क्रायो तकनीक पर निबंध! Here is an essay on ‘CYRO Techniques’ in Hindi language.

बीसवीं सदी में मानव ने विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति की जो उडान भरी, इससे पहले वह कभी इतना न कर सका था । मानव इस सदी में न केवल अपनी सुख-सुविधा के अनेक प्रकार के यन्त्र बनाने में कामयाब रहा, बल्कि अन्तरिक्ष के कई रहस्यों का पता लगाने में भी उसे कामयाबी मिली । यहाँ तक कि उसने अन्तरिक्ष एवं इसके कुछ ग्रहों का भ्रमण कर असम्भव कार्य को भी सम्भव कर दिखाया ।

मानव की इस प्रगति में कई प्रकार की नवीन तकनीकों का विशेष योगदान रहा है वैसे तो ऐसी तकनीकों की एक लम्बी सूची तैयार की जा सकती है, किन्तु अन्तरिक्ष में मानव की पहुँच एवं रॉकेट विज्ञान के सन्दर्भ में देखें, तो जिस तकनीक ने रॉकेट की गीत बढाने में पिछले कुछ दशकों में अपना विशेष योगदान दिया है वह है- क्रायो तकनीक ।

क्रायो तकनीक, क्रायोजेनिक्स की एक आधुनिक तकनीक है । क्रायोजेनिक्स के अन्तर्गत परम शून्य तापमानो (सामान्यतः -150 डिग्री सेल्सियस से भी कम तापमान) एवं इन्हें प्राप्त करने अध्ययन किया जाता है । इसमें नाइट्रोजन, ऑक्सीजन एवं हीलियम जैसी गैसों के तरल रूप के भण्डारण, उनके उपयोग तथा परम शून्य तापमान पर यान्त्रिक प्रशीतकों का भी अध्ययन किया जाता है ।

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क्रायोजेनिक्स का हिन्दी रूपान्तर निम्नतापिकी है । इस तकनीक की शुरूआत बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुई थी । इस संसार के सभी गैसीय व तरल पदार्थ न्यूनतम तापमान में जमकर ठोस रूप में आ जाते है । केवल हीलियम एक ऐसी गैस है, जो न्यूनतम तापमान की स्थिति में हमेशा द्रव रूप में ही रहती है ।

द्रवीभूत हीलियम का प्रयोग कई कार्यों में किया जाता है । क्रायोजेनिक्स का प्रयोग प्रशीतन में किया जाता है ।  इसके लिए द्रबीभूर नाइट्रोजन का प्रयोग किया जाता है । क्रायोजेनिक्स तकनीक से द्रवीभूत नाइट्रोजन के प्रशीतन द्वारा बैक्टीरिया, एन्जाइम, ऑक्सीकरण तथा रासायनिक अभिक्रियाओं के कारण होने वाली सडन प्रक्रिया को कम किया जाता है ।

यह तकनीक खाद्य पदार्थों को कई दिनों तक बाद, सुगन्ध, रंग एवं पोषक-तत्वों से भरपूर रखने में भी मददगार साबित होती है, इसलिए इस तकनीक का प्रयोग फल-फूल, सब्जियों एवं सडने वाले खाद्य पदार्थों को प्रशीतित कर एक जगह से दूसरी जगह भेजने के क्रम में उन्हें सुरक्षित रखने के लिए किया जाता है । इस तकनीक का प्रयोग चिकित्सा के क्षेत्र में भी किया जाता है ।

अस्पतालों में रोगियों के रक्ताधान के लिए रक्त को सामान्यत तीन सप्ताह से अधिक समय तक परिरक्षित नहीं रखा जा सकता । अब क्रायोजेनिक्स के माध्यम से द्रवीभूत नाइट्रोजन का प्रयोग कर रक्त को कई महीनों ही नहीं, कई सालों तक भी सुरक्षित रखा जा सकता है सामान्य शल्य-क्रिया के क्षेत्र में भी क्रायोजेनिक्स काफ़ी उपयोगी है ।

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पार्किन्सन रोग तथा अनैच्छिक संचालन की अन्य विकृतियों के इलाज के लिए भी इसका प्रयोग किया जा सकता है । इस तकनीक के माध्यम से फोडों को प्रशीतित करके रक्तस्राव के बिना ही उन्हें ठीक किया जा सकता है । आँखों का मोतियाबिन्द दूर करने तथा टॉन्सिल के ऑपरेशन में भी रक्तहीन क्रायोसर्जरी सम्भव है ।

तेलशोधक कारखानों में प्राकृतिक गैसों के संरक्षण के लिए इसका प्रयोग किया जा सकता है । आजकल घरेलू ईंधन के रूप में एलपीजी (द्रवीभूत पेट्रोलियम गैस) का प्रयोग बढ़ा है । पहले प्रशीतन की अच्छी तकनीक उपलब्ध नहीं होने के कारण, इसके भण्डारण एवं अन्य कार्यों के दौरान इसकी भारी क्षति होती थी ।

क्रायोजेनिक्स की मदद से न केवल इनके अच्छे भण्डारण में सफलता मिलेगी, बल्कि काफी अधिक मात्रा में इनकी क्षति भी रोकी जा सकेगी । इस तरह यह तकनीक देश की अर्थव्यवस्था के लिए काफी मददगार साबित हो सकती है । कृषि एवं पशुपालन उद्योग में इस तकनीक का व्यापक प्रयोग सम्भव है ।  क्रायों तकनीक की हाल में मिली प्रसिद्धि का सर्वप्रमुख कारण अन्तरिक्ष अनुसन्धान के लिए रॉकेट के इंजन में इसका प्रयोग है ।

