगोलिक स्वरूप की चर्चा भी बेहद महत्वपूर्ण है । जिन क्षेत्रों में विदेशी आक्रमणकारियों अथवा विदेशी व्यापारियों का आगमन हुआ, उन क्षेत्रों में उनकी कठोर नीतियाँ भी धर्मांतरण के लिए जिम्मेदार थी । जजिया कर के द्वारा गरीब जनता पर बड़ा बोझ लाद दिया गया, जिससे उसने धर्मांतरण करने में ही अपनी भलाई समझी ।

ईस्ट इंडिया कम्पनी का जिन क्षेत्रों में प्रभाव ज्यादा था, उन क्षेत्रों में वृहत् पल पर ईसाई मिशनरी आए और उन्होंने लोगों को ईसाई धर्म की ओर प्रेरित किया । इस्लाम और ईसाई, दोनों ही धर्मों का उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर अपने धर्म का विस्तार करना था, अतः दोनों ने ही इसके लिए हर तरह के साधनों का प्रयोग किया ।

गोवा, कोलकाता, मुंबई, पुडुचेरी, केरल जैसे तटवर्ती क्षेत्रों और पूर्वोतर राज्यों में जहां ईसाई मशीनरियों का प्रभाव था वहाँ बड़े पैमाने पर धर्मातरण हुआ । मध्यकाल में भारत में आचरण की पवित्रता छुआछूत की शक्ल ले चुकी थी और उसके कारण समाज बहिष्कार की सामाजिक व्यवस्था का सूत्रपात हो चुका था ।

भारत की इस कमजोरी का लाभ उन सीरियाई भगोड़ा ने उठाया तथा अपनी संख्या के विस्तार का आधार बनाया । इसके बाद भी 15वीं शताब्दी तक उसका बहुत अधिक प्रभाव नहीं दिखा । 16वीं शताब्दी में धर्मान्तरण की विषवेल का फैलना शुरू हुआ । 1540 में पुर्तगाल के एक पादरी ‘जेवियर’ ने धर्मान्तरण के लिए शासन की तलवार का सहारा लिया । गोमान्तक (गोवा) का ऐतिहासिक धर्मान्तरण उसी का परिणाम था । तलवार का यही उपयोग मुस्लिम शासकों ने जारी रखा ।

भारत में प्रचलित ‘बहिष्कार’ ने इस धर्मान्तरण को व्यापक आधार दिया । विदेशियों ने उसी का लाभ उठाया । अंग्रेज शासकों ने ‘मुस्लिम शासकों से प्रेरणा लेकर धर्मान्तरण को राजकीय दायित्व में शामिल कर लिया, ईसाई बनने वाले लोगों को विशेष सुविधाएँ दी गई । इसके लिए यूरोपीय देशों से ईसाई धर्मगुरुओं (पादरियों) की सेवाएं ली गई भारत में लम्बे समय तक एकतरफा ‘पलायन’ जारी रहा ।

धर्मान्तरण के सामान्यतया व्यक्तिगत कारण होते हैं, परन्तु कई कारण ऐसे भी हैं जिन्हें सामूहिक कहा जा सकता है । मिथ्याचार-हिन्दुओं द्वारा धर्म परिवर्तन का एक बडा कारण हिन्दुओं का अपना मिथ्याचार भी है । बात-बात पर समाज से बहिष्कृत कर देना, दलितों का अपमान करना उनके साथ छुआछूत का बर्ताव करना, जातिच्युत कर देना, आदि से उत्पन्न निराशा तथा आक्रोश धर्मान्तरण का सबसे प्रमुख कारण बना ।

इसके अलावा आर्थिक अभाव भी धर्मान्तरण का बड़ा कारण रहा है । भारत का दलित वर्ग गरीबी व अभाव का शिकार रहा है । बाहर से आए ईसाई मशीनरियों ने उन्हें पेट भर रोटी देने का लालच दिया, साथ ही उन्हें दलित मानसिकता से उबारने के लिए शासन से सहायता दिलाई । प्रारम्भ में उन्हें सुविधाएँ दी गई । परन्तु धर्म परिवर्तन के बाद उन्हें कुछ दिनों तक इस तरह से रखा भी गया मानो वे ही सत्ता के कृपापात्र हों । उनका बदलाव देखकर अन्य लोग भी प्रेरित होते रहे ।

जहाँ ईसाई पादरी छल-प्रपंच से धर्मान्तरण का काम करते थे, मुस्लिम शासन में वह काम तलवार के बल पर किया गया जैसे-जेवियर ने तलवार के बल का प्रयोग किया था और इसमें पुर्तगाल की सत्ता ने उसे सहायता पहुंचाई । मुस्लिम शासन ने ‘इस्लाम’ या ‘मौत’ का विकल्प रखा । देश में लम्बे समय से चली आ रही सामती प्रथा भी सामूहिक धर्मान्तरण के लिए पोषक तत्व रही है । किसी मुखिया जमींदार या राजा के धर्म परिवर्तन के बाद उसके लोग भी धर्मान्तरित हो जाते थे ।

धर्मान्तरण का अर्थ मात्र मंदिर, मस्जिद, चर्च या किसी धर्मस्थल पर जाने या दूसरे धर्मस्थल पर जाने से नहीं लगाया जा सकता अपितु धर्म परिवर्तन का सम्बन्ध अवधारणाओं तथा निष्ठा परिवर्तन से है । एक हिन्दू या मुसलमान जैसे ही ईसाई बनता है, उसकी निष्ठाएँ तुरन्त रोम से सम्बद्ध हो जाती है ।

