पहली और दूसरी पंचवर्षीय योजनाओं की रणनीति | Read this article in Hindi to learn about the strategy of first and second five year plans in India.

विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक विकास की प्राप्ति के लिये, भारत जैसे देश में आयोजन को सभी बुराइयों को दूर करने के लिये रामबाण माना गया है । इसे जादू की वह छड़ी माना जाता है जो सरकार को एक विशेष समय के बीच, मान लो पांच वर्षों में, कल्याणकारी राज्य अथवा एक प्रजातान्त्रिक, समाजवादी तथा धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था प्राप्त करने के चिर-प्रतीक्षित उज्जवल आदर्श की प्राप्ति के योग्य बनाता है ।

निःसन्देह योजना कूटनीति मध्यकालिक योजनाओं के अनुक्रम द्वारा वांछित लक्ष्यों की प्राप्ति का उद्देश्य रखती है । अतः ऐसे कूटनीतिक लक्ष्यों का निर्धारण देश के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक पहलुओं को ध्यान में रखते हुये स्वयं आयोग के आदेश पर आधारित होता है ।

इस का मुख्य कार्य अपने उद्देश्यों के आधार पर अर्थव्यवस्था में प्रकार्यात्मक और संरचनात्मक बदलाव लाना है । इसके लिये एक व्यक्ति को इसके उद्देश्यों, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर, पिछले निष्पादन और सम्भव विकास गतिविधियों से परिचित होना आवश्यक है ।

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इससे व्यवहार करते हुये, भारत में योजना कूटनीति का मूल्यांकन कालक्रमानुसार प्रत्येक योजना के विशेष उद्देश्यों और लक्ष्यों के सन्दर्भ में होगा तथा कांग्रेस पार्टी के लगभग 48 वर्ष के योजना काल तथा जनता पार्टी के दो वर्ष के छोटे से कार्य काल के विकास प्रयत्नों के आकार और परिणाम की ओर संकेत करेगा ।

प्रथम पंचवर्षीय योजना (First Five-Year Plan):

पहली पंचवर्षीय योजना, दीर्घकालिक आयोजन की किसी सुव्यवस्थित कूटनीति पर आधारित नहीं थी, इस का उद्देश्य दूसरे विश्व युद्ध और देश के विभाजन के कारण बुरी तरह से प्रभावित अर्थव्यवस्था को पुन: स्थापित करने के अतिरिक्त कुछ नहीं था ।

योजना की धारणा साधारण होने के बावजूद इसमें कुछ लाभप्रद सुझाव थे जैसे कृषि विकास को प्राथमिकता देना और सामाजिक सेवाओं पर अतिरिक्त व्यय । यह समग्र अर्थव्यवस्था के लिये सरल सामूहिक मॉडल पर आधारित विकास के दीर्घकालिक प्रक्षेपण उपलब्ध करती थी ।

दीर्घकाल में वृद्धि की दर बचत, पूँजी उत्पादन अनुपात तथा जनसंख्या वृद्धि के दर पर निर्भर करता था । स्पष्टतया, राज्य नीति के निदेशात्मक नियमों (संविधान की धारा 36-51) के ढांचे में रहते हुये तथा अप्रैल 1948 के औद्योगिक नीति विवरण में योजना आयोग ने अधिकतम उत्पादन, पूर्ण रोजगार, कम कीमतों और धन की समानता पर बल दिया ।

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प्रथम पंचवर्षीय योजना के अति महत्वपूर्ण उद्देश्य एवं कूटनीति निम्नलिखित अनुसार थे:

1. वर्तमान कार्यक्रमों जिन में शरणार्थियों को पुन: बसाने का कार्यक्रम भी है, पूरा करना ।

2. सामग्री एवं तकनीकी साधनों को विकसित करने के लिये आवश्यक योजनाओं का कार्यान्वयन और रोजगार की प्राप्ति की सम्भावनाओं को विस्तृत करना ।

3. कम विकसित प्रान्तों में विकास के तीव्र दर के लिये पर्याप्त प्रशासनिक एवं सामाजिक सेवाएं उपलब्ध करना ।

