भारत में धर्मनिरपेक्षता पर निबंध | Essay on Secularization in India in Hindi.

Contents:

  1. लौकिकीकरण  का परिचय
  2. लौकिकीकरण  का अर्थ
  3. लौकिकीकरण से परिवर्तन
  4. परिवार में लौकिकीकरण
  5. ग्रामीण समुदाय पर लौकिकीकरण का प्रभाव
  6. लौकिकीकरण के कारण


1. लौकिकीकरण  का परिचय:

किसी भी आधुनिक शहर में मिलों में काम करने वाले मजदूरों, ऑफिसों में काम करने वाले बाबुओं दुकानदारों, डाक्टरों वकीलों और सरकारी कर्मचारियों आदि के दैनिक जीवन पर दृष्टि डालिए तो आप देखेंगे कि भारत के धर्मप्राण देश कहलाने के बावजूद भी आधुनिक काल में उनके जीवन में धर्म का महत्व बहुत कम रह गया है ।

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अधिकतर पढ़े-लिखे लोग अपने जीवन में विभिन्न क्रियाओं को धार्मिक उद्देश्य से नहीं बल्कि वैज्ञानिक अथवा अन्य उद्देश्यों से करते हैं । वे जिन पुरानी परम्पराओं को मानते भी हैं उनको इस कारण नहीं मानते कि धर्म के द्वारा उनका विधान किया गया है बल्कि वे उनके मूल में किसी न किसी कारण की तलाश कर लेते हैं और उसे व्यक्ति अथवा समाज के लिये लाभदायक मानकर मानते है ।

केवल पढ़े-लिखे लोगों में नहीं बल्कि बेपढ़े-लिखे लोगों में भी धर्म का सम्मान कम होता जा रहा है यद्यपि निश्चय ही पढ़े-लिखे लोगों की तुलना में भारत में उनके जीवन में आज भी धर्म का कहीं अधिक महत्व है । जीवन का यह लौकिकीकरण केवल नगर में ही दिखाई पड़ता हो ऐसी बात नहीं है, गाँवों में भी दिनचर्या में विभिन्न त्यौहारों और रीति-रिवाजों में धर्म का महत्व कम होता जा रहा है ।

वर्तमान भारत में नगरों और गाँवों में सब कहीं लौकिकीकरण का प्रभाव अन्य धर्मों की तुलना में हिन्दू धर्म में अधिक दिखलाई पड़ता है । आज भी मुस्लिमों, सिखों जैनों तथा अन्य धर्मों के अनुयायियों की तुलना में हिन्दुओं में लौकिकीकरण अधिक हुआ है । इस विवेचन से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया यह लौकिकीकरण क्या है ?


2. लौकिकीकरण का अर्थ:

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डॉ॰ एम. एन. श्रीनिवास ने लौकिकीकरण की परिभाषा करते हुए लिखा है- ”लौकिकीकरण शब्द से यह तात्पर्य है कि जो कुछ पहले धार्मिक माना जाता था, वह अब वैसा नहीं माना जा रहा है और उसका तात्पर्य विभेदीकरण की एक प्रक्रिया से भी है जो कि समाज के विभिन्न पहलुओं आर्थिक, राजनीतिक, कानूनी और नैतिक के एक दूसरे के प्रति सम्बन्ध में अधिक से अधिक पृथक होने में दिखलाई पड़ती है ।

इस प्रकार लौकिकीकरण की प्रक्रिया धार्मिकता की विरोधी है । दूसरे शब्दों में ज्यों-ज्यों लौकिकीकरण बढ़ता है त्यों-त्यों धार्मिकता कम होती है । भारतवर्ष में गाँवों और नगरों में विशेषतया हिन्दू समाज में धर्म का प्रभाव घटने के अनुपात में लौकिकीकरण बढा है ।

संक्षेप में इसके निम्नलिखित लक्षण माने जा सकते हैं:

(i) धार्मिकता का ह्रास:

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लौकिकीकरण का मुख्य लक्षण उसकी वृद्धि के साथ-साथ धार्मिकता का हार है । हिन्दू-समाज में आधुनिक काल में जीवन के विभिन्न कार्यों में धार्मिक व्याख्याओं का महत्व कम हो जाने से लौकिकीकरण बढ़ा दिखाई पड़ता है ।

(ii) विभेदीकरण की प्रक्रिया:

लौकिकीकरण बढ़ने से समाज में विभिन्न पहलुओं में विभेदीकरण बढ़ा है । इस प्रकार आधुनिक काल में पड़ा-लिखा हिन्दू आर्थिक, राजनीतिक, कानूनी और नैतिक प्रश्नों को एक-दूसरे से अलग मानता है और इन पर धर्म का कोई प्रभाव नहीं मानता । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उस क्षेत्र के नियमों के अनुसार विचार किया जाता है । इस प्रकार धर्म के रूप में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को बाँधने वाला बन्धन समाप्त हो जाता है ।

(iii) विवेकशीलता:

लौकिकीकरण का एक मुख्य लक्षण विवेकशीलता है । इसमें व्यक्ति अपने जीवन में उठने वाली प्रत्येक समस्या पर अपने विवेक से विचार करता है और उस सम्बन्ध में धर्म पुस्तक में लिखी हुई बातों को विशेष महत्व नहीं देता ।

