योजनाबद्ध और विकास अर्थव्यवस्थाओं में मूल्य निर्धारण | Read this article in Hindi to learn about:- 1. मूल्य निर्धारण की प्रस्तावना (Introduction to Price Determination) 2. मूल्य निर्धारण की समस्या (Problem of Price Determination) 3. नियोजित अर्थव्यवस्था में मूल्य यत्न आवश्यक नहीं (Price Mechanism is Not Necessary in Planned Economy) 4. नियोजित अर्थव्यवस्था में मूल्य निर्धारण (Price Determination in Planned Economics) 5. विकासशील देशों में मूल्य नीति (Price Policy in Developing Countries) 6. सिद्धान्त (Theories).

मूल्य निर्धारण की प्रस्तावना (Introduction to Price Determination):

विकासशील देशों में नियोजित विकास की सफलता हेतु मूल्य स्थायित्व आवश्यक है । मूल्यों में तीव्र वृद्धि योजनाओं के सफल क्रियान्वयन में बाधा उत्पन्न करती है । इससे परियोजनाओं की लागत बढ़ जाती है । अतः चालू योजनाओं पर किया जाने वाला व्यय बढ़ता है व भौतिक लक्ष्यों की प्राप्ति नहीं हो पाती ।

कीमतों में होने वाली वृद्धि जनता के जीवन-स्तर को कम करती जाती है । मूल्य वृद्धि से आय वितरण की विषमताएँ बढती हैं । यह प्रवृति सामाजिक दृष्टि से भी उचित नहीं है । मूल्यों में अस्थायित्व राजनीतिक अस्थिरता व असन्तोष उत्पन्न करता है । मूल्यों के उच्चावन से आन्तरिक स्थायित्व के साथ ही बाह्य सन्तुलन पर भी विपरीत प्रभाव पडता है । इस कारण उचित मूल्य नीति विकास हेतु अपरिहार्य है ।

मूल्य निर्धारण की समस्या (Problem of Price Determination):

नियोजित अर्थव्यवस्था में मूल्य निर्धारण एवं विवादपूर्ण समस्या है । पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में मूल्य संयन्त्र की उपस्थिति विद्यमान रहती है जहाँ माँग व पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा वस्तु का मूल्य निर्धारित होता है ।

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मूल्य यन्त्र को आर्थिक संगठन की ऐसी पद्धति के रूप में देखा जा सकता है जिसमें उपभोक्ता, उत्पादक एवं साधन स्वामी के रूप में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्रता से आर्थिक क्रियाओं में संलग्न रहता है ।

मूल्य संयन्त्र स्वतन्त्र बाजार अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित है जिससे अभिप्राय है कि उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व रहता है । व्यक्ति अपना व्यवसाय चुनने के लिए स्वतन्त्र होता है । बाजार में माँग एवं पूर्ति के साम्य द्वारा निर्धारित कीमतों पर वस्तु खरीदने की स्वतन्त्रता होती है ।

मूल्य यन्त्र के सफलतापूर्वक कार्य करने की स्थिति में आर्थिक विकास प्रोत्साहित होता है जिसके:

(1) माँग व पूर्ति के साम्य पर आधारित कीमत यन्त्र उत्पादन की वृद्धि को प्रोत्साहित करता है ।

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(2) कीमत यन्त्र द्वारा संसाधनों का कुशल अयोग सम्भव होता है । संसाधनों के कुशल आबंटन एवं गतिशीलता के कारण अर्थव्यवस्था में स्थायित्व व निश्चितता रहती है ।

(3) कीमत संयन्त्र स्वचालित रूप से कार्य करता है अत: नियन्त्रण एवं प्रशासनिक हस्तक्षेप का अभाव होता है ।

(4) कीमत संयन्त्र द्वारा बाजार का विस्तार मुख्यतः उपक्रमी को नवप्रवर्तन की प्रेरणा देता है ।

(5) कीमत संयम द्वारा उत्पादकता एवं आय के स्तरों में वृद्धि होती है जिससे भौतिक व मानवीय पूंजी निर्माण सम्भव बनता है ।

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स्पष्ट है कि पूंजी अर्थव्यवस्था में बाजार संयन्त्र की उपस्थिति में माँग व पूर्ति के साम्य द्वारा कीमत निर्धारित होती है । अतः मूल्य निर्धारण कोई विशेष समस्या नहीं बनती, लेकिन एक नियोजित समाजवादी अर्थव्यवस्था में मूल्य निर्धारण की समस्या उत्पन्न होती है ।

नियोजित अर्थव्यवस्था में मूल्य निर्धारण की समस्या (Problems of Price Determination in Planned Economy):

नियोजित अर्थव्यवस्था में आर्थिक गणना को असम्भव माना गया है । जर्मन अर्थशास्त्री एच॰ एस॰ गोसेन ने यह विचार प्रस्तुत किया कि सम्पत्ति रहित अर्थव्यवस्था में विवेकपूर्ण आर्थिक गणना सम्भव नहीं है ।

