नई आर्थिक नीति: अर्थ और चरण | Read this article in Hindi to learn about:- 1. नई आर्थिक नीति का परिचय (Introduction to New Economic Policy) 2. नई आर्थिक नीति का अर्थ (Meaning of New Economic Policy) 3. सोपान (Phases) 4. पक्ष में तर्क (Arguments in Favour) 5. विपक्ष में तर्क (Arguments against).

नई आर्थिक नीति का परिचय (Introduction to New Economic Policy):

स्वतन्त्रता की प्राप्ति के बाद यह अनुभव किया जाने लगा कि स्वचालित वृद्धि और स्व-उत्पादक अर्थव्यवस्था की कुछ ही दशकों में प्राप्ति के लिये, जिसकी प्राप्ति अन्य देशों ने सदियों में की है, आर्थिक विकास की युक्ति का निर्माण अनिवार्य है । इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये हमारे देश में बड़े स्तर पर औद्योगीकरण का युग आरम्भ हुआ है जिसकी सहायता के लिये उचित तकनीक, योजनाबन्दी की मुक्ति, समाज-आर्थिक नीति तथा विकास कार्यक्रम आरम्भ किये गये ।

अतः सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को महत्वपूर्ण समझा गया । व्यापार की उदार नीति को तिलाम्बली देते हुये भारत ने सार्वजनिक क्षेत्र, मिश्रित अर्थव्यवस्था तथा समाज के समाजवादी ढंग को सभी आर्थिक बुराइयों के लिये राम बाण माना गया । साथ ही अर्थव्यवस्था के पुन: निर्माण के उद्देश्य को लेकर आर्थिक योजनाबन्दी आरम्भ की गई ।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि आर्थिक योजनाबन्दी के पांच दशकों ने सफलता एवं असफलताओं का मिश्रित रूप देखा है । यह महसूस किया गया कि कई क्षेत्रों में बड़ी उन्नति के बावजूद सार्वजनिक क्षेत्र के विकास के दृश्य में सब कुछ ठीक नहीं था । निजी क्षेत्र के कार्यक्षेत्र में नियन्त्रणों का आधिक्य था ।

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आयातों के लिये वित्त उपलब्ध करवाने के लिये विदेशी विनिमय के भण्डारों की स्थिति भी अच्छी नहीं थी । गैर-निवासी खाते वापिस लिये जा रह थे तथा नई ऋण सुविधाएं उपलब्ध नहीं थी । औद्योगिक वृद्धि अवनतिशील हो गई थी तथा मुद्रा स्फीति भयंकर रूप धारण कर रही थी ।

पहली चोट यू.एस.एस.आर. (U.S.S.R.) पर हुई । समाजवाद की खुशफहमी ‘मुक्त बाजार’ अर्थव्यवस्था के पक्ष में परिवर्तित हो रही थी । इस प्रकार बहुत से तथ्यों को ध्यान में रखते हुये, जैसे भुगतानों के शेष में घाटा, विनिमय दरों में बहुत गिरावट, घाटे की वित्त व्यवस्था में निरन्तर वृद्धि, तीव्रता से बढ़ती हुई स्फीतिकारी प्रवृत्ति तथा विस्तृत राजनैतिक अस्थिरता ने सबको नये आर्थिक सुधारों की नीति के निर्माण के लिये प्रेरित किया ।

अर्थव्यवस्था को संकटो की पकड़ से मुक्त करने तथा इसे तीव्र विकास के मार्ग पर लाने के लिये भारत सरकार ने अपने विदेशी निवेश, व्यापार, विनिमय दर, उद्योग और राजकोषीय मामलों आदि से सम्बन्धित नीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये । विभिन्न तत्त्वों को संयुक्त रूप में लिया जाये तो एक ऐसी आर्थिक नीति का निर्माण होता है जो पहली नीति को अलविदा कहती है ।

जुलाई 1991 से जब रुपये का अवमूल्यन किया गया, तो भारत सरकार ने ‘नये आर्थिक सुधारों’ के रूप में अनेक नई नीतियां घोषित की हैं । यद्यपि यह आर्थिक सुधार अर्थव्यवस्था के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित है तो भी यह सभी अर्थव्यवस्था की समृद्धि की सांझी भावना रखते हैं ।