विवेकशील व्यक्ति व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में प्रत्येक बात को विवेक के द्वारा निश्चित करने का प्रयास करता है । वह धार्मिक परम्पराओं और रूढ़ियों को बिना सोचे-समझे नहीं मानता बल्कि उनके मूल में छिपे हुए कारणों की आलोचना करता है और यदि वे विवेकयुक्त होते हैं तो उन्हें मानता है अन्यथा उनका परित्याग कर देता है ।

(iv) वैज्ञानिक दृष्टिकोण:

लौकिकीकरण का एक मुख्य लक्षण जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण है । फ्रायड तथा अन्य विचारकों के अनुसार मनुष्य के जीवन पर ज्यों-ज्यों विज्ञान का प्रभाव बढ़ता जाता है त्यों-त्यों धर्म का प्रभाव कम होता जाता है ।

फ्रायड का यह मत न भी माना जाए तो भी इसमें कोई सन्देह नहीं कि विज्ञान की नई-नई खोजों से जीवन के अनेक क्षेत्रों में जैसे भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि क्षेत्रों में धार्मिक व्याख्याओं का प्रभाव बहुत कम होता जा रहा है क्योंकि उनका स्थान वैज्ञानिक व्याख्यायें लेती जा रही है । यही कारण है कि आधुनिक भारत में शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ लौकिकीकरण बढ़ा है । पश्चिम के जिन देशों में विज्ञान की जितनी अधिक प्रगति हुई वहाँ पर लौकिकीकरण का प्रभाव उतना ही अधिक दिखाई पड़ता है ।


3. लौकिकीकरण से परिवर्तन:

लौकिकीकरण के उपरोक्त लक्षणों से उसकी प्रकृति स्पष्ट होती है । आधुनिक भारत में लौकिकीकरण की प्रक्रिया अंग्रेजी शासनकाल में विशेष रूप से विकसित हुई और नगरीकरण तथा औद्योगीकरण के बढ़ने के साथ-साथ तेजी से बढ़ती गई ।

लौकिकीकरण के कारणों की विवेचना करने के पूर्व यह देखना उपयुक्त होगा कि सामाजिक परिवर्तन की इस प्रक्रिया से भारत में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में क्या-क्या परिवर्तन हुआ है । संक्षेप में, लौकिकीकरण से होने वाले मुख्य परिवर्तन तीन क्षेत्रों में दिखलाई पड़ते हैं- जाति-व्यवस्था, परिवार की संस्था और ग्रामीण समुदाय ।

इन तीनों ही क्षेत्रों में हिन्दू समाज में लौकिकीकरण दिखलाई पड़ता है । डॉ॰ एम. एन. श्रीनिवास ने अपनी पुस्तक ‘Social Change in Modern India’ में इन्हीं क्षेत्रों में लौकिकीकरण के प्रभाव का विश्लेषण किया है । यहाँ पर इन तीनों क्षेत्रों में लौकिकीकरण के प्रभाव का संक्षेप में विवेचन किया जायेगा ।

जाति-व्यवस्था पर लौकिकीकरण का प्रभाव:

हिन्दू जाति-व्यवस्था में लौकिकीकरण का प्रभाव निम्नलिखित क्षेत्रों में देखा जा सकता है:

(i) अशुद्धता और शुद्धता की धारणायें:

हिन्दू समाज में धर्म का प्रभाव सबसे अधिक अशुद्धता और शुद्धता की धारणाओं में दिखाई पड़ता है । धार्मिक दृष्टिकोण से समाज में कुछ कार्यों को अशुद्ध ठहराया गया है, विशेषतया नीची जातियों के उन्हें करने से वे अशुद्ध मानी जाती हैं । उदाहरण के लिए हिन्दू सामाजिक संस्तरण में अनेक कार्य जिन्हें शूद्र करते हैं उन्हें करने से ब्राह्मण को अपवित्र हुआ समझा जाता है । अपवित्रता की भावना के साथ-साथ छुआछूत की भावना भी लगी हुई है ।

उच्च जातियों के व्यक्तियों के लिए निम्न जातियों अथवा अछूत कहलाने वाली जातियों के साथ खाना-पीना, उठना-बैठना तो क्या, केवल सम्पर्क होने मात्र से भी उच्च जाति का व्यक्ति अपवित्र हुआ माना जाता है । सम्पर्क के अतिरिक्त भोजन, व्यवसाय और जीवन के अनेक कार्यों से भी शुद्धता की धारणायें लगी हुई हैं ।

उदाहरण के लिये उच्च जाति के व्यक्ति निम्न जातियों के व्यक्तियों के हाथ का छुआ हुआ भोजन नहीं खाते क्योंकि वह अपवित्र माना जाता है । सामाजिक कार्यों में मैला उठाना, झाड़ लगाना, कसाई का कार्य आदि अपवित्र माने जाते है और उन कार्यों को करने वाले व्यक्ति को छूने से अपवित्रता होती है ।

सामाजिक जीवन में अनेक अवसरों पर स्त्री-पुरुष में अपवित्रता मानी जाती है । उदाहरण के लिए परिवार में किसी की मृत्यु के अवसर पर विभिन्न सम्बन्धियों पर विभिन्न समय के लिए अपवित्रता मानी जाती है । स्त्रियों में मासिक रक्त स्राव की अवधि में अपवित्रता मानी जाती है और उनको परिवार के अन्य लोगों से अलग रहने और घर के बर्तन आदि न छूने का आदेश दिया जाता है ।

