एक देश का आर्थिक विकास: 3 कोर मूल्य | Read this article in Hindi to learn about the three core values for economic development of a country. The values are:- 1. जीविका: मौलिक आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता (Sustenance: The Ability to Meet Basic Needs) 2. आत्म सम्मान: व्यक्ति बनना (Self Esteem: To be a Person) 3. पराधीनता से मुक्ति: चयन के योग्य होना (Freedom from Servitude: To be Able to Choose).

जब हम समस्त समाज के सतत उत्थान तथा सामाजिक व्यवस्था के एक बेहतर अथवा अधिक सहृदय जीवन के सम्बन्ध में बात करते हैं तो क्या हमारे भाव को परिभाषित करना सम्भव है?

अच्छा जीवन कैसे बनता है, यह प्रश्न उतना ही प्राचीन है जितना कि दर्शन और ऐसा मानव जाति प्रश्न जिसका समयानुसार मूल्यांकन किया जाये और विश्व समाज के बदलते हुये वातावरण में इसका नया उत्तर दिया जाये । तीसरे विश्व के राष्ट्रों के लिये इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक में इसका उचित उत्तर आवश्यक रूप में वही नहीं होगा जो पिछले दशकों में होता ।

परन्तु हम गाउलेट (Goulet) तथा अन्यों से इस सम्बन्ध में सहमत हैं कि कम-से-कम तीन मौलिक घटक अथवा मुख्य मूल्यों को विकास का आन्तरिक अर्थ समझने के लिये प्रत्ययात्मक आधार और प्रायोगिक मार्गदर्शकों का कार्य करना चाहिये ।

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ये तीन मुख्य मूल्य हैं- जीविका, आत्म-सम्मान और स्वतन्त्रता जो सामान्य लक्ष्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा सभी व्यक्तियों और समाजों द्वारा खोजे जाते हैं । वे लगभग सभी समाजों और संस्कृतियों में सभी समयों पर मौलिक मानवीय आवश्यकताओं से सम्बन्धित हैं ।

आइए, हम इनका बारी-बारी परीक्षण करें:

 

Value # 1.  जीविका: मौलिक आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता (Sustenance: The Ability to Meet Basic Needs):

सब लोगों की कुछ मौलिक आवश्यकताएं होती हैं जिनके बिना जीवन असम्भव होगा । जीवित रहने के लिये इन मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं में आहार, स्वास्थ्य और सुरक्षा सम्मिलित हैं ।

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जब इन तीनों में से कोई भी वस्तु अनुपस्थित होती है अथवा किसी की भी पूर्ति कम होती है, तो “निरपेक्ष अल्प विकास” की स्थिति होती है । इसलिये समस्त आर्थिक गतिविधि का मूलभूत फलन अधिक-से-अधिक जितने लोगों को सम्भव हो सके आहार, आश्रय, स्वास्थ्य और सुरक्षा के अभाव से उत्पन्न होने वाली निराशा और संकट से बचाना है ।

इस सीमा तक, हम दावा कर सकते हैं कि जीवन की गुणवत्ता में सुधार के लिये आर्थिक विकास एक आवश्यक शर्त है । सतत एवं निरन्तर आर्थिक उन्नति के बिना, वैयक्तिक एवं सामाजिक स्तर पर मानवीय क्षमताओं की प्राप्ति सम्भव नहीं होगी ।

स्पष्टतया, किसी व्यक्ति के पास अधिक होने के लिये उसके पास पर्याप्त होना आवश्यक है । इसलिये बढ़ती हुई प्रति व्यक्ति आय, निरपेक्ष निर्धनता का विलोपन, अधिक रोजगार के अवसर, आय असमानताओं को कम करना विकास के लिये आवश्यक शर्तें हैं । परन्तु यह पर्याप्त नहीं हैं ।

Value # 2. आत्म सम्मान: व्यक्ति बनना (Self Esteem: To be a Person):

अच्छे जीवन का दूसरा सार्वभौम घटक आत्म-सम्मान है- मूल्यवान होने और आत्म-सम्मान की भावना, ताकि लोग आप को अपने हितों के लिये एक उपकरण के रूप में प्रयोग न कर सकें ।

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सभी लोग एवं समाज आत्म सम्मान का कोई आधारभूत रूप खोजते हैं, जिसे वे वास्तविकता, पहचान, गौरव, सम्मान, इज्जत अथवा मान्यता का नाम दे सकते हैं । इस आत्म-सम्मान की प्रकृति और रूप एक समाज स दूसरे समाज और एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में भिन्न-भिन्न हो सकता है ।

तथापि विकसित राष्ट्रों के पास आधुनिकीकरण के मूल्यों की प्रचुरता, तीसरे विश्व के देशों में अनेक समाज, जिनमें अपने मूल्य के सम्बन्ध में सुदृढ़ भावना होती है वह गम्भीर सांस्कृतिक अस्पष्टता से दुःखी होते हैं जब वे आर्थिक और प्रौद्योगिक रूप में उन्नत समाजों के सम्पर्क में आते हैं क्योंकि राष्ट्रीय समृद्धि मूल्यवान होने का लगभग सार्वभौम मानदण्ड बन गई है ।

विकसित राष्ट्रों में भौतिक मूल्यों के साथ महत्व के जुड़ जाने के कारण, आजकल अधिक योग्यता और सम्मान केवल उन्हीं देशों को दिया जाता है जिनके पास आर्थिक सम्पदा और प्रौद्योगिक शक्ति है ।

