Read this article in Hindi to learn about:- 1. भारत में  ग्रामीण और शहरी की प्रस्तावना (Introduction to Rural & Urban Poverty in India) 2. भारत में  ग्रामीण और शहरी गरीबी रेखा का निर्धारण (Determination of Rural & Urban Poverty Line in India) 3. विश्लेषण (Analysis).

भारत में  ग्रामीण और शहरी गरीबी की प्रस्तावना (Introduction to Rural & Urban Poverty in India):

भारत में गरीबी बहुआयामी और आधारभूत समस्या है । गरीबी आर्थिक पहलू के साथ ही सामाजिक पहलू भी है । भारत में कम आय, कम खपत, निम्न साक्षरता, निम्न जीवन प्रत्याशा, अधिक शिशु जन्म दर व मृत्यु दर, तथा तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या दर इत्यादि कारणों से देश की जनसंख्या का एक बड़ा भाग का निम्न जीवन स्तर बना हुआ है ।

गरीबी ग्रामीण और शहरी दोनों ही क्षेत्र में व्याप्त है । योजना आयोग के अनुसार वर्ष 2011-12 में ग्रामीण क्षेत्र में 25.7 फीसदी और शहरी क्षेत्र में 13.7 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे । संपूर्ण भारत में यह आँकड़ा 21.9 फीसदी है । ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि व गैर-कृषि कार्यों में और शहरी क्षेत्रों में विनिर्माण उद्योगों में असमानता होने के कारण रोजगार स्तर घटा है ।

जिसका परिणाम देश में गरीबी के रूप में उभर रहा है । देश में गरीबी दूर करने के लिये सरकार ने गरीबी हटाओं योजना अपनाई । जिसमें गरीबों के लिये स्वरोजगार और मजदूरी पर आधारित रोजगार का सृजन किया गया । इस रणनीति के कुछ सकारात्मक असर दिखाई दिए जिससे गरीबों के प्रतिशत में कुछ गिरावट हुई । लोकन गरीबों की संख्या में कोई कमी नहीं हुई ।

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गरीबी की स्थिति में परिवर्तन विवादास्पद रही है । नब्बे के दशक में गरीबी की स्थिति में जो सुधार हुआ वह आर्थिक तीव्र वृद्धि होने के बावजूद बहुत धीमा रहा । ग्रामीण क्षेत्र में आधारभूत संरचना का विकास किया गया । इसकी स्व-सहायता समूह से जोड़ने का प्रयास किया गया । राष्ट्रीय स्तर पर रोजगार गारण्टी योजना क्रियान्वित की गई ।

गरीबों को इन योजनाओं से तात्कालिक सहायता मिली, लेकिन दीर्घकालीन दृष्टिकोण से ज्यादा लाभ नहीं मिल पाया । फलत: भारत में आज भी कुल जनसंख्या में लगभग 30 प्रतिशत गरीबों की संख्या है । जोकि ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में है । अत: आज भारत में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में गरीबी की जो वर्तमान स्थिति है वह अध्ययन का एक महत्वपूर्ण विषय है ।

भारत में  ग्रामीण और शहरी गरीबी रेखा का निर्धारण (Determination of Rural & Urban Poverty Line in India):

भारत में गरीबी रेखा का निर्धारण सर्वप्रथम दादाभाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक पॉवरटी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इण्डिया में किया था । उन्होंने सन 1867-68 की कीमतों के आधार पर 16 से 35 रुपये प्रति व्यक्ति सालाना गरीबी रेखा निर्धारित की थी ।

इसके बाद 1938 में राष्ट्रीय योजना समिति ने गरीबी रेखा का अनुमान लगाया जो कि 16 से 20 रुपये प्रतिमाह थी । 1962 में योजना आयोग ने एक कार्यसमूह का गठन किया जिसने ग्रामीण व शहरी दोनों क्षेत्रों के लिये क्रमश: 20 व 25 रूपये गरीबी रेखा निर्धारित की ।

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1979 योजना आयोग ने वाई के. अलघ की अध्यक्षता में गरीबी निर्धारण हेतु समिति गठित की । इस समिति ने गरीबी निर्धारण में पोषक तत्वों को आधार बनाया । इनके अनुसार 1974-75 की कीमतों के आधार पर ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिदिन 2400 कैलोरी और शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी के लिये क्रमश: 49.1 एवं 56.7 रुपये मासिक आय निर्धारित की । जिन लोगों की आय इससे कम है उन्हें गरीबी रेखा के नीचे माना गया ।