प्रो॰ एडविन कैनन तथा एन॰ जी॰ पियर्सन ने समाजवादी अर्थव्यवस्था में वस्तुओं के मूल्य निर्धारण को इस कारण कठिन माना, क्योंकि मूल्य यब का अभाव होता है । जर्मन अर्थशास्त्री मैक्स वेबर के अनुसार विवेकपूर्ण आर्थिक गणना मात्र उस समाज में सम्भव है जो विनिमय पर आधारित हो अथवा जहाँ मुद्रा का प्रयोग होता हो ।

समाजवादी या नियोजित अर्थव्यवस्था में यह सम्भव नहीं । सोवियत रूस में कार्ल मार्क्स व लेनिन ने भी समाजवादी एवं नियोजित अर्थव्यवस्था में कीमत निर्धारण व तर्क संगत गणनाओं के प्रश्न को ध्यान में नहीं रखा ।

1920 में प्रो॰ लुडविग वानमाइजेज ने विचार व्यक्त किया कि आर्थिक गणनाओं के अभाव में कोई अर्थव्यवस्था चल नहीं सकती और समाजवाद विवेकपूर्ण अर्थव्यवस्थाओं की समाप्ति है ।

माइजेज के अनुसार न केवल उपभोक्ता वस्तुओं, बल्कि अर्द्धनिर्मित व पूंजीगत वस्तुओं के मूल्य जो आवश्यक रूप से मुद्रा के रूप में अभिव्यक्त होते है । विवेकपूर्ण आर्थिक गणना के अभाव में यह सम्भव ही नहीं ।

नियोजित अर्थव्यवस्था में उत्पादन का संगठन केन्द्रीय सत्ता द्वारा सम्पन्न किया जाता है । मुख्य समस्या यह है कि केन्द्रीय अधिकारी किस प्रकार विवेकपूर्ण लागतों की गणना करेंगे, कीमतों को नियत करेंगे व आर्थिक निर्णय लेंगे ।

नियोजित अर्थव्यवस्था में विवेकपूर्ण मूल्य निर्धारण को इस कारण असम्भव बताया गया, क्योंकि:

(1) माँग व पूर्ति के अभाव में मूल्य संयन्त्र सम्भव नहीं । इसकी अनुपस्थिति का कारण है माँग व पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों की स्वतंत्र गति का अभाव । माँग व पूर्ति पर नियन्त्रण होने के कारण मूल्य का निर्धारण समस्या उत्पन्न करता है ।

(2) नियोजित अर्थव्यवस्था में स्वतन्त्र प्रतियोगिता की अनुपस्थिति होती है । अतः उपभोक्ता व उत्पादक के हित सन्तुष्ट नहीं होते ।

(3) आर्थिक क्रियाओं पर नियन्त्रण के कारण व्यक्तिगत हित व लाभ का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता । अत: मूल्य यन्त्र क्रियाशील नहीं हो पाता ।

स्पष्ट है कि नियोजित अर्थव्यवस्था में स्वतन्त्र बाजार की अनुपस्थिति उपभोक्ताओं की अधिकतम सन्तुष्टि को आवश्यक रूप से करेगी । कीमत संयन्त्र क्रेता व विक्रेता के मध्य प्रतिस्पर्द्धा की पूर्ण स्वतन्त्रता पर आधारित होता है जो उपभोक्ता को अधिकतम सन्तुष्टि प्रदान करता है, लेकिन यह एक नियोजित या अप्रतिस्पर्द्धा आर्थिक प्रणाली में सम्भव नहीं है ।

हायेक के अनुसार एक अर्थव्यवस्था की सफलता के दो पक्ष महत्वपूर्ण है:

(1) वह वस्तुएँ जिनको प्रणाली द्वारा वास्तव में उपभोक्ताओं द्वारा पहुँचाया जा रहा है, तथा

(2) केन्द्रीय सत्ता के निर्णयों की विवेकशीलता तथा अविवेकशीलता । यह दोनों परीक्षण एक नियोजित अर्थव्यवस्था में सफलता से सम्भव नहीं हो पाते ।

नियोजित अर्थव्यवस्था में लाभ के उद्देश्य को महत्व नहीं दिया जाता । इससे समुदाय में उपभोक्ताओं की इच्छा व माँग के प्रति भी उत्साह नहीं बना रहता । लाभ की प्रेरणा के अभाव में एक नियोजित अर्थव्यवस्था सुचारु रूप से कार्य करने में असमर्थ रहती है, क्योंकि यह कीमत प्रणाली द्वारा दिए गए उत्पादक क्रिया के स्वचालित आधार की कमी का अनुभव करती है ।

पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली में यह सम्भव होता है कि वह पूंजीगत विनियोगों पर अधिकतम प्रतिफल की प्राप्ति करें । नियोजित अर्थव्यवस्था में पूंजी का बेहतर आबंटन किया जाना सम्भव नहीं होता । संक्षेप में नियोजित अर्थव्यवस्था में मूल्य संयन्त्र के अभाव में मूल्यों का निर्धारण नही होता, बल्कि इनका निर्दिष्टीकरण होता है । मूल्य यन्त्र की प्रकृति स्वतन्त्र न होकर नियन्त्रित रहती है ।

