कीमतों में तेजी से वृद्धि के लिए जिम्मेदार कारक | Read this article in Hindi to learn about the three main factors responsible for rapid increase in prices. The factors are:- 1. मांग कर्षण कारक (Demand Pull Factors) 2. पूर्ति कारक (Supply Factors) 3. अन्य कारक (Other Factors).

भारत में मुद्रा स्फीति का नियन्त्रण सरकारी नीति का मुख्य उद्देश्य है । परन्तु इसके बावजूद कीमत रेखा अनियमित चलन प्रदर्शित कर रही है । इसलिये, इसके कारणों का विस्तार में परीक्षण आवश्यक हो जाता है ।

इन पर नीचे चर्चा की गई है:

(1) मांग कर्षण कारक (Demand Pull Factors):

वस्तुओं और सेवाओं की पूर्ति अनुसार उनकी माँग को बढाने के लिये उत्तरदायी मुख्य कारक जो कीमतों को स्फीतिकारी वृद्धि की ओर ले जाते हैं निम्नलिखित हैं:

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i. घाटे की वित्त व्यवस्था (Deficit Financing):

यह एक मुख्य कारक है जो मुद्रा की पूर्ति को बढ़ाता है जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था में स्फीतिकारी प्रवृत्तियां बढ़ती हैं । सरकार ने कराधान तथा आर्थिक विकास के प्रयोजन से बचतों द्वारा पूजी की वांछित राशि को बढ़ाने का उत्साह नहीं दिखाया ।

प्रारम्भिक पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान, किये गये कुल व्यय के अनुपात के रूप में, घाटे की वित्त व्यवस्था बहुत बड़ी होती थी परन्तु इसका अधिकतम आकार सीमित हुआ करता था । प्रथम योजना से लेकर सातवीं योजना तक घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा खर्च की गई राशि लगभग 2000 करोड रुपये थी ।

आठवीं योजना के समय में घाटे की वित्त व्यवस्था का विस्तार 20,000 करोड़ रुपयों तक बढ़ने की सम्भावना थी । बजटो में अत्याधिक घाटों के कारण अर्थव्यवस्था में बहुत सी तरलता का प्रबन्ध करना पडा जिस कारण कीमतों में स्फीतिकारी वृद्धि हुई ।

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ii. मुद्रा पूर्ति में वृद्धि (Increase in Money Supply):

अर्थव्यवस्था में मुद्रा का आधिक्य मुख्य कारक है जो माँग कर्षण स्फीति को जन्म देता है और यह वृद्धि की आवश्यक शर्त है । विकासशील अर्थव्यवस्था की बढ़ती हुई मांग से निपटने के लिये मुद्रा पूर्ति में वृद्धि आवश्यक है । जब तरलता ऐसे दर से बढ़ती है, जो बढ़ते हुये व्यवहारों द्वारा वांछित से तीव्र है तो यह मुद्रा स्फीति की ओर ले जाती है । भारत में मुद्रा की पूर्ति निरन्तर बढ़ रही है ।

iii. काले धन की भूमिका (Role of Black Money):

भारत में समानान्तर अर्थव्यवस्था काले धन द्वारा समर्थित है । इसका प्रयोग प्रायः गैर-उत्पादक गतिविधियों जैसे भू-सम्पत्ति के सौदे तथा सोने की तस्करी, जमाखोरी और विलासतापूर्ण जीवन आदि में किया जाता है । काले धन का अनुमान लगाना बहुत कठिन है (56 लाख करोड़ रु.) जो हाल ही के वर्षों में स्फीतिकारी दबावों के लिये अत्याधिक उत्तरदायी रहा है ।

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iv. जनसंख्या की तीन वृद्धि (Rapid Growth of Population):