योजना आयोग ने सितम्बर 1989 में प्रोफेसर डी.टी. लकड़वाला की अध्यक्षता में विशेष समिति गठित की । इस समिति ने अलघ समिति के फॉर्मूला में कुछ संशोधन करके जुलाई 1993 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की । जिसे योजना आयोग ने 11 मार्च, 1997 को स्वीकार किया । इस फॉर्मूला के अनुसार सभी राज्यों की अलग-अलग गरीबी रेखा तय की गई ।

इस फॉर्मूला में ग्रामीण गरीबी के लिए कृषि श्रमिक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक और शहरी गरीबी के लिये ओद्योगिक श्रमिक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक और गैर शारीरिक कर्मचारी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के साधारण औसत का उपयोग किया गया ।

ग्रामीण और शहरी गरीबी निर्धारण  के सुझाव:

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यह कहा जा सकता है कि भारत में गरीब की स्थिति में काफी असमानता है । ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में गरीबों की संख्या में विषमता है । ग्रामीण क्षेत्र में शहरी क्षेत्र की अपेक्षा गरीबों की संख्या काफी अधिक है ।

विभिन्न राज्यों के बीच भी गरीबों की सत्या में भिन्नता देखने को मिल रही विकासशील राज्यों जैसे छत्तीसगढ, झारखण्ड, मणिपुर, अरूणाचल प्रदेश और बिहार में गरीबी की अनुपात 33.47 से 39.93 फीसदी के बीच है । जबकि विकसित राज्यों जैसे गोवा, केरल, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और पंजाब में गरीबी अनुपात 5.09 फीसदी से 8.26 फीसदी के बीच है । विकासशील राज्यों में सबसे अधिक गरीबी छन्तीसगढ़ में है ।

संघशासित राज्यों में दादर व नागर हवेली गरीबी अनुपात अधिक है । भारत में गरीबी अनुपात में सुधार की स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं है । क्षेत्रीय विषमताएँ बहुत अधिक दिखाई देती है । कुछ राज्यों की स्थिति काफी गंभीर है । योजना आयोग द्वारा जारी आँकडों के अनुसार भारत में गरीबी का अनुपात वर्ष 2004-05 में 37.2 फीसदी से घटकर वर्ष 2011-12 में 21.9 फीसदी रह गया ।

सरकार ने यह कमाल तेंदुलकर फॉर्मूला के आधार पर किया जिसे वह 2 साल पूर्व खुद नकार चुकी है । गरीबों की संख्या तय करने के लिये हर पाँच साल में सर्वे कराया जाता है । वर्ष 2004-05 के सर्वे के बाद इसे 2009-10 में कराया गया लेकिन सरकार को लगा कि सूखे के कारण ठीक से मूल्यांकन नहीं हो पाया । इसलिए 2011-12 में पुन: सर्व कराया गया ।

पिछले 7 सालों के सर्वे से जो कड़े सामने आये उनमें अधिकांश राज्यों में गरीबी की संख्या तेजी से घटी है । जिसमें बीमारू राज्य अब्बल रहे है । बिहार में गरीबों की संख्या 21.2 फीसदी घटी तो उत्तरप्रदेश में 15 फीसदी ।

इसी प्रकार राजस्थान, ओडिशा, और म.प्र. में गरीबी तेजी से कम हुई है । इतना ही नहीं गाँवों में गरीबी कम करने वाले शीर्ष 5 राज्यों में बिहार, उ.प्र., म.प्र. शामिल है । पंजाब इकलौता राज्य है जहाँ ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरों में गरीबों की संख्या अधिक है । सरकार एक ओर ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी में तेज गिरावट का दावा कर रही है ।

तो दूसरी ओर जनगणना रिपोर्ट के अनुसार 2001-2011 के बीच कृषि मजदूरों की संख्या 10.6 करोड़ से बढ़कर 144 करोड़ हो गई है । यह कैसे संभव है कि किसान से मजदूर बनने पर आय बढ़ेगी । एनएसएसओ ने 2004-05 से 2009-10 तक की अवधि को रोजगार विहीन विकास की अवधि कहा है । इस अवधि में देश में 46 करोड़ रोजगार के अवसरों में कमी हुई है ।

ऐसी स्थिति में गरीबों की संख्या में कैसे गिरावट आ सकती है । ग्रामीण क्षेत्र में मनरेगा के प्रति आकर्षण घट रहा है । 2009-10 में मनरेगा के तहत 283 लाख रोजगार दिवस सृजित हुए थे जो 2011-12 में घटकर 216 लाख रह गए है । अत: इस योजना से गरीबी तेजी से नहीं घटी है ।