नियोजित अर्थव्यवस्था में मूल्य यत्न आवश्यक नहीं (Price Mechanism is Not Necessary in Planned Economy):

कुछ चिन्तकों के अनुसार नियोजित अर्थव्यवस्था में कीमत संयंत्र की आवश्यकता नहीं होती । इसका कारण यह है कि एक प्रतिस्पर्द्धी अर्थव्यवस्था तथा नियोजित अर्थव्यवस्था में गुणात्मक विभिन्नता होती है तथा प्रत्येक आर्थिक प्रणाली की क्षमता को विभिन्न मूल्य प्रक्रियाओं से देखा जाना चाहिए ।

स्वतन्त्र बाजार अर्थव्यवस्था हेतु यह आवश्यक नहीं कि वह उपभोक्ताओं को अनुकूलतम सन्तुष्टि प्रदान करें । बारबारा ऊटन, सिडनी तथा बीटरिस वैब के अनुसार एक औद्योगिक प्रणाली की सफलता का मापदण्ड आर्थिक कुशलता नहीं है,बल्कि सामाजिक कुशलता है । पूंजीवादी समाज में जो मूल्य प्रक्रियाएँ विद्यमान हैं वह समाजवादी समाज से भिन्न हैं ।

1908 में एनरिको बेरोन ने यह मत व्यक्त किया कि आर्थिक समस्याओं का बीजगणितीय विश्लेषण करते हुए नियोजित अर्थव्यवस्था मूल्य निर्धारण की समस्या को दूर कर सकता है । बारबारा ऊटन के अनुसार नियोजित अर्थव्यवस्था चूंकि स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था से भिन्न है अतः पूँजीवादी समाज में प्रचलित मूल्य प्रक्रियाओं को मापदण्ड बनाना उचित नहीं है ।

उन्होंने नियोजित अर्थव्यवस्था में मूल्य यन्त्र को आवश्यक नहीं माना । वीटरिस वैब ने तर्क दिया कि स्वतन्त्र बाजार अर्थव्यवस्था में समस्त जनसमुदाय की सन्तुष्टि व आवश्यकता का ध्यान नहीं रखा जाता वरन उस वर्ग की सन्तुष्टि को देखा जाता है जो क्रय शक्ति रखता है ।

इसके विपरीत नियोजित अर्थव्यवस्था बाजार के मापदण्ड पर आधारित न होकर समाज की वास्तविक आवश्यकताओं को ध्यान में रखती है । स्वतंत्र उपक्रम अर्थव्यवस्था में आर्थिक विषमता विद्यमान रहती है तथा अधिकतम सामाजिक क्षमता को भी प्राप्त नहीं किया जा सकता ।

वैब ने सोवियत संघ में नियोजित विकास के उद्देश्यों का दृष्टान्त प्रस्तुत किया और कहा कि कोई भी राष्ट्रीय सुरक्षा, औद्योगीकरण, सन्तुलित विकास, बच्चों व महिलाओं के विकास, पिछड़े वर्ग की सुरक्षा जैसे उद्देश्यों को नकार नहीं सकता ।

इस प्रकार पूंजीवादी समाज की मूल्य प्रक्रियाओं के आधार पर नियोजित प्रणाली की कुशलता का मूल्यांकन करना उचित नहीं है । पूंजीवादी व्यवस्था में जिन मान्यताओं को कीमत प्रक्रिया के अधीन ध्यान में रखा जाता है वह नियोजित अर्थव्यवस्था के लिए उपयुक्त नहीं है ।

इसके कारण निम्न हैं:

(1) व्यक्तिगत उपभोक्ता की माँग तालिकाएँ मानवीय आवश्यकताओं का समुचित विवरण नहीं देती । व्यक्तिगत उपभोक्ता यह नहीं जानता कि उसके लिए अच्छा क्या है ? नियोजित अर्थव्यवस्था में उत्पादन बाजार की प्रवृतियों के प्रत्युत्तर द्वारा नहीं वरन मानव आवश्यकताओं के नियोजित सर्वेक्षण द्वारा सम्भव होता है ।

वैब ने यह तर्क उचित नहीं माना कि पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पादन की पूर्ण स्वतन्त्रता के अधीन कीमत संयंत्र उपभोक्ताओं के हितों को अधिकतम सन्तुष्टि प्रदान करता है । कीमत संयंत्र वास्तव में केवल उनके हित को ध्यान में रखता है जिनके पास क्रय शक्ति है । स्वतन्त्र उपक्रम अर्थव्यवस्था में अधिकांश व्यक्ति ऐसे हैं जो अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को सन्तुष्ट नहीं कर पाते तथा निर्धनता के चंगुल में फँसे रहते हैं ।

(2) निजी उपक्रम अर्थव्यवस्था में आय की विशेषताएँ व्यापक रूप से देखी जाती है ।

(3) निजी उपक्रम अर्थव्यवस्था में कीमत संयन्त्र अधिकतम सामाजिक कुशलता को सुनिश्चित नहीं करता ।

