अल्प विकसित देशों के आर्थिक विकास के स्पष्ट उपाय | Read this article in Hindi to learn about the direct and indirect measures adopted by the state for promoting the economic development in underdeveloped countries.

आजकल आर्थिक विकास की प्रक्रिया में सरकार कई प्रकार से सक्रिय भागीदार के रूप में उभर कर सामने आया है । स्वतन्त्र व्यापार का नियम समाप्त हो चुका है । अब सरकार ने देश की उत्पादक गतिविधियों में अधिक भाग लेना आरम्भ कर दिया है तथा वह अपनी मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियों द्वारा आर्थिक गतिविधियों का दिशा निर्देशन कर रही है ।

यह देश में वस्तुओं और सेवाओं के वितरण का भी निर्धारण करती है । विकसित देशों में विकास की प्रक्रिया लम्बे समय तक चली थी, परन्तु आज अल्प विकसित देशों के पास प्रतीक्षा के लिये समय नहीं है तथा विकास के लिये समय को कम करना उनके लिए आवश्यक हो गया है ।

इस प्रकरण में सरकार को विकास प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होती है । यह देश स्थिर अथवा निष्क्रिय रहे हैं तथा उन्हें विकास के मार्ग पर लाने के लिये सरकार का सकारात्मक हस्तक्षेप आवश्यक है । अल्प विकसित देशों में निहित विभिन्न कठोरताओं को कम करने के लिये राज्य द्वारा युक्तियुक्त भूमिका निभाना आवश्यक है ।

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संयुक्त राष्ट्र अध्ययन के अनुसार- “सरकार द्वारा सामान्य रूप में किये गये कार्यों के अतिरिक्त, कार्यों की एक विस्तृत सीमा है जोकि उन्हें केवल इसलिये करने चाहियें क्योंकि वह महत्त्वपूर्ण है और निजी प्रयत्नों द्वारा वह पर्याप्त रूप में सम्पन्न नहीं किये जा रहे । यह सीमा भूमि किसी भी देश में विद्यमान हो सकती है, परन्तु अल्प विकसित देशों में यह अधिक विस्तृत है क्योंकि उत्तर-कथित में निजी उद्यम पूर्व-कथित की तुलना में अधिक सुविज्ञ और उद्यमशील होते हैं ।”

अल्प विकसित देशों में योजनाबन्दी केवल हस्ताक्षेप तक सीमित नहीं होती बल्कि इसे आर्थिक विकास की आवश्यक शर्त माना जाता है क्योंकि अल्प विकसित देशों में साधन दुर्लभ होते हैं, इसलिये उनका विभिन्न परियोजनाओं में वितरण और इन परियोजनाओं में उनका प्रयोग नियोजित करना पड़ता है ।

अत: यदि अल्प विकसित देश न्यायसंगत समय-सीमा के भीतर विकास प्राप्त करना चाहते हैं तो वह नियोजन से बच नहीं सकते । इससे भाव है कि समय कारक बहुत महत्व रखता है । अल्प विकसित देशों में विद्यमान समस्याओं का समाधान निजी उद्यमों द्वारा नहीं किया जा सकता, इसलिये इन देशों के आर्थिक विकास के लिये राज्य द्वारा कार्यवाही आवश्यक है ।

यह उत्पादन, वितरण, वस्तुओं के उपभोग को नियन्त्रित करता है और इस कार्य के निष्पादन के लिये सरकार को भौतिक नियन्त्रण तथा मौद्रिक एवं राजकोषीय उपाय करने पड़ते हैं और अल्प विकसित देशों में विद्यमान आर्थिक एवं सामाजिक असमानता को कम करने के लिये यह उपाय आवश्यक है ।

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“सामाजिक जंजीरों को तोड़ कर, मनोवैज्ञानिक, सैद्धान्तिक, सामाजिक और राजनैतिक स्थितियों को आर्थिक विकास के अनुकूल बनाना, ऐसे देशों में सरकार का मुख्य कार्य है ।” राज्य की कार्यवाही का क्षेत्र बहुत विस्तृत है ।