विनिर्माण क्षेत्र में केवल 12 फीसदी लोगों को रोजगार मिला हे । जबकि चीन और जर्मनी में यह अनुपात 28 फीसदी है । भारत में तेज आर्थिक विकास (8.4) दर के बावजूद रोजगार के अवसर घटे हैं । अत: बढ़ती बेकारी के बीच गरीबों की संख्या कम नहीं हो सकती है ।

भूमण्डलीकरण और उदारीकरण गरीबी निवारण का सशक्त हथियार बताया गया है । लेकिन भूमण्डलीकरण जनित आउटसोर्सिंग उद्योग शोषण का शिकार बनकर उभर रहे हैं । इस बात में कोई सदेह नहीं है कि पिछले दो दशकों में गरीबी में गिरावट आई है । लेकिन उपभोग खर्च पर आधारित गरीबी की माप केवल काम चलाऊ है ।

वह भी पाँच साल में एक बार आने वाले ऑकडों के आधार पर निकाली जाती है । जिसमें दैनिक मंगाई को शामिल नहीं किया जाता है । इस प्रकार भारत में गरीबी रेखा की माप का आधार ही गलत है । देश में लोगों की आय-व्यय का ठोस सर्वेक्षण नहीं है ।

अत: सरकार को चाहिये कि ऑकडों के आधार पर गरीबी में कमी दिखाकर राजनीतिक लाभ लेने की बजाय आय-व्यय के आधार पर गरीबी की रेखा का निर्धारण करें जो कि वास्तविकता के अधिक निकट होगी । गरीबी को परिभाषित करने में अतर्राष्ट्रीय मापदण्डों को लागू किया जाये । गरीबों की सही पहचान के लिये स्कोरिंग मेथड जैसे नये तरीकों का प्रयोग किया जाये ।

साथ ही देश में समावेशी विकास जैसी विचारधारा को अंतिम विकास न मानते हुए विकास का साधन माना जाये । खाद्य सुरक्षा स्व-सहायता समूह और मनरेगा जैसी महत्त्वपूर्ण योजनाओं का प्रभावशील क्रियान्वयन किया जाये । तभी शहरी-ग्रामीण गरीबी को दूर किया जा सकता है ।

भारत में ग्रामीण एवं शहरी गरीबी का विश्लेषण (Analysis of Rural & Urban Poverty in India):

भारत असमानताओं से भरा देश है, यहाँ विनिमय दर के आधार पर भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की 10वीं बड़ी तथा क्रयशक्ति समता के आधार पर तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है । जबकि पीडब्ल्यूसी की एक रिपार्ट में निष्कर्ष निकाला गया की भारत की अर्थव्यवस्था 2050 तक विनिमय दर के आधार पर तीसरी तथा पीपीपी के आधार पर दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए तैयार होगी ।

यह स्थिति को देखते हुए कहना उचित नहीं है कि भारत में गरीबी की स्थिति ठीक हो गई है । भारत में कुल जनसंख्या का 68 अप्रतिशत तथा 3116 प्रतिशत क्रमशः गाँवों तथा शहरों में निवास करती है । इस जनसंख्या का वर्ष 1999-2000 की संशोधित विधि, योजना आयोग के 26 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रही है ।

यह आज भी वर्ष 2011-12 की स्थिति से कुछ ठीक नहीं है 2192 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही है । ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी 2165 प्रतिशत तथा शहरी क्षेत्रों यह महज 137 प्रतिशत हे जो यह व्यक्त करती है कि रोजगार के अवसर शहरी क्षेत्रों में तो बढ़े किन्तु ग्रामीण क्षेत्रों में उस गति से नहीं बढ़े जिस गति से शहरी क्षेत्रों में विकास हुआ है । आज भी 21 करोड़ 65 लाख जनसंख्या गरीबी के नीचे जीवन यापन कर रही है जो अधिकतर ग्रामीण क्षेत्र निवास करते है ।

वर्ष 1936 में योजना आयोग की रिपार्ट में नेहरू ने पहली बार मानवीय आवश्यकताओं को जिसमें खाद्य, कपड़े तथा मकान को मूलभूत आवश्यकताओं में व्यक्त किया हैं । नेहरू के द्वारा यह सिफारिशें दी गई की मानव को अपने मूल आवश्यकताओं में यदि खाद्य, कपड़े तथा मकान प्राप्त हो जाते है तो वह गरीब नहीं है ।