ईसाई या हिन्दू जब मुसलमान हो जाता है, तब उसका मानसिक झुकाव तुरन्त मक्का-मदीना की ओर जाता है । विश्व के हिन्दू केवल भारत की ओर देख सकते हैं, क्योंकि उनका मूल स्थान यही है तथा उनके तीर्थस्थल भी यहीं हैं । धर्मान्तरण के कारण देश की सनातन संस्कृति में भी परिवर्तन आते हैं ।

उनमें टकराव होने लगता है, जो कभी-कभी साम्प्रदायिक दगो का रूप ले लेता है । भारत इन दंगों का सबसे बडा गवाह है । कभी हिन्दू-मुस्लिम तो कभी हिन्दू-ईसाई आदि दगे इसी मानसिकता का प्रतिफल हैं । धर्म-परिवर्तन की समस्या को प्रभावी बनाने में सांस्कृतिक अभिमान एक आधारभूत कारक है ।

प्रत्येक धर्म में मनुष्य मात्र से प्रेम करने अथवा मुक्ति पाने की तमाम संभावनाएँ मौजूद है लेकिन इसके बावजूद विभिन्न पथो के झंडाबरदार अन्य मतों के विरुद्ध कुप्रचार करते हुए अपने-अपने पथ को सांस्कृतिक श्रेष्ठता का जामा पहनाने की कोशिश करते हैं और समाज के हाशिये पर मौजूद तबकों की मजबूरी का लाभ उठाकर उन्हें अपने पथ में शामिल होने हेतु बाध्य करते हैं ।

इतिहास साक्षी है कि इस्लाम ने कई बार बल प्रयोग व हिंसा से लोगों को अपना धर्म परिवर्तन करने के लिए बाध्य किया तो इधर 18वीं व 19वीं सदी में ईसाई मशीनरियों ने एक तरफ आर्थिक सुरक्षा के प्रलोभन देकर और दूसरी तरफ हिन्दू देवी-देवताओं को गालियों से विभूषित करके लोगों का मन हिन्दू धर्म से फेरने की कोशिश की ।

किन्तु समस्या के पहलू और भी हैं । सैकड़ों हिन्दू जो ईसाई बने या बौद्ध धर्म की शरण में गये या जाते हैं, वह केवल धन की इच्छा या स्वार्थ से आकर्षित होकर ऐसा करते हैं सर्वत्र यह बात लागू नहीं होती । हजारों आदिवासियों और अछूतों को जिस तरह का शोषण झेलना पडता है, वह जिस दरिद्रता एवं अभाव में जीवन बिताते हैं, ऐसी अवस्था में अपनी बेहतरी के लिए अथवा सामाजिक-आर्थिक खुशहाली पाने के लिए अगर धर्म परिवर्तन करते हैं तो भला उनका क्या दोष? लेकिन इसी बात से धर्मान्तरण से जुड़ी जो भ्रांतियां हैं, वे दूर नहीं होती ।

वे विभिन्न धर्मों के नेतृत्व को आत्ममंथन के लिए प्रेरित कर सकती हैं । हिन्दुओं को सोचना चाहिए कि क्या वे अपने निर्धन, निर्बल और असहाय धर्मानुयायियों की उन्नति विकास व शिक्षा के लिए कोई त्याग नहीं कर सकते?

इसी तरह ईसाई मशीनरियों को सोचना चाहिए कि जहाँ वे निर्माण कार्यों में योगदान देकर सेवा-भाव प्रदर्शित करते हैं, वही इसे क्यों जरूरी समझते है कि उनकी सहायता पाने वाले लोग अपना धर्म छोडकर ही बेहतर जीवन के अधिकारी हो सकते हैं ।

क्या वे हिन्दू को हिन्दू या मुस्लिम को मुस्लिम बने रहते हुए ही उसे खुशहाली नहीं दे सकते? उधर क्या हिन्दू समाज अपने सभी धर्म-भाइयों को सुख-चैन दिलाये बिना विशेषतः दलितों का उद्धार किए बिना इस बात का दावा कर सकता है कि हिन्दुत्व उस ऐतिहासिक प्रवाह का नाम है जिसमें जाति, भाषा, रहन-सहन, आचार-विचार, उपासना पद्धति आदि की बहुविध विशेषताओं को शिरोधार्य करते हुए उनको जोडने वाले सांस्कृतिक सूत्र विकसित हुए ।

जरूरत इस बात की है कि हम सभी आत्ममंथन करें और विचार करें कि क्यों आदिवासी और दलित ही धर्मान्तरण कर रहे हैं? 1920 के आसपास आर्य समाज की ओर से जब स्वामी श्रद्धानंद ने शुद्धि आंदोलन चलाया था, उस समय भी यह सवाल उठा था ।

वे हिन्दू जो मुस्लिम बने थे, उन्हें शुद्ध करके फिर हिन्दू बनाने हेतु चले इस आंदोलन के खिलाफ स्वयं मुशी प्रेमचद ने लेख लिखा था । अतः इसके लिए दूसरों पर दोषारोपण न करके अपने गिरेबान में झांकना होगा और ऐसी व्यवस्था कायम करनी होगी जो उस पंथ की सहृदयता से ओतप्रोत हो और उस व्यवस्था का प्रत्येक अंग जीवन जीने के प्राकृतिक अधिकार का पूरे सम्मान के साथ प्रयोग कर सके ।

हर धर्म का अनुयायी अपने धर्म के भीतर ही अपने सर्वांगीण विकास की समूची संभावनाएं तभी तलाश सकेगा जबकि उस धर्म पर छाया कट्‌टरता एवं रूढ़िवादिता का कोहरा हटाया जाए । यदि ऐसा होता है तो न सिर्फ धर्मान्तरण पर नियंत्रण लग सकेगा बल्कि भारतीय लोकतंत्र का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप और अधिक निखार पा सकेगा ।

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