वर्ष 1951 से भारत की जनसंख्या निरन्तर बढ़ रही है । यह कुल मांग तथा कीमतों के स्तर को प्रभावित करती है । दूसरी योजना के दौरान थोक कीमतों में वृद्धि निश्चित रूप में जनसंख्या के बढ़ते हुये दबाव और मौद्रिक आय में वृद्धि के कारण थी । जनसंख्या में 13-14 मिलियन लोगों की प्रत्येक वर्ष वृद्धि का अर्थ है खाद्य पदार्थों तथा अन्य सामग्री की मांग में वृद्धि ।

माँग पक्ष और पूर्ति पक्ष के अन्तराल का कारण बढ़ती हुई जनसंख्या है । यह खेद की बात है कि मुद्रा एवं राजकोष दोनों से सम्बन्धित विद्वान या तो जनसंख्या की वृद्धि के प्रभावों की उपेक्षा करते हैं या फिर उनकी ओर गम्भीरता से ध्यान नहीं देते । जनसंख्या को नियन्त्रित किये बिना कीमतों की स्फीतिकारी समस्या का समाधान सम्भव नहीं है ।

v. निवेश का उच्च दर (High Rate Investment):

पिछले वर्षों में सरकार एवं निजी उद्योगपतियों ने देश में औद्योगिक विकास की प्राप्ति के लिये भारी निवेश किया है । इतने बड़े निवेश के परिणामस्वरूप पूजी वस्तुओं तथा उत्पादन के अन्य कारकों में निरन्तर वृद्धि हुई है ।

vi. सरकारी व्यय में वृद्धि (Increase in Govt. Expenditure):

कुछ वर्षों से सरकारी व्यय में सतत् वृद्धि हो रही है । अतः इन वर्षों के दौरान कृषि, उद्योग, बिजली, सिचाई, यातायात, संचार आदि में भारी निवेश किया गया । यह निवेश न केवल सरकार ने बल्कि निजी क्षेत्र ने भी किया जिससे वस्तुओं और सेवाओं की माँग पैदा हुई ।

ऐसी वस्तुओं पर व्यय का उत्पादन काल लम्बा होता है तथा लघु काल में वस्तुओं और सेवाओं की पूर्ति में वृद्धि नहीं होती जिससे मुद्रा स्फीति बढ़ती है । गैर-विकास व्यय में वृद्धि जैसे सुरक्षा, सार्वजनिक ऋण पर ब्याज, प्रशासनिक व्यय, वित्तीय सहायताएं आदि आय और वस्तुओं एवं सेवाओं की माँग को बढ़ाते हैं परन्तु उपभोक्ता वस्तुओं की पूर्ति में वृद्धि नहीं करते जिससे मुद्रा स्फीति में वृद्धि होती है ।

हाल ही का दृश्य (Recent Picture):

दीर्घकाल अवधि से उच्च रहने के बाद, मुद्रास्फीति आखिर में नीचे आई है । 2014-15 में औसत थोक कीमत सूचक मुद्रास्फीति 3.4 प्रतिशत से 2013-14 के दौरान 6 प्रतिशत की औसत पर हो गई है । केन्द्रीय सांख्यिकी आफिस द्वारा जारी उपभोक्ता कीमत मुद्रास्फीति (Base 2012 = 100) जनवरी 2015 में 5.1 प्रतिशत तक कम हुई है जो नई मुद्रा नीति ढांचे के कारण हुई है ।

मुख्य उपभोक्ता समूह की कीमतों का उच्च मुद्रास्फीति के लिए योगदान है जैसे अण्डे, मास और मछली, फल और सब्जियां और ईधन सभी नरम हुए हैं । मुख्य विकास जो जिद्दी मुद्रास्फीति को कम करके हुआ है जिसमें वैश्विक वस्तुओं की कीमतें कम हुई है विशेष तौर पर कच्चे तेल की ग्रामीण मजदूरी की विकास दर में गिरावट, न्यूनतम समर्थित मूल्यों में साधारण वृद्धि आर्थिक क्रिया में धीमी है ।