वर्ष 1962 में गरीबी की एक अलग पहचान बताई गई जिसमें कार्यकारिणी समिति के अनुसार पाँच व्यक्तियों के एक परिवार में, शहरी क्षेत्रों में 125 रूपये अर्थात 25 रूपये प्रति माह प्राप्त होता है तो वह गरीबी रेखा से ऊपर हे जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में 100 रूपये अर्थात् 20 रूपये प्रति माह प्राप्त करता है तो वह गरीबी से ऊपर की में है । यह आगे चलकर गरीबी का मापदण्ड के रूप में परिवर्तित हो गया ।

वर्ष 1971 में वी.एम. दांडेकर तथा नीलकान्त रथ के गरीबी रेखा के अध्ययन से हमें गरीबी की एक नई पहचान मिलती है । जिसे मापने के लिए इन्होंने उपभोग कैलोरी ऊर्जा को निर्धारित किया और इन्होंने बताया कि 2250 कैलोरी यदि कोई प्राप्त कर लेता है तो वह गरीब नहीं है जिसके लिए उसे प्रतिवर्ष 170.80 रूपये प्राप्त करना है लगभग 14.20 रूपये प्रतिमाह के स्तर से यही अध्ययन के अनुसार 271.70 या 22.60 रूपये वर्ष या माह में प्राप्त करने वाले शहरी लोगों को गरीबी की श्रेणी से बाहर रखा गया है ।

180 या 15 रूपये वर्ष या माह में प्राप्त करने वाले ग्रामीण लोगों के लिए यह मापदण्ड निर्धारित किया गया । वर्ष 1973-74 में एन.एस.एस के अध्ययन के आधार पर कैलोरी ऊर्जा का मापदण्ड बदल कर 2400 एवं 2100 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त करने के लिए क्रमश: शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी का स्तर निर्धारित किया गया ।एन.एस.एस. के अध्ययन के द्वारा 2400 एवं 2100 केलोरी ऊर्जा प्राप्त करने के लिए उपभोग व्यय पर क्रमशः 49.09 ग्रामीण क्षेत्र में 56 ध्य रूपये प्रतिमाह शहरी क्षेत्र में मापदण्ड तय किया गया ।

वर्ष 1979 में पुन: गरीबी के स्तर को मापने के लिए एक नई कमिटी को कार्य दिया गया यह टास्क फोर्स समिति ने 2435 तथा 2095 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त करने के लिए क्रमश: ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में गरीबी का स्तर पुन: बदल दिया ।

वर्ष 1993 में गरीबी के लिए एक नई अवधारणा विकसित की गई जिसके लिए कमिटी के अध्यक्ष प्रो॰ लकड़वाला नियुक्त हुए । आगे एक्सपर्ट कमेटी निर्धारित की गई जिसमें राज्यों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकाव के आधार पर गरीबी निर्धारित की गई साथ ही साथ इस कमिटी के संशोधन स्वरूप 1973-74 को आधार वर्ष माना जाएगा । प्रत्येक राज्यों का एक अलग गरीबी का स्तर भी निर्धारित होगा ।

बाद में पुन गरीबी सुधार हेतु तेंदुलकर समिति निधार्रित कर दी गई और इस तरह कई नियम बनाये गये पर तेंदुलकर समिति के अनुसार देश में 33 प्रतिशत लोग गरीब है । तेंदुलकर रिपार्ट को तो योजना आयोग ने भी स्वीकार कर लिया था ।

अर्जुन सेन गुप्ता के शोध के अनुसार 1993-94 से 2004-05 तक के आंकडों के निष्कर्ष में 77 प्रतिशत लोग 20 रूपये प्रतिदिन प्रान्त नहीं कर पा रहें है । एन.सी. सक्सेना के अनुसार देश में 50 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करते है ।

सैद्धांतिक विश्लेषण:

प्रस्तुत शोध में शून्य परिकल्पना को माना गया है जिसके लिए भारत में ग्रामीण तथा शहरी गरीबी की असमानता की माप करने की कोशिश की गई है । जिसके अन्तर्गत यह परिकल्पना निर्धारित कि गई कि भारत में गरीबी का विकास के मध्य कोई सम्बंध नहीं है एवं गरीबी का आय के साथ भी कोई प्रभाव नहीं है ।

