ग्रामीण भारत के विकास पर निबंध | Essay on Development of Rural India in Hindi.

परिवर्तन का परिचय:

मानव समुदाय में सब कहीं सदैव कुछ-न-कुछ परिवर्तन होते ही रहते । परिवर्तन प्रकृति का नियम है । परिवर्तन जीवन की माँग है । जहाँ कहीं जीवन है वहाँ परिवर्तन भी है । पूर्ण गतिहीनता का ही दूसरा नाम मृत्यु है । अस्तु मानव समुदायों में परिवर्तन स्वाभाविक है ।

नगरीय समुदायों की अपेक्षा गाँव के समुदाय कम गतिशील होते है । परन्तु इससे किसी को यह न समझ बैठना चाहिये कि उनमें गति होती ही नहीं । ग्रामीण समुदाय भी सतत् परिवर्तनशील हैं । चाहे उनमें परिवर्तन की गति कितनी भी मन्द क्यों न होती हो ।

भारत के किसी भी क्षेत्र में ग्रामीण समुदायों के इतिहास पर नजर डालकर यह तथ्य परखा जा सकता है । ग्रामीण समुदाय में परिवर्तन के कारकों तथा प्रतिमानों के अध्ययन से ग्रामीण क्षेत्र में कल्याण कार्य के विकास में अन्तर्दृष्टि मिलेगी क्योंकि विकास वांच्छित दिशा में परिवर्तन का ही दूसरा नाम है ।

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गाँव में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक किसी भी प्रकार का विकास करने के लिए उनमें परिवर्तन की आवश्यकता है, उनको बदलने की जरूरत है । यह परिवर्तन कैसे लाया जा सकता है, यह समझने के लिये यह जानना जरूरी है कि ग्रामीण समुदायों में यह प्रभाव किस प्रकार का पड़ता है, किस दिशा में, कैसे और क्यों परिवर्तन होता है ।

परिवर्तन के कारक:

यूँ तो ग्रामीण क्या किसी भी समुदाय में परिवर्तन के सभी प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष कारकों का विश्लेषण बड़ा कठिन है, परन्तु फिर भी स्थूल रूप से परिवर्तन के मुख्य कारकों को अवश्य पहचाना जा सकता है ।

ग्रामीण क्षेत्र में परिवर्तन के मुख्य कारकों को निम्नलिखित वर्गों में रखा जा सकता है:

(i) प्राकृतिक कारक (Natural Factors)

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(ii) प्राविधिक कारक (Technological Factors)

(iii) सामाजिक कारक (Social Factors)

(iv) आर्थिक कारक (Economic Factors)

(v) सांस्कृतिक कारक (Cultural Factors)

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(vi) राजनैतिक कारक (Political Factors)

अब ग्रामीण जीवन में परिवर्तन के इन कारकों का संक्षेप में अध्ययन करना लाभदायक होगा ।

(i) प्राकृतिक कारक:

ग्रामीण समुदाय में परिवर्तन के प्राकृतिक कारकों में वे सभी प्राकृतिक तत्व आते हैं जो कि विशिष्ट ग्रामीण समुदाय के रहने के स्थान पर पाए जाते है । उदाहरण के लिए नदियों के किनारे बसे हुए गाँवों पर नदियों और पहाड़ों पर बसे ग्रामीण समुदायों पर पहाड़ों का प्रभाव प्रत्यक्ष दिखलाई पड़ता है ।

बाँस के जंगलों में रहने वाले ग्रामीण समुदायों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक तथा धार्मिक जीवन पर भी बाँस का प्रभाव दिखलाई पड़ता है । जहाँ भूचाल अधिक आते है वहाँ लकड़ी के मकान बनाये जाते है, जहाँ जो वनस्पति और पशु अधिक मिलते हैं, वहाँ उन्हीं का अधिक उपयोग किया जाता है ।

इसी प्रकार जहाँ जो खनिज पदार्थ मिलते हैं वहाँ उन्हीं को लेकर कुटीर-उद्योग विकसित हो जाते हैं । इस प्रकार नदी, समुद्र, बाढ़, तुफान, ओले, वर्षा, भूकम्प, पहाड़, वनस्पति तथा पशु आदि ग्रामीण समुदाय को प्रभावित करने वाले प्राकृतिक कारक हैं । इनमें से किसी में भी परिवर्तन होने से ग्रामीण समुदाय के जीवन में भी परिवर्तन होता है ।

मानव जीवन पर भौगोलिक पर्यावरण के विषय में भौगोलिकवादियों ने ग्रंथ के ग्रंथ लिख डाले हैं । प्राकृतिक कारक भौगोलिक पर्यावरण बनाते हैं । उनके प्रभाव सर्वविदित हैं । गंगा के किनारे के किसी गाँव से यदि गंगा अपना रास्ता बदल कर मीलों दूर हो जाए तो उससे ग्रामीण समुदाय के आर्थिक जीवन में ही नहीं; बल्कि जीवन के अन्य पहलुओं में भी अन्तर आ जायेगा ।

(ii) प्राविधिक कारक:

केवल प्राकृतिक पर्यावरण ही मानव समुदायों को नहीं बदलता, मनुष्य अपना बहुत सा पर्यावरण स्वयं बनाता है और उसका भी उसके जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ता है । प्राविधिक कारकों की सहायता से मनुष्य एक नया पर्यावरण निर्माण करता है और प्राकृतिक पर्यावरण को अपने अनुकूल बदलता है ।

इन प्राविधिक कारकों में सभी प्रकार के आविष्कार आते हैं । जहाँ कहीं गाँवों में बिजली पहुँच गई है वहाँ उसने ग्रामीण समुदायों की शक्ल ही बदल दी है । प्रो. ऑगबर्न के अनुसार अकेले रेडियो के आविष्कार ने ही सामाजिक जीवन में लगभग 150 परिवर्तन किये है ।

भारत के ग्रामों में अभी मशीनों का प्रयोग उतना अधिक नहीं हुआ है जितना पश्चिम के गाँवों में, परन्तु फिर भी आटा पीसने, कपास ओटने, दाल बनाने आदि की मशीनों के चलन से ग्रामीण परिवारों में इन कामों को घर में करने का रिवाज उठता जा रहा है । इससे स्त्रियों के जीवन और स्थिति पर प्रभाव पड़ा है । वाष्प और बिजली की शक्ति के आविष्कार से मानव जीवन के सभी पहलुओं में कुछ न कुछ परिवर्तन हुआ है ।

(iii) सामाजिक कारक:

ग्रामीण समुदाय के सामाजिक जीवन पर सामाजिक कारकों का व्यापक प्रभाव पड़ता है । उदाहरण के लिये सती-प्रथा, बाल-विवाह, विधवा-विवाह निषेध आदि के होने और न होने का ग्रामीण समुदाय में विशेषतया स्त्रियों की दशा पर स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है ।

भारतीय ग्रामीण समुदाय के जीवन को प्रभावित करने वाले मुख्य सामाजिक कारक हैं-जाति-व्यवस्था, संयुक्त-परिवार, जजमानी प्रथा, विवाह के विषय में विभिन्न नियम तथा स्थानीय और धार्मिक रीति-रिवाज व परम्परायें आदि । इनमें से किसी भी कारक में परिवर्तन से ग्रामीण समुदाय में परिवर्तन होता है ।

उदाहरण के लिए जाति पंचायतों के निर्बल हो जाने अथवा समाप्त हो जाने से गाँवों में अन्तर्जातीय सम्बन्धों में बराबर परिवर्तन हो रहा है । इसी प्रकार जजमानी सम्बन्ध टूटने से भी विभिन्न जातियों के परस्पर सम्बन्धों में अन्तर देखा जा सकता है ।

(iv) आर्थिक कारक:

आर्थिक कारकों में कृषि, व्यवसाय तथा उद्योग आदि से सम्बन्धित कारक आते हैं गाँवों में जमीनों पर बोझ बढ़ते जाने से बहुत से लोग शहर में जाकर नौकरी करने लगे हैं । इससे संयुक्ता-परिवार टूटने को हैं । शहर में रहकर ग्रामीण युवकों के नैतिक जीवन और मूल्यों में अनार आता है और वे गाँव में आकर अन्य लोगों के चरित्र तथा मूल्यों में भी अनार उत्पन्न करते हैं ।

जहाँ-जहाँ गाँवों के बीच में ही खानें या मिलें खुल गई हैं वहाँ इनमें स्त्री-पुरुष के साथ-साथ काम करने का स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों पर प्रभाव हुआ है । गरीबी एक आर्थिक कारक है और समुदाय के जीवन पर उसके होने न होने के व्यापक प्रभाव सर्वविदित हैं ।

(v) सांस्कृतिक कारक:

सांस्कृतिक कारकों में विश्वास, धारणायें मूल्य आदि आते हैं । इसके परिवर्तन से सामाजिक जीवन में व्यापक परिवर्तन होते रहते हैं । भारत में जहाँ-जहाँ हिन्दू-मुस्लिम अथवा ईसाई संस्कृतियों के मिलने का अवसर आया है वहाँ ग्रामीण समुदाय के सांस्कृतिक जीवन पर स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है ।

पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण अनेक जनजातीय गाँवों में कुमार गृह की संस्था लुप्त होती जा रही है । पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित ग्रामीण युवक-युवतियों में व्यक्तिवाद, भोगवाद और नियन्त्रण की प्रवृति आ जाती है जिससे परिवार, विवाह, जाति-व्यवस्था आदि ग्रामीण संस्थाओं पर व्यापक प्रभाव पड़ते है ।

(vi) राजनैतिक कारक:

राजनैतिक कारकों से ग्रामीण समुदायों पर व्यापक प्रभाव पड़ता है । उदाहरण के लिये हिन्दू, मुस्लिम तथा अंग्रेज सरकारों के अधीन ग्रामीण समुदायों में स्पष्ट अनार देखा जा सकता है । देश को स्वतन्त्रता मिलने के बाद से गाँवों में बड़ी जागृति देखी जा सकती है । सरकार के अलावा राजनैतिक दलबन्दी का भी गाँवों पर प्रभाव पड़ता है । भारत एक गणतन्त्र है जिसमें जनता ही शासन चलाने वाले प्रतिनिधियों को चुनती है । इससे गाँव वालों में राजनैतिक चेतना जाग्रत होती जा रही है ।