“इसमें सार्वजनिक सेवाओं की संभाल, साधनों के प्रयोग को प्रभावित करना, आय के वितरण को प्रभावित करना, मुद्रा की मात्रा का नियन्त्रण, उतार-बढ़ाव का नियन्त्रण, पूर्व-रोजगार सुनिश्चित करना और निवेश के स्तर को प्रभावित करना सम्मिलित है ।”

अत: अल्प विकसित देशों में तीव्र आर्थिक विकास सुनिश्चित करने के लिये राज्य को भारी दायित्व निभाने पड़ते हैं ।

यह कार्य दो प्रकार के उपायों द्वारा किया जा सकता है अर्थात्:

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(क) स्पष्ट और

(ख) परोक्ष ।

(क) अल्प विकसित देशों के आर्थिक विकास के स्पष्ट उपाय (Direct Measures for Economic Development of Underdeveloped Country):

अल्प विकसित देशों के आर्थिक विकास के लिये राज्य ने स्पष्ट रूप में स्वयं को संलिप्त किया है और कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य पूरे किये हैं ।

जिनका वर्णन नीचे किया गया है:

1. संगठनात्मक परिवर्तन (Organisational Changes):

संगठनात्मक परिवर्तन आर्थिक विकास की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । इसमें बाजार के आकार का विस्तार और श्रम बाजार का संगठन सम्मिलित है । राज्य बाजार के आकार को विस्तृत करने के लिये यातायात और संचार सुविधाओं को विकसित कर सकता है क्योंकि निजी उद्यम ऐसी योजनाएं आरम्भ करने के योग्य नहीं होते ।

इसके अतिरिक्त सरकार कृषि एवं उद्योगों की वृद्धि में सहायक हो सकती है । श्रम बाजारों की व्यवस्था भी सरकार के कार्यों के अन्तर्गत आती है । यह श्रम की उत्पादकता बढ़ाती है सरकार श्रमिक संगठनों को मान्यता देकर श्रम को व्यवस्थित करने में सहायता करती है ।

यह काम के घण्टे और मजदूरी का भुगतान निश्चित करती है, श्रमिकों के झगड़ों के निपटारे के लिये संगठन स्थापित करती है और सामाजिक सुरक्षा के उपाय उपलब्ध करवाती है । यह नियोक्ता और कर्मचारी के बीच सम्बन्ध स्थापित करती है जिससे श्रम की दक्षता में वृद्धि होती है फलत: उत्पादन बढ़ता है और लागत कम होती है ।

ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले अधिकांश लोग एक निश्चित समय के लिये कृषि कार्यों में व्यस्त होते हैं । वे शहरों तथा औद्योगिक केन्द्रों में रोजगार के अवसरों से परिचित नहीं होते । सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में सूचना केन्द्र खोल कर उन्हें कार्य खोजने में सहायता कर सकती है ।

अत: सरकार श्रमिकों की गतिशीलता में सहायता कर सकती है । शहरीकरण की समस्या तब उत्पन्न होती है जब श्रमिक ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर चलता है और इसका समाधान सरकार द्वारा किया जाता है । ये समस्याएं निवास, पीने के जल की पूर्ति, बिजली, गन्दी बस्तियों का सुधार और यातायात आदि से सम्बन्धित हैं ।

2. सामाजिक एवं आर्थिक बन्धे खर्चे (Social and Economic Overheads):

अल्प विकसित देशों के आर्थिक विकास के मार्ग में मुख्य अड़चन आर्थिक बन्धे खर्चों का अभाव होता है जैसे यातायात और संचार के साधन, बन्दरगाहें, बिजली, सिचाई आदि । औद्योगिक रूप में विकसित देशों में ये सुविधाएं निजी उद्यमों द्वारा उपलब्ध करवाई जाती हैं परन्तु अल्प विकसित देशों में निजी उद्यमी इन मंदो पर निवेश करने में रुचि नहीं रखते क्योंकि प्रतिफल लाभप्रद नहीं होते ।