वेब्स ने सोवियत रूस की नियोजन उपलब्धियों को रेखांकित किया उनके अनुसार रूस में पहली दो योजनाओं में निजी लाभ की भावना को नहीं वरन् देश में राष्ट्रीय सुरक्षा, औद्योगीकरण के प्रयासों, कृषि के यन्त्रीकरण एवं सामूहिकीकरण, पिछड़े क्षेत्रों व जातियों के साथ बच्चों एवं महिलाओं के विकास को प्राथमिकता दी गयी थी ।

वेब्स यह तर्क देते है कि एक प्रणाली की कुशलता को उत्पादन लागतों के सम्बन्ध में विनिमय मूल्यों के अधिकतम करने से नहीं, बल्कि एक प्रबुद्ध समुदाय के प्रत्येक उद्देश्य को ध्यान में रखकर किया जा सकता है ।

वेब्स ने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में व्याप्त असमानताओं की ओर सकेत किया तथा इस व्यवस्था को अक्षम सिद्ध करने का प्रयास किया । उन्होंने इसके स्थान पर समाजवादी अर्थव्यवस्था के स्वरूप को महत्व दिया ।

यह सत्य है कि स्वतन्त्र उपक्रम अर्थव्यवस्था के आर्थिक विषमता बढती है जिससे कई समस्याएं उत्पन्न होती हैं । वस्तुतः समाजवाद की धारणा मुख्यतः सामूहिक कल्याण से सम्बन्धित है पर इसके बावजूद भी मुख्य प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है और वह है मूल्य की गणना किस प्रकार हो ?

समाजवादी विचारकों ने मूल्य रहित समाज की कल्पना की अर्थात् ऐसी व्यवस्था जहाँ मूल्यों की गणना नहीं की जाएगी । वस्तु विनिमय के माध्यम के रूप में मुद्रा को कोई स्थान नहीं दिया जाएगा । उत्पादन एवं वितरण दो भिन्न क्रियाएं होंगी ।

इस विचार के समर्थकों में आटो न्यूरथ तथा एन॰ बुखारिन मुख्य थे । उन्होंने मत व्यक्त किया कि मूल्य रहित समाज में न्याय व नीति के सिद्धन्त का आश्रय लिया जाना चाहिए । देश में उत्पादित होने वाली वस्तुओं का जनता में न्यायपूर्ण वितरण हो । इसके लिए दो मापदण्ड ध्यान में रखे गए ।

(1) व्यक्ति द्वारा उत्पादन में प्रत्यक्ष योगदान दिये जाने पर उत्पादित होने वाली वस्तुओं का वितरण निम्न प्रकार किया जा सकता है:

(i) उद्योग में व्यक्ति के योगदान के आर्थिक मूल्य के आधार पर ।

(ii) कार्य के घण्टों के आधार पर ।

(iii) व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर ।

(iv) व्यक्ति द्वारा किए गए त्याग के आधार पर ।

(2) दूसरी ओर उत्पादन में व्यक्तिगत योगदान को स्वीकार न करने का मापदण्ड है । इन व्यक्तियों में उत्पादित वस्तुओं के वितरण के लिए- (a) समानता (b) आवश्यकता तथा (c) प्रत्येक व्यक्ति के लिए विषयगत मूल्य का आधार लिया जा सकता है ।

आटो न्यूरथ ने यह विचार व्यक्त किया कि समाजवादी अर्थव्यवस्था में स्पर्द्धात्मक मूल्य यन्त्र का अभाव कोई कठिनाई उत्पन्न नहीं करता । इस तर्क का विरोध करते हुए डॉ॰ लीचर ने कहा कि क्या रथ नहीं जानते कि गणना वास्तव में आर्थिक जीवन में सम्भव होती है और इसी में विवेकीकरण की धारणा पहली बार उत्पन्न हुई है ।

स्पष्ट है कि एनरिको बेरौन व आटो न्यूरथ यह मानकर चले कि नियोजित अर्थव्यवस्था में मूल्य यन्त्र सम्भव नहीं बन पाता ।

नियोजित अर्थव्यवस्था में मूल्य निर्धारण (Price Determination in Planned Economics):

आटो लीचर ने कहा कि मूल्य रहित अर्थव्यवस्था दीर्घकाल के लिए सम्भव नहीं है तथा इसका शीघ्र ही पतन हो जाएगा । अब समस्या यह है कि समाजवादी समाज में आर्थिक गणना सम्भव है या नहीं ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिस पर समाजवाद का भाग्य निर्भर करता है ।

समाजवादी या नियोजित समाज में आर्थिक गणनाओं की सम्भावनाओं पर जेसनहास, एच॰ डी॰ डिकिन्सन, मोरिस डॉब, एफ॰ एम॰ डर्बिन, ए॰ पी॰ लर्नर एवं आस्कर लागें मुख्य है । इन अर्थशास्त्रियों के अनुसार यदि कोई अर्थव्यवस्था कीमतों एवं लागतों की गणना को क्रमबद्ध रिकार्ड नहीं रखती तो वह एक अविवेकी आर्थिक प्रणाली है ।