परिवर्तन की प्रणालियों:

ग्रामीण समुदाय में परिवर्तन लाने वाले उपयुक्त कारकों के अध्ययन के साथ-साथ यह जानना भी जरूरी है कि सामाजिक संगठन अथवा दल किन उपायों से ग्रामीण समुदाय में परिवर्तन उत्पन्न करते है । इन प्रणालियों के विवेचन से यह भी स्पष्ट होगा कि ग्रामीण कल्याण कार्य के विकास में ग्रामीण समुदाय में वांछित परिवर्तन लाने के लिये कौन-सी पद्धति इस्तेमाल की जानी चाहिये ।

इस प्रकार की मुख्य प्रणालियों में सिम्स तथा अन्य मुख्य समाजशास्त्रियों ने निम्नलिखित को गिनाया है:

(a) समझाने-बुझाने की पद्धति:

कुछ लोग ग्रामीण समुदाय में कोई परिवर्तन लाने के लिए गाँव वालों को समझाने-बुझाने अथवा तर्क द्वारा अपनी बात सिद्ध करने में विश्वास रखते हैं । इस पद्धति से कुछ लाभ अवश्य होता है, परन्तु इसमें सबसे बड़ा दोष यह है कि इसका प्रयोग करने वाले क्रियात्मक रूप से स्वयं कुछ नहीं करते । अतः उनकी बात का उतना प्रभाव नहीं पड़ता ।

(b) प्रदर्शन विधि:

अत: प्रदर्शन विधि का समझाने-बुझाने की विधि से अधिक महत्व है । इसमें गाँव वालों के सामने उदाहरण पेश किया जाता है । उदाहरण के लिए किसी खेती के औजारों को प्रचलित करने के लिए उसके विषय में समझाने से इतना लाभ नहीं हो सकता, जितना कि उसका किसी खेत में उपयोग शुरू कर देने से हो सकता है । इससे किसान लोग उसके काम को देखकर स्वयं उसमें रूचि लेंगे और उसको अपनायेंगे ।

(c) अनिवार्य पद्धति:

जैसा कि इसके नाम से प्रकट है इस विधि में परिवर्तन को अनिवार्य रूप से ग्रामीण जनता पर लाद दिया जाता है । दूसरे शब्दों में इसमें जनता को वांछित परिवर्तन ग्रहण करने के लिए बाध्य किया जाता है । स्पष्ट है कि इस पद्धति को राज्य ही इस्तेमाल कर सकता है और राज्यों ने इस पद्धति का इस्तेमाल किया भी खूब है ।

उदाहरण के लिए भारत में अनेक राज्यों ने अस्पृश्यता को अपराध घोषित करके गाँव वालों को अस्पृश्यों के प्रति सद्व्यवहार करने को मजबूर किया है । इस पद्धति में यह लाभ है कि परिवर्तन अति शीघ्र हो जाते है, परन्तु फिर इसमें यह दोष भी है कि यह आन्तरिक परिवर्तन नहीं उत्पन्न कर सकती । आन्तरिक परिवर्तन तो समझाने-बुझाने अथवा प्रदर्शन की विधि से ही लाये जा सकते हैं ।

(d) सामाजिक दबाव की विधि:

सामाजिक संगठन और संस्थायें व्यक्तियों के व्यवहार पर नियन्त्रण रखने के लिए अथवा उसमें परिवर्तन करने के लिए सामाजिक दबाव की विधि का सबसे अधिक उपयोग करते हैं । जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है इसमें व्यक्ति पर सामाजिक दबाव डालकर उसको बाध्य किया जाता है ।

उदाहरण के लिए गाँवों में जाति पंचायतें हुक्का-पानी बन्द करने का भय दिखलाकर जाति के सदस्यों को उनके निर्णय मानने के लिए बाध्य करती हैं । मानव की सामाजिकता के कारण यह विधि काफी प्रभावशाली सिद्ध होती है, परन्तु इसमें भी यही दोष है कि इससे आन्तरिक परिवर्तन नहीं हो सकता । आन्तरिक परिवर्तन के लिये पहली दो विधियाँ अधिक उपयुक्त है ।

(e) सम्पर्क विधि:

एक सामान्य बात है कि सम्पर्क से मनुष्य में परिवर्तन उत्पन्न होता है । व्यक्ति जैसे लोगों में उठता-बैठा है, जैसे लोगों के सम्पर्क में आता है वह उनसे अनेक बातें ग्रहण कर लेता है । इसी प्रकार जहाँ-जहाँ ग्रामीण समुदाय नगरीय समुदायों के सम्पर्क में आये है वहाँ-वहां उनमें बहुत से परिवर्तन देखे जा सकते हैं ।

जनजातीय ग्रामीणों के हिन्दू अथवा ईसाई संस्कृति के सम्पर्क में आने से, आदिम लोगों के सभ्य लोगों के सम्पर्क में आने से और गाँव वालों के पाश्चात्य सभ्यता के सम्पर्क में आने से उनके रहन-सहन, वेशभूषा, रीति-रिवाज तथा मूल्यों आदि में परिवर्तन दिखलाई पड़ता है ।