इसके अतिरिक्त इतना भारी निवेश करना निजी क्षेत्र की क्षमता से बाहर होता है । इसके अतिरिक्त अल्प विकसित देशों में उद्यमवृत्ति सम्बन्धी योग्यता का अभाव होता है और उद्यमी व्यापार, गृह, स्वर्ण, आभूषण आदि में निवेश को प्राथमिकता देते हैं जहां प्रतिफल की दर बहुत ऊंची होती है ।

अत: अल्प विकसित देशों में बन्धे खर्चे उपलब्ध करवाना सरकार का दायित्व बन जाता है । आर्थिक विकास की गति को तीव्र करने के लिये सरकार के लिये आवश्यक है कि शिक्षा और प्रशिक्षण एवं स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवाये । मायर और बाल्डविन (Meier and Baldwin) का मत है कि अल्प विकसित देशों में शैक्षिक सुविधाओं और सार्वजनिक स्वास्थ्य उपायों के विस्तार से विकास के मार्ग में आने वाली बाधाएं कम हो जाती हैं ।

3. शिक्षा (Education):

शिक्षा आर्थिक विकास की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । आर्थिक वृद्धि के लिये श्रम की गुणवत्ता बहुत महत्व रखती है । अप्रशिक्षित श्रमिकों द्वारा अधिक घण्टों के लिये किया गया कार्य प्रति व्यक्ति कम आय उपलब्ध करवाता है ।

सार्वजनिक शिक्षा द्वारा ही राज्य प्रभावी श्रम पूर्ति बढ़ा सकता है जिससे उनकी उत्पादकता भी बढ़ती है । प्राइमरी शिक्षा के नि:शुल्क और अनिवार्य प्रबन्ध होने चाहियें तथा सैकण्डरी शिक्षा के स्कूल खोले जाने चाहियें । मिस्रियों, बिजली मिस्रियों, नर्सों, अध्यापकों और कारीगरों आदि के प्रशिक्षण के लिये विभिन्न प्रशिक्षण संस्थाएं खोली जानी चाहियें ।

अत: ”शिक्षा का कार्यक्रम सांझी नागरिकता के बंधनों को आगे बढ़ाने के उस प्रयत्न के आधार पर स्थित है जिससे लोगों की ऊर्जाओं का उपयुक्त प्रयोग किया जा सके और देश के सभी भागों में राष्ट्र और मानवीय साधनों का विकास किया जा सके ।”

शिक्षा, उपभोक्ता और निवेश दोनों प्रकार की सेवा है । गालब्रेथ का मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षित करने में निवेश स्पष्ट रूप में उत्पादक है । वह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि- “किसानों और श्रमिकों को निरक्षरता से बचाना अपने आप में एक लक्ष्य हो सकता है परन्तु यह किसी भी प्रकार की कृषि उन्नति की ओर पहला अनिवार्य पग है । शिक्षा का यह अवलोकन, निवेश का उच्च उत्पादन रूप बन जाता है । वह आगे निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि कुछ उपभोक्ता सेवा और उत्पादक पूंजी का स्त्रोत दोनों हैं क्योंकि समाज एक निवेश के रूप में इसके महत्व को कम नहीं करता, बल्कि यह इसके महत्व को बढ़ाता है । अत: शिक्षा विकास का केन्द्र बिन्दु है ।”

4. सार्वजनिक स्वास्थ्य और परिवार नियोजन (Public Health and Family Planning):

सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का विकास और संभाल सरकार द्वारा किया जाने वाला एक अन्य कार्य है । आवश्यक है कि दक्षता को बढ़ाने के लिये श्रम की उत्पादकता की वृद्धि के लिये लोगों के स्वास्थ्य की संभाल की जाये ।