आस्कर लांगे के अनुसार समाजवादी अर्थव्यवस्था में भी ठीक उसी प्रकार की कीमत प्रणाली विद्यमान होती है जैसी कि एक अनियोजित अर्थव्यवस्था में शुद्ध मूल्य प्रणाली के प्रयोग में कोई सैद्धान्तिक या तार्किक कठिनाई उत्पन्न नहीं होती । बचत विनियोग एवं उपक्रमों के बारे में सभी महत्वपूर्ण निर्णय केन्द्रीय अधिकारी द्वारा लिए जा सकते है ।

आर्थिक गणनाएँ केन्द्रीय अधिकारी करता है । वह सर्वप्रथम उपभोग होने वाली वस्तुओं की मात्रा व गुणवत्ता को निर्धारित करता है । उत्पादन का कार्यक्रम उपभोक्ता की प्रभुसत्ता द्वारा निदेशित करता है ।

उत्पादन का कार्यक्रम उपभोक्ता की प्रभुसत्ता द्वारा निर्देशित होता है जिसमें व्यक्तिगत उपभोक्ता अपनी इच्छा के अनुसार वस्तु खरीदता है तथा वस्तु के उपभोग से सन्तुष्टि प्राप्त करता है । यह ध्यान रखना आवश्यक है कि नियोजित प्रणाली में उपभोक्ता की सम्प्रभुता का स्वरूप सीमित होता है, क्योंकि नियोजन अधिकारी की सम्प्रभुता भी विद्यमान होती है ।

तकनीकी रूप से मूल्य का सिद्धान्त दो मान्यताओं पर आधारित है:

(1) संसाधनों का दुर्लभ होना (पूर्ति पक्ष), तथा

(2) उपभोक्ताओं को अधिकार के एक क्रम में रखना (माँग पक्ष) ।

आर्थिक निर्णय लेने में इनमें से कोई एक दशा विपरीत रूप से तब प्रभावित नहीं होती जब निजी उपक्रमी के बदले केन्द्रीय अधिकारी के निर्णयों को स्वीकार किया जा रहा हो ।

आस्कर लांगे ने नियोजित अर्थव्यवस्था में मूल्य निर्धारण की सम्भावना व्यक्त की जहाँ व्यक्तिगत उपभोक्ता की इच्छा को ध्यान में रखा जाता । उनके अनुसार नियोजित अर्थव्यवस्था में साक्षी मूल्य लेखा होने चाहिएँ ।

प्रबन्धकों को उत्पादन की निश्चित मात्रा, न्यूनतम उत्पादन लागत एवं तय किये गए मूल्यों के आधार पर आर्थिक निर्णय लेने चाहिएँ । लेखा मूल्यों की गणना करते समय Trail and Error विधि का आधार लिया जा सकता है जिसको केन्द्रीय अधिकारी निश्चित करें ।

डॉ० जसेन्हान्स ने नियोजित अर्थव्यवस्था में मूल्य निर्धारण हेतु गणितीय हल प्रस्तावित किया । उन्होंने कहा कि उपभोक्ता वस्तुओं का मूल्यांकन उत्पादन मन्त्रालय द्वारा किया जाये । नियोजित अर्थव्यवस्था में मूल्य यंत्र की सम्भावना प्रकट करते हुए निर्दिष्ट मूल्य प्रणाली का समर्थन किया’ गया ।

संक्षेप में नियोजित अर्थव्यवस्था में मूल्य का निर्धारण नियंत्रित रहता है जबकि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में मूल्य बाजार में माँग व पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा निर्धारित होता है । नियोजित अर्थव्यवस्था में कीमतों के निर्धारण पर अनार्थिक घटकों का प्रभाव पड़ता है, जबकि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में अनार्थिक घटक प्रभावहीन रहते हैं ।

नियोजित अर्थव्यवस्था में मूल्य यन्त्र की कार्यशीलता पर मैक्स वैबर, लुडविग माइजिज पीयर्सन तथा बोरिस कुटकुज का मत था कि मूल्य यत्न व नियोजित समाजवादी दो विरोधी विचार हैं । स्पष्ट है कि मूल्य यम की प्रणाली नियोजित अर्थव्यवस्था में लागू नहीं हो सकती ।

लुडविग माइजिज के अनुसार समाजवादी अर्थव्यवस्था में मूल्य निर्धारण इस कारण सम्भव नहीं क्योंकि वस्तुओं के मूल्य को मुद्रा के रूप में अभिव्यक्त करना पड़ता है जो समाजवाद के सिद्धान्तों से मेल नहीं खाता ।

नियोजित अर्थव्यवस्था में माँग व पूर्ति की शक्तियों चिन्हित होती हैं, आर्थिक क्रियाओं पर केन्द्रीय सत्ता का कठोर नियन्त्रण होता है । प्रतिस्पर्द्धा के अभाव में उत्पादक व उपभोक्ता के आर्थिक हितों की सुरक्षा नहीं हो पाती । इस कारण नियोजित समाजवाद में मूल्य यन्त्र के स्थान पर प्रतिस्पर्द्धात्मक मूल्य पद्धति तथा अधिकृत मूल्य पद्धति अधिक लोकप्रिय होती है ।

(1) प्रतिस्पर्द्धी मूल्य पद्धति में नियोजन अविकारी द्वारा देश के नागरिकों के व्यक्तिगत हित व प्राथमिकताओं को ध्यान में रखा जाता है ।