स्त्री-पुरुष से निकलने वाले सभी पदार्थों को अपवित्र माना जाता है और इसलिए हिन्दू-संस्कृति में धार्मिक कार्यों के अवसरों के पूर्व स्नान करने का आदेश है । अनेक धार्मिक अवसरों पर यौन-प्रसंग का निषेध होता है । हिन्दू स्त्री-पुरुष की दिनचर्या में भी पवित्रता की धारणा का बड़ा महत्व है उदाहरण के लिए पहले दाढ़ी के बालों और बाल बनाने वाले नाई दोनों को ही अपवित्र माना जाता था । मुण्डन के समय उस स्थान को शुद्ध करने के लिए गोबर से लीपा जाता था ।

अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव से जब लोग स्वयं सेफ्टी रेजर से हजामत बनाने लगे तो प्रारम्भ में धार्मिक विचारों के व्यक्तियों ने इसका बड़ा विरोध किया । हिन्दू समाज में पवित्रता और अपवित्रता के विचार सबसे अधिक ब्राह्मणों में पाए जाते है । इनमें भी विशेषतया वृद्ध व्यक्ति और उनमें भी स्त्रियाँ और विधवायें इन बातों को अधिक मानती हैं पवित्रता से पुण्य मिलता है जबकि अपवित्रता से पाप होता है ।

लौकिकीकरण के प्रभाव से आधुनिक काल में हिन्दू समाज में पवित्रता और अपवित्रता की भावना में भारी अन्तर दिखलाई पड़ता है । पहले उच्च जाति के लोग निम्न जाति के व्यवसायों को नहीं करते थे । आजकल ब्राह्मण भी जूते बेचने की दुकान चलाते हैं और इसमें कोई अपवित्रता नहीं मानी जाती ।

आधुनिक घरों में पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ मासिक धर्म की अवधि में छुआछूत के नियमों का बिलकुल पालन नहीं करतीं और न अन्य लोग ही उनको अपवित्र मानते है । अस्पृश्यता-विरोधी प्रचार से अछूतों के साथ बैठकर खाने-पीने आदि पर कोई रोक-टोक नहीं रह गई है और विभिन्न जातियों के परस्पर सम्पर्क, खाने-पीने, उठने-बैठने आदि से पवित्रता का कोई सम्बन्ध नहीं माना जाता ।

अंग्रेजी पड़े और पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित स्त्री-पुरुष अपने जीवन में किसी भी बात में धार्मिक पवित्रता और अपवित्रता, पाप और पुण्य के विचारों को नहीं मानते यह बात ब्राह्मण जाति के शिक्षित व्यक्तियों और स्त्री-पुरुषों के बारे में भी कही जा सकती है ।

शिक्षा, विवेकशीलता और विज्ञान के प्रभाव से आजकल पवित्रता और अपवित्रता की धारणाओं को धार्मिक दृष्टि से नहीं बल्कि सफाई के दृष्टिकोण से देखा जाता है अनेक परम्परागत बातों को आज भी माना जाता है, इसलिए नहीं कि उनका धार्मिक विधान है बल्कि इसलिए कि सभी सफाई से रहना चाहते हैं क्योंकि वह आरोग्य का पहला नियम है । इस प्रकार पवित्रता और अपवित्रता के विचार से सम्बन्धित क्रियाओं का लौकिकीकरण किया गया है और वे धार्मिक नहीं रह गई हैं ।

(ii) संस्कारों में परिवर्तन:

संस्कार हिन्दू जाति-व्यवस्था की एक मुख्य विशेषता है । विभिन्न जातियों के लिए विभिन्न अवसरों पर विभिन्न संस्कार आवश्यक माने गए हैं उदाहरण के लिये उपनयन संस्कार के बिना कोई भी ब्राह्मण द्विज नहीं माना जा सकता । प्राचीन काल में विद्याध्ययन प्रारम्भ होने के कुछ ही समय बाद संस्कार कर दिया जाता था ।

हिन्दू धर्म के मनुष्यों के लिए जन्म से मृत्यु तक अनेक संस्कारों की व्यवस्था है जिनमें मुख्य हैं गर्भाधान, पुंसवन, जातकर्म, नामकरण, उपनयन, समावर्तन, विवाह और अंत्येष्टि । इन सभी संस्कारों के अवसरों पर विधि-विधान का विस्तार से वर्णन किया गया है और संस्कार को भली प्रकार पूरा करने के लिए उन सब विधि-विधानों को मानना आवश्यक समझा जाता है ।

आधुनिक काल में लौकिकीकरण के प्रभाव से संस्कारों के महत्व और विधि-विधानों में भारी परिवर्तन हो गया है । उदाहरण के लिए गर्भाधान, पुंसवन और जातकर्म नामक संस्कार तो लगभग समाप्त हो गए हैं और पढ़े-लिखे लोग इनका अर्थ भी नहीं जानते इस प्रकार सबसे पहला संस्कार नामकरण संस्कार रह गया है ।