गाउलेट के अनुसार- “प्रासंगिक बिन्दु यह है कि विश्व की जनसंख्या के बड़े भाग की किस्मत में अल्प विकास है । जब तक सम्मान अथवा आदर को भौतिक प्राप्ति से अलग नहीं किया जाता तब तक लोग तिरस्कृत होकर निर्धनता सहन करते रहेंगे ।”

इसके विपरीत, एक बार बेहतर जीवन के प्रचलित प्रतिबिम्ब भौतिक कल्याण को इसके आवश्यक संघटक के रूप में सम्मिलित कर ले तो भौतिक रूप में “अल्प विकसित” के लिये सम्मानित अनुभव करना कठिन हो जायेगा ।

आजकल तीसरा विश्व सम्मान की प्राप्ति के लिये विकास चाहता है जो कि ”अल्प विकास” की अपमानित स्थिति में रहने वालों को उपलब्ध नहीं । विकास एक वैध लक्ष्य है क्योंकि यह अधिक लाभ प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य मार्ग है ।

Value # 3. पराधीनता से मुक्ति: चयन के योग्य होना (Freedom from Servitude: To be Able to Choose):

तीसरा और अन्तिम मूल्य जिसका हम सुझाव देते हैं वह है विकास के मापन में मानवीय स्वतन्त्रता की धारणा जहां समझे जाने की स्वतन्त्रता, जीवन की सामग्रिक स्थितियों को भिन्न करना और सामाजिक पराधीनता से भिन्न करके प्रकृति की ओर ले जाना तथा अन्य लोगों को अज्ञान, दुर्दशा, संस्थाओं तथा रूढ़िवादी विचारों से भिन्न करना है ।

स्वतन्त्रता में समाजों तथा इसके सदस्यों के लिये चयनों की विस्तृत श्रेणी के साथ किसी सामाजिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये बाहरी बाधाओं के न्यूनतमीकरण को विकास कहते हैं ।

डब्ल्यु. ए. ल्युस ने आर्थिक वृद्धि और पराधीनता से मुक्ति के बीच सम्बन्धों पर बल दिया तो वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे- ”आर्थिक वृद्धि का लाभ यह नहीं कि धन प्रसन्नता को बढ़ाता है बल्कि यह है कि यह मानवीय चयन को बढ़ाता है ।”

धन लोगों को प्रकृति और भौतिक पर्यावरण पर अधिक नियन्त्रण प्राप्त करने के योग्य बनाता है (अर्थात् आहार, वस्त्र और आश्रय के उत्पादन द्वारा) उस स्थिति की तुलना में जब वे निर्धन होते ।

यह उन्हें अधिक फुर्सत के चयन की स्वतन्त्रता देता है, अधिक वस्तुओं और सेवाओं की प्राप्ति तथा भौतिक आवश्यकताओं के महत्व से इन्कार करने और आध्यात्मिक चिन्तन के जीवन के चुनाव की स्वतन्त्रता देता है ।

मानवीय स्वतन्त्रता की धारणा में राजनैतिक स्वतन्त्रता के विभिन्न घटक भी सम्मिलित होना चाहिये, परन्तु वे व्यक्तिगत सुरक्षा, कानून के शासन्, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, राजनीतिक भागीदारी और अवसर की समानता तक सीमित ही नहीं होने चाहिये ।

सन् 1970 और 1980 के दशकों के दौरान कुछ उल्लेखनीय आर्थिक सफलता की कहानियां (सउदी अरब, चिली, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, मलेशिया, थाईलैण्ड, इन्डोनेशिया, तुर्की और चीन तथा अन्य) ने यूनाइटिड नेशनज डिवैलपमैंट प्रोग्राम (UNDP) द्वारा संकलित मानवीय स्वतन्त्रता सूचक 1991 में अधिक अंक प्राप्त नहीं किये ।

विकास के उदार लक्ष्य (Broad Objectives of Development):

परिचर्चा के निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि विकास भौतिक वास्तविकता तथा मन की एक स्थिति दोनों ही हैं जिसमें समाज ने कुछ सामाजिक, आर्थिक और संस्थानिक प्रक्रियाओं के संयोगों द्वारा एक बेहतर जीवन प्राप्त करने के साधन प्राप्त किये हैं ।

इस बेहतर जीवन के संघटक कुछ भी हों, सभी समाजों में विकास के तीन निम्नलिखित उद्देश्यों का होना आवश्यक है:

(i) जीवित रहने के लिये मूलभूत वस्तुओं जैसे आहार, आश्रय, स्वास्थ्य और सुरक्षा की उपलब्धता को बढ़ाना और इनके वितरण को विस्तृत करना ।

(ii) जीवन स्तर को ऊपर उठाना जिसमें उच्च आय के अतिरिक्त सम्मिलित हैं-अधिक रोजगार की व्यवस्था, बेहतर शिक्षा, सांस्कृतिक एवं मानवीय मूल्यों की ओर अधिक ध्यान, यह सब न केवल भौतिक कल्याण में वृद्धि करेंगे बल्कि अधिक व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय आत्म सम्मान भी उत्पन्न करेंगे ।

(iii) व्यक्तियों और राष्ट्रों को उपलब्ध आर्थिक और सामाजिक चयनों की श्रेणी को विस्तृत करना जोकि न केवल उन्हें लोगों और राष्ट्रों की पराधीनता तथा निर्भरता से मुक्त कर के सम्भव है बल्कि उन्हें अज्ञानता और मानवीय विपत्तियों की शक्तियों से मुक्त करना भी आवश्यक है ।