(f) शैक्षिक विधि:

शिक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में अत्यन्त महत्वपूर्ण कारक है । बालक को जो कुछ बनाना हो उसमें उसकी आनुवंशिक प्रवृत्तियों के साथ-साथ उसकी समुचित शिक्षा का भी ध्यान रखना बड़ा जरूरी है । यही बात न्यूनाधिक रूप से समुदायों के विषय में भी सत्य है ।

भारत के गाँवों में बुनियादी शिक्षा और समाज शिक्षा आदि से परिवर्तन लाने की चेष्टा की जा रही है और इसमें काफी सफलता भी दिखलाई पड़ रही है । गांव वालों में सामुदायिक अथवा राजनैतिक चेतना उत्पन्न करने में तदानुसार शिक्षा देना बड़ा आवश्यक है ।

ग्रामीण समुदायों में परिवर्तन लाने की उपर्युक्त विधियों की अपनी सीमायें है । अत: कोई भी विधि अकेली काम नहीं दे सकती । इसलिए बहुधा एक से अधिक विधियों के प्रयोग की आवश्यकता होती है । ग्रामीण विकास की दिशा में वांछित परिवर्तनों के लिए समझाने-बुझाने के साथ-साथ प्रदर्शन भी आवश्यक है ।

जहाँ कुछ लोग समझने के लिए तैयार ही नहीं वहाँ अनिवार्य विधि और सामाजिक दबाव की विधि से काम लेना उचित है । प्रत्येक परिवर्तन में तदनुकूल शिक्षा दी जानी चाहिये । इस प्रकार सभी विधियों को भली प्रकार समझकर अवसर और आवश्यकता के अनुसार उनका उपयोग करने से ग्रामीण समुदाय में वांछित परिवर्तन लाये जा सकते है ।

परिवर्तन के क्षेत्र:

परिवर्तन के कारकों और परिवर्तनों की विधियों के अध्ययन के बाद अब ग्रामीण सामुदायिक जीवन के विभिन्न पहलुओं में हो रहे परिवर्तन का सिंहावलोकन किया जायेगा ।

यह परिवर्तन निम्नलिखित क्षेत्रों में देखा जा सकता है:

(1) जाति-व्यवस्था

(2) जजमानी प्रथा

(3) परिवार

(4) विवाह

(5) रीति-रिवाज

(6) खान-पान

(7) वेशभूषा

(8) आवास

(9) सफाई

(10) रोग

(11) साक्षरता

(12) आर्थिक क्षेत्र

(13) राजनैतिक क्षेत्र

(1) जाति-व्यवस्था:

ब्रिटिश शासन में गाँवों में जाति-व्यवस्था को बड़ा धक्का लगा । ब्रिटिश आर्थिक नीति तथा नये कानूनों के कारण विभिन्न जातियों अपने परम्परागत व्यवसाय छोड़कर अन्य व्यवसाय करने लगी । बहुत से ब्राह्मण और क्षत्रिय भी खेती करने लगे ।

अस्पृश्य जाति के लोग कृषक दास बन गये । जातियां पंचायतों का नियन्त्रण ढीला पड़ने लगा । आजकल यह देखा जाता है कि गाँव में व्यक्ति की स्थिति उसकी जाति से ही निश्चित न होकर उसके अपने व्यक्तित्व, आर्थिक स्थिति और कामों से भी निश्चित होती है ।

यद्यपि उच्च जाति का होने से ब्राह्मण को लोग नमस्कार करते हैं, परन्तु धनिक शूद्र नीची जाति का होकर भी कम सम्मान नहीं पाता । कहीं-कहीं तो उसका सम्मान निर्धन ब्राह्मण से अधिक होता है । सरकारी कानूनों का सहारा पाकर नीची जातियाँ अब अपने को नीचा नहीं समझतीं । दक्षिण भारत में तो कहीं-कहीं शूद्र जातियाँ ब्राह्मणों के स्पर्श से अपवित्र मानती है ।

ब्राह्मण के उनके मुहल्ले में पहुँच जाने पर उनको झाङुओं से पीटा जाता है । कहीं-कहीं तो उनके छुए हुए स्थान को शुद्ध करने के लिए गोबर से लीपा भी जाता है । इस प्रकार आजकल सभी जातियाँ अपना-अपना संगठन फिर से सुदृढ़ बनाने में लगी हुई हैं । इधर कुछ जातियों ने अपनी सभायें आदि करके अपने कुछ औपचारिक संगठन भी बनाये हैं जो उनके हितों को सुरक्षित रख सकें ।

परन्तु फिर भी जाति पंचायतों की शक्ति व्यक्ति के रहन-सहन, खान-पान, व्यवहार आदि पर नियन्त्रण के रूप में बिल्कुल ही समाज हो गई है । गाँव में जहाँ-जहाँ किसी जाति में छुआछूत के नियमों का पालन आवश्यक भी माना जाता है वहाँ भी नगरों में जाकर जातीय नियमों को भंग करने वालों को छूट दे दी जाती है । यद्यपि विवाह अब भी अधिकतर अपनी ही जाति में किये जाते हैं, परन्तु विभिन्न जातियों में उठने-बैठने, खाने-पीने, व्यवहार आदि में कोई रोक-टोक नहीं है ।