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प्रलेख योजना में सार्वजनिक क्षेत्र के लिये 1900 करोड़ रुपयों के वास्तविक व्यय की व्यवस्था की गई । कृषि एवं सिचाई को उच्चतम प्राथमिकता प्राप्त हुई । बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये, आहार में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने हेतु नियोजित निवेश का 31 प्रतिशत भाग निर्धारित किया गया । अगली प्राथमिकता विकास प्रक्रिया में उत्पन्न होने वाली बाधाओं को रोकने के लिये विशेषतया औद्योगिक क्षेत्र में यातायातऔर संचार को दी गई (27 प्रतिशत) ।

पहली योजना के पांच वर्षो के दौरान हैरोड-डोमर प्रकार के विकास मॉडल के प्रयोग का प्रयत्न किया गया जिसने विकास दर को बचत दर से जोड़ने का प्रयत्न किया । सन 1950-51 के दौरान राष्ट्रीय आय लगभग 9000 करोड़ रुपये थी । इसमें निवेश के लिए उपलब्ध बचत केवल 450 करोड़ रुपये थी ।

इसलिये योजना ने राष्ट्रीय उत्पाद को योजना काल के बीच 1000 करोड़ रुपयों से अधिक बढ़ाने का यत्न किया । निवेश को राष्ट्रीय आय के 5 प्रतिशत से लगभग 7 प्रतिशत तक बढ़ाने का निर्णय किया गया । योजना के अन्त तक कुल निवेश का लक्ष्य 3500-3600 करोड़ रुपये रखा गया । प्रथम पंचवर्षीय योजना ने वास्तव में संविधान की व्यवस्थाओं की सैद्धान्तिक शैली निर्धारित की ।

संविधान की धारा 39 ने राज्यों को कहा कि अपनी नीति को अन्य वस्तुओं के साथ निम्नलिखित की प्राप्ति की ओर निर्दिष्ट करें:

1. सभी नागरिकों स्त्रियों और पुरुषों को आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार है ।

2. समाज के सामग्रिक साधनों के स्वामित्व और नियन्त्रण का सर्वोत्तम वितरण सब की भलाई के लिये किया जाये ।

3. आर्थिक प्रणाली के प्रचलन के परिणामस्वरूप धन और उत्पादन के साधनों का प्रयोग सामान्य लोगों के हितों के विपरीत नहीं होना चाहिये ।

वास्तव में, योजना ने संविधान के इन उद्देश्यों को सफलतापूर्वक योजना में सम्मिलित किया ।

दूसरी पंचवर्षीय योजना (Second Five-Year Plan):

नियोजित विकास की ओर मार्ग का वर्णन करते हुये, योजना ने बताया “….किसी अल्पविकसित देश के सामने लक्ष्य केवल विद्यमान आर्थिक एवं सामाजिक संस्थाओं के ढांचे के भीतर बेहतर परिणाम प्राप्त करना ही नहीं, बल्कि उन्हें इस प्रकार ढालना तथा नया रूप देना है ताकि वह विस्तृत एवं गहरे सामाजिक मूल्यों की प्राप्ति में प्रभावी योगदान कर सकें ।”

आधारभूत उद्देश्यों के इन मूल्यों को हाल ही में इस मुहावरे में संक्षिप्त किया गया ”समाज का समाजवादी प्रतिमान ।” अनिवार्यतः इस का अर्थ है प्रगति निर्धारित करने का मानदण्ड निजी लाभ नहीं होना चाहिये बल्कि सामाजिक लाभ और विकास का प्रतिरूप और सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों की संरचना को ऐसे नियोजित किया जाये जिसके परिणामस्वरूप न केवल राष्ट्रीय आय सापेक्षतया और रोजगार में वृद्धि हो बल्कि आय और धन की समानता भी अधिक हो ।

