पक्षपात और मुद्रास्फीति वित्त के खिलाफ तर्क | Read this article in Hindi to learn about the arguments in favour and against inflationary finance.

स्फीतिकारी वित्त के पक्ष में तर्क (Arguments in Favour of Inflationary Finance):

स्फीतिकारी वित्त को पूंजी निर्माण के उपकरण के रूप में उपयोग करने के पक्ष में एक दृढ़ प्रकरण तैयार किया गया है । इस सम्बन्ध में काल्डोर कहते हैं कि- “मुद्रा स्फीति का एक धीमा और सुस्थिर दर, आर्थिक प्रगति के स्थिर दर की प्राप्ति को अति शक्तिशाली सहायता उपलब्ध करवाता है ।”

स्फीतिकारी वित्त के पक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये गये हैं:

1. पूंजी निर्माण की उत्पत्ति (Generation of Capital Formation):

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स्फीतिकारी वित्त के पक्ष में अति दृढ़ तर्क यह है कि यह अनिवार्य बचतें उत्पन्न करता है जो बदले में पूंजी निर्माण के दर को बढ़ाती है तथा आर्थिक विकास का संवर्धन करती है ।

सबसे पहले यह आय का श्रमिकों और किसानों के बीच पुन: वितरण करता है, दूसरे निवेश पर प्रतिफल की नाममात्र दर बढ़ाता है । इसलिये, स्फीतिकारी वित्त की प्रासंगिकता उद्यमी वर्ग की आय को बढ़ाती है जिनकी बचत की प्रवृत्ति उच्च होती है ।

2. साधनों का उचित उपयोग (Proper Utilization of Resources):

अल्प विकसित देशों में अप्रयुक्त एवं अल्प-प्रयुक्त भौतिक एवं मानवीय साधनों की बहुलता होती है । आर्थिक विकास के संवर्धन के लिये साधनों का सर्वोत्तम प्रयोग स्फीतिकारी वित्त की तकनीकों द्वारा किया जा सकता है । घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा कोई देश अपनी बचत से अधिक निवेश करने की स्थिति में होता है और वित्तीय साधनों की कमी को सरलतापूर्वक रोका जा सकता है ।

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संक्षेप में, आर्थिक विकास के प्रकरण के रूप में घाटे की वित्त व्यवस्था विकास का संवर्धन तीन प्रकार से कर सकती हैं:

(क) अतिरेक आर्थिक साधनों की गतिशीलता के ढंग के रूप में;

(ख) नये साधनों की रचना के ढंग के रूप में तथा

(ग) उत्पादन की पूर्ति बढ़ाने के ढंग के रूप में ।

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इस प्रकार, स्फीतिकारी वित्त अधिक निवेश, उत्पादन और बढ़ती हुई आय की ओर ले जाता है ।

3. गैर-मौद्रिक क्षेत्र के लिये लाभप्रद (Useful for Non-Monetized Sector):

अल्प विकसित देशों के ग्रामीण क्षेत्रों में प्राय: गैर-मौद्रिक क्षेत्र होता है । नियोजित विकास के प्रभाव के अधीन इसका मुद्रीकरण हो जाता है । फलत: मुद्रा की मांग बढ़ती है । वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय मुद्रा के माध्यम से होता है जो कि पहले वस्तुओं के विनिमय से होता था । अत: मुद्रा की इस मांग से निपटने के लिये मुद्रा स्फीति एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है ।

4. आय और सम्पत्ति का न्यायसंगत वितरण (Equitable Distribution of Income and Wealth):

स्फीतिकारी वित्त के पक्ष में एक अन्य बात इस आधार पर है कि यह आय और सम्पत्ति के सर्वाधिक न्यायसंगत वितरण का ढंग है तथा धन जो आर्थिक वृद्धि का संवर्धन करता है, राष्ट्रीय आय जब कार्यशील वर्ग के पक्ष में स्थानान्तरित होगी तो निश्चित रूप में प्रभावपूर्ण मांग को बढ़ायेगी, उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन को उत्साहित करेगी तथा देश में तकनीकी उन्नति को तीव्र करेगी ।

