Read this article in Hindi to learn about:- 1. जैविक-विविधता संरक्षण के कारण (Reasons for Conservation of Biodiversity) 2. जैवविविधता हानि के कारण (Causes of Biodiversity Loss) 3. योजनाएँ (Strategies).

जैविक-विविधता संरक्षण के कारण (Reasons for Conservation of Biodiversity):

समाज तथा पर्यावरण के लिये जैविक-विविधता की बड़ी महत्ता है ।

निम्न कारणों से जैविक-विविधता का संरक्षण करना अनिवार्य है:

i. पारिस्थितिकी आवश्यकता (Ecological Necessity):

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जैविक-विज्ञान के अनुसार सभी जैविक पदार्थों की आहार-श्रृंखला में महत्वपूर्ण भूमिका होती है । यदि आहार श्रृंखला के एक घटक का ह्रास हो जाये तो पूरी आहार-श्रृंखला प्रभावित होती है जिससे पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ सकता है । उदाहरणार्थ यदि अधिकतर साँपों को मार दिया जाये तो चूहों की जनसंख्या में भारी वृद्धि हो सकती है जिसका आहार श्रृंखला पर खराब प्रभाव पड़ता है । इसलिये पारिस्थितिकी संतुलन स्थापित रखने के लिये जैविक-विविधता का संरक्षण अनिवार्य है ।

ii. जैविक आवश्यकता (Biological Necessity):

बढ़ती हुई जनसंख्या की भोजन की आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिये हमें फसलों तथा पशुओं पर आधारित रहना पड़ता है । फसलों तथा पशुओं से प्राप्त होने उत्पादन को बढ़ाने के लिये उनके बीजों तथा पशुओं की नस्लों में निरंतर सुधार करना होता है ।

ऐसा करने के लिये आनुवंशिक संशोधन अनिवार्य है । आनुवंशिक सुधार के लिये देशज जीव-जातियों की आवश्यकता पडती है, इसलिये पारिस्थितिकी संरक्षण एक जैविक आवश्यकता है ।

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iii. आर्थिक आवश्यकता (Economic Necessity):

वन, पशु, पालतू जानवर, पशु-पक्षी तथा पेड-पौधे मानव समाज के लिये उपयोगी हैं । पेडों से ईंधन, टिंबर, लुगदी, कागज, रबर, औषधियाँ, गोंद, लकड़ी का कोयला, लाख प्राप्त होता है । पशुओं से पौष्टिक आहार, फर, ऊन, चमड़ा, मधु, सिरका, मिथेन, एन्टीबायटिक, विटामिन इत्यादि प्राप्त होते हैं ।

इन सभी पदार्थों की भारी आर्थिक महत्ता है । वन-पशुओं के लुप्त होने से आहार-श्रृंखला में बहुत-से संकट उत्पन्न हो सकते हैं । इसलिये इनका संरक्षण अनिवार्य है ।

iv. वैज्ञानिक आवश्यकता (Scientific Necessity):

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शिक्षा एवं शोधकार्य के लिये भी जैविक-विविधता का संरक्षण करना अनिवार्य है । उदाहरणतः गिनी-पिग, खरगोश बंदर, कुत्ते मेंढक, मछली पर बहुत-से परीक्षण किये जाते हैं । इस प्रकार शिक्षा एवं शोध कार्यों के लिये जैविक-विविधता को संरक्षण देना अनिवार्य है ।

v. सांस्कृतिक आवश्यकता (Cultural Necessity):

किसी संस्कृति के विकास में पशु-पक्षियों तथा प्राकृतिक वनस्पति की विशेष महत्ता होती है । किसी भी समाज के साहित्य एवं धर्म में जैविक-विविधता की बड़ी महत्ता होती है । बहुत-से पशुओं तथा पेड-पौधों को विभिन्न धर्मों में पवित्र एवं इस्लाम धर्म में सूअर को हराम माना जाता है ।