जैसे-जैसे उच्च खाद्य मुद्रास्फीति ने उन्नत मुद्रास्फीति में योगदान दिया निम्न मुद्रा स्फीति की पर्याप्तता के लिए नीति को कृषि क्षेत्र की लचीलता को बढ़ाने पर होना चाहिए और वर्तमान खाद्य नीति द्वारा बनाए विभिन्न विरूपण और रिसावों को हटाना चाहिए ।

(2) पूर्ति कारक (Supply Factors):

यदि मांग में वृद्धि के अनुकूल वस्तुओं और सेवाओं की पूर्ति में वृद्धि की जा सके तो कीमत स्तर स्थायी होगा । पहली योजना काल के दौरान माँग कर्षक कारक कीमतों पर दबाव डाल रहे थे, परन्तु कृषि वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि इतनी अधिक थी कि कीमतों में कोई वृद्धि नहीं हुई ।

पूर्ति पक्ष में कार्य करने वाले मुख्य तत्व निम्नलिखित हैं:

i. प्रशासित कीमतें (Administered Prices):

बाजार का बड़ा भाग सरकारी कार्यवाही से प्रभावित एवं नियमित है । यह औद्योगिक एवं कृषि दोनों क्षेत्रों में सत्य है । कृषि क्षेत्र में सरकार जीवन की लागत तथा अर्थव्यवस्था के निर्माण क्षेत्र में उत्पादन की लागत दोनों को प्रभावित करती है ।

इसी प्रकार लोहे और इस्पात, कोयले अथवा सीमेट की कीमत में वृद्धि सब ओर कीमतो में वृद्धि की प्रक्रिया आरम्भ कर देगी । अतः जब सरकार द्वारा प्रशासित कीमतों को एक बार बढ़ा दिया जाता है तो अन्य कीमतों को भी बढ़ने का संकेत प्राप्त हो जाता है ।

ii. आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी (Hoarding of Essential Articles):

फसलों की असफलता बड़े किसानों और कृषि उत्पादों के थोक व्यापारियों को जमाखोरी के लिये प्रोत्साहित करती है । वह इन वस्तुओं की कीमतों के बढ़ने की आशा में जमाखोरी करते हैं । भारत में जमाखोरी एक सामान्य दृश्य है जो आर्थिक आयोजन के काल में निरन्तर बना रहा ।

iii. अपर्याप्त कृषि विकास (Inadequate Agricultural Growth):

हमारे देश में कृषि की वृद्धि आवश्यकता से कहीं कम है । फसलों की असफलता या तो सूखे के कारण से होती है या फिर अन्य प्राकृतिक आपदाओं के कारण, जिससे कृषि उत्पादों की पूर्ति में गिरावट आती है । देश में न केवल कृषि का उत्पादन कम हुआ है बल्कि बिक्री योग्य अतिरेक भी कम हुआ है ।

अनेक वर्षों से कृषि के उत्पादन में गिरावट के कारण कृषि उत्पादों की कीमत में बहुत वृद्धि हुई है । कृषि उत्पादन में इतने अधिक उतार-चढ़ाव कृषि वस्तुओं की कीमतों में स्फीतिकारी वृद्धि का एक मुख्य कारक है । 2011 में पाकिस्तान तथा चीन से प्याज आयात किया गया ।

iv. वस्तु करों में वृद्धि (Increase in Commodity Taxes):

प्रत्येक क्रमिक बजट में वस्तु करों में वृद्धि उत्पादों की कीमतों को कर की राशि से अधिक बढ़ा देती है । सरकार एवं सार्वजनिक क्षेत्र दोनों ही देश में कीमत स्तर को बढ़ाने के लिये उत्तरदायी हैं । प्रान्तीय सरकार बिक्री कर, प्रान्तीय सीमा शुल्क एवं चुंगी शुल्क लगाती है जिससे वस्तुओं की कीमत बढ़ जाती है । विभिन्न प्रकार के कर स्फीतिकारी दबावों को बढ़ाने के लिये उत्तरदायी हैं ।

v. तेल के मूल्यों में वृद्धि (Rise in Oil Prices):