5. विस्तृत निवेश सुविधाएं (Larger Investment Facilities):

स्फीतिकारी वित्त आर्थिक वृद्धि में सहायक होता है, क्योंकि मूल्यों में वृद्धि समग्र उपयोग के स्तर को कम करती है और आय का निवेशकर्त्ता वर्गों के पक्ष में पुन: वितरण करती है । अत: यह बड़ी सीमा तक निवेश को सुविधाजनक बनाती है ।

6. आयात अतिरेक को सम्भालना सरल (Easy to Handle the Import Surplus):

यह तर्क भी प्रस्तुत किया जाता है कि किसी विकसित देश में आयात अतिरेक अधिक विदेशी सहायता के कारण उत्पन्न हो सकता है । इसलिये, घरेलू बाजार में इस अतिरेक से निपटने के लिये अधिक धन की आवश्यकता होती है । दूसरी ओर अल्पविकसित देशों के पास इस चुनौती का सामना करने के लिये पर्याप्त कोष नहीं होता ।

इसलिये घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा अतिरिक्त मुद्रा पूर्ति की रचना कर के आयात अतिरेक से निपटा जाता है । उपरोक्त तर्क दर्शाते हैं कि स्फीतिकारी वित्त हानिकारक नहीं है बल्कि अल्प विकसित देशों में विकास की प्रक्रिया को तीव्र करने के लिये आवश्यक है ।

स्फीतिकारी वित्त के विरोध में तर्क (Arguments against Inflationary Finance):

स्फीतिकारी वित्त द्वारा पूंजी निर्माण की प्रक्रिया की अपनी आशंकाएं हैं । मिल्टन फ्राइडमैन ‘मुद्रा स्फीति द्वारा विकास’ के उच्च आलोचक है ।

“मुद्रा स्फीति अल्प विकसित देशों के लिये विशेष खतरा रखती है । मुद्रा स्फीति, सट्टेबाजी और अनावश्यक व्यापार को प्रोत्साहित करती है जोकि आर्थिक वृद्धि में मुख्य बाधाएं हैं, घरेलू बचतों और विदेशी निवेशों को हतोत्साहित करती है, विदेशी व्यापार सम्बन्धों में बाधा डालती है और उत्पादन की सामान्य दक्षता को नीचा करती है ।” -संयुक्त राष्ट्र अध्ययन

लुइस भी विकासात्मक मुद्रा स्फीति को अन्त में स्व-विनाशकरी मानते हैं । उन्होंने कहा- “लाभदायक पूंजी की रचना के प्रयोजन से मुद्रा स्फीति स्व-विनाशकारी है क्योंकि कभी-न-कभी उसका परिणाम बाजार में वस्तुओं की बढ़ी हुई पूर्ति में होता है ।” -संयुक्त राष्ट्र संघ अध्ययन

स्फीतिकारी वित्त व्यवस्था के विरुद्ध बिन्दुओं को नीचे संक्षिप्त रूप में किया गया है:

1. स्व-विनाशक (Self-Destructive):

मुद्रा-स्फीति के विरुद्ध सबसे बड़ी आलोचना यह है कि मुद्रा-स्फीति की प्रकृति स्व-विनाशक है । अल्प विकसित देशों में, पूरक साधनों के अभाव के कारण उत्पादन में वृद्धि लाना सम्भव नहीं है । इसके अतिरिक्त उत्पादन में बाधाओं के कारण कीमतें बढ़ सकती हैं, परन्तु उत्पादन और रोजगार नहीं बढ़ेगा ।

यह स्थिति गम्भीर जोखिमों से भरपूर है । यह वृत्तांत इस आधार पर स्व-विनाशक है कि यह केन्ज़ के गुणक और उपभोग एवं बचत कि सीमांत प्रवृत्ति की मान्यता पर आधारित है ।

पुन: यह मान्यताएं अल्प विकसित देशों के प्रकरण में सत्य नहीं है क्योंकि ये देश अनेक विघ्नों का सामना कर रहे होते हैं जैसे उपभोग की उच्च प्रवृत्ति, बाजार की अशुद्धताएं, आहार पूर्ति की निम्न लोच, प्लांट और साजो-सामान की कम अतिरेक क्षमता ।

