सतत विकास: अर्थ, इतिहास और मूल पहलू | Sustainable Development: Meaning, History and Basic Aspects in Hindi!

Read this article in Hindi to learn about:- 1. सतत विकास का अर्थ (Meaning of Sustainable Development) 2. सतत विकास का मूलभूत स्वरूप (Basic Aspects of Sustainable Development) 3. पूर्वापेक्षा (Prerequisites) 4. सिद्धांत (Principles) 5. मापन (Measurement) 6. व्यक्तिगत प्रयास (Role of Individuals).

सतत विकास का अर्थ (Meaning of Sustainable Development):

पर्यावरण के ह्रास को रोकने तथा भूमंडलीय तापन (Global Warming) की समस्या के समाधान के लिये टिकाऊ विकास अनिवार्य है । वर्ष 1992 की पृथ्वी शिखर सम्मेलन में सतत विकास और उससे होने वाले सामाजिक एवं आर्थिक लाभों पर लंबी परिचर्चा की गई थी । पृथ्वी शिखर सम्मेलन के कुछ प्रमुख बिंदुओं का संक्षिप्त वर्णन निम्न में किया जाएगा ।

इसी सम्मेलन में टिकाऊ विकास की परिभाषा भी दी गई है | सतत विकास की वैज्ञानिकों ने बहुत-सी परिभाषाएँ दी गई हैं । ब्रटलैंड महोदय के अनुसार ऐसा विकास जिसमें वर्तमान की आवश्यकताओं की आपूर्ति हो सके और आने वाली पीढ़ियाँ भी अपनी आवश्यकताओं की आपूर्ति कर सके तथा पारितंत्र भी स्वस्थ एवं सतत अवस्था में बना रहे ।

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टिकाऊ विकास (Sustainable Development) की प्रमुख विशेषताएं निम्न प्रकार हैं:

1. विकास की ऐसी क्षमता जिससे पारितंत्र उत्पादन देता रहे तथा भविष्य के लिये स्वस्थ्य एवं टिकाऊ अवस्था में बना रहे ।

2. ऐसा विकास जिससे मानव जीवन सुखी बना रहे ।

3. प्राकृतिक संसाधनों का ऐसा सदुपयोग जिससे भविष्य की पीढ़ियों के लिये भी संसाधन उपलब्ध रहें और सबका जीवन सुखी बना रहे ।

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सतत विकास वर्तमान की परम आवश्यकता है ताकि पारितंत्र की उत्पादकता को बनाये रखा जा सके । वास्तविकता यह है कि मानव जीवन का आधार पारितंत्र एवं पर्यावरण ही है । पारितंत्र एवं पर्यावरण को सतत बनाये रखने के लिये विभिन्न देशों में विभिन्न उपाय किये जा सकते हैं, फिर भी भारत जैसे विकासशील देश को विशेष उपायों पर बल देने की आवश्यकता है जिनकी चर्चा आगे की है ।

सतत विकास-एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य (Sustainable Development – A Historical Perspective):

सतत विकास एक काफी पुरानी अवधारणा है; परंतु दूसरे महायुद्ध के पश्चात इसकी महत्ता पर विशेष बल दिया जा रहा है ।

सतत विकास के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का संक्षिप्त वर्णन निम्न में दिया गया है:

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संयुक्त राष्ट्र संघ का मानव विकास संबंधी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन वर्ष 1972 में स्टॉकहोम में आयोजित किया गया था । वर्ष 1974 में बेरी महोदय ने प्रसिद्ध पुस्तक ”The Closing Circle” प्रकाशित की थी ।

इस पुस्तक में निम्न बिंदुओं पर विशेष बल दिया:

(i) पृथ्वी पर हर एक वस्तु एक-दूसरे से जुड़ी हुई है,

(ii) पृथ्वी की हर एक वस्तु किसी-न-किसी दिशा में बढ रही है ।

(iii) प्रकृति सब कुछ भली-भांति जानती है और

(iv) मुफ्त आहार जैसी कोई चीज नहीं है ।

तत्पश्चात, संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 1982 की जनरल असेम्बली में (World Chapter for Nature) का प्रस्ताव पारित किया । इसके पश्चात ब्रैंटलैंड महोदय ने अपनी रिपोर्ट ”Our Common Future” में सतत विकास की अवधारणा प्रस्तुत की थी ।

इस रिपोर्ट में निम्न बिंदुओं पर बल दिया गया:

(i) इस प्रकार की सरकार जिसमें सभी नागरिकों की निर्णय लेने में भागीदारी हो ।

(ii) ऐसी आर्थिक संस्था जिसमें अधिक उत्पादन किया जाये तथा टेक्नोलॉजी का विकास किया जाये ।

