प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और आर्थिक विकास | Read this article in Hindi to learn about:- 1. तकनीक के हस्तान्तरण का अर्थ (Meaning of Technology Transfer) 2. तकनीक के हस्तान्तरण की आवश्यकता (Necessity of Technology Transfer) 3. विधियाँ (Methods) and Other Details.

Contents:

  1. तकनीक के हस्तान्तरण का अर्थ (Meaning of Technology Transfer)
  2. तकनीक के हस्तान्तरण की आवश्यकता (Necessity of Technology Transfer)
  3. तकनीक के हस्तान्तरण की विधियाँ (Methods of Technology Transfer)
  4. कारगर एवं बेहतर तकनीक का चुनाव (Choice of Appropriate Technology)
  5. तकनीक के हस्तान्तरण में विकासशील देशों द्वारा अनुभव की जा रही परेशानियाँ (Problems Faced by Developing Countries in Technology Transfer)
  6. अर्द्धविकसित देशों में तकनीक का हस्तान्तरण (Technology Transfer in Underdeveloped Countries)
  7. मध्यवर्ती तकनीक (Intermediate Technology)

1. तकनीक के हस्तान्तरण का अर्थ (Meaning of Technology Transfer):

अर्द्धविकसित देशों के सम्मुख आर्थिक विकास की प्रक्रिया में विकास कार्यक्रमों को पूर्ण करने हेतु तकनीकी ज्ञान कुशलता तथा यन्त्र उपकरण की उपलब्धि प्राप्त करना आवश्यक हो जाता है । इन देशों में विकास कार्यक्रमों में सन्निहित तकनीकी आवश्यकताएँ एवं तकनीक के घरेलू स्टाक में दिखाई देने वाला अन्तर इतना अधिक होता है कि उसके लिए विकसित देशों से तकनीक का हस्तान्तरण करना पडता है ।

तकनीक के हस्तान्तरण की भूमिका द्विपक्षीय है:

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(i) पहले स्तर पर यह घरेलू रूप से उपलब्ध तकनीक को पूरित करती है । इससे विकास योजनाओं की तकनीकी आवश्यकताओं एवं तकनीक के घरेलू स्टाक के अन्तराल को भरा जा सकता है ।

(ii) दूसरे यह नई तकनीक के सृजन से घरेलू क्षमताओं को सम्पूरित करती है । जहाँ पहले स्तर की भूमिका अल्पकाल में महत्वपूर्ण होती है वहीं दूसरे स्तर की भूमिका दीर्घकालिक नियोजन हेतु महत्वपूर्ण है ।


2. तकनीक के हस्तान्तरण की आवश्यकता (Necessity of Technology Transfer):

अर्द्धविकसित देश में यथोचित तकनीकी आधार का विकास करना जटिल एवं दीर्घ अवधि की प्रक्रिया है । ऐसा देश जिसकी सुदृढ घरेलू क्षमता है वह भी तकनीक के अन्तर्राष्ट्रीय हस्तान्तरण से काफी लाभ प्राप्त कर सकता है । अन्य देशों से प्राप्त तकनीकी ज्ञान से एक देश शोध और विकास के कार्यों को पर्याप्त गति प्रदान कर सकता है ।

विकसित देशों के सापेक्ष अर्द्धविकसित देशों का तकनीकी आधार काफी पिछडा हुआ है । डेडीजार लिखते है कि- विश्व का वैज्ञानिक शोध का ज्ञान केवल 30 विकसित देशों तक सीमित है तो विश्व की वैज्ञानिक शोध का शेष 5 प्रतिशत अन्य 100 देशों तक विस्तृत है जो विश्व जनसंख्या के दो-तिहाई भाग को समाहित करते है ।

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अपने आर्थिक विकास की प्रक्रिया को तीव्र करने के लिए विकासशील देश तकनीक के हस्तान्तरण को काफी महत्वपूर्ण समझ रहे है और इस दिशा में प्रयासशील भी हैं ।


3. तकनीक के हस्तान्तरण की विधियाँ (Methods of Technology Transfer):

तकनीक का एक देश से दूसरे देश को हस्तान्तरण कई प्रकार से हो सकता है । इनमें से कई महत्वपूर्ण तरीकें निम्नांकित हैं:

(i) सन्दर्भ पुस्तकों एवं मुद्रित सूचनाओं के आदान-प्रदान द्वारा ।

(ii) तकनीकी रूप से कुशल व्यक्तियों के आवागमन से ।

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(iii) विदेशी विनियोग एवं यन्त्र उपकरणों के स्थानान्तरण से ।

(iv) तकनीकी सहभागिता के कार्यक्रमों के द्वारा जो निजी एवं सरकारी दोनों स्तरों पर सम्भव है ।

(v) मशीनरी व यन्त्रों के आयात द्वारा ।

(vi) लाइसेंस, पेटेन्ट एवं अन्य समझौतों द्वारा ।

उपर्युक्त तरीकों में विदेशी विनियोग को छोड़कर तकनीक के हस्तान्तरण का प्रत्यक्ष प्रभाव होता है ।