(2) अधिकृत मूल्य पद्धति में नियोजन अधिकारी सार्वजनिक अधिमानों को ध्यान में रखता है ।

प्रोत ज्विंग ने स्पष्ट किया कि नियोजन सत्ता को न तो एक पूर्ण रूप से प्रतिस्पर्द्धी कीमत प्रणाली अपनानी चाहिए और न पूर्ण रूप से अधिकृत मूल्य पद्धति । दोनों प्रणालियों का एक विवेकपूर्ण सम्मिश्रण अपनाया जाना अधिक युक्तिसंगत होता है ।

विकासशील देशों में मूल्य नीति (Price Policy in Developing Countries):

विकासशील देशों में मूल्य नीति सामान्यतः दो मुख्य उद्देश्यों से सम्बन्धित रहती है । (1) मूल्य स्थायित्व, एवं (2) आर्थिक विकास । एक उचित मूल्य नीति उत्पादन में वृद्धि को प्रेरणा प्रदान करने में सक्षम होनी चाहिए ।

नियोजित अर्थव्यवस्था में मूल्य नीति के द्वारा उत्पादन के संसाधनों का आबंटन एवं गतिशीलता योजना के लक्ष्य एवं प्राथमिकता के अनुरूप होना चाहिए जिससे विनियोग के स्वरूप व संसाधनों के उपयोग पर दुष्प्रभाव न पड़े ।

चार्ल्स बैटलहीन के अनुसार आर्थिक नियोजन की सफलता के लिए आधारभूत वस्तुओं के मूल्य पर पूर्ण नियन्त्रण होना चाहिए नहीं तो मूल्य यन्त्र की प्रक्रिया द्वारा विनियोग किए गए साधनों व आय का इस प्रकार पुर्नआबंटन होगा कि सम्पूर्ण योजना धराशयी हो जाएगी ।

प्रो॰ वी॰ के॰ आर॰ वी॰ राव के अनुसार आर्थिक विकास में सहायक मूल्य नीति के दो रूप है व्यापक एवं सूक्ष्म । व्यापक रूप से मूल्य नीति मौद्रिक एवं राजकोषीय नीति से सम्बन्धित होती है ।

आर्थिक विकास की प्रक्रिया में वृद्धि की उच्च नियत दर को प्राप्त करने के लिए विनियोग किया जाता है । विनियोग के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाला उत्पादन एक समय अवधि अन्तराल के उपरान्त प्राप्त होता है, लेकिन जनता की मौद्रिक आय में तुरन्त वृद्धि हो जाती है ।

आय में वृद्धि होने पर उपभोग हेतु वस्तुओं की माँग बढ़ती है । वस्तुओं की समुचित आपूर्ति न होने की स्थिति में अर्थव्यवस्था मुद्रा प्रसारिक दबावों का अनुभव करती है । मुद्रा प्रसारिक दबावों के नियन्त्रण हेतु मौद्रिक एवं राजकोषीय नीति का आश्रय लिया जाता है ।

मौद्रिक नीति के अधीन उपयुक्त ब्याज दर नीति एवं चयनात्मक साख नियन्त्रण की विधियों के द्वारा विनियोग प्रवाह एवं आय के सृजन को प्रोत्साहित किया जाना सम्भव है । राजकोषीय नीति मौद्रिक नीति के साथ सयोजित होकर उपयुक्त कर नीति के माध्यम से आय वितरण की विषमताओं को दूर करती है ।

अपने सूक्ष्म रूप में मूल्य नीति का दायित्व यह है कि इसके द्वारा विकास की प्राथमिकताओं के अनुरूप विनियोग को विभिन्न क्षेत्रों में गतिशील किया जाना सम्भव बने ।

डॉ॰ वी॰ के॰ आर॰ वी॰ राव के अनुसार सूक्ष्म पक्ष में मूल्य नीति का उद्देश्य आधारभूत विनियोग वस्तुओं के उत्पादन को अधिकतम करने से सम्बन्धित होना चाहिए जो उपभोक्ता वस्तुओं के अतिरिक्त परिणाम को प्राप्त करने से संगति रखे । इससे विनियोग परिव्यय में होने वाली वृद्धि द्वारा सम्भव उपभोग व्यय में होने वाली वृद्धि का तादात्म्य स्थापित हो सके ।

मूल्य नीति के सिद्धान्त (Theories of Price Policy):

डी॰ वी॰ के॰ आर॰ वी॰ राव के अनुसार मूल्य नीति निम्न सिद्धान्तों पर कार्यशील होती है:

(1) आय एवं उत्पादन वृद्धि में साम्यता:

मूल्य नीति के अधीन प्रथम विचारणीय बिन्दु यह है कि आय व उत्पादन की वृद्धि में साम्यता रहे जिससे कीमतों में वृद्धि की सम्भावना न रहे ।

(2) आय का हस्तान्तरण:

मूल्य नीति के अधीन आय के हस्तान्तरण का मुख्य बिन्दु यह है कि एक वर्ग या क्षेत्र की आय में होने वाली वृद्धि अनिवार्य रूप से दूसरे वर्ग या क्षेत्र की आय में होने वाली कमी के हस्तान्तरण से सम्बन्धित हो जिससे मूल्यों में अनावश्यक वृद्धि न हो ।

(3) बचत एवं विनियोग में साथ:

मूल्य नीति के द्वारा बचत व विनियोग में साम्य स्थापित किया जाना चाहिए । बचत से अधिक विनियोग होने की दशा में मुद्रा-प्रसार उत्पन्न होने का सकट उत्पन्न होता है ।

(4) आवश्यक वस्तुओं के मूल्य का नियन्त्रण:

आवश्यक वस्तुओं के मूल्य में होने वाली वृद्धि से मूल्य बढते हैं तथा लागत प्रेरित स्फीति की दशा उत्पन्न होती है । अतः मूल्य नीति का उद्देश्य आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्य नियन्त्रण से सम्बन्धित होना चाहिए ।

(5) समुचित वितरण एवं मूल्य प्रोत्साहन नीति:

सामान्य रूप से यदि आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति उनकी माँग के अनुरूप समायोजित हो तो मूल्यों में वृद्धि सम्भव नहीं होती । अल्पकाल में प्रायः यह सम्भव नहीं होता कि माँग के अनुरूप पूर्ति का समायोजन किया जा सके । अतः आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों को नियन्त्रित करते हुए वस्तुओं के समुचित वितरण के द्वारा मूल्यों में होने वाली वृद्धि पर अंकुश लगाया जा सकता है ।

(6) बफर स्टॉक:

बफर स्टॉक या प्रतिरोधक भण्डार से आशय उस स्टॉक से है जो प्राथमिक उत्पाद की पूर्ति व उसकी कीमतों में आने वाले उच्चावचन को रोकने के लिए तैयार किया जाता है । प्राथमिक वस्तुओं की कीमतों में तेजी से वृद्धि या कमी इस कारण होती है, क्योंकि कृषि उपज मौसम के परिवर्तनों, प्राकृतिक आपदाओं, फसलों पर लगने वाले रोग इत्यादि से विपरीत रूप से प्रभावित होती है ।

आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि करना अल्पकाल में सम्भव नहीं बन पाता । वस्तु मूल्यों में अन्तर चढाव को नियन्त्रित करने के लिए जब किसी वस्तु की अधिकता होती है, तब उसे सरकार द्वारा भण्डार-ग्रहों में सुरक्षित कर लिया जाता है तथा बाजार में उसकी कमी होने पर मण्डी में ले आया जाता है । बफर स्टॉक के द्वारा अल्पकाल में मूल्य वृद्धि रोकी जा सकती है दीर्घकाल में नहीं ।

स्वतन्त्र मूल्य नीति बनाम नियंत्रित मूल्य नीति:

प्रश्न यह है कि मूल्य नीति के उद्देश्यों को स्वतन्त्र मूल्य नीति के द्वारा प्राप्त किया जा सकेगा अथवा नियंत्रित मूल्य नीति के द्वारा । इसका उत्तर जानने के लिए हमें दोनों मूल्य नीतियों के सन्दर्भ में अर्थव्यवस्था के दो मुख्य उत्पादक क्षेत्रों कृषि एवं उद्योग की गतिविधि को ध्यान में रखना होगा ।

(1) कृषि क्षेत्र:

यह तर्क दिया जाता है कि कृषि क्षेत्र का विकास स्वतन्त्र मूल्य नीति द्वारा सम्भव है ।

इसके पक्ष में निम्न तर्क दिये जाते हैं:

(i) स्वतन्त्र मूल्य नीति का अनुसरण करते हुए कृषि क्षेत्र का विकास सम्भव होता है । कृषकों की आय में होने वाली वृद्धि उनके उपभोग व बचत के स्तर में वृद्धि करेगी । आय की वृद्धि से कृषि पदार्थों की माँग बढ़ेगी । कृषक अपनी बढी हुई आय से समुचित कृषि आदाएँ, खाद, बीज, कीटनाशक का क्रय करेंगे ।

(ii) मूल्यों में होने वाली वृद्धि से कृषक अधिक उत्पादन के लिए प्रोत्साहित होते हैं । वह कृषि के स्वरूप को भी बदलते हैं । नकद फसलों का उत्पादन बढता है ।

दूसरी ओर अनेक अर्थशास्त्रियों का मत है कि स्वतन्त्र मूल्य नीति के द्वारा कृषि वस्तुओं का मूल्य निर्धारण वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि करता है जिससे उपभोक्ता वर्ग को हानि होती है ।

इसके कारण निम्न:

(i) विकासशील देशों में आय का अधिकांश भाग आवश्यक उपभोग की वस्तुओं पर व्यय किया जाता है जिनमें खाद्यान्न मुख्य हैं ।

(ii) उद्योगों के लिए कच्चे संसाधन कृषि क्षेत्र द्वारा ही प्राप्त होते है जिनके मूल्यों में होने वाली वृद्धि मध्यवर्ती व निर्मित वस्तुओं की कीमत पर विपरीत प्रभाव डालती है ।