परन्तु यद्यपि इस प्रकार एक ओर जाति व्यवस्था दुर्बल हो रही है तथापि दूसरी ओर वह और भी सुदृढ़ होती दिखलाई पड़ती है । निहित स्वार्थों के कारण जातिवाद बढ़ रहा है । हाल में चुनावों में यह देखा गया कि अधिकतर लोगों ने जाति के सदस्य को ही वोट दिया ।

राजनैतिक दलों ने भी ऐसे व्यक्तियों को टिकट दिया जिनकी जाति का उस चुनाव क्षेत्र में बहुमत था पिछले चुनावों में भी ही ऐसा हुआ था और चुने हुए व्यक्तियों ने अपनी जाति को लाभ पहुँचाने की भरसक चेष्टा भी की थी ।

इस प्रकार राजनैतिक तथा अन्य स्वार्थों के कारण जातिवाद बढ़ता जाता है । सरकारी और गैर-सरकारी सभी तरह के कारखानों दफ्तरों विद्यालयों तथा अन्य कार्यों में अधिकतर अधिकारीगण अपने जाति भाईयों को ही नौकरी देना सबसे अधिक जरूरी समझते हैं ।

(2) जजमानी व्यवस्था:

इस प्रकार जाति-व्यवस्था के विषय में तो निर्बलता और सबलता दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ दिखलाई पड़ती है । परन्तु जजमानी व्यवस्था निश्चित रूप से टूट रही है । जजमानी व्यवस्था जजमान द्वारा कमीन के शोषण पर आधारित थी ।

स्वतन्त्र भारत में सभी नागरिकों के समान अधिकार घोषित किये जाने और सरकार की ओर से पिछड़े वर्गों को उठाने का प्रसत्न किये जाने के कारण अब पिछड़े वर्गों में धीरे-धीरे आत्म-सम्मान की भावना आती जा रही है और उनके अन्य जातियों से जजमानी सम्बन्ध टूटते जा रहे हैं ।

दूसरे, गाँवों में भी अब सेवाओं के बदले में मुद्रा देने का चलन होने से भी जजमानी व्यवस्था को धक्का लगा है । तीसरे, जाति पंचायतों की शक्ति क्षीण होने और व्यवसाय जाति पर आधारित न रह जाने के कारण भी जजमानी सम्बन्ध टूट रहे हैं । फिर नगरों के पास के लोग नगरों में जाकर नौकरियाँ करने लगे । यातायात की सुविधायें बढ़ जाने से ग्रामीण क्षेत्रों में भी गतिशीलता बढ़ रही है ।

इन सब कारणों से भी जजमानी व्यवस्था को धक्का लगा है । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि गाँवों से जजमानी प्रथा बिल्कुल ही उठ गई हो । ग्रामीण समुदायों के हाल के सभी अध्ययनों में उनमें जजमानी प्रथा दिखलाई पड़ी है । यद्यपि उसके निर्बल होते जाने के चिन्ह भी अधिकतर अध्ययनों में देखे गये हैं ।

(3) परिवार:

यद्यपि गाँवों में संयुक्त-परिवार अब भी सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं परन्तु फिर भी अब वे ग्रामीण समुदाय की इकाई नहीं रहे । उनका स्थान एकांगी परिवारों ने ले लिया है वंश पर आधारित समूहों के स्थान पर हितों पर आधारित समूह दृढ़ होते जा रहे हैं । व्यक्तिवाद बढ़ने से परिवार छोटे होते जा रहे है ।

सदस्यों पर परिवार का नियन्त्रण भी कम होता जा रहा है । परन्तु परिवार पर वंश समूह का नियन्त्रण पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है शहरों की तरह गाँवों में भी परिवार के अनेक काम अन्य समितियाँ लेने लगी हैं ।

उदाहरण के लिए जिन गाँवों में आटे की चक्की लग गई है वहाँ आटा घरों में न पीसा जाकर अधिकतर चक्की पर पिसवाया जाता है । स्त्रियों की शिक्षा बढ़ाने से और उनको अनेक सामाजिक आर्थिक, राजनैतिक अधिकार मिलने से उनमें जाग्रति आ रही है । परिवार में उनकी स्थिति पहले से बेहतर होती जा रही है ।

(4) विवाह:

परिवार के समान ही विवाह की संस्था भी परिवर्तित होती जा रही है । विवाह का क्षेत्र बढ़ता जा रहा है । यद्यपि जाति से बाहर विवाहों के उदाहरण अब भी बहुत कम हैं, परन्तु नजदीक के गाँवों में और एक ही गाँव में भी विवाह होते हैं । विवाह अब भी अधिकतर माता-पिता ही तय करते है परन्तु अब उनमें लड़के-लड़की विशेषतया लड़की की राय लेना बुरा नहीं समझा जाता ।