यह भी धार्मिक से अधिक सामाजिक अवसर बन गया है जिसमें सगे-सम्बन्धी एकत्रित होते हैं, मिलकर खाते-पीते और बालक के जन्म का हर्ष मनाते है । नामकरण के अवसर पर अब भी पंडित को बुलाया जाता है और वह कुछ यज्ञ आदि विधि-विधान करता है परन्तु उपस्थित लोग उसकी ओर कोई विशेष ध्यान नहीं देते ।

उपनयन संस्कार की प्रथा पढ़े-लिखे और नगरीय परिवारों में विवाह के संस्कार के साथ जोड़ दी गई है । अधिकतर विवाह के कुछ ही दिन पूर्व उपनयन संस्कार किया जाता है । जिसमें अधिकतर पुरुष केवल कुछ समय के लिए जनेऊ धारण करते हैं । संस्कार के विधि-विधानों में सबसे अधिक परिवर्तन विवाह संस्कार में दिखलाई पड़ता है ।

आजकल हिन्दू विवाह संस्कार के प्राचीन विधानों में केवल सप्तपदी और कन्यादान ही रह गए हैं । इनके अतिरिक्त अन्य सब कार्य सुविधा अथवा रुचि के अनुसार किए जाते हैं । सप्तपदी में भी कम-से-कम समय देने की चेष्टा की जाती है और लड़के के साथ आए हुए बाराती उसमें विशेष रुचि नहीं दिखलाते ।

विवाह का अवसर धार्मिक से अधिक एक सामाजिक अवसर हो गया है जिसमें सगे-सम्बन्धियों के मिलने-जुलने, खाने-पीने आदि को अधिक महत्व दिया जाता है । विवाह के संस्कार में लौकिकीकरण का प्रभाव सबसे अधिक दहेज की प्रथा में दिखाई पड़ता है । विवाह-सम्बन्ध दहेज की मात्रा से तय किए जाते है; उनमें धार्मिक बातों को उतना अधिक महत्व नहीं दिया जाता ।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि लैकिकीकरण के प्रभाव से भारतीय जाति-व्यवस्था में भारी परिवर्तन हो गया है । आजकल व्यवसाय जाति के आधार पर निश्चित नहीं किए जाते बल्कि अन्य कारकों के द्वारा निश्चित होते हैं ।

‘अस्पृश्यता उन्मूलन आन्दोलन’ के प्रभाव से उच्च और निम्न जातियों के मध्य परस्पर सम्पर्क में पवित्रता और अपवित्रता का विचार उठता जा रहा है । जातियों के संगठन निर्बल हो गए हैं और उनका स्थान व्यवसायों तथा अन्य कारकों पर आधारित संगठनों ने ले लिया है ।

लौकिकीकरण के कारण लोग अपने नाम से जाति-सूचक शब्द भी निकालते जा रहे हैं । अन्तर्जातीय विवाहों की संख्या बढ़ रही है और हिन्दुओं के जीवन में जाति-व्यवस्था का महत्व बराबर कम होता जा रहा है ।


4. परिवार में लौकिकीकरण:

परिवार और विवाह की संस्थाएँ मुख्य सामाजिक संस्थाएँ हैं इनमें विवाह की संस्था पर लौकिकीकरण के प्रभाव का पीछे वर्णन किया जा चुका है । विवाह विच्छेद की व्यवस्था और सिविल मैरिज की व्यवस्था हो जाने से हिन्दू विवाह का और भी अधिक लौकिकीकरण हो गया है ।

परिवार की संस्था में लौकिकीकरण का प्रभाव सबसे अधिक सदस्यों की दिनचर्या में दिखलाई पड़ता है । हिन्दू धर्म विभिन्न जातियों के व्यक्तियों के लिए विशेष दिनचर्या निर्धारित करता है । ब्राह्मणों के लिए पूजा-पाठ, सन्ध्या, यज्ञ आदि का विधान है परन्तु लौकिकीकरण के प्रभाव से ब्राह्मण परिवारों में भी बहुत ही कम लोग नित्य कर्म में निर्धारित इन कार्यक्रमों को करते देखे जाते हैं ।

स्त्रियों में शिक्षा के प्रभाव से परिवार में चूल्हे-चौके का लौकिकीकरण हुआ है और उसमें धर्म का प्रभाव तथा शुद्धि और अशुद्धि का विचार लगभग उठ ही गया है । परिवार में खान-पान आदि में धार्मिक विचारों का प्रभाव बहुत कम रह गया है । विभिन्न त्यौहार अब भी मनाए जाते हैं परन्तु उनके धार्मिक महत्व के स्थान पर उनके सामाजिक पहलू पर अधिक जोर दिया जाता है ।

पढ़े-लिखे लोग होली, दीवाली आदि त्यौहारों को उनके धार्मिक महत्व के कारण नहीं बल्कि उनके सामाजिक और मनोवैज्ञानिक महत्व के कारण मानते हैं । अनेक त्यौहारों रीति-रिवाजों और परम्पराओं के मूल में छिपे हुए वैज्ञानिक तथ्यों का उद्‌घाटन होने से उनका महत्व पहले से भी अधिक बढ़ गया है । परन्तु इसके कारण धार्मिक न होकर लौकिक है ।