क्रायो तकनीक का प्रयोग आधुनिक रॉकेट इंजन के निर्माण में किया जाता है । क्रायो तकनीक की सहायता से अन्तरिक्ष में प्रक्षेपित किए जाने वाले रॉकेटों के क्रायोजेनिक इंजन इस तरह से बनाए जाते हैं कि वे तरल ईंधन से चल सकें । यह तरल ईंधन इस तकनीक के प्रयोग के कारण न्यूनतम तापमान पर भी ठोस में नहीं बदलता ।

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यह तकनीक दुनिया के केवल छह देशों-संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, जापान और भारत के पास है क्रायोजेनिक इंजन की क्षमता अत्यधिक होती है । आजकल भूस्थिर कक्षा उपग्रह के प्रक्षेपण में क्रायोजेनिक इंजन बाले रॉकिटों का ही प्रयोग किया जाता है ।

रॉकेटों के क्रायोजेनिक इंजन में वैज्ञानिकों को कुछ कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ता है । अन्य द्रव्य प्रणोदको की तुलना में क्रायोजेनिक (अत्यन्त प्रशीतित) तरल प्रणोदकों का प्रयोग कठिन होता है । इसकी मुख्य कठिनाई यह है कि ये बहुत जल्दी वाष्प बन जाते है ।

इन्हें अन्य तरल प्रणोदको की तरह रॉकेट खण्डों में नहीं भरा जा सकता । रॉकेटों के क्रायोजेनिक इंजन के टरबाइन और पम्प को भी, जो ईंधन और ऑक्सीकारक दोनों को दहन कक्ष में पहुँचाते है, खास किस्म की मिश्रधातु से बनाया जाता है ।

द्रव हाइड्रोजन और द्रव ऑक्सीजन को दहन कक्ष तक पहुँचाने में जरा-सी भी गलती होने पर कई करोड़ रुपयों की लागत से बना जीएसएलवी रॉकेट रास्ते में जल सकता है भारत द्वारा छोड़े गए जीएसएलवी रॉकिटों में इस प्रकार की दुर्घटना एक-दो बार हो चुकी है ।

इसके अतिरिक्त, क्रायोजेनिक तरल प्रणोदकों का प्रयोग करते समय दहन के पूर्व गैसों (हाइड्रोजन और ऑक्सीजन) को सही अनुपात में मिश्रित करना, सही समय पर दहन प्रारम्भ करना, उनके दबाबों को नियन्त्रित करना, पूरे तन्त्र को गर्म होने से रोकना जैसी कठिनाइयाँ भी आती हैं ।

भारत में इस समय कई वैज्ञानिक संस्थानों एवं प्रयोगशालाओं में क्रायोजेनिक्स के उपयोग से सम्बन्धित अनुसन्धान कार्य हो रहे हैं । इनमें टाटा फण्डामेण्टल रिसर्च इस्टीट्‌यूट (मुम्बई) राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला (नई दिल्ली), इण्डियन एसोसिएशन फॉर कल्टीवेशन ऑफ साइसेज (जादवपुर), दिल्ली विश्वविद्यालय का भौतिकी विभाग, भारतीय विज्ञान संस्थान (बंगलुरु), सॉलिड स्टेट फिजिक्स लैबोरेटरी (दिल्ली) और इण्डियन इंस्टीट्यूट् ऑफ टेक्नोलॉजी (कानपुर) शामिल हैं ।

भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन (इसरो) भी अब इस तकनीक का प्रयोग अत्याधुनिक रॉकेट इंजन बनाने के लिए करता है ।  5 जनवरी, 2014 को भारत द्वारा श्रीहरिकोटा से पहला स्वदेश निर्मित क्रायोजेनिक रॉकेट ‘जीएसएलवी डी-5’ का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया गया है । इसके प्रक्षेपण के बाद इसरो के अध्यक्ष के राधाकृष्णन ने कहा था- ”यह देश की अति महत्वपूर्ण उपलब्धि है ।

क्रायोजेनिक इंजन तकनीक सम्पन्न विश्व के इने-गिने राष्ट्रों में अब भारत भी एक है ।” इससे पूर्व भारत द्वारा छोड़े गए सात जीएसएलवी रॉकेटों में से पाँच में भारत को असफलता मिली थी । इस सफल प्रक्षेपण पर इसरो के जीएसएलवी परियोजना के निदेशक के सिवन ने कहा था- ”अब इसरो का नटखट बालक (जीएसएलवी) आज्ञाकारी हो गया है ।”

क्रायो तकनीक के प्रयोग में भले ही कुछ कठिनाइयाँ हो और यह थोड़ा महँगा हो, किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह हमारे लिए अत्यन्त लाभप्रद है । इसका प्रयोग जीवन के बिबिध क्षेत्रों में मानव-कल्याण के लिए हो सकता है । इसलिए इसके बिकास के लिए तेजी से प्रयास हो रहे हैं ।

वर्तमान में इसका प्रयोग अन्तरिक्ष में भेजे जाने बाले रॉकेटों के इंजन बनाने के लिए अधिक होता है । आशा है आने वाले समय में इसका व्यापक प्रयोग तेलशोधक कारखानों एवं चिकित्सा के क्षेत्र में भी होने लगेगा ।

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