आर्थिक विकास के अधिकांश लाभ सापेक्ष तथा समाज की कम सुविधा-पूर्ण श्रेणियों को प्राप्त हों तथा आय, धन और आर्थिक शक्ति के कुछ ही हाथों में केन्द्रीकरण में क्रमिक कमी आये ।

समस्या ऐसे वातावरण की रचना करने की है, जिसमें एक तुच्छ व्यक्ति जिसे अभी तक व्यवस्थित प्रयत्न द्वारा विकास की प्रबल सम्भावदाओं को अनुभव करने और भाग लेने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ बनाया जाये कि अपने लिये जीवन के उच्च मानक प्राप्त करने हेतु चेष्टा कर सके तथा देश योगदान कर सके ।

दूसरी पंचवर्षीय योजना ने निम्नलिखित मुख्य उद्देश्यों का वर्णन किया:

1. जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिये राष्ट्रीय आय में पर्याप्त वृद्धि ।

2. तीव्र उद्योगिकीकरण के साथ आधार-भूत और भारी उद्योगों के विकास पर अधिक बल ।

3. रोजगार के अवसरों का विस्तार ।

4. आय और धन में असमानताओं को कम करना और आर्थिक शक्ति का समान बंटवारा ।

योजना की आधारभूत रणनीति क्रय शक्ति को बढ़ाना था जिस की प्राप्ति सार्वजनिक क्षेत्र में भारी उद्योगों में निवेश द्वारा और स्वास्थ्य, शिक्षा एवं सामाजिक सेवाओं में व्यय द्वारा की जा सकती थी, और उपभोक्ता वस्तुओं की बढती हुई मांग को ऐसी वस्तुओं की नियोजित पूर्ति द्वारा पूरा करना जिससे कोई अवांछित स्फीतिकारी दबाब न हो । इसके अतिरिक्त दीर्घकालिक उद्देश्यों के संदर्भ में, इस का लक्ष्य भारी उद्योगों के विकास को अधिकतम उत्साहित करना था ।

दीर्घकाल में, औद्योगिकरण एवं राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का विकास कोयले, बिजली, लोहा, इस्पात, भारी मशीनरी, भारी रासायनिक पदार्थों और भारी उद्योगों के बढ़ते हुये उत्पादन पर निर्भर करेगा जिससे पूँजी निर्माण की क्षमता बढ़ेगी ।

एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है- जितनी शीघ्रता से सम्भव हो सके भारत को उत्पादक वस्तुओं के विदेशों से आयात से मुक्त करना है ताकि पूंजी के संचय में, अन्य देशों से आवश्यक उत्पादक वस्तुओं की पूर्ति प्राप्त करने की कठिनाई के कारण, बाधा न पड़े । इसलिये आवश्यक है कि भारी उद्योगों का अधिकतम सम्भव गति से विकास किया जाये ।

सार्वजनिक क्षेत्र में कुल वित्तीय व्यय 4800 करोड़ रुपये था परन्तु इसमें 100 करोड़ रुपयों की राशि जोड़ी गई (कुल व्यय 6750 करोड़ रुपये था) । प्रथम योजना की तुलना में व्यय के वितरण में परिवर्तन थे जो दूसरी योजना में परिवर्तन प्रतिबिम्बित करते हैं ।

पहली योजना काल के दौरान देश की कृषि क्षमता का निर्माण करने हेतु कार्यक्रमों पर बल दिया गया था, जबकि दूसरी योजना में औद्योगिक वस्तुओं पर बल दिया गया जिनमें इस्पात, मशान टूल, सीमेन्ट, भारी रसायन आदि सम्मिलित हैं ।

उद्योग और खनिजों का सापेक्ष भाग 4 से 20 प्रतिशत तक बढ़ गया, सामाजिक सेवाओं तथा फुटकर शीर्षों का मात्र 18% था, यातायात और संचार को दोनों योजनाओं में समान अनुपात प्रात हुई ।

