औद्योगिक विकास की प्रक्रिया | Read this article in Hindi to learn about Chenery’s thesis of industrial development.

हालिस बी॰ चेनरी ने आर्थिक विकास की प्रतिकृति व्याख्या में संरचनात्मक परिवर्तनों की नियामक भूमिका को स्पष्ट किया । परन्तु एक आधारभूत प्रश्न अनुत्तरित है कि औद्योगिक विकास की प्रतिकृति कैसी हो जिसका विभिन्न देश अपनी वृद्धि की प्रक्रियाओं में अपनाएँ । इस का समाधान चेनरी एवं हॉफमैन द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त में मिलता है ।

विकास की प्रक्रिया में कृषि, उद्योग एवं सेवा क्षेत्रों की वृद्धि विभिन्न दरों पर होती है ऐसे में उद्योगों के व्यक्तिगत या सामान्य वर्गों के मध्य एक सामान्य प्रवृति बनी रहने की आशा की जा सकती है ।

ऐसी प्रत्याशा इस तथ्य पर आधारित है कि अर्थव्यवस्था के तीन मुख्य क्षेत्रों द्वारा उत्पादित उत्पादों की माँग की आय लोच भिन्नता लिए होती है । अतः इसी प्रवृति के आधार पर विभिन्न औद्योगिक समूहों के उत्पादों के लिए मांग की आय लोच भी भिन्नता लिए होगी ।

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औद्योगिक वृद्धि की सुव्यवस्थित अनुकृति पर चेनरी का सिद्धान्त उल्लेखनीय है । उन्होंने क्षेत्रीय शेयरों या अंश विभाजन के विभिन्न वृद्धि पथों को निर्दिष्ट करने खे लिए प्रतीपगमन विश्लेषण की सहायता ली । ठीक इसी तकनीक को वृद्धि की प्रक्रिया में औद्योगिक क्षेत्र के अन्तर्गत उद्योगों के विशिष्ट समूहों के व्यवहार को जानने के लिए अपनाया गया ।

चेनरी ने उत्पादन के व्यवहार को न केवल उद्योगों के समूह के सन्दर्भ में समझाया बल्कि व्यक्तिगत उद्योगों के सन्दर्भ में भी व्याख्या की । विशेष रूप से उन्होंने तीन औद्योगिक समूहों (1) आरम्भिक (2) मध्य, (3) बाद वाले उद्योगों में अध्ययन किया ।

(1) आरम्भिक उद्योगों में उन्होंने ऐसे उपक्रमों को शामिल किया जो खाद्य प्रसंस्करण, चमडा व कपड़ा व वस्त्र से सम्बन्धित थे । इस समूह की विशेषता यह है कि इसके उत्पादों की आय लोच न्यून या कम होती है ।

छोटे प्राथमिक वस्तु उत्पादन की ओर अभिमुख देशों द्वारा किए जाने वाले निर्यातों का संकेन्द्रण इसी आरम्भिक उद्योग में होता है । इनका उत्पादन वक्र तेजी से बढ़ता हुआ ऊर्ध्वमुखी प्रवृति लिए होता है ।

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(2) मध्य एवं बाद वाले उद्योगों में चेनरी ने ऐसे उद्योगों को सम्मिलित किया जो औद्योगिक उत्पादन में अपना अधिकतम योगदान देते हैं जब अर्थव्यवस्था अपनी प्रति व्यक्ति आय के सन्दर्भ में ‘मध्य’ व ‘उच्च’ सीमा तक पहुँचती है । इन उद्योगों की व्यवहार अनुकृति उन देशों की प्रकृति पर निर्भर करती है । जहाँ इन्हें स्थापित किया जा रहा है । उदाहरण के लिए लघु प्राथमिक वस्तु उत्पादन करने वाले देशों में संसाधन एवं पैमाने के प्रभाव इन उद्योगों की वृद्धि को बाधा पहुँचाते है । अतः आय के न्यून स्तरों पर इन उद्योगों का सकल राष्ट्रीय उत्पादन में योगदान बहुत कम होता है ।

लेकिन जैसे-जैसे देश में आय का स्तर बढता है इन प्राथमिक उद्योगों में वृद्धि तेजी से होती है । दूसरी ओर, उद्योग उन्मुख छोटे देशों में, संसाधन एवं पैमाने के प्रभाव एक दूसरे को विपरीत दिशाओं में धकेलते है जिससे किसी सीमा तक यह एक दूसरे के प्रभावों को काट देते हैं ।

बड़े देशों की दशा में, मध्य उद्योगों का उत्पादन प्रारम्भ में तेजी के साथ बढता है परन्तु आय के मध्य स्तरों पर यह गिरने की प्रवृत्ति रखता है । यद्यपि आय स्तर की उच्च सीमा में औद्योगिक क्षेत्र की नियमित वृद्धि बाद वाले उद्योगों द्वारा की जा रही बढती हुई माँग पर पृथक् रूप से निर्भर करती है ।

चेनरी की व्याख्या का सार इस तथ्य की पुष्टि करता है कि औद्योगिक क्षेत्र सतत् एवं नियमित रूप से वृद्धि नहीं करता । अर्थव्यवस्था में विकास की प्रक्रिया चलने पर उद्योगों के विभिन्न समुच्चय भिन्न-भिन्न दशाओं का प्रदर्शन करते हैं । ऐसे में उद्योगों के समूह के द्वारा अभियान का नेतृत्व किया जाता है न कि समूचे रूप में लिए गए औद्योगिक क्षेत्र द्वारा ।

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इस प्रकार चेनरी की व्याख्या सन्तुलित बनाम असन्तुलित वृद्धि के विवाद में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है, साथ ही उस महत्वपूर्ण भूमिका का भी जिसे आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण या अनुकरणीय क्षेत्र के द्वारा जाना जाता है ।