विदेशी विनियोग तकनीक का हस्तान्तरण प्रायः द्विपक्षीय तरीके से होता है:

(i) दो देशों के मध्य तकनीक के आपसी हस्तान्तरण द्वारा ।

(ii) याचक देश में घरेलू विनियोग के स्तर को बढ़ाते हुए ।

वास्तव में दो देशों के मध्य तकनीक के हस्तान्तरण स्वतन्त्र रूप से नहीं होता । विभिन्न प्रक्रियाओं एवं उत्पाद की जानकारी से सम्बन्धित गुप्त फारमूले तथा प्रोपर्टी राइट, लाइसेंस इत्यादि सम्मिलित होते हैं ।

प्राविधिक भुगतान सन्तुलन (Technological Balance of Payments):

तकनीकी ज्ञान के अन्तर्राष्ट्रीय विनिमय को तकनीकी भुगतान सन्तुलन के दारा प्रदर्शित किया जा सकता है । इसके द्वारा एक देश द्वारा तकनीकी ज्ञान, पेटेन्ट एवं लाइसेंस के आयात के भुगतान की तुलना उस देश द्वारा किए गए निर्यातों के फलस्वरूप प्राप्त प्राप्तियों द्वारा किया जाना सम्भव होता है ।

इस प्रकार अन्तर्देशीय तकनीकी ज्ञान के विनिमय की दशा को ध्यान में रखकर विशुद्ध भुगतान एवं प्राप्तियों का अनुमान लगाया जा सकता है ।


4. कारगर एवं बेहतर तकनीक का चुनाव (Choice of Appropriate Technology):

आधुनिकीकरण की प्रक्रिया वस्तुतः बढ़ते हुए शहरीकरण, उच्च शिक्षा, बढ़ती हुई सामाजिक एवं क्षेत्रीय गतिशीलता तथा पुरातन मान्यताओं के ढीले पडने से सम्पन्न होती है ।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक ह्वाइट हैड ने अपनी पुस्तक साइंस इन द मार्डन वर्ल्ड में वर्षों पूर्व प्रासंगिक टिप्पणी व गम्भीर चेतावनी दी थी कि पाश्चात्य जगत पिछली तीन पीढियों के संकीर्ण नैतिक दृष्टिकोण के परिणामों को अब भुगत रहा है । पश्चिम में जड वस्तुओं (मैटर) की मूल्यहीनता के पूर्वानुमान के फलस्वरूप प्राकृतिक या कलात्मक सुन्दरता के प्रति अनादर की भावना पैदा हुई ।

उस समय जब पश्चिमी देशों में नगरीकरण की प्रक्रिया तेज हो रही थी और जब नये भौतिक वातावरण को सुन्दरता प्रदान करने के विचार को प्राथमिकता देना आवश्यक था तभी ‘यूटिलिटीटेरियनिज्म’ या उपयोगितावादी यानी सौन्दर्य बोध की अप्रासंगिकता का सिद्धान्त अपनी लोकप्रियता की पराकाष्ठा पर था । औद्योगिक दृष्टि से सबसे उन्नत देशों में कला अत्यन्त तुच्छ मानी जा रही थी ।

जे॰ डी॰ बर्नाल ने अपने प्रख्यात ग्रन्थ सोशल फंक्शन आफ साइन्स में स्पष्ट रूप से कहा कि विज्ञान की धारा से जुडे बिना आधुनिक युग के लिए संस्कृति प्रासंगिक नहीं हो सकती । आज की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विज्ञान को भी संस्कृति से जोडना होगा । यह तभी सम्भव होगा जब विज्ञान के आन्तरिक रूप में भी क्रान्ति हो । वस्तुतः अठारहवीं ब उन्नीसवीं शताब्दी विज्ञान के सम्मोहन कर युग थी तो बीसवीं सदी विज्ञान से मोह भंग का युग है ।

परन्तु विज्ञान युग की अपूर्णताओं का हल विज्ञान से विमुख होकर प्रागवैज्ञानिक युग की ओर पीछे मुड़ने की चेष्टा में कदापि नहीं है । इन अपूर्णताओं को वैज्ञानिक विश्लेषण द्वारा ही दूर किया जा सकता है । अपेक्षा है एक मूल्य चेतस विज्ञान की जो मूल्य विमुख विज्ञान की अपूर्णताओं और दुरुपयोगों से मानव जाति को बचा सके ।

वैज्ञानिक विकास के साथ जुडी हुई ऐहिकीकरण की प्रक्रिया के सांस्कृतिक परिणामों पर भी विचार करना आवश्यक है । हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जिन देशों ने औद्योगिक एवं वैज्ञानिक युग में पूर्ण रूप से प्रवेश नहीं किया वहाँ संस्कृति और धर्म का चोली-दामन का साथ है ।