आधारभूत कूटनीति के सम्बन्ध में पी. सी. महलनोबिस ने कहा, भारी उद्योगों पर निवेश बढ़ाना और सेवाओं पर व्यय बढाना, क्रय शक्ति बढ़ाना और दूसरी ओर नई मांग की रचना करना, जहां तक सम्भव हो सके छोटे घरेलू उद्योगों में निवेश और उत्पादन बढ़ा कर उपभोगता वस्तुओं की पूर्ति को बढ़ाना ताकि नई मांग से निपटा जा सके । इस प्रकार की कूटनीति को ऐसे ढंग से अपनाया गया जिससे योजना विस्तृत रोजगार अवसरों की रचना करें, एक दृढ़ पूँजी आधार बनाये तथा देश के भीतर उत्पादक एवं तकनीकी क्षमता को बढ़ाये ।

अतः मुख्य बल राहत, रोजगार अवसरों की किस्म और उन लोगों के लिये आय पर दिया गया जिन्हें रोजगार प्राप्त तो हैं परन्तु शुद्ध उत्पाद में योगदान नहीं कर रहे । संक्षेप में, कुटीर एवं लघु स्तरीय उद्योग रोजगार के अवसरों का निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायें ।

विशेष रूप में महलनोबिस ने कहा कि स्वास्थ्य, शिक्षा, और सामाजिक सेवाओं पर व्यय द्वारा क्रय शक्ति बढ़ाना आधारभूत कूटनीति होगी…. अतः इस प्रकार आयोजन अनिवार्य रूप में निरन्तर बढती हुई माँग को एक निरन्तर बढ़ते हुये उत्पादन के बराबर करने वाली पृष्ठभूमि प्रक्रिया होगी जो स्थिरतापूर्वक विस्तृत होती अर्थव्यवस्था को बढ़ाती है ।

इस प्रकार, मौलिक उद्योगों का विकास भारतीय आयोजन का आवश्यक लक्ष्य बन गया है, निःसन्देह इस के अपने लिये नहीं परन्तु इस लिये कि इसे दीर्घकाल में आर्थिक विकास के उच्च दर की प्राप्ति तथा उसे बनाये रखने के लिये एक पूर्वापेक्षा माना जाता है ।

विवाद (Controversy):

दूसरी योजना के दौरान अपनाई जाने वाली मूलभूत नीति के सम्बन्ध में एक बड़ा विवाद था । पहली योजना से मुख्य परिवर्तन के रूप में यह एक समाजवादी योजना थी जिस कारण से सार्वजनिक क्षेत्र अधिक प्रभुत्वशाली बन गया । इस परिवर्तन को प्रभावित करने के लिये सन 1948 का औद्योगिक नीति प्रस्ताव अप्रैल 1956 में संशोधित किया गया ।

नया प्रस्ताव इस प्रकार था- ”राष्ट्रीय उद्देश्य के रूप में समाज के समाजवादी आदर्श को अपनाना और नियोजित और तीव्र विकास की मांग है कि मूलभूत तथा कूटनीतिक महत्व के सभी उद्योग अथवा लोक उपयोगिता सेवा प्रकृति के उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र में होने चाहिये । अन्य उद्योग जो आवश्यक हैं तथा इतने बड़े स्तर पर निवेश चाहते हैं जिन्हें वर्तमान स्थितियों में केवल राज्य ही उपलब्ध कर सकता है, वह भी सार्वजनिक क्षेत्र में होने चाहिये । अतः राज्य को भविष्य में विस्तृत क्षेत्र में उद्योगों के विकास का स्पष्ट दायित्व लेना होगा” ।

पहली योजना के दौरान भी परिवर्तन के चिन्ह देखे गये थे । अक्तूबर, 1952 में भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान संस्थान में राष्ट्रीय आय, निवेश तथा राष्ट्रीय विकास शीर्ष के अधीन दिये भाषण में महलनोबिस ने भविष्य की विकास नीति सम्बन्धी मुख्य मार्गदर्शकों की ओर संकेत किया । पं. जवाहरलाल नेहरू ने नवम्बर, 1954 में राष्ट्रीय विकास परिषद को सम्बोधित करते हुये कहा कि जो चित्र मेरे मन में है वह निश्चित रूप में एवं पूर्णतया समाज का समाजवादी चित्र है ।