(iii) ऐसा सामाजिक तंत्र जो पारिस्थितिकी को ध्यान में रखकर विकास की योजनाओं पर बल देता है ।

(iv) ऐसा उत्पादक तंत्र जो विकास के साथ-साथ पारिस्थितिकी का संरक्षण करता हो ।

(v) ऐसा टेक्निकल तंत्र जो निरंतर विकास पर बल देता है ।

(vi) ऐसा प्रशासनिक तंत्र जिसमें लचक हो और बदलती परिस्थिति के अनुसार निर्णय ले सके ।

(vii) अंतर्राष्टीय व्यापार में पर्यावरण के टिकाऊपन का ध्यान रखना ।

ब्रैंटलैंड महोदय ने अपनी रिपोर्ट में विकास की योजना बनाते समय निम्न बातों को ध्यान में रखने पर बल दिया:

1. सतत विकास (Sustainable Development)

2. सतत पृथ्वी (Sustainable World)
3. सतत मानव विकास (Sustainable Human Development)

4. सतत शांति एवं विकास (Sustainable Peace and Development)

5. सतत उपभोग (Sustainable Consumption)

6. सतत टैक्नोलोजी (Sustainable Technology)

वर्ष 1980 से वर्ष 1990 तक बहुत-सी अंतर्राष्ट्रीय कनवेशन एवं सम्मेलन आयोजित किये गये ।

इनमें से प्रमुख सम्मेलन प्रकार हैं:

1. वर्ष 1987 में ओजोन ह्रास के संबंध में मांट्रियल प्रोटोकोल ।

2. वर्ष 1987 में खतरनाक पदार्थों के बारे में बेसल कनवेंशन ।

3. वर्ष 1992 में जलवायु परिवर्तन कनवेशन ।

4. जैविक-विविधता कनवेंशन वर्ष 1992 ।

5. पृथ्वी सम्मेलन 1992 ।

6. वर्ष 2002 का विश्व सम्मेलन, सतत विकास के संबंध में ।

पारिस्थितिकी विकास/ इकोडेवलेपमेन्ट (Eco-Development):

पारिस्थितिकी विकास की अवधारणा का अर्थ ऐसे विकास से है जिसमें विकास के साथ-साथ पारिस्थितिकी संतुलन बनाया रखा जा सके । इस प्रकार के विकास पर सबसे पहले यू॰ एन॰ ई॰ पी॰ (UNEP) ने बल दिया था । इसके प्रमुख उद्देश्यों में प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग करना है ।

सतत विकास का मूलभूत स्वरूप (Basic Aspects of Sustainable Development):

विकासशील देशों की तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या तथा विकसित देशों में बढ़ते हुये उपभोक्तावाद के कारण सतत विकास प्राप्त करना कठिन कार्य हो गया है ।

सतत विकास प्राप्त करने के लिये निम्न पर ध्यान देना अति आवश्यक है:

(i) जैव-विविधता,

(ii) ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन,

(iii) खतरनाक कूड़े-करकट का प्रबंधन,

(iv) उद्योगों से निकलने वाले बड़े-करकट का प्रबंधन,

(v) पारिस्थितिकी सुरक्षा (Ecological) ।

वैज्ञानिकों का विचार है कि विश्व के अधिकतर भागों में विकास करते समय पारिस्थितिकी के सिद्धांतों को ध्यान में नहीं रखा जा रहा है, जिसके कारण प्राकृतिक संसाधनों तथा पर्यावरण का तीव्रता से ह्रास हो रहा है । पर्यावरण हास के मुख्य कारणों पर उपरोक्त में विचार किया जा चुका है ।

सतत विकास के पूर्वापेक्षा (Prerequisites of Sustainable Development):

पारिस्थितिकी संतुलन को स्थापित करने के लिये आर्थिक विकास निम्न सिद्धांतों को ध्यान में रखकर करना चाहिए:

(i) प्राकृतिक संसाधनों का समुत्थान-शक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पडना चाहिए ।

(ii) टेक्नोलॉजी विकास करते समय नवीकृत संसाधनों के संरक्षण का विशेष ध्यान रखा जाए ।

(iii) नवीकृत संसाधनों को उपयोग में लाने के लिये विशेष नीति तैयार की जाये ।

धारणीय विकास के सिद्धांत (Principles of Sustainability):

धारणीय विकास के सिद्धांत निम्न प्रकार हैं:

1. प्राकृतिक संसाधनों का सदुपयोग ।

2. जैविक-विविधता का संरक्षण ।

3. सांस्कृतिक विविधता का संरक्षण ।

4. पर्यावरण एवं संसाधनों से सतत आय (Sustainable Income) ।

5. संसाधनों का उपयोग इस प्रकार किया जाये ताकि समाज के सभी वर्गों को लाभ पहुँच सके ।