इस परिकल्पना का परिक्षण करने के लिए सर्वप्रथम प्रतिव्यक्ति सकल घरेलू आय साधन लागत पर तथा बचत के बीच सहसंबंध ज्ञात किया गया जो $.98 उच्चस्तर के सहसंबंध को व्यक्त कर रहा है, वहीं प्रतिव्यक्ति सकल घरेलू आय को बेरोजगारी के साथ सहसंबंध देखा तो यह -.93 स्तर का पाया गया है ।

जबकि शहरी गरीबी का बेरोजगारी के साथ उच्च स्तर ऋणात्मक सहसबन्ध तो है -.81 तो वहीं ग्रामीण गरीबी का बेरोजगारी के साथ मध्यम स्तर का -.70 ऋणात्मक सहसंबंध देखा गया है । अतः इन प्राप्त कड़ी का यह कहना उचित होगा कि प्रतिव्यक्ति आय का गरीबी के साथ उल्टा संबंध है यदि प्रतिव्यक्ति आय का स्तर ऊंचा होता है तो देश में शहरी तथा ग्रामीण गरीबी दोनों के स्तर में सुधार हो सकेगा ।

इसी संदर्भ में F test का परीक्षण किया गया जिसमें कुछ इस तरह निष्कर्ष देखे गये 99 प्रतिशत विश्वसनीय स्तर पर इसकी जाँच करने पर यह ज्ञात होता है कि इसका परिगणित मूल्य 0.0558 प्राप्त हो रहा है जो सारणीयन मूल्य मान से कहीं छोटा 0.01 प्रतिशत सार्थकता स्तर स्वातंत्र्य संख्या v 1=2, तथा v2=1 इसके लिए यह मान = 18.51 इसका जो कि परिगणित मूल्य से बड़ा है अतः यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि विकास तथा आय का गरीबी के स्तर पर इसका सीधा सबन्ध है यदि विकास होगा तो गरीबी का स्तर भी धीमा होने लगेगा और अर्थात लोगों की आय बढ़ने पर गरीबी में सुधार होने लगेगा ।

भारत में सरकार के द्वारा गरीबी उन्मूलन के लिए मुख्य कार्यक्रम:

(a) सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना,

(b) राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम,

(c) स्वर्ण जयन्ती शहरी रोजगार योजना,

(d) इन्दिरा आवास योजना,

(e) अत्योदय अन्न योजना,

(f) मरू भूमि विकास कार्यक्रम,

(g) प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना,

(h) प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना,

(i) स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार एवं राष्ट्रीय ग्रामीण आजिविका योजना,

(j) महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम,

(k) प्रधानमंत्री रोजगार योजना,

(l) ग्रामीण आवास योजना,

(m) सूखा राहत क्षेत्र कार्यक्रम,

(n) कृषि श्रमिक सामाजिक सुरक्षा योजना,

(o) वाल्मीकी-अम्बेडकर आवास योजना,

(p) भारत निर्माण योजना ।

समस्त कार्यक्रम होने के बावजूद अर्थव्यवस्था में देश में निर्धनता का स्तर को पूर्णरूप से ठीक नहीं किया गया है । अभी भी देश के कुल आबादी का लगभग 22 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहा है भारत में संचालित रोजगार योजनाओं तथा गरीबी उन्तुलन के कार्यक्रमों की असफलताओं के कुछ मुख्य कारणों से हम इस तरह से विदित हो सकते हैं ।

गरीबी को दूर करने के लिए पहली सार्थक प्रयास पाँचवीं पचवर्षीय योजना के दौरान किया गया, लोकन यह योजना अतर्राष्ट्रीय तेल की कीमतों के कारण अर्थात आर्थिक सकट के कारण सफल नहीं हो सकी । सन 1973-74 में देश में आर्थिक संकट चल रहा था, उसी दौरान पाँचवीं योजना में गरीबी हटाओं का नारा दिया गया ।

पाँचवीं पंचवर्षीय योजना ने तो अपनी लक्ष्य से भी 48 प्रतिशत की विकास दर प्राप्त की लेकिन गरीबी को दूर नहीं कर पाई । चूकि देश में मुद्रा स्फीति तीव्र गति से चल रहीं थी । जिसे सरकार नियंत्रण करने में पूरी तरह असफल रही थी । ऐसी स्थिति में गरीबी हटाओं जैसे नारा को पूरा करना एक अलग चुनौती बन गयी ओर सरकार असफल हो गयी ।