प्रेम विवाहों और तलाकों की संख्या भारत के अधिकतर गाँवों में अभी नगण्य है । घर के चुनाव के आधार में भी कुछ परिवर्तन हो रहा है । यद्यपि विवाह सम्बन्ध में खानदान को अब भी महत्व दिया जाता है, परन्तु लड़के की पढ़ाई और निजी आर्थिक स्थिति तथा लड़की के रूप-गुण आदि को अधिक महत्व दिया जाने लगा है हिन्दुओं में दहेज और मुसलमानों में मेहर की माँग बढ़ती जा रही है ।

इधर विवाहों में अन्य प्रकार की फिजूलखर्ची कम हो रही है । अनेक कारणों से बारातें अब छोटी होती है । विवाह के रीति-रिवाजों में भी कुछ परिवर्तन हो रहा है । यद्यपि इस सम्बन्ध में कोई सार्वभौम प्रतिमान उपस्थित करना कठिन है । विवाह अब अधिक बड़ी आयु में किये जाने लगे हैं । बाल-विवाह की प्रथा उठती जा रही है । विधवा विवाह भी होने लगे हैं ।

(5) रीति-रिवाज:

ग्रामीण सामाजिक जीवन के रीति-रिवाजों में बराबर अन्तर हो रहा है । जाति के पंचों का सम्मान कम होता जा रहा है । सामाजिक तथा अन्य उत्सवों पर खर्च को कम करने का प्रयास दिखलाई पड़ता है मृत्यु, नामकरण आदि विभिन्न संस्कारों के अवसरों पर खर्चे घटे हैं ।

दहेज के कारण विवाह में खर्चे बढ़ गये हैं गाँव में पर्दे का रिवाज अब भी काफी है, परन्तु अब उसका उतनी कठोरता से पालन नहीं किया जाता । बालकों को पड़ाने का रिवाज बढ़ता जा रहा है । लड़कियों में भी शिक्षा बढ़ रही है । इधर गाँवों में गाँधी चबूतरे बढ़ते जा रहे हैं शिक्षा के प्रसार से अन्धविश्वास कम होते जा रहे है ।

(6) खान-पान सम्बन्धी आदत:

विभिन्न जातियों में परस्पर खान-पान सम्बन्धी नियम ढीले पड़ते जा रहे हैं । गाँवों में सख्ती, गेहूँ और दूध आदि का उपयोग बढ़ रहा है, यद्यपि शहरों के पास के गाँवों में इनमें से अधिकांश शहरों में जाकर बेच दिया जाता है । गाँव में घी का उपयोग भी बढ़ता जा रहा है ।

कम से कम ऊँचे वर्गों में इसका प्रयोग अधिक देखा जा सकता है गाँव में चाय, चीनी और तम्बाकू का प्रयोग निश्चय ही पहले से बढ़ा है गाँव में कुछ परिवारों में तो साल भर चाय पी जाती है गाँव में वनस्पति घी का प्रयोग भी बढ़ता जाता है ।

(7) वेशभूषा:

गाँव के स्त्री-पुरुष तथा बालकों की वेशभूषा में अनार होता जा रहा है । पुरुषों में साफे के स्थान पर गाँधी टोपी का रिवाज बढ़ रहा है । लड़कियों में फ्रॉक अधिक पहनाये जाने लगे हैं । लड़के हॉफ पैन्ट भी पहनने लगे हैं । औरतें ब्लाउज पहनने लगी हैं । लहँगों का रिवाज कम होता जा रहा है ।

पहले लोग अधिकतर हाथ का बुना हुआ कपड़ा पहनते थे, अब अधिकतर मिल का बुना हुआ कपड़ा इस्तेमाल किया जाता है । गाँव की स्त्रियों में कृत्रिम सिल्क के कपड़ों रोल्ड गोल्ड के जेवर तथा सस्ते प्रसाधन की खपत बढ़ती जा रही है । चाँदी के भारी जेवरों का रिवाज कम होता जा रहा है ।

लड़कों के नंगे सिर रहने का रिवाज भी बढ़ रहा है । पढ़े-लिखे नवयुवक कोट-पैन्ट पहनते भी देखे जा सकते है । खादी का इतना अधिक प्रचार किये जाने पर भी गाँवों में मोटे कपड़े की खपत कम और बारीक कपड़े की खपत अधिक होती जा रही है ।

(8) आवास:

यद्यपि गाँवों में आवास की दशा अब भी बहुत खराब है परन्तु फिर भी आवास पहले से बेहतर होते जा रहे हैं । गाँवों में पक्के मकानों की संख्या बढ़ती जा रही है । मकान पहले से अधिक हवादार और साफ दिखलाई पड़ते हैं । मकानों में आराम के साधन पहले से अधिक हैं । जहाँ-जहाँ गाँवों में बिजली पहुँच गई है वहाँ कुछ समृद्ध घरों में रेडियो और बिजली के पंखे भी देखे जा सकते हैं ।

मकानों में नक्काशी का रिवाज कम होता जा रहा है, क्योंकि इसमें व्यर्थ अधिक खर्चा होता है । मकान बनाते समय अब रोशनी और हवा का भी ध्यान रखा जाता है । अधिकतर नये घरों में रसोई और उसमें धुआँ निकलने की जगह देखी जा सकती है । कुछ घरों में अलग गुसलखाने भी मिलेंगे ।