6. संसाधनों का पूर्नउपयोग (Recycling of Resource) ।

7. मानव का गुणात्मक विकास । मानव विकास के लिये शिक्षा, स्वास्थ्य तथा प्रति व्यक्ति आय पर विशेष ध्यान देना ।

8. सतत विकास के लिये विश्व परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखना ।

9. समाज के सभी वर्गों के संसाधनों का सदुपयोग करना ।

10. मानव समाज अपनी मान्यताओं में परिवर्तन करे और यह समझें कि पृथ्वी पर संसाधन सीमित है ।

11. विश्व के सभी समुदायों द्वारा आने वाली पीढ़ियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाए ।

12. सतत विकास के लिये सभी व्यक्तियों एवं समाजों की सबल भागीदारी ।

सततता का मापन (Measurement of Sustainability):

पर्यावरण तथा प्राकृतिक संसाधनों का सदुपयोग एवं सत्तता उनकी समुत्थान-शक्ति के आधार पर किया जाता है । पारिस्थितिकी के सरलता को आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक उपयोगिता के आधार पर भी परखा जा सकता है ।

पारितंत्र के सत्तता को परखने के सूचकांकों का संक्षिप्त वर्णन निम्न में प्रस्तुत किया गया है:

1. पारिस्थितिकी सूचकांक (Ecological Indicator):

पारिस्थितिकी तंत्र में भूमि उपयोग, भूमि उपयोग में परिवर्तन, बायोमास की गुणवत्ता एवं मात्रा, मृदा की उत्पादकता, ऊर्जा की उपलब्धि तथा इनका प्रबंधन सम्मिलित हैं ।

2. भूमि उपयोग के प्रतिरूपों में परिवर्तन (Changing Pattern of Land Use):

भूमि रिकार्ड तथा रिमोट सेंसिंग की सहायता से भूमि उपयोग के वर्तमान प्रतिरूप का पता लगाया जा सकता है, जिसके आधार पर भूमि उपयोग के लिये भविष्य की योजना तैयार की जा सकती है ।

3. बायोमास की मात्रा एवं गुणवत्ता (Biomass Quantity and Quality):

धरातलीय एवं जलीय पारितंत्रों से प्राप्त होने वाले उत्पादनों की मात्रा एवं गुणवत्ता भी पारितंत्र के समुत्थान शक्ति के महत्त्वपूर्ण सूचकांक हैं ।

4. जल मात्रा की उपलब्धता एवं गुणवत्ता (Water Quality and Quantity):

जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती । नदियों, झीलों, पोखरों, तालाबों तथा भूमिगत जल की मात्रा एवं गुणवत्ता भी पारितंत्र के समुत्थान का सूचकांक माना जाता है ।

5. मृदा उत्पादकता (Soil Fertility):

मृदा का सदुपयोग करते हुए वैज्ञानिक फसल चक्र के द्वारा फसलों का उत्पादन करना ।

6. ऊर्जा (Energy):

ऊर्जा पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी का एक महत्वपूर्ण तत्त्व है । सभी प्रकार की ऊर्जा अर्थात जीवाश्म ऊर्जा, सूर्य ऊर्जा, पवन-ऊर्जा ज्वार-भाटा ऊर्जा का पारितंत्र एवं पर्यावरण पर गहरा प्रभाव पड़ता है ।

7. आर्थिक सूचकांक (Economic Indicators):

लागत खर्च तथा उत्पादन के अनुपात का भी पारितंत्र पर गहरा प्रभाव पडता है ।

8. सामाजिक सूचकांक (Social Indicators Quality of Life):

जीवन की गुणवत्ता एक प्रमुख सामाजिक सूचकांक है । कहा जाता है कि लोगों का जीवन-स्तर जितना ऊँचा होता है वहाँ का पर्यावरण एवं पारितंत्र भी उतना ही टिकाऊ होता है ।

संक्षिप्त में सतत विकास के लिये उपरोक्त सभी उपाय करने की आवश्यकता है ।

सतत विकास के लिये व्यक्तिगत प्रयास (Role of Individuals in Sustainable Development):

हममें से प्रत्येक व्यक्ति के प्रयास से भी पारितंत्र तथा पारिस्थितिकी की समुत्थान-शक्ति को सतत स्थिति में भारी सहायता मिल सकती है ।

पर्यावरण संरक्षण के लिये प्रत्येक व्यक्ति को निम्न उपाय करने की आवश्यकता है:

A. ऊर्जा (Energy):

(i) बाइसिकिल का उपयोग करें, वाहन को आवश्यकता पड़ने पर थोड़ी दूरी तक ही चलाए । दैनिक जीवन में सरकारी वाहनों का इस्तेमाल करें ।