मैं शब्द का प्रयोग मतान्ध भाव में बिल्कुल नहीं कर रहा परन्तु मेरा भाव है कि उत्पादन के साधनों पर समाज का स्वामित्व एवं नियन्त्रण होना चाहिये तभी समग्र समाज को लाभ पहुंच सकता है । निजी उद्यम के लिये पर्याप्त स्थान है बशर्ते कि मुख्य उद्देश्य को स्पष्ट रखा जाये ।

निःसन्देह दूसरी योजना का ढांचा महलनोबिस के मार्गदर्शन के अधीन बनाया गया । उसने सुझाव दिया कि किसी विकासशील देश की विकास प्रक्रिया में भारी मात्रा में पूँजी वस्तुओं का आयात करना होता है ।

भारत जैसे विकासशील देश के लिये बढ़ते हुये आर्यातों के वापसी भुगतान के लिये अपने निर्यातयोग्य अतिरेकों को बढ़ाना सम्भव नहीं होता, आशिक रूप में इस का कारण यह है कि परम्परागत निर्यातों की वस्तुओं के लिये विश्व बाजार ढीला होता है, इसके अतिरिक्त अल्पविकसित देशों की प्रतिकूल व्यापार की शर्तें और कच्ची सामग्री का उत्पादन करने वाले देशों द्वारा मौद्रिक वसूली की अस्थिरता भी इस का कारण है ।

उसने आगे स्पष्ट किया कि आरम्भ में निवेश वस्तुओं का उत्पादन करने वाले उद्योगों में तीव्र विकास करना उचित कूटनीति होगा जबसे मूलभूत भारी उद्योगों में निवेश के अनुपात को बढ़ा कर प्राप्त किया जा सकता है ।

यदि भारी एवं हल्की मशीनरी दोनों और पूँजी वस्तुओं के निर्माण की क्षमता बढती है तो निवेश की क्षमता में भी स्थिरतापूर्वक वद्धि होगी और भारत विदेशी मशीनरी और पूँजी के आयात से अधिक से अधिक मुक्त होता जायेगा ।

महलनोबिस ड़ाफ्ट योजना के समर्थ में, सन् 1958 में पं० जवाहर लाल नेहरू एवं भारतीय कांग्रेस कमेटी (AICC) को सम्बोधित करते हुये कहा, “माकर्स एक प्रसिद्ध नाम है और उसके सिद्धान्तों के प्रयोग से अनेक कार्य किये गये है । परन्तु मार्क्स द्वारा वर्णित अनेक वस्तुएं आज विद्यमान नहीं हैं तथा उसके अनेक पूर्वकथन अशुद्ध प्रमाणित हुये है । मार्क्स ने अत्याधिक समृद्ध अमरीका की कल्पना नहीं की थी । पूँजीवाद ने परिस्थितियों के साथ अनुकूलन करने में आश्चर्यजनक दृढ़ता दिखाई है……..समाजवाद की धारणा पश्चिमी देशों में भी बहुत रही है । इसलिये हम भारतवासियों को अधिक सचेत होना पड़ेगा और स्थितियां हमारे लोगों की मनोस्थिति पर निर्भर करती है ।”

संयोग से, योजना मन्त्र ने, राज्यसभा में तीसरी योजना पर परिचर्चा के लिये प्रस्ताव प्रस्तुत करते हुये कहा, ”एक प्रकार से कृषि बिल्कुल प्राथमिकता देने वाली बात नहीं है । प्राथमिकताओं के आरम्भ होने से पहले कृषि की आवश्यकताओं को पूर्ण रूप से पूरा करना होगा । यही हमारे विकास की सम्पूर्ण नींव है और मैं कह सकता हूं कि हमने कृषि के लिये पर्याप्त व्यवस्था की है ।”

इस पर पुन: बल दिया गया कि, ”अन्य किसी कारक से अधिक, तीसरी योजना की सफलता कृषि के लक्ष्यों कई। पूर्ति पर निर्भर करेगी ।”