समय-समय पर यज्ञ आदि अब भी किए जाते हैं परन्तु उनसे पुण्य कमाने के स्थान पर वायु के स्वच्छ होने के महत्व पर अधिक जोर दिया जाता है । देश में उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम में दूर-दूर फैले हुए तीर्थों की यात्रा आधुनिक भारत में पहले से भी अधिक की जाने लगी है परन्तु अधिकतर यात्रियों का लक्ष्य धार्मिक न होकर देशाटन और मनोरंजन है ।

लोग दूर-दूर के मन्दिरों को देखने जाते है, गंगा में स्नान करते है, ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों पर बसे हुए तीर्थस्थानों की यात्रा करते हैं, क्योंकि इनसे जीवन में परिवर्तन होता है, ताजगी आती है, ज्ञान बढ़ता है और देश के विविध रूपों का परिचय मिलता है ।

लौकिकीकरण में परिवार की संस्था का योगदान सबसे अधिक है क्योंकि आधुनिक परिवारों में न केवल दिनचर्या में धर्म का महत्व कम है बल्कि साधु-सन्तों के सत्कार करने की प्रथा भी उठ गई है इससे समाज में धर्म का प्रभाव कम हुआ ।

नगरीय क्षेत्रों में परिवार के धार्मिक कार्य क्रमशः समाज होते जा रहे हैं परिवार की संस्था में तेजी से परिवर्तन हो रहा है और उसके अनेक कार्य अन्य समितियाँ लेती जा रही हैं विभिन्न परिवारों का परस्पर मेल-मिलाप धार्मिक कारणों से नहीं बल्कि सामाजिक कारणों से होता है ।


5. ग्रामीण समुदाय पर लौकिकीकरण का प्रभाव:

भारतीय नगरों में तो लौकिकीकरण अत्यधिक मात्रा में दिखाई पड़ता ही है किन्तु ग्रामीण समुदायों में भी उसका प्रभाव कम नहीं है । ग्रामीण समुदाय में जाति-पंचायतों की शक्ति घटती जा रही है और जहाँ-कहीं ये पंचायतें है भी वहाँ वे धार्मिक लक्ष्यों से नहीं बल्कि राजनीतिक लक्ष्यों को लेकर संगठित की गई हैं ।

ग्रामीण समाज में सम्मान का आधार धार्मिकता अथवा जाति न रहकर धन और सम्पत्ति हो गए हैं । इस कारण जमींदार और साहूकार का जितना सम्मान है उतना ब्राह्मण का नहीं है । पैसा हो जाने पर निम्न जाति के व्यक्तियों को भी उच्च जाति के व्यक्तियों से अधिक सम्मान दिया जाता है ।

परिवार की संस्था में धर्म का प्रभाव कम होता जा रहा है । इस सम्बन्ध में ग्रामीण परिवार में भी वे ही परिवर्तन दिखलाई पड़ते हैं जिनका उल्लेख पीछे किया जा चुका है । फिर भी नगरीय परिवार की तुलना में ग्रामीण परिवार का लौकिकीकरण बहुत कम हुआ है ।

ग्रामीण समुदाय में विवाह के मामले में उपजातियों का विचार नहीं किया जाता यद्यपि अन्तर्जातीय विवाह बहुत कम होते हैं फिर भी लौकिकीकरण के प्रभाव से ब्राह्मण के घर में बनैनी और क्षत्रिय के घर में ब्राह्मणी स्त्री देखी जा सकती है ।

ग्रामीण पंचायत में अधिकतर समस्याओं पर धार्मिक दृष्टि से नहीं बल्कि सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से विचार किया जाता है । धार्मिक उत्सव अधिकतर सामाजिक उत्सवों के रूप में मनाए जाते हैं सभी जातियों के व्यक्ति खेती और व्यापार तथा पशुपालन के व्यवसाय करते देखे जा सकते हैं । व्यवसाय में एक मात्र लक्ष्य अधिक से अधिक पैसा कमाना है और उसमें धार्मिक प्रश्न नहीं उठाए जाते ।


6. लौकिकीकरण के कारण:

आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया के रूप में लौकिकीकरण के उपरोक्त विवेचन से उसके कुछ कारणों पर भी प्रकाश पड़ता है ।

भारत में लौकिकीकरण के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं:

(i) आधुनिक शिक्षा:

लौकिकीकरण का सबसे बड़ा कारण आधुनिक शिक्षा है जो कि अंग्रेजों के साथ भारत में आई । इस शिक्षा के साथ भारत में पाश्चात्य संस्कृति का प्रवेश हुआ अंग्रेजी भाषा, ज्ञान-विज्ञान और पाश्चात्य संस्कृति की जानकारी बढ़ने के साथ-साथ देश में परम्परागत हिन्दू धर्म का प्रभाव कम होने लगा । इसीलिए वर्तमान लौकिकीकरण की धारा को अंग्रेजी शासनकाल में शुरू हुआ माना जा सकता है । आधुनिक शिक्षा ने सबसे अधिक विभिन्न समस्याओं की ओर वैज्ञानिक और विवेकयुक्त दृष्टिकोण को प्रोत्साहित किया ।