सार्वजनिक स्वास्थ्य उपायों में प्राय: ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में पर्यावरणीय सफाई में सुधार, स्थिर और दूषित जल को समाप्त करना, गन्दे जल का बेहतर निकास, बीमारी फैलाने वाले रोगों का नियन्त्रण, चिकित्सक और स्वास्थ्य सेवाओं की व्यवस्था विशेषतया मातृत्व और शिशु कल्याण क्षेत्र में, स्वास्थ्य और परिवार नियोजन शिक्षा तथा स्वास्थ्य एवं चिकित्सक कर्मचारियों का प्रशिक्षण, इन सब कार्यों के लिये सार्वजनिक अधिकारियों द्वारा नियोजित प्रयत्नों की आवश्यकता है ।

अल्प विकसित देशों में सार्वजनिक स्वास्थ्य अधिक महत्व रखता है क्योंकि यह श्रम के गठन और उनकी दक्षता को सुधारने की क्षमता रखता है । परन्तु यदि जनसंख्या पर नियन्त्रण नहीं किया जाता तो विकास के सभी प्रयत्न व्यर्थ हो जायेंगे ।

मायर और बाल्डविन का अवलोकन है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य उपाय दो प्रकार से आर्थिक विकास को प्रभावित करते हैं । वे श्रम शक्ति के गुणवत्तात्मक गठन में सुधार द्वारा विकास को सुविधापूर्ण बनाते हैं । उसी समय वे विकास की आवश्यकता को जनसंख्या का आकार बढ़ा कर और भी आवश्यक कर देते हैं ।

स्वास्थ्य में सुधार से मृत्यु दर कम हो जायेगी जो बदले में जनसंख्या में वृद्धि कर देगा जिसका आर्थिक विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा । अल्प विकसित देशों में निर्धनता की समस्या को तब तक नहीं रोका जा सकता जब तक जनसंख्या के तीव्र विकास पर नियन्त्रण नहीं किया जाता ।

अल्पविकसित देशों में जनसंख्या दर को कम करने की आवश्यकता है । इस कार्य के लिये ग्रामीण क्षेत्रों में औद्योगिक और अन्य पिछड़े क्षेत्रों में परिवार नियोजन चिकित्सालय खोले जाने चाहिये । कम बच्चे उत्पन्न करने के लिये माता-पिता को प्रोत्साहन दिये जाने चाहिये ।

जन्म नियन्त्रण और विवाह योग्य आयु बढ़ाने आदि के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने पर बल दिया जाना चाहिये । अल्प विकसित देशों में जनसंख्या विस्फोट की समस्या से निपटने के लिये परिवार नियोजन का कार्यक्रम सरकारी स्तर पर अपनाया जाना चाहिये ।

5. संस्थानिक ढांचे में परिवर्तन (Change in Institutional Framework):

स्थिर संस्थानिक ढांचे में आर्थिक विकास नहीं पनप सकता । अल्प विकसित देशों में कठोर संस्थानिक ढांचा विकास मार्ग एक बड़ी अड़चन है । पाल स्ट्रीटन (Paul Streeten) ने ठीक ही कहा है- “विकसित और तथाकथित विकासशील देशों में आर्थिक विकास में अन्तर यह है कि विकसित देशों में अधिकांश अभिवृत्तियों और संस्थाओं ने एक परिवर्तन को अपना लिया है और समाज ने नव प्रवर्तन और उन्नति को व्यवस्था में स्थान दे दिया है जबकि विकासशील देशों में अभिवृत्तियां और संस्थाएं और यहां तक कि नीतियां विकास मार्ग में कठोर बाधाएं हैं ।”