गाँवों में हाथ के नलों का रिवाज भी बढ़ता जा रहा है । परन्तु गाँव में अब भी अधिकतर घरों में पाखाने नहीं होते और यहां होते भी हैं उनमें केवल स्त्रियाँ ही और वे भी कभी-कभी जाती हैं । पहले घरों में फर्श कच्चे होते थे, अब बहुत से घरों में ईंटों के या सीमेन्ट के फर्श देखे जा सकते है । मकानों में सीमेन्ट का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है । मकानों की छतें पहले फूँस या खपरैल की होती थीं अब छतें पक्की होने लगी हैं । सम्पन्न घरों में मकानों की बैठकों में मेज-कुर्सी आदि देखी जा सकती हैं ।

पहले मकानों में देवी-देवताओं के चित्र ही अधिक दिखलाई पड़ते थे अब गाँधी जी, सरदार पटेल, पं. नेहरू तथा अन्य नेताओं के चित्र भी देखे जा सकते हैं । पहले अधिकतर रोशनी के लिए कडवे तेल का दिया जलाया जाता था, अब मिट्टी के तेल की लालटेनों के रिवाज अधिक हैं । कुछ घरों में चाय आदि बनाने के लिए स्टोव का भी इस्तेमाल किया जाता है ।

(9) सफाई:

यद्यपि गाँव में अब भी सफाई का बहुत कम ध्यान रखा जाता है, परन्तु फिर भी इस दिशा में पहले से अधिक ध्यान दिया जाने लगा है । कभी-कभी स्कूलों पंचायतों विकास खण्डों अथवा अन्य सार्वजनिक संस्थाओं की ओर से पूरे गांव की सफाई की जाती है ।

व्यक्तिगत सफाई की ओर भी पहले से अधिक ध्यान दिया जाने लगा है । गाँव में नहाने और कपड़े धोने के साबुनों की खपत बढ़ती जा रही है । सेफ्टी रेजरों का इस्तेमाल बढ़ रहा है । गोबर की खाद बनाने का प्रचार बढ़ने से अब गोबर और कड़ा गलियों में सड़ता कम दिखलाई पड़ता है । परन्तु कुल मिलाकर अब भी गांवों में सफाई की दशा में थोड़ी ही उन्नति हुई है यद्यपि पंचायतों ने गाँवों की गलियों, कुओं, सार्वजनिक स्थानों आदि की सफाई की ओर ध्यान दिया है ।

(10) रोग:

सफाई में उन्नति होने से और गांवों में डॉक्टरों की संख्या बढ़ जाने से गांव के स्वास्थ्य में कहीं-कहीं सुधार हुआ है । यद्यपि औषिधीय सुविधायें पहले से निश्चय ही अधिक है; परन्तु दूसरी ओर नई-नई बीमारियाँ भी बड़ी है । सरकार द्वारा सन्तति निरोध और परिवार नियोजन के प्रचार से अभी गांवों में इस दिशा में विशेष जागृति नहीं फैली है ।

परन्तु पर्याप्त शिक्षा से गर्भ शिक्षा निरोध के आसान उपायों के सुलभ होने से स्त्रियों के स्वास्थ्य की दशा पहले से अवश्य सुधरेगी । देश में खाद्य समस्या उपस्थित होने के कारण गाँव के गरीब लोगों को पौष्टिक और पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता, अतः उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है ।

सरकार की ओर से टीकों और पेटेन्ट दवाओं का प्रबन्ध होने से चेचक, मलेरिया आदि पर रोकथाम अवश्य हुई है । पर्दे की प्रथा हटने से तथा मकानों की दशा सुधरने से स्त्रियों का स्वास्थ्य पहले से कुछ अच्छा कहा जा सकता है । परन्तु दूसरी ओर चाय, तम्बाकू वनस्पति घी का बढ़ता हुआ प्रयोग ग्रामीण लोगों के स्वास्थ्य का सार गिर रहा है ।

(11) साक्षरता:

गावों में स्त्री-पुरुष, लड़के-लड़कियाँ सभी में साक्षरता बढ़ रही है । बुनियादी शिक्षा तथा समाज शिक्षा बढ़ती जा रही है । अनेक राज्य प्रत्येक गाँव में प्रत्येक बालक-बालिका के लिये मुफ्त अनिवार्य शिक्षा का आयोजन करने के लिये प्रयत्नशील हैं ।

गाँव के बहुत से युवक उच्च शिक्षा प्राप्त करने नगरों में जाने लगे हैं । बड़े-बड़े गाँवों में केवल हाई स्कूल नहीं, बल्कि, इण्टरमीडिएट कालिज भी देखे जा सकते हैं । ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक ग्रामीण संस्थायें, कृषि कालेज और डिग्री कालेज भी स्थापित किये गये हैं ।

(12) आर्थिक क्षेत्र:

गाँवों में रहन-सहन का स्तर बढ़ रहा है । जिससे नई-नई चीजों की माँग पैदा हो रही है और फलस्वरूप गाँवों में उनकी दुकानें खुल रही है शिक्षित ग्रामीण नवयुवकों का नौकरी की ओर अधिक झुकाव है । कृषि में नवीन औजारों का प्रयोग बढ़ रहा है ।