जहाँ पढ़े-लिखे स्त्री-पुरुषों ने अनेक परम्परागत विधि-विधानों संस्कारों विश्वासों आदि को छोड़ दिया वहाँ दूसरी ओर उन्होंने उनके मूल में निहित कारणों की तलाश की और यदि ये कारण वैज्ञानिक जँचे तो उनको मान्यता दी गई सहशिक्षा के प्रभाव से अन्तर्जातीय विवाह की सम्भावनाएँ बढ़ी शिक्षा के प्रभाव से व्यवसाय, विवाह, दिनचर्या आदि विभिन्न क्षेत्रों में धार्मिक के स्थान पर लौकिक दृष्टिकोण अपनाया गया । शिक्षा संस्थाओं में विभिन्न जातियों और धर्मों के युवक-युवतियों के साथ-साथ पढ़ने से छुआछूत शुद्धि-अशुद्धि तथा परस्पर खान-पान, सम्पर्क आदि के बंधन टूटने लगे ।

(ii) यातायात और सन्देशवहन के साधनों का विकास:

लौकिकीकरण में यातायात और सन्देशवहन के साधनों के विकास का महत्वपूर्ण योगदान है रेलों बसों, टैक्सियों आदि के व्यापक प्रचार से लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने लगे जिससे उनको नए-नए लोगों से मिलने का अवसर मिला और उनके विचारों में उदारता आई इससे जाति व्यवस्था को धक्का लगा और उस पर आधारित छुआछूत के विचार समाप्त होने लगे ।

यातायात के साधनों के विकास से ग्रामीण समुदाय के लौकिकीकरण में बड़ी सहायता मिली है क्योंकि गाँव के स्त्री-पुरुष जब नगरों और दूर-दूर फैले हुए विभिन्न जातियों और धर्मों के लोगों के सम्पर्क में आए तो उन पर अपने धर्म का प्रभाव कम होने लगा सन्देशवहन के साधनों के विकास से सामाजिक सम्बन्धों का दायरा बढ़ने लगा इससे विवाह का क्षेत्र बढ़ा और उपजाति-विवाह तो अब एक सामान्य बात हो गई है । सन्देशवहन के साधनों के विकास से लौकिक आधारों पर संगठनों का विकास हुआ और उनका महत्व धार्मिक संगठनों से कहीं अधिक हो गया ।

(iii) सामाजिक और आर्थिक सुधार आन्दोलन:

अंग्रेजी शासनकाल में भारतवर्ष में राजाराम मोहन राय, सर सैयद अहमद खाँ, केशवचन्द्र सेन, महादेव गोविन्द रानाडे, महात्मा गाँधी, स्वामी दयानन्द इत्यादि महापुरुषों ने सामाजिक और धार्मिक सुधार के अनेक आन्दोलों को उठाया जिनसे हिन्दू धर्म में व्यापक सुधार हुए, जाति-पति और छुआछूत के विचार समाप्त होने लगे और लौकिकीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन मिला । इन आन्दोलनों में ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना-समाज, रामकृष्ण मिशन, थियोसोफिकल सोसाइटी तथा सर्वोदय आन्दोलन विशेष उल्लेखनीय हैं ।

(iv) वैधानिक सुधार:

आधुनिक काल में हिन्दू विवाह की संस्था पर हिन्दू कोड द्वारा किए गए वैधानिक परिवर्तनों का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है । हिन्दू विवाहित स्त्रियों के पृथक् निवास और निर्वाह व्यय अधिनियम, हिन्दू विवाह अधिनियम, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, हिन्दू दत्तक पुत्र ग्रहण और निर्वाह व्यय अधिनियम तथा हिन्दू अल्पवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम से हिन्दू परिवार और विवाह की संस्थाओं का लौकिकीकरण हुआ है ।

इनसे परिवार और विवाह की संस्थाओं का स्थायित्व कम हुआ है और उनके धार्मिक आधार के स्थान पर कानूनी आधार को विशेष बल मिला है । हिन्दू परिवार और विवाह की संस्थाओं को प्रभावित करने वाले इन कानूनों के अतिरिक्त भारतीय संविधान में दिए गये नागरिकों के मूल अधिकारों और राज्य-नीति के निर्देशनों से भी लौकिकीकरण को प्रोत्साहन मिला है ।

सन् 1955 ई॰ के अस्पृश्यता अपराध अधिनियम से हिन्दू समाज में छुआछूत एवं पवित्रता और अपवित्रता की धारणाओं को गहरा आघात लगा है । आधुनिक भारत में सभी वयस्क-स्त्री-पुरुषों को कानून की दृष्टि में समान माना गया है । सभी को मतदान करने का अधिकार है और सभी के लिए सभी व्यवसायों के दरवाजे खुले हुए है । इन वैधानिक व्यवस्थाओं के अलावा भारतीय राज्य को लौकिक राज्य की घोषणा किए जाने से देश में लौकिकीकरण को सबसे अधिक प्रोत्साहन मिला है इस प्रकार लौकिकीकरण में सरकार और कानून का महत्वपूर्ण योगदान है ।

ब्रिटिश सरकार ने तो लौकिकीकरण को प्रोत्साहन दिया ही था किन्तु स्वतन्त्र भारत की सरकार ने उसको और भी प्रोत्साहन दिया है । अस्पृश्यता, बहुविवाह, विवाह-विच्छेद, अन्तर्जातीय विवाह, विधवा-पुनर्विवाह तथा हिन्दू मन्दिरों के प्रबन्ध सम्बन्धी अधिनियमों से आधुनिक सरकार ने देश में लौकिकीकरण को बढ़ाया है ।

