आर्थिक विकास के लिए संस्थागत संरचना में परिवर्तन की आवश्यकता है | Read this article in Hindi to learn about the need for change in institutional structure.

उपरोक्त परिचर्चा के आधार पर कहा जा सकता है कि सामाजिक संस्थाएं किसी देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । उसी समय, हमने देखा है कि अल्प विकसित देशों में कुछ सामाजिक संस्थाएं हैं जो आर्थिक विकास के मार्ग में बाधा डालती हैं ।

अत: इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि आर्थिक विकास के संवर्धन के लिये इन संस्थाओं में मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता है । मायर और बाल्डविन (Meier and Baldwin) ने भी संस्थानिक संरचना के परिवर्तन पर बल दिया है । उन्होंने कहा कि- ”वर्तमान सामाजिक ढांचे के भीतर पर्याप्त तीव्रतापूर्वक आर्थिक विकास नहीं हुआ है । यदि राष्ट्रीय आय को तीव्रतापूर्वक बढ़ाना है तो नई आवश्यकताओं, नई प्रेरणाओं, उत्पादन के नये मार्गों और नई संस्थाओं की रचना की आवश्यकता होगी ।”

परम्परागत कृषि क्षेत्र से आधुनिक अर्थव्यवस्था में बदलाव के लिये समाज की विद्यमान व्यवस्था में तीव्र परिवर्तनों की आवश्यकता है । सामान्य लोगों की सामाजिक अभिवृत्तियों और प्रेरणाओं के परिवर्तन की आवश्यकता है ।

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संयुक्त राष्ट्र संघ ने सत्य ही कहा है- “एक विवेक अनुसार पीड़ादायक समंजन के बिना तीव्र आर्थिक विकास असम्भव है, पुरातन तत्व ज्ञान को त्यागना होगा, प्राचीन संस्थाओं का खण्डन और जाति-प्रजाति के बन्धन से मुक्ति प्राप्त करनी होगी तथा लोगों की बड़ी संख्या जो प्रगति के साथ नहीं चल पाती उन्हें आरामदायक जीवन की आशा से हाथ धोना पड़ेगा ।”

सामाजिक संरचना में परिवर्तन लाना बहुत कठिन कार्य तथा दीर्घकालिक प्रक्रिया है क्योंकि समाज में ऐसे किसी प्रयास के विरुद्ध प्रतिक्रिया होगी । सामाजिक-आर्थिक ढांचे में कोई भी आकस्मिक परिवर्तन के गम्भीर परिणाम होंगे । वे लोग सदा इसका विरोध करते हैं जिनकी स्थिति पर इनका विपरीत प्रभाव पड़ता है ।

इस सम्बन्ध में गन्नार मायरडल (Gunnar Myrdal) ने सत्य ही कहा है- “आर्थिक नीतियों का निष्पादन निश्चित रूप में सामाजिक नीतियों की तुलना में सरल है क्योंकि सामाजिक नीतियां निहित स्वार्थों को चुनौती देती है, गहरी अन्तर्बाधाओं का उल्लंघन करती है, मान्य परम्पराओं और विश्वासों का विरोध करती है और सामाजिक सक्रियता के भारी बोझ के विरुद्ध कार्य करती हैं ।”

इसलिये सामाजिक-आर्थिक ढांचे में किसी परिवर्तन के लिये धीमी गति की प्रक्रिया की आवश्यकता है । इससे यह भाव नहीं कि समाज में कोई भी सामाजिक परिवर्तन नहीं होना चाहिये । वास्तव में संस्थानिक परिवर्तन तीव्र आर्थिक विकास की पूर्वापेक्षा है ।

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एक प्रकार से सभी संलिप्त विरोधों और बलिदानों को विकास प्रक्रिया की लागत समझना चाहिये । ओक्म और रिचर्डसन (Okum and Richardson) ने अध्ययन किया है कि नैतिक मूल्य और संस्थाएं, जो अधिकांश अल्प विकसित देशों में विद्यमान है, आर्थिक विकास के मार्ग में बाधा बनती हैं ।

एक पीड़ादायक प्रक्रिया के पश्चात् उनका बदलाव अथवा विलोपन, एक ‘सामाजिक लागत’ का निर्माण करता है जिसे किसी देश को विकास की कीमत के एक भाग के रूप में अवश्य सहन करना पड़ेगा ।

इसी प्रकार, भारत की दूसरी पंचवर्षीय योजना इस तथ्य से सहमत थी तथा उसने स्पष्ट किया कि अल्प विकसित देशों का कार्य केवल आर्थिक गैर सामाजिक संस्थाओं के वर्तमान ढांचे के भीतर बेहतर परिणाम प्राप्त करना ही नहीं बल्कि उनका परिवर्तन और पुन: शोधन भी है ताकि वह विस्तृत तथा गहरे सामाजिक कल्याण में योगदान कर सकें ।

विभिन्न भारतीय संस्थाएं जैसे संयुक्त परिवार प्रणाली, जाति प्रथा, उत्तराधिकार का नियम, धार्मिक प्रवृत्तियां, बाल-विवाह, पर्दे की प्रथा आदि ने देश के आर्थिक विकास को पर्याप्त रूप में प्रभावित किया है । इसने आधुनिक तकनीकी ज्ञान के विकास की तीव्र गति को धीमा किया है ।

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वास्तव में, आधुनिक तकनीकों, विकसित कृषि मशीनों, गुणवत्ता पूर्ण बीजों और रासायनिक खादों का अभी भी सीमित प्रयोग होता है । जाति प्रथा और संयुक्त परिवार प्रणाली ने श्रमिकों की गतिशीलता और दक्षता को प्रभावित किया है । उत्तराधिकार के नियम ने सम्पत्ति का दुरुपयोग और भूमि के उप-विभाजनों के कारण खण्डों में बंट जाने से उत्पादन प्रभावित हुआ है ।

संयुक्त परिवार प्रणाली, बाल विवाह और अनिवार्य बच्चे की प्रथा के कारण जनसंख्या में बहुत तीव्र वृद्धि हुई है जिसके कारण अन्य अनेक समस्याएं उत्पन्न हुई हैं जैसे गृह प्रबन्ध, आहार संकट और बेरोजगारी आदि । इसलिये हम कह सकते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था प्राचीन और कठोर संस्थानिक संरचना के कारण बुरी तरह से प्रभावित हुई है ।

इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता से इन्कार नहीं किया जा सकता । परन्तु यह भी समय की मांग है कि मानवीय असन्तोष को हर हालत में दूर रखा जाये तथा सब परिवर्तनों का कार्यान्वयन इस ढंग से किया जाये कि वर्तमान संस्कृति में कम-से-कम बाधा पड़े ।

अत: सांस्कृतिक परिवर्तन का चयनात्मक होना आवश्यक है और वर्तमान प्रणाली के अधिकतम उपयोग से तीव्र उन्नति होगी न कि सांस्कृतिक एवं संस्थागत व्यवस्था को सीधे ध्वस्त करने से ।

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