दोनों एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुडे हुए है और एक-दूसरे पर आश्रित हैं । धर्म का एक रूप धर्मान्धता से जुड़ा है जिसका हमें त्याग करना है तो दूसरा रूप मानववादी मूल्यों से जुड़ा है जिसे हमें संरक्षित करना है ।

वैज्ञानिक युग की प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप एक और पक्ष उजागर होता है । संक्रमण काल में जब पुरानी आस्थाएँ तेजी से टूट रही हैं और नयी आस्थाएँ बनी नहीं है तो मूल्यहीनता या नैतिक अराजकता की स्थिति उत्पन्न होती है ।

प्रो॰ पूरन चन्द्र जोशी ‘परिवर्तन एवं विकास के सांस्कृतिक आयाम’ में लिखते हैं कि जनसाधारण ने प्रकृति के सभी रूपों प्रकृति तथा मनुष्य तथा मनुष्य तथा मनुष्य और मनुष्य के सभी प्रकार के सम्बन्धों को लेकर अपने जीवन की सभी आवश्यकताओं के अनुकूल मूल्यों, मान्यताओं और अर्थों के एक भावनात्मक व काल्पनिक संसार की सृष्टि की है ।

इस काल्पनिक या भावना जगत के माध्यम से वह वास्तविक संसार को समझने की चेष्टा करते हैं । इन मूल्यों, मान्यताओं और अर्थों की द्विमुखी महत्ता है ।

वस्तुतः राष्ट्र के जीवन काल में ऐसे दौर आते हैं जब लोक जीवन के पुराने रीति-रिवाज तो बदल जाते है सार्वजनिक नैतिकता विनिष्ट हो जाती है, धार्मिक विश्वास डगमगा जाते है, परम्परा का सम्मोहन टूट जाता है लेकिन आधुनिक ज्ञान का प्रसार अभी अपूर्ण एवं अपरिपक्व है, समुदाय के नागरिक अधिकार अभी सुदृढ़ नहीं हुए है या संकीर्ण दायरे तक ही सीमित हैं ।

नागरिकों की दृष्टि में देश का धुँधला और अस्पष्ट रूप ही प्रकट होता है । वह देश को न तो उस पवित्र भूमि के रूप में देखते है जहाँ उनका निवास है, क्योंकि वह भूमि अब उन्हें निर्जीव मिट्टी के ढेले के रूप में दिखाई देती है न वे अपने पूर्वजों के रिवाजों और दस्तूरों का ही आदर करते है, जिन्हें वे अब स्वतन्त्रता छीनने वाले बन्धनों के रूप में देखते है न वे धर्म को मानते है जिससे उनकी आस्था मिट गई है न वे उन कानूनों को मानते हैं जिन्हें स्वयं उन्होंने नहीं बनाया है ।

न वे उन विधायकों को मानते है जिनसे उन्हें धृणा हो गई है । देश के लोग इस स्थितियों में अपनी इन्द्रियों के दास हो गए हैं और एक संकीर्ण और विवेकशून्य स्वार्थ परकता के शिकार होते जाते हैं । वे ज्ञान के प्रभुत्व को स्वीकार किए बिना पूर्वाग्रहों से मुक्त हो गए हैं । न तो उनमें एक राजतंत्रीय व्यवस्था का सहज देशाभिमान है, न लोकतंत्रीय व्यवस्था का विचार प्रेरित देश प्रेम । सम्भ्रम और वेदना में वे इन दोनों के बीच में ही ठहर गए हैं ।

वस्तुतः दूसरों से ज्ञान उधार तो लिया जा सकता है लेकिन स्वभाव नहीं । अपने शिक्षण के अनुकरणशील दौर में हम जरूरी और गैर जरूरी में अन्तर नहीं देख पाते न हम समझ पाते है कि एक देश से दूसरे देश में क्या स्थानान्तरित किया जा सकता है और क्या नहीं किया जा सकता ।

ऐसे ही जिस प्रकार आदिम जगत के लोग बाह्य जगत की सभी वस्तुओं को देखकर सम्मोहित होते है और हितकारी अहितकारी तत्वों का बोध नहीं रखते । हम इस डर से कि कहीं कोई मूल्यवान वस्तु छूट न जाए, सभी को समेटने की चेष्टा करते है ।

लेकिन जहाँ हमारी लिप्सा खाद्य और अखाद्य में भेद नहीं करती, हमारी जीव संरचना उसे ही ग्रहण करती है जो लाभकारी है और अस्वास्थ्य कर तत्त्वों का परित्याग करती है ।

अपनी प्रकृति को खोकर या निर्विवेक ग्रहण की प्रवृति से किसी भी सजीव संरचना का सशक्त और स्वस्थ्य रूप में विकास नहीं हो सकता । देखा तो यह जा रहा है कि आधुनिकीकरण की नकलची प्रवृति व विकृत रूपों से मूल्य व संस्कृति, ज्ञान व विज्ञान के आक्रान्त होने का खतरा आज बढ रहा है ।