2. पूंजी निर्माण का कोई आश्वासन नहीं (No Guarantee of Capital Formation):

यह तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि मन्द मुद्रा स्फीति आर्थिक वृद्धि का संवर्धन करती है ओर पूजा निर्माण को बढ़ाने में पर्याप्त रूप में सहायक है । परन्तु इस विचार को गम्भीर दी गई है । हाल ही में एक आनुभाविक अध्ययन के अनुसार मुद्रा स्फीति और आर्थिक वृद्धि के बीच कोई सह-सम्बन्ध नहीं है ।

इस सम्बन्ध में यू.एस.ए. काँग्रेस की संयुक्त आर्थिक समिति के स्टाफ का कहना है- ”उत्पादन में परिवर्तन और कीमतों में परिवर्तन के बीच कोई सरल सम्बन्ध नहीं है । तीव्र आर्थिक वृद्धि को भिन्न-भिन्न समयों पर बढ़ती हुई, स्थिर और गिरते हुये कीमत स्तरों से जोड़ा गया है बिल्कुल वैसे जैसे धीमी वृद्धि के समयों अथवा वास्तव में वृद्धि-हीनता को कीमत व्यवहार के प्रत्येक ढंग से सुस्पष्ट किया गया है ।”

अधिकांश लातीनी अमरीकी देश दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात् काल में तीक्ष्ण मुद्रा स्फीति की जकड़ में थे और वृद्धि दर नगण्य दर्ज किया गया था ।

3. विकास के मार्ग में बाधा (Hindrance in the Path of Development):

स्फीतिकारी वित्त की एक अन्य त्रुटि यह है कि यह कीमतों की निरन्तर वृद्धि की ओर ले जाता है और आर्थिक वृद्धि की समग्र प्रक्रिया महत्वहीन रह जाती है । इस स्थिति में विकास की प्रक्रिया रुक जाती है ।

इस सम्बन्ध में वी. के. आर. वी. राव ने कहा है- “जब घाटे की वित्त व्यवस्था स्फीतिकारी वित्त में अपभ्रष्ट होती है, तब यह न तो पूंजी निर्माण का संवर्धन करती है और न ही आर्थिक विकास का ।” इन परिस्थितियों में मुद्रा स्फीति स्वयं निष्फल हो जाती हैं ।

4. स्वैच्छिक बचतों पर विपरीत प्रभाव (Adverse Effect on Voluntary Savings):

कुछ आलोचकों द्वारा स्पष्ट किया गया है कि कीमतों में स्फीतिकारी वृद्धि स्वैच्छिक बचतों पर विपरीत प्रभाव डालती है क्योंकि इसकी अनिवार्य बचतें उत्पन्न करने की क्षमता सीमित है ।

इन परिस्थितियों में लोग अपनी बचतों को मुद्रा के रूप में रखना पसन्द नहीं करेंगे जिसकी कीमत तीव्रता से घट रही होती है । इस प्रकार, स्फीतिकारी वित्त अर्थव्यवस्था में बचतों के दर को तीव्र करने में सफल नहीं है ।

5. विपरीत भुगतानों का सन्तुलन (Adverse Balance of Payments):

कीमतों की स्फीतिकारी प्रवृत्ति भुगतानों के सन्तुलन को असन्तुलन की ओर ले जा सकती है । यह घरेलू बाजार में लागत को बढ़ाती है जिसके निर्यात और विदेशी निवेशों पर विपरीत प्रभाव होते हैं ।

फलत: कोई देश जो विशाल स्फीतिकारी प्रवृत्ति का सामना कर रहा होता है, विदेशी बाजार को खो सकता है । इस प्रकार, अल्प विकसित देशों की भुगतानों के सन्तुलन की समस्याएं स्फीतिकारी वित्त के व्यवहार से और भी तीव्र हो जाती हैं ।

