संरक्षण नीति: उद्देश्यों और सीमाएं | Read this article in Hindi to learn about:- 1. संरक्षण की नीति और गैर आर्थिक उद्देश्यों का सिद्धान्त (Objectives of Protection Policy) 2. संरक्षण की नीति का समर्थन (Arguments in Favour of Protection Policy) 3. सीमाएं (Limitations).

संरक्षण की नीति और गैर आर्थिक उद्देश्यों का सिद्धान्त (Objectives of Protection Policy):

गैर आर्थिक उद्देश्यों के सिद्धान्त के अन्तर्गत हम मुख्य रूप से चार विशिष्ट उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए वांछनीय संरक्षणात्मक उपायों की महत्ता पर विचार करेंगे ।

इसके चार विशिष्ट उद्देश्य है:

(1) उत्पादन के एक निश्चित स्तर को प्राप्त करना ।

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(2) उपभोग के एक निश्चित स्तर को प्राप्त करना ।

(3) स्वनिर्भरता के निश्चित स्तर को प्राप्त करना ।

(4) रोजगार के निश्चित स्तर को प्राप्त करना ।

अनार्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने की एक आर्थिक लागत होती है जिसे कल्याण में होने वाली कमी के रूप में देखा जाता है । अनार्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए जो आर्थिक लागत वहन की जाती है, पैरिटी की अनुकूलतम दशाओं में किसी एक दशा या अधिक का उल्लंघन होता है । हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि अनार्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने में ऐसी अनुकूल नीति क्या होनी चाहिए जिससे कल्याण में होने वाली कमी न्यून हो ।

संरक्षण की नीति का समर्थन (Arguments in Favour of Protection Policy):

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संरक्षण के समर्थन में जो तर्क दिए जाते है वह मुख्य रूप से निम्न हैं:

(1) सरकारें केवल आर्थिक दशाओं से ही प्रभावित नहीं होती बल्कि वह स्वावलम्बन एवं आत्मनिर्भरता प्राप्त करने का लक्ष्य रखती है जिनका स्वरूप राजनीतिक होता है ।

(2) किसी देश के विकास में घरेलू उद्योगों को विकसित करना आवश्यक होता है, ऐसी दशा में नए उद्योगों को संरक्षित करने की आवश्यकता होती है जब तक कि वह सुस्थापित न हो जाएँ ।

स्वतन्त्र व्यापार के विरुद्ध संरक्षण की नीति का समर्थन एलेक्जेंडर हैमिल्टन ने 1791 में प्रस्तुत किया था । हैमिल्टन ने राष्ट्रवाद के सिद्धान्त के आधार पर यह स्पष्ट किया कि राष्ट्रीय उत्पादन को संरक्षण के द्वारा बढाया जा सकता है ।

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इन्होंने संरक्षण की नीति को देश के उद्योग धंधों का विकास करने के लिए, देश की सुरक्षा और रोजगार की वृद्धि के लिए आवश्यक समझा । जर्मनी में फ्रेडरिक लिस्ट ने संरक्षण की नीति का समर्थन किया ।

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने अबन्ध नीति पर आधारित रहते हुए यह तर्क दिया विभिन्न देशों के मध्य होने वाला व्यापार किसी भी प्रकार के नियन्त्रण से मुक्त होना चाहिए । यह भी तर्क दिया गया कि यदि एक देश नियन्त्रण लागू करे तथा विश्व के अन्य देशों में स्वतन्त्र व्यापार की नीति अपनाई जा रही हो तो ऐसी स्थिति में अन्य देश भी प्रतिबन्धात्मक नीति अपनाने हेतु प्रेरित होते है ।

इसके परिणामस्वरूप प्रशुल्क की बाधाएँ उपस्थित होती है और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के परिमाण में संकुचन आता है जिससे साधनों का आवण्टन प्रभावित होता है तथा विश्व के विभिन्न देशों में साधनों का अनार्थिक उपभोग बढ़ता है अर्थात् अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कुल कल्याण अधिकतम नहीं हो सकता ।

अधिकतम कुल कल्याण की प्राप्ति हेतु प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों द्वारा दिया गया तर्क उन स्थैतिक मान्यताओं के अधीन दिया गया जो उत्पादन के साधनों को पूर्ण रोजगार में लगे होने, उनकी स्वतंत्र गतिशीलता, पूर्ण प्रतियोगिता तथा आपस में व्यापार करने वाले देशों के समान आर्थिक विकास होने की स्थिति से सम्बन्धित था ।