इस सन्दर्भ में प॰ जवाहरलाल नेहरू का निम्न कथन आज अधिक प्रासंगिक है- उन्होंने कहा कि लगता है कि जिस प्रकार की आधुनिक संस्कृति का जन्म पहले पश्चिम में हुआ और विशेष रूप से महानगरों की जीवन प्रणाली जो इस सभ्यता की मुख्य देन है एक ऐसे अस्थिर समाज को जन्म देती हैं जो धीरे-धीरे अपनी ओजस्विता खो रहा है ।

जीवन के कई क्षेत्रों में प्रगति है लेकिन जीवन अपनी शक्ति खो रहा है । वह अधिकाधिक कृत्रिम होता जा रहा है और धीरे-धीरे ऐसे जीवन का ह्रास होता जाता है । इसे जीवित रखने के लिए अधिक-से-अधिक उत्तेजक पदार्थों की आवश्यकता होती है ।

नींद के लिए सुलाने वाली दवा या अन्य प्राकृतिक कर्मों को जारी रखने के लिए विविध औषधियाँ, ऐसे भोज्य या पेय पदार्थ जो जिह्वा को गुदगुदाकर, पूरे शरीर को बुनियादी रूप से दुर्बल बनाकर, क्षण भर की उत्तेजना पैदा करते हैं या ऐसे विशेष तरीके जो हमें सुख और रोमांच की अस्थायी अनुभूति पैदा करते हैं लेकिन शीघ्र ही ऐसी उत्तेजना के बाद जो प्रतिक्रिया पैदा होती है वह एकदम खालीपन या निरर्थकता के भाव में व्यक्ति को डुबा देती है ।

सभी विस्मयकारी रूपों और वास्तविक उपलब्धियों के बावजूद, हमारी आधुनिक सभ्यता में ऐसी चीज है जो इसे नकली और बनावटी बना देती है । विज्ञापनकर्ता हमारे युग का एक सबसे महत्वपूर्ण प्रतीक है, जो लगातार हमें भुलावा देने, हमारे बोध की शक्तियों को मन्द करने एवं हमें विविध प्रकार की हानिकारक एवं गैर जरूरी वस्तुओं को खरीदने के लिए प्रेरित करने में ही अपनी कामयाबी समझता है ।

स्पष्ट है कि आधुनिकीकरण को पूर्ण रूपेण पश्चिमीकरण की परिभाषा देना कितना खतरनाक व हानिकारक है । आधुनिक युग में प्रवेश करने के लिए विकासशील देशों को आधुनिकीकरण की अपने हितों के अनुकूल परिभाषा करने में पश्चिमीकरण से सीखना है तो उसकी आलोचना भी करनी है और इसी नीर-क्षीर विवेक से विकास की ऐसी मध्यवर्ती तकनीक उत्पन्न होगी जिसे बेहतर व कामगर बनाया जा सकेगा ।


5. तकनीक के हस्तान्तरण में विकासशील देशों द्वारा अनुभव की जा रही परेशानियाँ (Problems Faced by Developing Countries in Technology Transfer):

विकसित देशों द्वारा प्रयुक्त की जा रही तकनीक के प्रयोग में विकासशील देशों को बहुधा कठिनाई होती है ।

इसके कारण निम्नांकित हैं:

(i) विकसित देशों द्वारा प्रयुक्त की जा रही तकनीक विकासशील देशों की साधन बहुलताओं पर खरी नहीं उतरती ।

(ii) विकासशील देशों में यथेष्ट रूप से कुशल मानव संसाधन एवं सामाजिक संगठन विद्यमान नहीं होता ।

(iii) विकासशील देश अपने अन्तर्संरचना के दोषों तथा बाजार की सीमितता के कारण विकसित देशों की तकनीकी कुशलताओं का प्रयोग नहीं कर पाते जो बडे पैमाने पर उत्पादन करती हैं ।

(iv) विकासशील देशों के सम्मुख उत्पादन समायोजन की समस्या विद्यमान होती है । विकासशील देशों में घरेलू माँग का स्वरूप आय के निम्न स्तर के कारण किए जा रहे औद्योगिक उत्पादन एवं लागतों के ढाँचे पर प्रायः विपरीत प्रभाव पड़ता है ।

(v) विकासशील देशों के सम्मुख विदेशी विनिमय एवं प्रबन्धकीय दक्षताओं की कमी होती है ।

(vi) विकसित देशों की तकनीक को विकासशील देशों में लागू करते समय विनियोग लागतों एवं तकनीक स्थापना लागतों की अधिकता का सामना करना पड़ता है ।