उपरोक्त उदाहरणों से पशु-पक्षियों एवं पेड-पौधों की सांस्कृतिक तथा धार्मिक महत्ता का ज्ञान होता है । इन सांस्कृतिक आवश्यकताओं की अप्रिर्त के लिये जैविक-विविधता का संरक्षण अनिवार्य हो जाता है ।

vi. नैतिक आवश्यकता (Ethical Necessity):

जैविक-विविधता का नैतिक दृष्टि से भी संरक्षण करना अनिवार्य है । धरती पर जैविक-विविधता करोडों वर्षों की उत्पत्ति का परिणाम है । यदि जीव-जातियाँ लुप्त हो जाती हैं तो यह बहुत बड़ा नैतिक प्रश्न खडा करती है ।

vii. विविध आवश्यकता (Miscellaneous Necessity):

भविष्य की पीढ़ियों को वर्तमान की जैविक-विविधता की जानकारी देने के लिये इनका संरक्षण अनिवार्य है ।

प्राकृतिक आवास का डिग्रेडेशन (Degradation of Habitat):

कोई जीव यदि किसी स्थान पर सरलता एवं सुगमतापूर्वक जीवित रहता एवं विकास करता है तो ऐसे स्थान को प्राकृतिक आवास कहते हैं । सभी पशु-पक्षी एवं पेड़-पौधे अपने विशेष प्रकार के प्राकृतिक वातावरण में रहते हैं । दुखद बात यह है कि वर्तमान में तीव्र जनसंख्या बुद्धि एवं उपभोक्तावाद के कारण सभी जैविकों के प्राकृतिक आवासों का तीव्र गति से हास हो रहा है । पर्यावरण में परिवर्तन के कारण बहुत-सी जीवजातियाँ असुरक्षित होती जा रही हैं ।

पारिस्थितिकी विज्ञान के वैज्ञानिकों के अनुसार विश्व के जीवित 620 प्राइमेट में से 120 जीव-जातियाँ असुरक्षित वर्ग में सम्मिलित की जा चुकी हैं । इन प्राइमेट जीव-जातियों में वानर, बंदर, कुबंग सम्मिलित हैं । यदि पर्यावरण का ह्रास इसी प्रकार से होता रहा तो आने वाले बीस वर्षों में इनमें से बहुत-से प्राइमेट सदैव के लिये पृथ्वी से लुप्त हो जाएंगे ।

हाथी, शेर, चीता, गोरिल्ला, पांडा, चितले उल्लू जैसे बड़े आकार के पशु-पक्षी प्रायः असुरक्षित जीव-जातियों में सम्मिलित हैं जिसका मुख्य कारण उनके प्राकृतिक आवास में परिवर्तन है । वास्तव में बडे आकार के पशु-पक्षियों को जीवित रहने के लिये बहुत बड़े क्षेत्रफल वाले प्राकृतिक आवास की आवश्यकता होती है ।

ICUN के सन 2000 के अनुमान असुरक्षित पक्षियों का 89 प्रतिशत प्राकृतिक आवास के नष्ट होने के कारण प्रभावित हुये हैं । असुरक्षित पेड़-पौधों का 91 प्रतिशत प्राकृतिक आवास के नष्ट होने के कारण हुआ है । प्राकृतिक निवास के नष्ट होने के मुख्य कारण बाद, सूखा, महामारी, आग, सुनामी, ज्वालामुखी उदगार, झूमिंग, जल प्रदूषण, खनन तथा बाँध इत्यादि है ।

जैवविविधता हानि के कारण (Causes of Biodiversity Loss):

जब किसी विशेष प्रजाति का आवास नष्ट हो जाता है तो इसे जेवविविधता की हानि होती है । आवास का नाश या वो प्राकृतिक अथवा मानवीय कारकों से हो सकता है ।

1. प्राकृतिक कारण:

(i) ज्वालामुखी स्फोटन,

(ii) भूकंप,

(iii) भू-स्खलन,

(iv) बाढ़ एवं सूखा,

(v) सुनामी,

(vi) परागण का अभाव,

(vii) पौधों व जन्तुओं में महामारी ।

2. मानवीय कारक (Anthropogenic Causes):

(i) विकासात्मक गतिविधियों के कारण आवास का नाश,

(ii) अनियंत्रित व्यावसायिक दोहन,

(iii) शिकार करना व अवैध रूप से जानवरों की हत्या करना,

(iv) कृषि व चारा भूमि का विस्तार,

(v) शहरीकरण तथा अनिश्चित शहरी विस्तार,

(vi) भूमि, मृदा तथा जल प्रदूषण,

(vii) आर्द्रभूमि का सुधार,

(viii) समुद्रतटीय क्षेत्रों का ह्रास व नाश ।

जैविक-विविधता संरक्षण की योजनाएँ (Strategies for Conservation of Biodiversity):

जैविक-विविधता संरक्षण से तात्पर्य प्राकृतिक संसाधनों के सदुपयोग से है । जैविक विविधता संरक्षण परिस्थितिकी, आर्थिक, बायोलोजिकल, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक तथा नैतिक आवश्यकताओं की आपूर्ति के अनिवार्य है । संक्षिप्त में जैविक-विविधता संरक्षण मानव के जीवित रहने एवं उत्तरजीवन के लिये अनिवार्य है ।

प्रमुख उपाय (Major Measures):

पारिस्थितिकी विज्ञान के विशेषज्ञों ने जैविक-विविधता के संरक्षण के लिये निम्न उपाय सुझाएं हैं:

(i) जंगली जानवरों के प्राकृतिक आवास को नष्ट न किया जाए और न ही उनमें कोई विशेष परिवर्तन किया जाए ।

(ii) मृदा, जल, हवा तथा ऊर्जा जैसे जीवन के मूलभूत आधारों को संरक्षण प्रदान किया जाये । जहाँ तक संभव हो सके पशु-पक्षियों तथा पेड-पौधों को उनके प्राकृतिक वातावरण में सुरक्षित किया जाये और यदि यह संभव न हो तो मानव द्वारा उनके अनुकूल कृत्रिम-आवास जैसे चिडिया घर, जंतुशाला में संरक्षण दिया जाये ।

(iii) यूँ तो सभी पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों का संरक्षण आवश्यक है, फिर भी असुरक्षित प्रजातियों के संरक्षण पर विशेष बल दिया जाये ।

(iv) पशु-पक्षियों तथा पेड-पौधों के लिये संरक्षित क्षेत्रों जैसे जीवमंडल संरक्षण, नेशनल पार्क इत्यादि का सीमांकन किया जाये ।

(v) प्राकृतिक आवास में पशुओं के आराम करने के स्थान आहार स्थान तथा प्रजनन के संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाये ।

(vi) विभिन्न पारिस्थितिकी तंत्रों का एक सीमा से अधिक उपयोग न किया जाये ।

(vii) असुरक्षित जीव-जातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर प्रतिबंध लगाया जाये ।

(viii) किसी विशेष जीव-जाति को नहीं बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षण प्रदान किया जाये ।

(ix) असुरक्षित जीव-जातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के संबंध में समझौते किये जाये । पलायन करने वाले पशु-पक्षियों के बारे में देशों के बीच नयाचारों पर हस्ताक्षर किये जाये तथा प्रदूषण को कम किया जाये ।

(x) विश्व के सभी देशों में जीवमंडल संरक्षण क्षेत्र, नेशनल पार्क, शरण-स्थान चिड़ियाघर आदि बनाये जायें ।

(xi) असुरक्षित पशु-पक्षियों के शिकार पर प्रतिबंध लगाया जायें ।

(xii) राष्ट्रीय, प्रादेशिक एवं स्थानीय स्तर पर पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी तंत्र संबंधी जानकारी एवं जागरूकता फैलाई जाए ।