नई आर्थिक नीति का अर्थ (Meaning of New Economic Policy):

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सी. रंगाराजन (C. Rangarajan) के अनुसार, ‘नई आर्थिक नीति’ में वर्ष 1991 से आरम्भ किये गये विभिन्न नीति सम्बन्धी उपाय तथा परिवर्तन सम्मिलित हैं । इन सब उपायों की एक ही भावना है । उद्देश्य सरल है तथा वह नियन्त्रणों की बहुसंख्या की संलिप्तता वाले यन्त्रवाद की कार्यकुशलता को सुधारना, बिखरी हुई क्षमता और घटी हुई प्रतियोगिता को निजी क्षेत्र में सुधारना है ।

नई आर्थिक नीति ने अर्थव्यवस्था में अधिक प्रतियोगिता पूर्ण वातावरण लाने का प्रयत्न किया जिससे व्यवस्था की उत्पादिकता तथा कार्यकुशलता में सुधार हो । अतः नई आर्थिक नीति के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये, औद्योगिक नीति, व्यापार नीति, राजकोषीय नीति एवं मौद्रिक नीति में महत्वपूर्ण सुधार किये गये ।

आर्थिक सुधारों के सोपान (Phases of Economic Reforms):

(i) पहली स्थिति (First Phase) (1985-90):

निजीकरण की प्रक्रिया श्री मोरार जी देसाई की सरकार के कल में आरम्भ हुई तथा श्रीमती इन्दिरा गांधी की सरकार के काल में आरम्भ हुई तथा श्रीमती इन्दिरा गांधी की सरकार तक चलती रही । परन्तु श्री राजीव गांधी के शासन काल में इस प्रक्रिया ने जोर पकड़ा ।

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श्री राजीव गांधी ने सरकार की आर्थिक नीति में नई प्रवृत्तियों की रूपरेखा तैयार की । उसने सुझाव दिया कि उत्पदिकता में सुधार, आधुनिक तकनीकों का समावेशन और क्षमता का पूर्ण उपयोग को आवश्यक रूप में राष्ट्रीय अभियान का पद प्राप्त होना चाहिये ।

नई आर्थिक नीति ने अधिक बल निजी क्षेत्र की भूमिका को दिया । श्री राजीव गांधी ने स्पष्ट रूप में कहा, ”सार्वजनिक क्षेत्र बहुत सी दिशाओं में फैल गया है जहां इसे नहीं भी फैलना चाहिये था….हम अपने सार्वजनिक क्षेत्र का विकास वही कार्य करने के लिये करेंगे जो कार्य निजी क्षेत्र करने में असफल हैं । परन्तु हम निजी क्षेत्र को अधिक विस्तृत करना चाहेंगे ताकि इसके विस्तार से अर्थव्यवस्था अधिक स्वतन्त्रता से प्रगति प्राप्त कर सके ।”

निजी क्षेत्र को अधिक प्रोत्साहित करने के लिये नीति में बहुत से परिवर्तन किये गये जोकि अग्रलिखित मामलों से सम्बन्धित है- औद्योगिक लाइसैन्स, निर्यात-आयात नीति, तकनीकी उन्नति, राजकोषीय नीति, विदेशी शेयरों की पूंजी, नियन्त्रणों तथा प्रतिबन्धों की समाप्ति, राजकोषीय और प्रशासनिक नियमनीकरण की प्रणाली को तर्कसंगत बनाना तथा सरल करना ।

ये सब परिवर्तन निजी क्षेत्र के वीरान वातावरण की ओर लक्षित थे ताकि निजी क्षेत्र में निवेश की बड़े स्तर पर वृद्धि हो जिससे अर्थव्यवस्था का आधुनिकीकरण हो तथा यह तीव्र वृद्धि की ओर अग्रसर हो ।

के.एन. राज (K.N. Raj) ने आर्थिक नीति के लक्ष्य को ठीक ही इस प्रकार संक्षिप्त किया है, ”यद्यपि इस सम्बन्ध में सामान्य सहमति है कि इन नीति परिवर्तनों का एक विशेष लक्षण था कि ब्याज दरों को बड़ा कर मौद्रिक नीति को कड़ा किया गया, रुपये के विनिमय दर को 22 प्रतिशत द्वारा समन्वय किया गया तथा व्यापार नीति के बड़े सरलीकरण एवं उदारीकरण की घोषणा की गई ।”