नये औजार, नये बीजों और खेती के नये तरीकों से उपज बड़ी है । गाँवों में सहकारी समितियों के खुलने से छोटे व्यवसायों की दशा में सुधार हुआ है सहकारी उधार समितियों अनाज बैंकों और सहकारी बैंकों के खुलने से पूँजी की दशा पहले से बेहतर है और ऋण-ग्रस्तता कम है ।

सरकारी सहायता से कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन मिला है । प्रति व्यक्ति आय बड़ी है, परन्तु साथ ही चीजों के दाम भी बड़े देखे जाते हैं । मध्यवर्तियों के हट जाने से किसानों तथा छोटे व्यवसायियों की दशा सुधरी है ।

(13) राजनैतिक क्षेत्र:

पंचायतों की स्थापना से गाँवों में राजनीतिक चेतना बड़ी है । वयस्क मताधिकार से गाँव वाले भी सरकार के कार्यों की आलोचना करने लगे हैं । कहीं-कहीं गाँवों में अखबार वाले भी पहुँचते है । अखबार और रेडियो की सहायता से अब गाँव वालों का राजनैतिक ज्ञान भी बढ़ रहा है । परन्तु राजनैतिक दलों ने गाँव में फूट और गुटबन्दी भी उत्पन्न की है ।

देश की आजादी के बाद अब गाँव वाले सरकारी कर्मचारियों से उतना नहीं डरते जितना पहले डरते थे । पंचायतें होने पर भी इधर गाँवों में मुकदमें बाजी बड़ी है । राष्ट्रीय चेतना जाग्रत होने पर भी सामुदायिक भावना कम हुई है । सहकारिता बढ़ने पर भी स्वार्थ पर व्यक्तिवाद बढ़ता गया । हमारे गाँवों के बदलते हुये दृश्यों को उपयुक्त झाँकी से यह अवश्य मालूम पड़ता है कि भारतीय गाँव परिवर्तनशील हैं ।

डॉ॰ अल्टेकर के शब्दों में- “(1) हमारा इतिहास बतलाता है कि भारतीय ग्रामीण समुदायों के अपरिवर्तनीय होने के विषय में मेटकॉफ और मेन जैसे प्रारम्भिक लेखकों के निर्णय सीमित अर्थों में ही माने जाने चाहियें (2) पिछले खण्ड में बतलाया गया पश्चिमी और उत्तरी समुदायों का अनार इसी तथ्य के कारण था कि उत्तर में समुदाय उन कारकों के कारण बदल गये हैं, जो पश्चिमी भारत में काम नहीं कर रहे थे । (3) एलफिंस्टन और मेटकॉफ के दिनों से हमने स्वयं अपनी आँखों से देखा है कि कैसे हमारी प्रशंसा की पात्र ग्राम की अधिकतर संस्थायें अन्तर्ध्यान हो गई इसलिए इन समुदायों के अपरिवर्तित रहने की कल्पना छोड दी जानी चाहिये । (4) न ही यह माना जा सकता है कि मुस्लिम और ब्रिटिश प्रभाव से उत्पन्न हुये परिवर्तनों को छोड़कर हिन्दू काल में कोई परिवर्तन नहीं हो रहे थे । क्योंकि हमने देखा है कि किस प्रकार ब्राह्मण युग में वैदिक सभा का प्रभाव समाप्त हो गया, किस तरह मौर्य साम्राज्यवाद के अधीन स्थानीय संसद और पंचायत का क्षेत्र काफी कम कर दिया गया, किस तरह ‘लेखक’ प्रारम्भिक काल में नहीं था और बाद में अस्तित्व में आया, किस तरह बड़ों की नियमित संसद बल्लभी काल तक नहीं थी इत्यादि । निष्कर्ष यह है कि इतिहास बतलाता है कि आन्तरिक और बाह्य दोनों कारक हमारे ग्रामीण समुदायों में परिवर्तन उत्पन्न कर रह थे । मुस्लिम प्रभाव पर्याप्त शक्तिशाली नहीं था, इसलिये संस्थायें बनी रही, परन्तु उनकी वृद्धि रुक गई और क्षमता निर्बल हो गई । ब्रिटिश प्रभाव ने, जोरदार और सर्वागीण होने के कारण अधिकतर ग्रामीण संस्थाओं को मार डाला । मुखिया का महत्व समाप्त हो गया, लेखक आनुवंशिक न रहा, ग्रामीण समिति अब नहीं दिखाई पड़ती, पंचायत का नाम भी सुनाई नहीं पड़ता, ग्रामीण कोष भी समाज हो गया है । ग्रामीण जीवन बड़ी हद तक वही है, लोग अब भी पुराने ढंग से अपने खेत जोतते और बोते हैं, परन्तु यहाँ भी परिवर्तन आ रहे है और काफी तेजी से आ रहे हैं । इसी प्रकार यह सिद्धान्त कि भारतीय ग्रामीण समुदाय परिवर्तित नहीं होते इतिहास की शिक्षाओं हारा पूर्णत: असिद्ध हो जाता है ।”

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