विकसित देशों की तकनीक को जब विकासशील देश अपने देश में लागू करते हैं तो उसके सम्मुख दो विकल्प होते हैं- पहला तो यह कि वह उत्पादन के डिजाइन एवं उत्पादन प्रणाली को कुछ मूक समायोजनों के साध अपनाएँ जिससे उत्पादन एवं सापेक्षिक पूर्ति को अपने देश की आवश्यकता के अनुरूप सीमित रखा जा सके या वैकल्पिक रूप से उत्पाद डिजाइन एवं उत्पादन प्रणालियों में ऐसे बड़े समायोजन किए जाएं जिनसे विकासशील देश की पारिस्थितिकी के अनुरूप उत्पादन किया जाना सम्भव बने ।

दोनों दशाओं में आयातित तकनीक को स्वदेश में आरोपित करने की लागत वहन करनी पडेगी । इनमें से पहले चुनाव के अन्तर्गत ऐसी विनियोग लागतें होगी जिनसे मानव संसाधन व उत्पादन वातावरण का विकास होगा । दूसरे विकल्प के अन्तर्गत उत्पादन डिजाइन व उत्पादन प्रणाली को अपनाने से सम्बन्धित लागतें सम्मिलित होंगी ।

(vii) संरक्षणात्मक नीतियों के परिणामस्वरूप तकनीकी हस्तान्तरण बाधा का अनुभव करता है । प्रायः विकासशील देश को अपनी आन्तरिक अर्थव्यवस्था के विकास हेतु ऐसे घरेलू उद्योगों का विकास करना होता है जिससे रोजगार का सृजन हो ।

घरेलू संसाधनों का प्रयोग किया जाये तथा विदेशी मुद्रा की बचत की जाये । इसके लिए उसे संरक्षण की नीति पर आश्रित होना पडता है । लेकिन संरक्षण की यह नीति तकनीकी हस्तान्तरण पर कई प्रकार से बाधा पहुँचाती है ।

पूंजी के अभाव में जब विदेशी तकनीक का प्रयोग कर पाना विकासशील देश हेतु सम्भव नहीं होता तो वह परम्परागत तकनीकों पर ही आधारित रहकर ऊँची लागतों पर वस्तु को उत्पादित करने की मजबूरी वहन करता है तथा धीरे-धीरे तकनीक के मामले में विकसित देशों से काफी पिछड़ जाता है ।

(viii) आर्थिक पक्षों के साथ-साथ विकासशील देश कई सामाजिक सांस्कृतिक वातावरण एवं दृष्टिकोण जैसे अनार्थिक घटकों से भी प्रभावित होते हैं । किसी देश की सामाजिक संरचना, सांस्कृतिक धरातल तथा व्यवहार जनित विशिष्टताएँ उस समाज के द्वारा तकनीक को ग्रहण करने, अवशोषित करने एवं बेहतर उपयोग कर पाने की दशाओं की सूचना देती है ।

सामाजिक सांस्कृतिक वातावरण एवं दृष्टिकोण सम्बन्धी घटक उत्पादन की विशिष्ट तकनीक के साथ ही उत्पाद एवं संयन्त्र डिजाइनिंग की सापेक्षिक कुशलता व समर्थक पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है । जापान जैसे देश का उदाहरण महत्वपूर्ण है जहाँ के समाज के धनात्मक दृष्टिकोण, इच्छा, कुशलता व अभिप्रेरणाओं ने नये यन्त्र उपकरण व विधियों को अपनाकर तकनीकी रूपान्तरण सम्भव बनाया । वही परम्परागत मूल्यों व सांस्कृतिक विशिष्टताओं को भी बनाए रखा गया ।

(ix) विकासशील देशों में अत्याधुनिक तकनीक के अपरिष्कृत प्रयोग की कठिनाइयाँ आती हैं । विकासशील देश समुन्नत देश की तकनीक को अपनाने में यदि जल्दबाजी करें तो वृद्धि की प्रक्रिया त्वरित होने के बजाय अवरुद्ध होने लगती है ।

इसका कारण यह है कि उनके पास उस अन्तर्संरचना व अवस्थापना का अभाव होता है जिसे विकसित देश ने अपनी विकास की अवस्थाओं में शनै-:शनै: उपजाया है ऐसी स्थिति में विकासशील देश को कारगर व बेहतर तकनीक का प्रयोग करना चाहिए जो देश में उपज रही तकनीकी कुशलता एवं प्रबंधकीय संरचना के अनुरूप हो ।


6. अर्द्धविकसित देशों में तकनीक का हस्तान्तरण (Technology Transfer in Underdeveloped Countries):

तकनीकी हस्तान्तरण से अभिप्राय एक देश से दूसरे देश की ओर होने वाले तकनीकी ज्ञान के प्रसारण से है जो या तो नियत सरकारी नीति या संचार के निजी चैनलों के द्वारा होता है । तकनीक के हस्तान्तरण में समाहित एजेंसियों सरकारी या वाणिज्यिक उपक्रम; जैसे बहुराष्ट्रीय निगम, निजी एजेंसी या अन्तर्राष्ट्रीय गैर लाभ संगठन होते है ।