पुन: यह देश मुद्रा स्फीति को दबाने के योग्य होते हैं, जिसे संकटकारी उधार प्राप्ति की आवश्यकता होगी अथवा जब मुद्रा स्फीति संचयी हो जाती है तो देश को अपनी मुद्रा का निरन्तर अवमूल्यन करना पड़ेगा ।

6. उत्पादन की उच्च लागत (High Cost of Production):

स्फीतिकारी वित्त आर्थिक उन्नति की विकास परियोजनाओं की लागत को बढ़ा कर अवरुद्ध कर सकता है । कीमतों में निरन्तर वृद्धि सम्बन्धित सरकार को घाटे की अधिक वित्त व्यवस्था के लिये विवश कर देती है जिस कारण उत्पादन की लागत बढ़ जाती है ।

यह प्रवृत्ति संचयी बन जाती है । यही कारण है कि कहा जाता है कि मुद्रा-स्फीति की मन्द सी खुराक वृद्धि के इंजन का कार्य करती है जबकि उच्च मुद्रा स्फीति आर्थिक वृद्धि की नींव को क्षतिग्रस्त कर सकती है । हाल ही की विश्व स्तरीय मुद्रा स्फीति एक कड़वा अनुभव है ।

7. निर्धन लोगों पर अधिक बोझ (More Burden on the Poor):

स्फीतिकारी वित्त इस आधार पर अन्याय भी है, क्योंकि इसका मुख्य भार समाज के निर्धन वर्ग पर पड़ता है । जिसके परिणामस्वरूप निर्धन लोगों का उपभोग बहुत कम हो जाता है, अत: इस प्रकार पूंजी निर्माण एक दु:खदायी विषय बन जाता है ।

इस सम्बन्ध में हिग्गिनज़ (Higgins) ने कहा है कि यह मध्य वर्ग का विनाश, श्रमिकों की निर्बलता, सट्टेबाजों और काला धंधा करने वालों की समृद्धि तथा सामाजिक संघर्षों को तीव्र करता है ।

8. नियन्त्रण करना कठिन (Difficult to Control):

कुछ आलोचकों द्वारा प्रस्तुत किया गया एक अन्य तर्क यह है कि मुद्रा स्फीति के एक बार आरम्भ हो जाने पर इसे नियन्त्रित करना, विशेषतया अल्प विकसित देशों में, बहुत कठिन हो जाता है ।

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में अदक्ष प्रशासन और सीमित अनुभव आग में तेल का काम करते हैं । प्रक्रिया केवल संचयी ही नहीं बल्कि नियन्त्रण से बाहर हो जाती है क्योंकि निहित स्वार्थ इस स्थितियों को बनाये रखना चाहते हैं ।

इसके पक्ष में और विपक्ष में दिये गये उपरोक्त बिन्दु दर्शाते हैं कि स्फीतिकारी वित्त एक मिश्रित वरदान है । यह कहा जा सकता है कि यह एक अच्छा सेवक परन्तु एक बुरा स्वामी है । जैसे कि कल्पना की जाती है कि स्फीतिकारी, वित्त आय का निवेशकर्त्ताओं के पक्ष में पुनार्बटन करता है तथा पूंजी निर्माण का स्रोत है, उसी समय इसके उचित संभाल की आवश्यकता है ।

इस विषय को स्पष्ट करते हुये रैगनर नर्कस का विश्वास है कि- “पूंजी निर्माण के उपकरण के रूप में मुद्रा स्फीति की सफलता अधिकतया उस मात्रा पर निर्भर करती है जिस तक कीमतों में वृद्धि अप्रत्याशित और असम्भावित है । जब कीमत में और अधिक वृद्धि की प्रत्याशा होती है तथा निश्चित प्रतीत होती है तो मुद्रा के प्रचलन का वेग बढ़ता है, बचत का स्थान अबचत ले लेती है और मुद्रा स्फीति अपनी पूंजी निर्माण की शक्ति खो बैठती है ।”

इसलिये स्फीतिकारी निवेश को आवश्यक बुराई माना गया है, परन्तु विकासशील देशों में यह दिन प्रतिदिन लोकप्रिय हो रहा है ।

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