(v) राजनीतिक संगठनों का योगदान:

आधुनिक काल में जहाँ अनेक राजनीतिक संगठनों ने हिन्दू धर्म पर सीधा आघात किया है वहाँ हिन्दू महासभा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और जनसंघ जैसे दक्षिणपंथी संगठनों ने हिन्दू धर्म के सुधार पर जोर देकर लौकिकीकरण को प्रोत्साहित किया है । इस प्रकार वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों ही प्रकार के राजनीतिक संगठनों ने देश में धर्म के महत्व को कम करने और लौकिकीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने का कार्य किया है ।

(vi) नगरीकरण:

गाँवों की तुलना में नगरों में लौकिकीकरण अधिक हुआ है क्योंकि नगरीय जीवन की भीड़-भाड़, मकानों की कमी, यातायात और संदेहवहन के साधनों की अधिकता और आर्थिक समस्याओं की प्रमुखता, फैशन, शिक्षा, राजनीतिक और सामाजिक संगठन, पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव, भौतिकवाद, व्यक्तिवाद, विवेकवाद इत्यादि से लौकिकीकरण बढ़ता है ।

(vii) पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव:

भारत में पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव बढ़ने के साथ-साथ हिन्दू धर्म का व्यापक प्रभाव कम होता गया है । पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से भौतिकवाद, व्यक्तिवाद, भोगवाद, अधार्मिकता, स्वच्छन्दता आदि प्रवृतियों को प्रोत्साहन मिला है । इससे स्त्री-पुरुष सभी में लौकिकीकरण बढ़ा है ।

(viii) हिन्दू धार्मिक संगठन का अभाव:

धार्मिक दृष्टि से ईसाई, मुस्लिम, जैन, सिख आदि जितने संगठित हैं वैसा संगठन हिन्दू धर्म में नहीं दिखलाई पड़ता । हिन्दू धर्म के विशाल क्षेत्र में अनेक मत सम्प्रदाय हैं जिनके अलग-अलग मठ धार्मिक नेता और धार्मिक संगठन हैं । इन सभी सम्प्रदायों के हिन्दू होते हुए भी सामान्य रूप से इनका परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं रहता ।

इसलिये इन सम्प्रदायों के संगठनों के रहते हुए भी सम्पूर्ण हिन्दू धर्म का कोई संगठन नहीं है । बहुत से हिन्दू तो ऐसे है जिनके केवल नाम हिन्दुओं जैसे है अन्यथा वे हिन्दू धर्म की किसी भी बात को नहीं मानते । हिन्दू धर्म एक ऐसा धर्म है जिसमें किसी भी धार्मिक विश्वास को मानते हुए और कैसे भी जीवन व्यतीत करते हुए व्यक्ति हिन्दू ही रहता है ।

इस ढीले संगठन के कारण भारतवर्ष में हिन्दू धर्म का प्रभाव कम होता चला जा रहा है । जहाँ एक ओर बहुत से लोग अन्य धर्मों के अनुयायी बनते जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर ऐसे पड़े लिखे लोगों संख्या बढ़ रही है जो केवल नाममात्र के हिन्दू है और यहाँ तक कि अपने को हिन्दू कहने से भी शर्माते हैं ।

अस्तु, हिन्दू समाज में लौकिकीकरण की प्रक्रिया तेजी से बढ़ती जा रही है । पढ़े-लिखे हिंदूओं में एक बहुत बड़ी संख्या ऐसे ही हिन्दुओं की है जिनका पूर्णतया लौकिकीकरण हो चुका है और जो न केवल हिन्दू धर्म की बातों को नहीं मानते बल्कि उसकी प्रत्येक बात की कटु आलोचना भी करते हैं ।

(ix) भारतीय संस्कृति का लौकिकीकरण:

यूँ तो भारतीय संस्कृति धर्मप्राण कहलाती रही है, परन्तु आजकल उसका तेजी से लौकिकीकरण होता जा रहा है । इस लौकिकीकरण में आधुनिक शिक्षा, फिल्म, रेडियो, समाचारपत्र आदि अनेक कारकों का महत्वपूर्ण हाथ है । आधुनिक काल में अनेक सांस्कृतिक क्रियाओं की धार्मिक व्याख्या का खण्डन करके लौकिक व्याख्या की स्थापना की गई है ।

और विज्ञान के कारण शिक्षित समाज में यह लौकिक व्याख्या ही अधिक प्रचलित है । इस प्रकार साहित्य, कला और संस्कृति के अन्य पहलुओं पर धर्म का प्रभाव कम होता जा रहा है और जनतंत्रीय, लौकिक, वैज्ञानिक तथा विवेकयुक्त विचार बढ़ते जा रहे हैं । भारत एक लौकिक राज्य है । अस्तु सरकार के समस्त प्रचार-यन्त्र लौकिकीकरण के पक्ष में प्रचार करते है ।

(x) व्यवसायों का लौकिकीकरण:

प्राचीन हिन्दू समाज में व्यवसायों का चुनाव धार्मिक आधार पर किया जाता था । धर्म पुस्तकों ने विभिन्न वर्ण के व्यक्तियों के व्यवसाय निश्चित कर दिये थे और धर्मपुस्तकों के आदेशों का पालन किया जाता था । आजकल नई पीढी के लोग व्यवसायों के चुनाव में अपने परम्परागत व्यवसाय को करना आवश्यक नहीं समझते और जो भी व्यवसाय आर्थिक दृष्टि से अधिक उपयुक्त दिखलाई पड़ता है वही व्यवसाय करने लगते है । यह प्रवृति सबसे अधिक ब्राह्मण जाति में दिखलाई पड़ती है । स्वाभाविक है कि इससे ब्राह्मणों के जीवन का लौकिकीकरण हुआ है ।

(xi) राजनीतिक सहायता का अभाव:

प्राचीन काल में हिन्दूराजा हिन्दू धर्म को सब प्रकार की सहायता देते थे जिससे जनता पर उसका प्रभाव बना रहता था । अंग्रेजी शासन काल में ट्रावनकोर-कोचीन, मैसूर, बड़ौदा, जयपुर, जम्मू और काश्मीर इत्यादि अनेक राज्यों में हिन्दू राजे हिन्दू धर्म का पोषण करते थे ।

इन हिन्दू राज्यों के समाप्त हो जाने और ‘भारतीय संघ शासन’ की स्थापना होने के बाद हिन्दू धर्म को यह राजकीय सहायता समाप्त हो गई । आजकल केवल नेपाल ही विश्व का एकमात्र हिन्दू राज्य है जबकि भारतवर्ष में हिन्दुओं की जनसंख्या सबसे अधिक है ।

राजकीय सहायता के अभाव में जनता पर हिन्दू धर्म का प्रभाव घटने लगा । हिन्दुओं के शिक्षा के केन्द्र तथा धार्मिक स्थान आदि को आर्थिक सहायता न मिलने से उसकी दशा बिगड़ने लगी है । इधर पिछले दिनों मठों में लगी हुई सम्पत्ति पर भी विभिन्न राज्यों द्वारा अधिकार कर लिया गया है । अनेक मठाधीश धर्म की सत्ता कम होने के कारण राजनीति के क्षेत्र में उतरने लगे हैं । इन सब कारणों से लौकिकीकरण बढ़ता जा रहा है ।

भारतवर्ष में लौकिकीकरण की प्रक्रिया की लगातार वृद्धि के कारणों के उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि निकट भविष्य में इस प्रक्रिया के कम होने की कोई सम्भावना दिखलाई नहीं पड़ती । इधर ‘विश्व हिन्दू परिषद्’ के नाम से एक नई संस्था समस्त विश्व के हिन्दुओं को संगठित करने का प्रयास कर रही है ।

इस प्रयास से हो सकता है कि विश्व में बिखरे हुए हिन्दू राजनीतिक दृष्टि से संगठित हो जायें, किन्तु यह आशा नहीं की जा सकती कि पढ़े-लिखे हिन्दुओं के जीवन में बढ़ती हुई लौकिकीकरण की प्रक्रिया किसी भी प्रकार कम हो जायेगी । वास्तव में लौकिकीकरण की वृद्धि का मूल कारण यह है कि हिन्दू धर्म में हिन्दू कहलाने के लिए किसी भी धार्मिक नियम को मानना आवश्यक नहीं है ।

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हिन्दू को पूर्ण स्वतन्त्रता है । विचारों और क्रियाओं की इस स्वतन्त्रता से और विज्ञान के प्रभाव से अधिकतर शिक्षित हिन्दू स्त्री-पुरुष कोई भी धार्मिक क्रिया नहीं करते और बहुत से कम धार्मिक विश्वास रखते है । यदि भविष्य में हिन्दू समाज का धार्मिक संगठन सुदृढ़ हो जाये और कुछ धार्मिक नियमों का पालन प्रत्येक हिन्दू के लिए आवश्यक मान लिया जाये तो भले ही लौकिकीकरण की यह प्रक्रिया किसी सीमा तक मन्द हो सकती है ।

वास्तव में हिन्दू के अलावा प्रत्येक धर्म में उस धर्म का अनुयायी कहलाने के लिए कुछ नियमों का पालन आवश्यक माना जाता है । उदाहरण के लिए मुसलमान के लिए अल्लाह की एकता में यकीन करना आवश्यक है और यह भी मानना जरूरी है कि मोहम्मद अल्लाह का पैगम्बर था । अल्लाह और उसके रसूल पर यकीन लाए बिना कोई भी व्यक्ति मुस्लिम नहीं कहला सकता । इसी कारण मुसलमानों में लौकिकीकरण उतना नहीं हुआ है जितना हिन्दूओं में दिखाई पड़ता है ।

वास्तव में यदि हिन्दू धर्म को हिन्दू समाज के जीवन में महत्वपूर्ण योगदान देना है तो कुछ धार्मिक नियमों का पालन प्रत्येक हिन्दू कहलाने वाले व्यक्ति के लिए अनिवार्य कर देना चाहिए जिससे कि एक ओर हिन्दू धर्म को अन्य धर्मों से अलग पहचाना जा सके और दूसरी ओर इस धर्म के मानने वालों को परस्पर धार्मिक एकता का अनुभव हो ।


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