”अधिक बल औद्योगिक उत्पादन की कार्यकुशलता और अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता को बढ़ाने पर होगा ताकि विदेशी निवेश एवं तकनीक का पहले से बहुत अधिक मात्रा में प्रयोग हो जिससे सार्वजनिक क्षेत्र में निष्पादन का सुधार हो तथा इसकी सम्भावनाएं तर्क संगत बनें, वित्तीय क्षेत्र का सुधार और आधुनिकी करण होता कि यह अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं की पूर्ति अधिक कुशलता से कर सके ।”

तदानुसार, नई आर्थिक नीति ने लाइसैन्स जारी करने में अनावश्यक प्रतिबन्धों के विलोपन एवं एम.आर.टी.पी. कम्पनियों को औद्योगिक लाइसैन्स न देने की ओर ध्यान केन्द्रित किया । इसे उत्पादन का समन्वयन प्रशासित मूल्यों के साथ करने का प्रयास करना चाहिये ।

भारत ने निम्नलिखित ढंग से कई उपाय आरम्भ किये:

1. सीमेन्ट (Cement):

सीमेन्ट को पूर्णतया नियन्त्रण रहित कर दिया गया और बहुत सी निजी इकाइयों को अतिरिक्त लाइसैंस प्राप्त क्षमताएँ दी गईं ।

2. चीनी (Sugar):

खुले बाजार में चीनी की मुक्त बिक्री का भाग बढ़ा दिया गया ।

3. सम्पत्ति की सीमा (Asset Limit):

बड़े व्यापारिक घरानों की सम्पत्ति की सीमा 20 करोड़ रुपयों से बढ़ा कर 100 करोड़ रुपये कर दी गई ।

4. ब्राड बैडिंग (Broad-Banding):

द्वि-पहिया वाहनों के उत्पादन में विविधता लाने के लिये लाइसैंस पत्रों के ब्राड बैंडिग की योजना आरम्भ की गई । इसका पुन: उद्योगों की 25 अन्य श्रेणियों तक विस्तार कर दिया गया जैसे चार पहिया वाहन ।

5. औषध (Drug):

94 औषधियों को पूर्णतया लाइसैंस मुक्त कर दिया गया । इसके अतिरिक्त 27 उद्योगों को एम.आर.टी.पी. अधिनियम के अधिकार क्षेत्र से बाहर कर दिया गया ।

6. वस्त्र (Textiles):

वर्ष 1985 की नई वस्त्र नीति के आरम्भण से मिल, पावरलूम और हैण्डलूम क्षेत्र में भेद समाप्त हो गया तथा लाइसैंस कार्यों के लिये प्राकृतिक एवं कृत्रिम रेशे में अन्तर समाप्त हो गया ।

7. विद्युत-सामग्री (Electronics):

विद्युत सामग्री के उद्योग को एम.आर.टी.पी. अधिनियम से मुक्त कर दिया गया, इन क्षेत्रों में फेरा (FERA) कम्पनियों के प्रवेश को उदार कर दिया गया ।

8. विदेशी व्यापार (Foreign Trade):

निर्यात आयात नीति की घोषणा वर्ष 1985 में, आयातों को सरल एवं तीव्र बनाने के लिये, निर्यात उत्पादन आधार के दृढ़ीकरण और तकनीकी प्रगति को सुविधाजनक बनाने के लिये की गई ।

9. दीर्घकालीन राजकोषीय नीति की घोषणा वर्ष 1985 में सातवीं योजना के ठीक ढंग से कार्यान्वयन के लिये की गई ।

(ii) दूसरी स्थिति (Second Phase) (वर्ष 1990 के पश्चात):

आर्थिक सुधारों की पहली स्थिति से आशानुसार परिणाम प्राप्त नहीं हो सके । व्यापार खाते के सन्तुलन में घाटा थोड़ा सा बढ़ा तथा इस प्रकार छठी योजना में व्यापार के सन्तुलन में औसत घाटा 5,935 करोड़ रुपये था जो सातवीं योजना के दौरान 10,841 करोड़ रुपयों तक बढ़ गया ।