अर्द्धविकसित देशों की ओर होने वाली तकनीक का हस्तान्तरण कई समस्याओं एवं कठिनाइयों को जन्म देता है जिनमें से मुख्य निम्न है:

(i) प्राथमिक वातावरण (Primitive Environment):

आधुनिक तकनीक के प्रयोग के लिए एक विशेष प्रकार के सामाजिक वातावरण की आवश्यकता होती है जिसके अधीन आधुनिक तकनीक का उपयोग किया जा सकता है, परन्तु अर्द्धविकसित देशों में व्यक्ति नई तकनीक की प्रस्तावना के प्रति उत्साहित नहीं होते ।

परम्परागत कृषि प्रधान अर्थव्यवस्थाओं में उत्पादन की परम्परागत विधियाँ प्रचलित होती हैं एवं कृषक इस लो इन पुट इनर्जी के विकल्प के रूप में हाई इन पुट इनर्जी पर आधारित तकनीक का प्रयोग नहीं करना चाहते । इस प्रकार इन देश में नई तकनीक के रूपान्तरण के लिए परम्परागत व सांस्कृतिक ढाँचे में आधारभूत परिवर्तन की आवश्यकता होती है ।

(ii) आधारभूत सुविधाओं की कमी (Dearth of Basic Facilities):

नयी तकनीक महँगी होती है तथा इस प्रायोजन में आधुनिक यन्त्र उपकरण व विशिष्ट सुविधाओं की आवश्यकता होती है । कुशलता व प्रशिक्षण के एक विशिष्ट अंश के द्वारा ही आधुनिक तकनीक का अवशोषण करने की कुशलता तब ही होगी, जबकि उस देश में शिक्षित व्यक्तियों व तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति उपलब्ध होंगे । अर्द्धविकसित देशों में पूंजी की कमी तथा प्रशिक्षण व कौशल युक्त श्रम-शक्ति के अभाव के कारण तकनीकी हस्तान्तरण बाधाओं का सामना करता है ।

(iii) विपरीत दशाएँ (Diverse Condition):

प्रत्येक देश में नवीन ज्ञान को स्वीकार करने की दशा वहाँ की सामाजिक संरचना, राजनीतिक दशा, आर्थिक वातावरण, शिक्षा के स्तर एवं कुशलता के स्तरों में भिन्नता के कारण अलग-अलग होती है अतः हस्तान्तरण की विभिन्न विधियों की आवश्यकता महसूस होती है । विकसित देश में प्रचलित तकनीक के समायोजन में अर्द्धविकसित देश प्रायः बाधाओं का सामना करते हैं, क्योंकि वहाँ के शिक्षा के स्तर, उपलब्ध पूंजी, ज्ञान एवं प्रशिक्षण का स्तर भिन्न-भिन्न होता है ।

इसलिए विकसित देशों में उपलब्ध तकनीक का आयात कर लेना ही समस्या का समाधान नहीं है बल्कि अर्द्धविकसित देशों में उसका अनुकूलन किस प्रकार किया जाएगा, एक महत्वपूर्ण पक्ष है ? विकसित देशों में कृषि उत्पादन हेतु जो तकनीक अपनाई जाती है उसका अर्द्धविकसित देशों में सफलतापूर्वक अनुपालन नहीं हो पाएगा ।

यदि भूमि एवं जलवायु की दशाएँ भिन्न-भिन्न हों । तब ऐसे अन्तर विद्यमान होने पर अर्द्धविकसित देशों को उत्पादन हेतु कई प्रकार की रासायनिक खाद, कीटनाशक एवं सिंचाई के बेहतर प्रबन्ध करने पड़ेंगे तथा फसल चक्र की प्रणाली में संशोधन करना पड़ेगा । इस प्रकार उन्नत देशों में विकसित तकनीक अर्द्धविकसित देशों की आवश्यकताओं एवं अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं होंती ।

(iv) माँग एवं पूर्ति पक्ष की सीमाएं (Limitations of Demand and Supply):

विकास की आरम्भिक अवस्था में अर्द्धविकसित देश विदेशी विशेषज्ञों की सेवाओं पर निर्भर करते हैं इससे कई कठिनाईयाँ भी उत्पन्न होती हैं । अधिकांश देशों में ऐसा प्रशिक्षित श्रम उपलब्ध नहीं होता जिसकी उत्पादन प्रक्रिया में आवश्यकता अनुभव की जा रही है अर्थात् प्रशिक्षित इजीनियर, वैज्ञानिक, प्रबन्धक व विशिष्टता प्राप्त मानव-शक्ति का अभाव होता है ।

माँग पक्ष पर ध्यान देते हुए जो कमियाँ अनुभव की जाती हैं वह निम्नांकित हैं:

(i) यदि विदेशी विशेषज्ञों की संख्या एक सीमा से अधिक बढती है तो देश के प्रशिक्षण प्राप्त युवा वर्ग को रोजगार के अवसर से वंचित रहना पड सकता है, क्योंकि अक्सर ऐसी सोच विद्यमान होती है कि विदेशी व्यक्ति कार्यकुशलता की दृष्टि से अधिक श्रेष्ठ है ।