(iii) यह भी देखा जाता है कि कृषि वस्तुओं के मूल्यों में होने वाली वृद्धि का लाभ बड़े किसानों या कुलक वर्ग तथा बिचौलियों को होता है तथा छोटे सीमान्त कृपकों को बढते मूल्य उनकी जीवन-निर्वाह लागतों में वृद्धि करते हैं ।

(iv) विकासशील देशों के निर्यात का बडा भाग कृषि वस्तुएँ है जिनकी मूल्य वृद्धि से विदेशी विनिमय सीमित मात्रा में ही प्राप्त होता है ।

(v) मूल्यों में होने वाली वृद्धि सट्‌टाजनित क्रियाओं, काला बाजार व अनुत्पादक उपभोग को बढावा देता है ।

(2) औद्योगिक क्षेत-हरी जी॰ जानसन ने अर्द्धविकसित देशों में उद्योग क्षेत्र हेतु नियन्त्रित मूल्य नीति को उचित बताया, लेकिन इन देशों में बाजार के संगठित न होने तथा पूर्ण गतिशीलता व पूर्ण प्रतियोगिता के अभाव के कारण नियन्त्रित मूल्य समाज में भ्रष्टाचार व काले बाजार को प्रोत्साहित करते है ।

स्वतन्त्र औद्योगिक नीति इस कारण अनुपयुक्त। मानी जाती है, क्योंकि उन क्षेत्रों को प्राथमिकता नहीं दी जाती जो सामाजिक कल्याण में वृद्धि करें । अन्तर्संरचना विनियोग केवल सार्वजनिक विनियोग द्वारा ही सम्भव है जिसके लिए नियन्त्रित मूल्य नीति ही अधिक उचित है ।

एल॰ के॰ झा के अनुसार सफल कीमत नीति को दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में तैयार किया जाना चाहिए । जब हम अपनी अर्थव्यवस्था को बाजार शक्तियों की दर पर न छोड़ना चाहें तो हमें अपने उद्देश्यों को नियन्त्रित करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करना चाहिए । एक सुनिर्मित कीमत नीति अल्पकाल में अभाव की स्थिति में उपभोक्ताओं के शोषण को रोकेगी तथा दीर्घकाल में उत्पादन की वृद्धि के लिए उत्पादकों को समुचित प्रोत्साहन प्रदान करेगी ।

दोहरी मूल्य नीति:

दोहरी मूल्य नीति में एक ही वस्तु को भिन्न-भिन्न उपभोक्ताओं को भिन्न कीमतों पर बेचा जाता है ।

इसके तीन रूप सम्भव है:

(I) एक ही वस्तु के मूल्य को विभिन्न बाजारों में अलग-अलग लिया जाना जिससे निर्धन वर्ग को आवश्यक उपभोक्ता वस्तुएँ उचित मूल्य पर प्राप्त हो सकें । इनकी नियन्त्रित मात्रा का वितरण नियत मूल्य की दुकानों के माध्यम से किया जाता है । उत्पाद की बाकी मात्रा को खुले बाजार में प्रचलित मूल्यों पर बेचा जाता है । जैसे-खाद्यान्न, चीनी, कपड़ा आदि ।

(II) एक वस्तु को अलग-अलग ग्रेडों में रखकर भिन्न-भिन्न कीमतें निर्धारित की जाती है । प्रत्येक ग्रेड में मूल्य एवं वस्तु पर लगे कर की दर भिन्न-भिन्न होती है । जैसे रियायती दर पर उपलब्ध कागज ।

(III) एक ही वस्तु का मूल्य विभिन्न वर्ग के उपभोक्ताओं से भिन्न लिया जा सकता है । आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन से सम्बन्धित कच्चे माल को एक तरफ नियन्त्रित कीमत पर बेचा जाता है तो दूसरी ओर अन्य क्षेत्रों में प्रयोग के लिए सापेक्षिक रूप से उच्च कीमत पर; जैसे-इस्पात ।

दोहरी मूल्य नीति के उद्देश्य निम्न हैं:

(1) निर्धन वर्ग को आवश्यक उपभोक्ता वस्तु नियन्त्रित कीमतों पर उपलब्ध करना । धनी वर्ग को यही वस्तुएँ उच्च मूल्यों पर प्राप्त होती है । यह नीति इस प्रकार निर्धन वर्ग हेतु आवश्यक वस्तुओं को उचित कीमतों पर उपलब्ध कराती है । स्पष्ट है कि सरकार के द्वारा एक तरफ न्यूनतम कीमत तय की जाती है तो दूसरी तरफ अधिकतम । वस्तु की समुचित आपूर्ति करने के लिए उत्पादकों को प्रोत्साहन मूल्य प्रदान किये जाते है ।

(2) दोहरी मूल्य नीति के द्वारा उत्पादन के संसाधनों को उन क्षेत्रों की ओर गतिशील किया जाना सम्भव बनता है जो नियोजित विकास की दृष्टि से प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र है । दोहरी मूल्य नीति को सफल बनाने के लिए उपयुक्त प्रशासनिक तन्त्र को विकसित किया जाना आवश्यक है ।