इन संकल्पनाओं के अधीन यदि साधनों को उत्पादन का विभिन्न शाखाओं में विवेकपूर्ण तरीके से आवण्टित नहीं किया जाता तो उत्पादन अधिक उत्पादक क्षेत्रों से कम उत्पादक क्षेत्रों की ओर प्रवाहित होगा । ऐसी दशा में सामाजिक शुद्ध उत्पत्ति एवं सामाजिक कल्याण में कमी होगी । उपर्युक्त स्थिति मात्र एक आदर्श स्थिति है जो व्यवहार में पूर्ण रूप से सफल नहीं होती ।

बाजार की एकाधिकारात्मक एवं अल्पाधिकार सम्बन्धी अपूर्णताएँ, कीमत व मजदूरी दृढ़ताएँ सूचना सम्बन्धी कमियों के रूप में अनेकों दबाव एवं विचलन आते हैं । प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों द्वारा दिये गये तर्क केवल तब ही लागू हो सकते हैं जब साधनों को पूर्ण रोजगार प्राप्त हो ।

परन्तु साधन, व्यवहार में या तो अर्द्धरोजगार या बेकारी की स्थिति में रहते हैं । यदि अर्थव्यवस्था में अशोषित एवं बेकार साधन हों और यदि संरक्षण द्वारा इन साधनों का प्रयोग सम्भव हो तो देश के कुल उत्पादन में कोई कमी नहीं होगी । इस प्रकार संरक्षण की नीति पर चलने वाले देश में अशोषित साधनों को रोजगार प्रदान करे जाने से कुल उत्पादन में वृद्धि की सम्भावना बढती है ।

प्रतिबन्ध एवं संरक्षण के अधीन उपभोक्ता एवं उत्पादक वर्ग को विदेशी प्रतिस्पर्द्धा से सुरक्षित रखने के लिए व्यापारिक प्रतिबन्ध लगाए जाते है । घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए विश्व की सापेक्षिक कीमतों की तुलना में घरेलू सापेक्षिक कीमतें उच्च रखी जाती है ।

आयायित वस्तुओं की सापेक्षिक कीमत विश्व बाजार की सापेक्षिक कीमत से काफी ऊँची रखी जाती है ताकि आयात प्रतिबन्धित हो सके । इसके लिए विनिमय नियन्त्रण विनिमय दर तथा आयात संरक्षण की अन्य विधियों को लागू किया जा सकता है ।

संरक्षण की नीति की सीमाएं (Limitations of Protection Policy):

संरक्षण को आर्थिक एवं अनार्थिक तर्कों के विवेचन के उपरान्त अब यह संरक्षण की सीमाओं को ध्यान में रखते है । संरक्षण की नीति यदि विवेकपूर्ण तरीके से नहीं अपनाई गई तो यह आर्थिक विकास की प्रक्रिया को गतिशील करने में सहायक नहीं होती ।

संरक्षण के दुष्प्रभावों को देखते हुए प्रायः यह कहा जाता है कि स्वतन्त्र व्यापार ईमानदारी की तरह सर्वश्रेष्ठ नीति सिद्ध होती है । संरक्षण कुछ निश्चित दशाओं में आर्थिक लाभ प्रदान करता है, परन्तु इसके लिए आवश्यक है कि ऐसी दशाओं को पृथक रूप से पहचान लिया जाय । यहाँ समस्या यह उत्पन्न होती है कि संरक्षण के लिए वांछित आवश्यक दशाओं को निर्दिष्ट कर सकना सरकार के लिए बहुत कठिन होता है ।

संरक्षण की सीमाएँ मुख्यतः निम्न बिन्दुओं से सम्बन्धित है:

(1) मुद्रा प्रसार का संकट ।

(2) व्यापार की मात्रा का सीमित होना ।

(3) एकाधिकारात्मक स्थितियाँ ।

(1) मुद्रा प्रसार का संकट:

यदि किसी देश में सरकार उपभोग वस्तुओं के आयात पर काफी अधिक मात्रा में संरक्षण लगाती है तो मुद्रा प्रसारिक दबाव उत्पन्न होते है जिससे सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है । संरक्षण के परिणामस्वरूप आयात वस्तुओं पर किया जाने वाला घरेलू व्यय सामान्यतः निर्यात वस्तुओं पर किया जाता है जिससे घरेलू उत्पादन की कीमतें बढ़ने लगती हैं ।

(2) व्यापार की मात्रा का सीमित होना:

संरक्षण के परिणामस्वरूप एक देश अपने आयातों की मात्रा सीमित करता है । यदि अन्य देशों द्वारा भी प्रतिकारात्मक उपाय अपनाए जाएं तो इससे व्यापार के परिमाण पर विपरीत प्रभाव पडता है । निश्चित ही व्यापार द्वारा प्राप्त होने वाले लाभ सीमित हो जाते है तथा विश्व के आर्थिक कल्याण में कमी होती है ।

ऐसी दशा में, जबकि घरेलू एवं निर्यात वस्तु उद्योगों दारा किए जा रहे उत्पादन की पूर्ति काफी अधिक लोचदार हो तो मुद्रा प्रसार एवं निर्यातों की मात्रा में कमी होने की स्थिति सामने नहीं आएगी । कम विकसित देशों में उत्पादन का ढांचा मुख्यतः प्राथमिक वस्तुओं के उत्पादन से सम्बन्धित होता है इसलिए पूर्ति का लोचदार का होना सम्भव नहीं होता ।

यदि किसी देश में उच्च उपभोग एवं विलासिता की वस्तुओं पर संरक्षण लगाया जाये और पूंजीगत वस्तुओं का आयात किया जाए तो देश के आर्थिक विकास की स्थिति दो बातों पर निर्भर करती है- पहली बात तो यह कि यदि पूंजीगत वस्तुओं का आयात देश में विकास हेतु वांछित उपादानों, यन्त्रों, तकनीक की पूर्ति हेतु किया जा रहा हो तो इसके परिणामस्वरूप देश में औद्योगिक एवं तकनीकी आधार समुन्नत होगा ।

परन्तु यदि पूँजीगत आयात दारा उच्च उपभोग एवं विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन किया जा रहा हो तो यह स्थिति देश के आर्थिक विकास हेतु सहायक नहीं होगी ।

प्रोफेसर रागनर नकर्से ने स्पष्ट किया कि कम विकसित देशों में प्रायः प्रदर्शन प्रभाव कार्य करता है जो विकसित देशों के उपभोग की नकल की प्रवृति से सम्बन्धित है । ऐसी दशा में देश में फैशन एवं विलासिता की वस्तुओं की माँग बढती है ।

देश के लिये यह सकट की स्थिति होती है । जबकि पूँजीगत वस्तु उत्पादक उद्योगों से उपभोक्ता वस्तु उत्पादक उद्योगों एवं विलासिता की वस्तुओं के उत्पादन की ओर विनियोग का प्रवाह जारी रहे । इसे रोकने के लिए उचित घरेलू नीतियों की आवश्यकता होती है ।

आयात प्रतिबन्धों के द्वारा जब भुगतान सन्तुलन की असाम्यावस्था को दूर किया जाता है तो इस उद्देश्य हेतु विनिमय दर को अधिमूल्यित किया जाता है । एक अधिमूल्यित विनिमय दर देश के निर्यातों को विपरीत रूप से प्रभावित करती है । विशेष रूप से नए उद्योगों के उत्पादन, को यह हतोत्साहित करती है । इस प्रकार व्यापार के परिणाम पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ।

आयातों पर लगने वाला संरक्षण आयायित वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि करता है जिससे इन वस्तुओं का संसाधनों के रूप में प्रयोग करने वाले निर्यात उद्योग प्रभावित होते है । संरक्षण की नीति के अधीन जब प्रशुल्कों के माध्यम से राजकीय आगम में वृद्धि करने की सोची जाती है तो ऐसी हानियाँ उभरकर सामने आती है जो अप्रत्यक्ष करों जैसी होती है ।

(3) एकाधिकारात्मक स्थितियां:

संरक्षण की नीति घरेलू एकाधिकारकों जन्म देती है,जबकि सामान्यतः विदेशी प्रतिस्पर्द्धा से एकाधिकार एवं क्रेता एकाधिकार की प्रवृतियाँ सीमित होती है । संरक्षण की नीति के द्वारा जब कुछ बड़ी फर्मों को ही आयात लाइसेन्स प्रदान किए जाते हैं तो ऐसी फ़र्में एकाधिकारात्मक संघों जैसा व्यवहार करती है ।

संरक्षण लगाए जाने पर घरेलू उत्पादक चूंकि प्रतिस्पर्द्धा से बच जाता है इसलिए ऐसी दशा में यह सम्भव है कि वह बेहतर उत्पादन के लिए प्रयत्नशील न रहे । निष्कर्ष यह है कि मात्र संरक्षण की नीति ही विकास का कारक नहीं बन जाती । संरक्षण की नीति विकास के लिए अवसर प्रदान करती है । विकास की प्रक्रिया को तीव्र करने के लिए आवश्यक है कि संरक्षण द्वारा प्रदान किए गए अवसरों का उपयोग किया जाये ।