(ii) उत्तम प्रकार के बिजली के बल्ब तथा उपकरणों का प्रयोग करे ।

(iii) घरों की विद्युतरोधी उपकरणों की ठीक देख-रेख की जाए ।

(iv) ऊर्जा के विकल्प साधनों को खोजा जाए ।

(v) ऐसी बैटरियों का उपयोग करें जिनको फिर से रिचार्ज किया जा सके ।

B. आहार (Food):

(vii) भोजन ऐसे प्रदेशों/क्षेत्रों से प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए जहाँ गोबर तथा कंपोस्ट और हरी खाद का फसलों को उगाने में इस्तेमाल होता हो । रासायनिक खाद से उगाई फसलें सब्जियाँ तथा फल इत्यादि स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होती हैं ।

(viii) इस बात पर सदैव विचार कीजिये कि आपके भोजन प्राप्ति का पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी पर क्या प्रभाव पड़ रहा है ।

(ix) घर के गिन में सब्जियाँ उगायें ।

(x) भोजन की वस्तुओं को ऐसे थैलों में खरीद कर लाइए जिनका दोबारा इस्तेमाल हो सके । पोलीबैग का इस्तेमाल न करें ।

C. जल (Water):

(xi) जल को किफायत के साथ इस्तेमाल करे ।

(xii) घर के गिन में लगी घास की सिंचाई बार-बार न करें । लॉन को जब भी पानी लगाये, उसको खूब तर कर दें । संभव हो तो लॉन में ऐसी घास लगाये जो कम जल मिलने पर भी हरी-भरी रह सके ।

(xiii) स्नान करते समय पानी की बचत करें । स्नान थोड़े समय में लें ।

(xiv) रसोई के बर्तन धोने में भी जल की बचत करें ।

D. विषाक्त पदार्थ तथा प्रदूषण तत्व (Toxic Material and Pollution):

(xv) विषाक्त पदार्थों का उचित ढंग से प्रबंधन  । जिन डिब्बों में रंग-रोगन, कीटाणु नाशक दवाई रासायनिक पदार्थ रखे जायें, उनको उपयुका स्थान पर जमा करें और उनका इस्तेमाल खाने-पीने की वस्तुओं को रखने के लिये न करें ।

(xvi) वस्तु को खरीदने से पहले उस पर लिखे लेबिल को पढें तथा कम विषाक्त पदार्थ वाली वस्तु को खरीदे ।

(xvii) ऐसे कपडे खरीदने चाहिए जिनकी बार-बार धुलाई न करनी पड़े ।

E. पुर्नउपयोग एवं कूड़ा-करकट (Recycling and Waste):

(xviii) समाचार-पत्र अखबार, मैगजीन, केन, बोतल, ग्लास आदि का पुर्नउपयोग करें ।

(xix) ऐसी वस्तुएँ खरीदिए जिनका दोबारा इस्तेमाल किया जा सके ।

(xx) अपने निवास स्थान को साफ-सुथरा रखने के लिए समय निकालें ।

(xxi) कागज के स्थान पर तौलिये का इस्तेमाल करें ।

(xxii) सामान खरीदने जाने के लिये अपना कपडे का बैग बद्ध साथ लेकर जाए ।

F. जैव एवं पर्यावरण सुरक्षण (Preservation of Life and Environment):

(xxiii) वृक्षारोपण ।

(xxiv) खुली जगहों तथा मैदानों की सुरक्षा कीजिए ।

(xxv) सी॰ एफ॰ सी॰ गैसों को उत्सर्जन पर रोक लगाएँ ।

(xxvi) ध्वनि प्रदूषण करने वाले संगठनों का बहिष्कार कीजिए ।

(xxvii) कूड़ा-कचरा इधर-उधर न फेंकिए । कूड़ेदान का इस्तेमाल करें ।

G. अन्य बातें (Other Things):

(xxviii) अपने विधायकों को अपने क्षेत्र/मोहल्ले में आमंत्रित कीजिए ।

(xxix) चिपको आंदोलन जैसी संस्थाओं से जुडिये तथा उनको सहयोग दीजिए ।

(xxx) अपने मित्रों की पर्यावरण संबंधित जागरूकता बढ़ाएं ।

(xxxi) उत्तम प्रकार की वस्तुएँ खरीदे तथा उनकी उचित ढंग से देख-रेख कीजिए ।

(xxxii) किसी उद्यान अथवा सागर के किनारे जाकर शांतिपूर्वक बैठिये तथा पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के बारे में ध्यान पढिए तथा सुनिए ।

(xxxiv) परिणाम के प्रति आशावादी रहिये तथा उत्साहित रहें ।