(ii) विदेशी विशेषज्ञ को देश में सभी प्रकार की अतिरिक्त सुविधाएँ देनी पडती है जिसका भार देश वहन करता है ।

(iii) समुन्नत देशों में मजदूरी की दरें अर्द्धविकसित देशों की तुलना में काफी अधिक होती है ऐसे में विदेशी विशेषज्ञ को प्रदान की जा रही मजदूरी घरेलू स्तर पर दिए जा रहे वेतन के सापेक्ष काफी अधिक होता है ।

(v) उपक्रमशीलता का अभाव (Lack of Enterprise):

आधुनिक तकनीक के सम्यक् प्रयोग हेतु जनसमूह को शिक्षित किया जाना अत्यन्त आवश्यक है लेकिन अर्द्धविकसित देशों में प्रशिक्षण प्रदान करने वाले विशेषज्ञों की कमी होती है ।

इस अभाव को दूर करने के लिए या तो विशेषज्ञ, विदेश से आमंत्रित किए जाते हैं अथवा विदेश में प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए घरेलू देश के नागरिकों को भेजना पडता है ।

(vi) तकनीक के की समस्या:

तकनीक का सृजन एवं औद्योगिक नव-प्रवर्तन के आयात हेतु भुगतान करना पडता । इसके साथ ही विकसित देशों से अर्द्धविकसित देशों की ओर होने वाले

तकनीक के स्थानान्तरण में जो समस्याएँ आती है उनके निवारण हेतु आवश्यक है कि:

(a) अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी नियमावली बने जो विकासशील देश की आवश्यकताओं व दशाओं को ध्यान में रखते हुए तकनीक का स्थानान्तरण करें ।

(b) आधुनिक तकनीक के प्रयोग एवं ऐसी तकनीक के अपनाने हेतु प्रयासरत रहना होगा जो विकासशील देशों के लिए कारगर व बेहतर हो तथा इन देशों की आर्थिक, सामाजिक व पारिस्थितकीय दशाओं के अनुकूल हो ।

यह आवश्यक है कि विकसित देशों से विकासशील देशों की ओर शोध एवं विकास कार्यक्रमों का प्रवाह निरन्तर होते रहें । ऐसे प्रयास भी किए जाने आवश्यक है जिनसे घरेलू परम्परागत तकनीक के स्तरों में भी यथेष्ट सुधार लाया जाना सम्भव बने ।


7. मध्यवर्ती तकनीक (Intermediate Technology):

ई॰ एफ॰ शूमाखर ने अर्थव्यवस्था के ग्रामीण क्षेत्रों के विकास हेतु मध्यवर्ती तकनीक की सिफारिश की जो बेहतर एवं कारगर सिद्ध होती है । शूमाखर ने अपनी विश्वविख्यात कृति Small is Beautiful एवं A Guide for the Perplexed में विकासशील देशों को स्वावलम्बी बनाने हेतु स्वयं के संसाधनों एवं तकनीक पर आश्रित रहने की सिफारिश की ।

शूमाखर ने स्पष्ट किया कि मध्यवर्ती तकनीक कम विकसित देशों की उत्पादकता को बढ़ाने में परम्परागत तकनीक की तुलना में श्रेष्ठ है । यह महँगी व जटिल पूँजीगत तकनीक की अपेक्षा सरल व सस्ती होती है । कम विकसित देशों के लिए स्थानीय स्तर प्रयुक्त होने वाली तकनीक ही बेहतर व कारगर सिद्ध होती है ।

ऐसे प्रयास किए जाने चाहिएं जिससे राष्ट्रीय स्तर पर कारगर तकनीक को विकसित करने की प्रेरणा एवं सुविधाएं उत्पादन की जाएं । इसके लिए ऐसे क्षेत्र, उद्योगों एवं गतिविधियों का निर्दिष्टीकरण करना होगा जहाँ तकनीकी सुधार से उत्पादकता में वृद्धि हो, रोजगार के अधिक अवसर प्राप्त हो घरेलू सस्ते संसाधनों का उपयोग सम्भव बने तथा विदेशी पूंजी की बचत की जा सके । इस प्रकार मध्यवर्ती तकनीक का विचार सस्ती घरेलू श्रम गहन लघुस्तरीय तकनीक को विकसित करना है ।

कुछ अर्थशास्त्रियों का विचार है कि आधुनिक मध्यवर्ती तकनीक को सुधरी हुई पश्चिमी तकनीक एवं विधियों के प्रयोग बिना विकसित कर पाना कठिन है । परम्परागत मध्यवर्ती तकनीक प्रायः महंगी एवं अपर्याप्त होती है फिर मध्यवर्ती तकनीक सभी प्रकार की वस्तुओं के उत्पादन हेतु पर्याप्त नहीं । प्रायः इस प्रकार की तकनीक अनिश्चित व जोखिमपूर्ण होती है भले ही इसकी लागत कम होती है, परन्तु निम्न उत्पादकता के कारक वास्तविक लागत काफी अधिक हो जाती है ।