विश्व स्तरीय मुद्रा स्फीति तथा 1974, 1979 और 1989 में तेल की कीमतों में वृद्धि के कारण हमारी आगतों की कीमतें बढ़ गई हैं जिससे स्फीतिकारी दबावों को और भी बल मिलता है । बहुत से महत्त्वपूर्ण आयातों की कीमते जैसे पूंजी वस्तुएँ अनाज, रसायन, खाद्य तेल, उर्वरकों आदि की कीमतें 1973 से विश्व बाजारों में बढ़ रही हैं ।

सरकार तेल की कीमतों में बार-बार वृद्धि को मुद्रा स्फीति का मुख्य कारक मानती है । जनवरी 2010 से जनवरी 2011 तक पैट्रोल की कीमत 14 रूपएँ प्रति लीटर बढी । इसी प्रकार वर्ष 2011 में दो बार पैट्रोल की कीमतों में वृद्धि हुई है ।

vi. औद्योगिक उत्पादन की धीमी गति (Sluggish Industrial Production):

हाल ही के वर्षों में औद्योगिक क्षेत्र का निष्पादन बहुत निराशाजनक हो गया है । अतः आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं के क्षेत्र का निष्पादन जिसमें खाद्य पदार्थ, वस्त्र, वस्त्रों का बुनना, जूतों जैसे उद्योग आते हैं बहुत निराशाजनक था । अतः इन वस्तुओं की विस्तृत मांग तथा अपर्याप्त पूर्ति ने इनकी कीमतों को बहुत बढ़ा दिया है ।

vii. संरचनात्मक सुविधाओं का विस्थापन (Dislocation of Infrastructural Facilities):

बिजली और परिवहन जैसी संरचनात्मक सुविधाओं में अत्यधिक विस्थापन है । यह समग्र आर्थिक निष्पादन पर गंभीर प्रतिबंध का कार्य करता है और इसके अभाव से कुचक्र की रचना होती है । बिजली के उत्पादन के लिए कोयले अथवा डीजल की आवश्यकता होती है और उत्पादन में कमी से कीमत बढ़ जाती है । हल ही के वर्षों में, अर्थव्यवस्था की सहायता के लिये संरचना के विकास हेतु तथापि, माँग और पूर्ति के बीच अन्तराल बना प्रभाव रखता है ।

(3) अन्य कारक (Other Factors):

अन्य कारक जैसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली की असफलता, एक तर्कसंगत कीमत नीति के निर्माण में सरकार की अयोग्यता, विस्तृत काला बाजार तथा आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी, कड़ा आयात आदि भी कीमतों की वृद्धि के लिये उत्तरदायी है ।

पुन: 1991 का अवमूल्यन तथा लगातार राजकोषीय घाटा भी वर्ष 1991-92 में कीमतों की स्फीतिकारी वृद्धि के लिये उत्तरदायी हैं । वर्ष 1991-92 में सरकार द्वारा उठाये गये विभिन्न कदमों के परिणामस्वरूप मुद्रा स्फीति की दर सितम्बर 1991 से घटना आरम्भ हो और धीरे-धीरे जनवरी 1993 में 6.8% तक नीचे आ गया ।

परन्तु पुन: कीमतों में बजट से पूर्व वृद्धि के कारण और राजकोषीय घाटे में वृद्धि के कारण, स्फीति का दर मार्च 1994 में 10.2% तथा जनवरी 1995 में 12.2% तक बढ़ गया । अंत में जनवरी 2007 तक यह 6.11 प्रतिशत तक नीचे आ गया । फिर जनवरी 2011 के मध्य में यह बढ़ कर 9 प्रतिशत हो गया ।

संक्षेप में, भारत में मुद्रा स्फीति मांग कर्षण तथा लागत धकेल प्रकार की है । विभिन्न स्थितियों में एक कारक स्थायी बन जाता है, परन्तु मांग-पूति असंतुलन का समग्र चित्र सदा बना रहता है ।