देश में संचालित योजनाओं का असफल प्रयास गरीबी को दूर करने में जिम्मेदार कहा जा सकता है । क्योंकि देश में योजनाओं का तो संचालन किया जाता है, लोकन जिसके लिए वह योजनाएं बनती है । उसके बारे में कोई जानकारी नहीं ली जाती है, बस संसद से नियम बनाकर उसे लागू करने मात्र से ये अपेक्षा रखना की गरीबी हट जाऐगी तो यह कहीं संभव दिखाई नहीं देता ।

देश में योजनाओं का निर्धारण अधिकतर विकास दर को हासिल करने के लिए बनाया जाता है और उसे पूरा करने के लिए विभिन्न मॉडलों का भी सहारा लिया जाता है । किन्तु योजनाओं में गरीबी के लिए कोई विशिष्ट मॉडल प्रयोग में नहीं लाये जाते ।

गरीबी के निर्धारण में प्रत्येक बार मापदण्ड की उचित व्यवस्था नहीं है किसी के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि खाद्य उपलब्धता गरीबी को व्यक्त करेगी तो किसी के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि मुद्रा गरीबी का मापदण्ड है ।

कोई 5 साल पुराने ऑकड़ों से तो कोई 10 साल पुराने आधार वर्षों के आधार पर गरीबी का निर्धारण करते है । गरीबी को दूर करने के लिए देश में कोई संस्थागत मापदण्ड नहीं है इससे अभिप्राय यह है कि देश में कोई संस्था के द्वारा इस तरह कोई पहल नहीं की जा रही है कि गरीबी के निर्धारण के प्रति कोई इकाई या अलग संस्था नहीं है । यदि देश में प्रत्येक विकासखण्ड में इस तरह की कोई संस्था हो तो वह शीघ्र ही इसे नियंत्रित कर सकती है ।

योजनाओं के असफल होने का अर्थ शासन सरकार का भ्रष्ट होना भी कहा जा सकता है क्योंकि इसमें सरकार कानून तो दिल्ली के संसद में बना लेती है । लेकिन उसे जिसके लिए पारित करती है उसके बारे में कोई हिसाब-किताब नहीं रखती । गरीबी को दूर करने के लिए देश में जो कानून बनाये जाते हे उनका कोई निश्चित मापदण्ड तय नहीं होता है ।

क्योंकि देश में प्रत्येक 10 वर्ष में 15 से 20 करोड़ जनसंख्या बढ़ जाती है और इतनी संपूर्ण जनसंख्या को रोजगार देना संभव नहीं होता । इसके लिए केवल कानून या कार्यक्रम संचालित कर देने से गरीबी को दूर नहीं किया जा सकता है । यह भी एक चुनौती है, जिसके लिए उचित व्यवस्था होना जरूरी है ।

देश में शहरी या ग्रामीण गरीबी को दूर करने के लिए योजनाओं का क्रियान्वयन सीधे निचले स्तर से होने चाहिए जिससे देश के समस्त लोगों को उसका लाभ प्राप्त हो सके । यह भी देश में गरीबी दूर करने के लिए एक चुनौती है जिसे ठीक करने के लिए विषय विशेषज्ञों की सलाह तथा नियमों का निर्धारण करना चाहिए । ठेकेदारी प्रथा पर भी नियंत्रण किया जाना चाहिए क्योंकि यह केवल अधिकतम लाभ प्राप्त करने की लालसा में लगें होते है ।

मजदूरों को वह उचित वेतन या मजदूरी को देने के लिए तत्पर नहीं रहते है । विकास केन्द्रों की संख्या में वृद्धि की जाए यह विकास केन्द्र ऐसे स्थानों में बनाये जाए जहाँ गरीबी की संख्या अधिक हों तथा पंचायत स्तर पर भी यह केन्द्र स्थापित किये जाए जिससे देश की 88 प्रतिशत जनसंख्या को रोजगार प्राप्त करने में आसानी हो सकेगी और गरीबी का स्तर भी सुधर सकेगा ।

आय असमानता को कम करने के लिए देश के प्रत्येक परिवार के एक सदस्य को रोजगार आवश्यक रूप से योग्यता अनुरूप दिया जाए जिससे आर्थिक स्थिति सुधर सके । देश में गरीबी स्तर के असफल होने में संरचनात्मक सुविधाओं का अभाव भी एक कारण कहा जा सकता है । देश में संगठित तथा गैर संगठित क्षेत्रों को गरीबी हटाने के लिए एक साथ कार्य करने के लिए प्रेरित किया जाए ।

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