किसी देश के लोगों में उन्नति की इच्छा अवश्य होनी चाहिये तथा उनके सामाजिक, आर्थिक, वैधानिक और राजनैतिक संगठन आवश्यक रूप में उनके पक्ष में हों परन्तु अल्प विकसित देशों में ऐसी स्थितियां प्राय: अनुपस्थित होती हैं और वहां सामाजिक और सांस्कृतिक क्रांति की आवश्यकता होती है ।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने सत्य ही कहा है- ”किसी देश के नागरिक आवश्यक रूप में प्रगति की इच्छा रखे और उनकी सामाजिक, आर्थिक, वैधानिक और राजनीतिक संस्थाएं निश्चित रूप में इसके पक्ष में हो ।” अधिकांश अल्प विकसित देशों में ऐसी स्थितियां नहीं होतीं तथा उनमें से बहुतों में सामाजिक और सांस्कृतिक क्रांति की आवश्यकता होती है ।

इस सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र (U.N.O.) के एक विवरण में अवलोकन किया गया है- ”एक ऐसी स्थिति है जिसमें दुःखदायी समंजनों के बिना तीव्र आर्थिक विकास असम्भव है । प्राचीन धारणाओं को दूर करना होगा, प्राचीन सामाजिक संस्थाओं को तोड़ना होगा । जाति, मत और धर्म आदि के बंधनों को तोड़ना होगा तथा बहुत से लोग जो उन्नति के साथ कदम से कदम मिला कर नहीं चल सकते उन्हें अपने सुखदायी जीवन की आशाओं का त्याग करना होगा ।”

आर्थिक परिवर्तन मात्र संस्थानिक परिवर्तन से नहीं आता । इसके आगमन के लिये दोनों आर्थिक और गैर-आर्थिक कारक आवश्यक है । अत: आर्थिक और संस्थानिक परिवर्तनों के बीच अस्थायी सम्बन्ध अवश्य होना चाहिये अथवा यह परिवर्तन एक दूसरे से स्वतन्त्र होने चाहियें ।

विकासशील देशों में, सरकार संस्थानिक ढांचे के परिवर्तन में और नई संस्थाओं की उत्पत्ति के लिये परिस्थितियों की रचना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । “नये आविष्कार नई वस्तुओं की रचना कर सकते हैं अथवा पुरानी वस्तुओं के उत्पादन की लागत को कम कर सकते हैं । नई सड़कें, नये समुद्री रास्ते अथवा संचार में अन्य सुधार व्यापार के लिये नये अवसर खोल सकते हैं । युद्ध अथवा मुद्रा स्फीति नई मांगें उत्पन्न कर सकते हैं । देश में विदेशी लोग आ सकते हैं, जो नया व्यापार लाते हैं, नई पूंजी का निवेश करते हैं अथवा रोजगार के नये अवसर उपलब्ध करवाते हैं ।”

ऐसे नये अवसर संस्थाओं में परिवर्तन लाते हैं । संस्थागत परिवर्तन राज्य द्वारा भूमि सुधारों के रूप में, उत्तराधिकार के नियमों में सुधार द्वारा, एकाधिकारों के नियमन और नियन्त्रण, मुद्रा बाजार के नियन्त्रण के लिये नियमन और वितरण प्रणाली में सुधार आदि द्वारा लाये जा सकते हैं ।

6. निवेश का दर बढ़ाना (Stepping up Rate of Investment):

विकास की प्रक्रिया को निवेश की दर बढ़ा कर तीव्र किया जा सकता है । अल्प विकसित देशों में बचतों का दर उनकी निवेश आवश्यकताओं की तुलना में बहुत कम होता है ।

अत: इन देशों में पूंजी निर्माण की दर को बढ़ाना सरकार के लिये आवश्यक हो जाता है तथा सरकार इसे नये कर लगाकर अथवा मुद्रा स्फीति द्वारा प्राप्त कर सकती है ।

समाजवादी सरकारें अपनी राष्ट्रीय आय का एक बड़ा भाग बचाने और निवेश करने में सफल हुई हैं क्योंकि उनकी सरकारें पूंजी निर्माण में बहुत सक्रिय भाग लेती हैं ।

7. कृषि विकास (Agriculture Development):