अदृश्य खातों में प्राप्तियां पर्याप्त दर से कम हो गईं । इस प्रकार देश भुगतानों के सन्तुलन के गम्भीर सकट में फंस गया । इस समस्या के समाधान के लिये भारत सरकार ने विश्व बैंक एवं आई.एम.एफ. को 87 बिलियन रुपयों के ऋण की सुविधा उपलब्ध करवाने के लिये सम्पर्क किया ।

आई.एम.एफ. ऋण की सुविधा उपलब्ध करवाने के लिए मान गया परन्तु उसने इच्छा प्रकट की कि भारत को चाहिये कि अपनी अर्थव्यवस्था को ठीक रास्ते पर लाये । डॉ. मनमोहन ने आई.एम.एफ के निर्देशक के सामने अपनी वचनबद्धता प्रकट की कि भारत सरकार नीति उपायों के साथ कुछ समष्टि-आर्थिक लक्ष्यों की व्यवस्था करेगी जो अर्थव्यवस्था की संरचना में समन्वयन लायेंगे ।

वर्ष 1991 से नरसिम्हा राव सरकार ने अर्थव्यवस्था ठीक रास्ते पर लाने के लिये अनेक कदम उठाये । इन उपायों में सम्मिलित हैं- ब्याज दर बढाकर मौद्रिक नीति का संकुचन करना, रुपये के विनिमय दर को 22 प्रतिशत से समन्वयन करना, विदेशी व्यापार नीति का उदारीकरण एवं सरलीकरण, राजकोषाय घाटे को कम करना और नीति में अन्य सुधार लाना जोकि देश की आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया में गतिशीलता के नये तत्त्व को लाने के लिये आवश्यक है ।

तत्कालीन वित्त मन्त्री मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) ने कहा कि ”कार्य कुशलता को बढ़ाने तथा ओद्योगिक उत्पादन में अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता बढ़ाने पर जोर दिया जायेगा ताकि विदेशी निवेश और विदेशी तकनीक का प्रयोग अधिक से अधिक हो सके, निष्पादन को सुधारने के लिये और सार्वजनिक क्षेत्र को तर्क संगत बनाया जा सके और वित्तीय क्षेत्र का सुधार और आधुनिकीकरण किया जाये ताकि अधिक कुशलता से अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं को पूरा कर सकें ।”

समष्टि-आर्थिक उद्देश्य (Policy Measures of Second Phase):

भारत में आर्थिक सुधारों (दूसरी स्थिति) के मुख्य समष्टि-आर्थिक लक्ष्य निम्नलिखित हैं:

(क) वर्ष 1991-92 में 3 प्रतिशत से 35 प्रतिशत के बीच तथा वर्ष 1992-93 में 4 प्रतिशत आर्थिक वृद्धि की दर प्राप्त करना,

(ख) मुद्रा स्फीति की दर वर्ष 1991-92 में 9 प्रतिशत तक तथा वर्ष 1992-93 में 6 प्रतिशत तक घटाना,

(ग) भुगतान के सन्तुलन की गम्भीर स्थिति को सुधार कर वर्ष 1991-92 में विदेशी विनिमय के भण्डार को $ 2.2 बिलियन तक ले जाना,

(घ) वर्ष 1990-91 के बजट में चालू खाते के घाटे को कुल घरेलू उत्पाद के 2.5 प्रतिशत तक कम करना और वर्ष 1992-93 तक 20 प्रतिशत तक घटाना ।

 

नये आर्थिक सुधारों के पक्ष में तर्क (Arguments in Favour of New Economic Reforms):

वर्ष 1991 से भारत सरकार ने देश में नये आर्थिक सुधार आरम्भ किये ।

इन सुधारों के पक्ष में दिये गये तर्क निम्नलिखित थे:

(i) नये आर्थिक सुधार 8 प्रतिशत का इच्छित वृद्धि दर प्राप्त करने में सहायक होंगे जोकि अन्य एशियन देशों जैसे मलेशिया, हांगकांग, सिंगापुर और दक्षिण कोरिया आदि के वृद्धि दरों के समान है ।