उपरोक्त उपाय जितने जल्दी किये जायें पर्यावरण के लिये उतना ही उपयोगी होगा ।

स्वस्थाने (In-Situ) एवं अस्थानिये (Ex-Situ) संरक्षण:

पारिस्थितिकी विज्ञान के विशेषज्ञों के अनुसार जैविक-विविधता को स्वस्थाने अथवा अस्थानीय संरक्षण दिया जा सकता है ।

स्थस्थाने संरक्षण (In-Situ) संरक्षण:

स्वस्थाने संरक्षण में विभिन्न जीव-जातियों को उनके प्राकृतिक आवास में संरक्षण प्रदान किया जाता है । इस प्रकार के संरक्षण में केवल असुरक्षित एवं दुर्लभ जीव-जातियों को संरक्षण प्रदान नहीं किया जाता बल्कि सामान्य जीव-जातियों पर भी ध्यान दिया जाता है । संरक्षण का यह सस्ता तथा सरल उपाय है ।

इस प्रकार के संरक्षण में पशु-पक्षी तथा पेड-पौधे भीषण गर्मी, कठोर सर्दी, वर्षण, हिमपात, आधी तूफान, बाढ़ तथा सूखे इत्यादि का सामना करते है जिससे उनकी सहनशीलता बढ जाती है । इसी कारण वन्य प्राणी अधिक बलवान तथा हृष्ट-पुष्ट होते हैं ।

स्वस्थाने संरक्षण चूंकि बड़े क्षेत्रफल पर फैला हुआ होता है, इसलिये सीमांकित क्षेत्र में मानव का हस्तक्षेप कम होता है । इस समय विश्व में 7000 से अधिक जीवमंडल क्षेत्र नेशनल पार्क तथा भ्रमण स्थान हैं जहाँ पशु-पक्षियों तथा पेड-पौधों को स्वस्थाने संरक्षण प्रदान है । समय के साथ स्वस्थाने संरक्षण स्थानों में निरंतर वृद्धि हो रही है ।

अस्थानीय (Ex-Situ) संरक्षण:

यदि प्राकृतिक आवास में भारी विनाश हो चुका हो तो जीव-जंतुओं तथा पेड़ पौधों को अस्थानीय अथवा बाह्य स्थान संरक्षण प्रदान किया जाता है । इस प्रकार के संरक्षण के लिये चिड़िया घर तथा वानस्पतिक उद्यान बनाये जाते हैं ।

2212 हेक्टेयर में फैला तिरुपति में श्री वैंकटेश्वर देश का सबसे बड़ा वनस्पतिक उद्यान है । इन स्थानों पर असुरक्षित तथा दुर्लभ पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों को संरक्षण प्रदान किया जाता है । अस्थानीय संरक्षण के लिये भारत 1983 में पारित किया था ।

ऐसे पुनर्वास सेंटरों के मुख्य उद्देश्य निम्न प्रकार हैं:

(i) संरक्षण दी जाने वाली जीव-जातियों की पहचान करना । उन जीव-जातियों को संरक्षण प्राथमिकता के आधार पर देना जो लुप्त होने की कगार पर हैं ।

(ii) कुछ अधिक असुरक्षित जीव-जातियों को उनके प्राकृतिक आवास से लाकर चिड़िया घरों में सुरक्षित करना ।

(iii) चिड़िया घरों इत्यादि में सुरक्षित की गई जीव-जातियों के आहार, आराम तथा प्रजनन प्रक्रियाओं तथा बीमारियों का अध्ययन करना ।

(iv) चिड़िया घरों में संरक्षण दिये गये पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों की संख्या वृद्धि पर बल देना ।

(v) सुरक्षित जीव-जातियों के बच्चों तथा उपज को उनके प्राकृतिक आवास में छोड़ना ।

(vi) कृत्रिम बीजारोपण का प्रबंध करना ।

(vii) चिडियाघरों, बोटेनिकल गार्डन, बीज-बैंक तथा श्रणलियों का निर्माण करना ।

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