शूमाखर के अनुसार वह आर्थिक मापदण्ड जो सफलता को उत्पादन या आय के आधार पर मापते हैं तथा देश में रोजगार अथवा नौकरी की संख्या को ध्यान में नहीं रखते, अपर्याप्त है और विकास की समस्या का एकतरफा तथा स्थैतिक मूल्यांकन करते हैं ।

विकास की प्रावैगिक दृष्टि तो व्यक्तियों की आवश्यकताओं एवं प्रतिक्रियाओं से सम्बन्धित होती है, उनकी पहली जरूरत यह है कि वह ऐसा कोई कार्य करें जिससे उन्हें पुरस्कार प्राप्त हो भले ही वह अल्प ही हो ।

ऐसा तब हो पाएगा, जबकि उन्हें यह अनुभव होगा कि उनके पास समय एवं श्रम का कुछ मूल्य है जिससे वह और अधिक सार्थक काम करने के प्रति उत्साही रहते है । अतः यह अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति कुछ न कुछ उत्पादन करें ।

शूमाखर ने विकासशील देशों के सम्मुख जो मुख्य कार्य हैं उसे निम्न चार संकल्पनाओं से अभिव्यक्ति किया:

(i) पहला- कार्य के स्थल उन क्षेत्रों में बनाए जाएं जहाँ व्यक्ति निवास कर रहे हैं ।

(ii) दूसरा- कार्य के स्थल काफी सस्ते हों अर्थात् उन्हें काफी अधिक सख्या में बनाया जाये और जिसके लिए काफी अधिक पूंजी निर्माण एवं आयातों की आवश्यकता न पड़े ।

(iii) तीसरा- उत्पादन की विधियाँ सापेक्षिक रूप से सरल हों जिससे उच्च कुशलता की माँग को न्यूनतम किया जा सके ।

(iv) चौथा- उत्पादन मुख्यतः स्थानीय पदार्थों से किया जाये जिसका स्थानीय उपभोग होना सम्भव बने ।

उपर्युक्त चारों स्थितियों केवल तब सम्भव हो सकती हैं जब विकास की क्षेत्रीय विधि पर आधारित रहा जाये एवं लगातार प्रयास इस दिशा में किए जाएँ कि एक बेहतर व कारगर तकनीक विकसित हो ।

विकास की क्षेत्रीय विधि लघु एवं मध्यम आकार के कस्बों की संख्या के बढने पर सम्भव होती है जिससे व्यापक जनों की बेरोजगारी तथा नगरों व महानगरों की ओर होने वाले लगातार प्रवास को कम किया जा सके ।

शूमाखर के अनुसार विकास की क्षेत्रीय या आंचलिक विधि मुख्यतः बेहतर तकनीक की उपलब्धता एवं उसके क्रियान्वयन पर निर्भर करती है । पूंजी की दुर्लभता को ध्यान में रखते हुए तकनीक की प्रवृति अधिक पूंजी गहन नहीं होनी चाहिए और न ही इन देशों को पिछड़ी हुई परम्परागत तकनीक अपनानी चाहिए अर्थात इन देशों को मध्यवर्ती तकनीक पर आश्रित होना चाहिए ।

शूमाखर के अनुसार यदि तकनीक के स्तर को प्रति कार्यस्थल यन्त्र उपकरण की लागत के आधार पर समझाया जाये तो इसे स्वयं प्रचलित तकनीक के द्वारा सम्बोधित कर सकते है । उदाहरण के तौर पर यह डालर- 1 तकनीक है जबकि विकसित देश में यह डालर- 1000 तकनीक कही जा सकती है ।

अब ऐसी तकनीक की आवश्यकता होगी जो $ – 1 तकनीक तथा $ – 1000 तकनीक के मध्य हो; जैसे इसे हम $ – 100 तकनीक कह सकते हैं । इस प्रकार की मध्यवर्ती तकनीक परम्परागत तकनीक के मुकाबले अधिक उत्पादक हो सकती है बशर्ते यह आधुनिक उद्योगों में अपनाई जा रही परिष्कृत पूँजी गहन तकनीक की तुलना में काफी सस्ती हो ।

ऐसी तकनीक सस्ती व लघु हो जो पूंजी विनियोग का अधिक समान वितरण करें जो स्थानीय आवश्यकताओं व साधन गहनताओं का प्रत्युत्तर दे तथा रोजगार की सुविधा उन स्थानों पर प्रदान करें जहाँ व्यक्ति निवास कर रहे हैं । यह स्थानीय पूंजी, कुशलता, कच्चे माल का प्रयोग बढाए तथा संसाधनों का आयात कम करने में सहायक हो ।