(ii) नये आर्थिक सुधार अपने औद्योगिक क्षेत्र में बढ़ती हुई प्रतियोगिता की प्राप्ति में सहायक होंगे ।

(iii) आय एवं धन के समान वितरण तथा निर्धनता की सीमा कम करने में सहायक होंगे ।

(iv) नये आर्थिक सुधार सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की कार्यकुशलता एवं लाभप्रदता को बढ़ाने का लक्ष्य रखते हैं ।

(v) यह महत्वपूर्ण क्षेत्रों में निवेश के संवर्धन में सहायक होंगे ।

(vi) यह देश के पिछड़े इलाकों में लघुस्तरीय उद्योगों के विकास को बढ़ाने में सहायक होंगे ।

(vii) यह देश में सीधे विदेशी निवेश को आकर्षित करने में लाभदायक सिद्ध होंगे ।

(viii) नये आर्थिक सुधार भुगतानों के सन्तुलन में बढ़ते हुये असन्तुलन को ठीक करने में सहायक होंगे । इसके अतिरिक्त यह निर्यात को बढ़ाने एवं आयात को हतोत्साहित करने के लिये भी लाभदायक है जिससे विदेशी विनिमय के भण्डारों में वृद्धि होगी ।

(ix) नई आर्थिक नीति का प्रयोग घाटे की अर्थव्यवस्था पर नियन्त्रण करके स्फीति कारक प्रवृत्तियों को रोकेगी । सार्वजनिक व्यय को नियन्त्रित करके उत्तम पूर्ति प्रबन्ध उपलब्ध करायेगी ।

(x) यह नीति अर्थव्यवस्था में त्रुटि पूर्ण समन्वयन को सुधारने के लिये प्रयोग की जा सकती है ।

(xi) नई आर्थिक नीति बजट में राजकोषीय घाटे को रोकने के कई उपाय रखती है ।

नये आर्थिक सुधारों के विपक्ष में तर्क (Arguments against New Economic Reforms):

नये आर्थिक सुधारों में बहुत से गुणों के बावजूद इनके विरुद्ध भी कुछ तर्क दिये गये हैं जोकि नीचे वर्णन किये गये हैं:

(i) नये आर्थिक सुधारों ने कृषि क्षेत्र की अवहेलना की है ।

(ii) नये आर्थिक सुधारों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं जैसे आई.एम.एफ. और विश्व बैंक के हवाले कर दिया है ।

(iii) नये आर्थिक सुधारों ने विदेशी तकनीक पर निर्भरता बढ़ा दी है तथा घरेलू तकनीकों को विकसित करने में असफल रहे हैं ।

(iv) नये आर्थिक सुधारों ने विदेशी सहायता तथा निवेश पर निर्भरता बढ़ा दी है । इससे बाहरी ऋण बहुत बढ़ जायेगा ।

(v) इस नीति से देश की प्रभुसत्ता बिक सकती है । इससे भारतीय कम्पनियों के सभी शेयर विदेशी निवेशकों के पास बिक जायेंगे ।

(vi) नये आर्थिक सुधारों से बेरोजगारी की समस्या बहुत बढ़ जायेगी क्योंकि बड़े उद्योगों से श्रमिकों की छंटनी होगी । इसके अतिरिक्त, नई आर्थिक नीति देश में रोजगार वैकल्पिक अवसरों की व्यवस्था नहीं करती ।

(vii) नये आर्थिक सुधार सार्वजनिक उद्यमों के निजीकरण पर बहुत बल देते हैं ।

(viii) नये आर्थिक सुधार उपभोक्तावाद की खतरनाक प्रवृत्ति उत्पन्न करते हैं ।

इसके परिणामस्वरूप विलासतापूर्ण वस्तुओं के उत्पादन एवं संभ्रान्त वर्ग के उपयोग की वस्तुओं के उत्पादन को उत्साह मिलता है ।

(ix) यह अनुभव किया जाता है कि नई आर्थिक नीति मूल्यों की बढ़ती प्रवृत्ति को रोकने में असमर्थ रहेगी, राजकोषीय घाटे को कम करने, वित्तीय सहायताओं के नियन्त्रण तथा अन्य बुराइयों को रोकने में भी सफल नहीं होगी ।