अल्प विकसित देशों में बहुत से लोग अपने निर्वाह के लिये कृषि पर निर्भर करते हैं । सिंचाई और साख सुविधाओं का अभाव आर्थिक विकास के मार्ग में मुख्य बाधाएं हैं । यदि कृषि क्षेत्र पिछड़ा हुआ रहता है तो अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्र विकसित नहीं हो सकते क्योंकि कृषि आधारभूत उद्योग है तथा अन्य उद्योग कच्चे माल की पूर्ति के लिये इस पर निर्भर हैं ।

श्रीमान नारायण ने ग्रामीण स्तर पर कृषि उत्पादन योजनाओं की तैयारी के लिये निम्नलिखित मुख्य तत्व प्रस्तुत किये हैं:

(i) सिंचाई सुविधाओं का पूर्ण उपयोग जिसमें खेतों की नालियों को लाभ प्राप्त करने वालों के लिये अच्छी स्थिति में रखना तथा सार्वजनिक सिंचाई कार्यों की मुरम्मत और सम्भाल सम्मिलित है,

(ii) बहु विधि फसलों के अधीन क्षेत्र को बढ़ाना,

(iii) ऐसे गांवों की संख्या बढ़ाना जहां सुधरे हुये बीज उपलब्ध हों तथा उन्हें सभी कृषकों में बांटना,

(iv) उर्वरकों की पूर्ति,

(v) वनस्पतिक खाद और हरी खाद के प्रबन्ध,

(vi) सुधरी हुई कृषि प्रथाओं को अपनाना जैसे भूमि संरक्षण, शुष्क कृषि, नालियां बनाना, भूमि सुधार, पौधों की सुरक्षा आदि,

(vii) गांवों में नये छोटे सिंचाई कार्यों के कार्यक्रमों को सामाजिक सहभागिता और व्यक्तिगत आधार पर आरम्भ करना,

(viii) कृषि के सुधरे हुये औजारों के कार्यक्रम,

(ix) मुर्गी पालन, मत्स्य पालन और दुग्ध उत्पादों के विकास के कार्यक्रम,

(x) सब्जियों और फलों के उत्पादन को बढ़ाने के कार्यक्रम,

(xi) पशु-पालन अर्थात् घोड़ों और बैलों की पूर्ति, कृत्रिम बीजारोपण और निकम्मे बैलों का बधियाकरण,

(xii) गांव में ईंधन-पौधों के रोपण और चरागाहों के विकास के कार्यक्रम ।

कृषि विकास कार्यक्रमों की सफलता सरकार द्वारा किये गये भूमि सुधार उपायों पर निर्भर करती है ।

आई. पी. सी. अनुसार भूमि सुधार उपायों के मुख्य उद्देश्य द्विपक्षीय हैं:

(i) कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिये ऐसी बाधाओं को दूर करना जो पुरखों से प्राप्त कृषि संरचना से उत्पन्न होती हैं । इसे ऐसी स्थितियों की रचना में सहायता करनी चाहिये जिनसे जितनी जल्दी संभव हो कृषि की अर्थव्यवस्था निपुणता और उत्पादकता के उच्च स्तरों को प्राप्त करें ।

(ii) कृषि क्षेत्र से शोषण एवं सामाजिक अन्याय को दूर करना जिससे किसान सुरक्षा उपलब्ध हो और ग्रामीण जनसंख्या के सभी वर्गों को पदवी और अवसर की समानता सुनिश्चित हो ।

भूमि सुधार उपायों में सम्मिलित है:

(1) मध्यस्थों को समाप्त करना,

(2) काश्तकारों को काश्तकारी की सुरक्षित अवधि,

(3) उस भूमि को खरीदने का अधिकार जिस पर काश्तकार कृषि करते हैं,

(4) काश्तकार द्वारा भूमि पर किये गये स्थायी सुधार की क्षतिपूर्ति,

(5) जमींदारों द्वारा वसूले जाने वाले लगान को सीमित करना,

(6) कृषि भूमि के धारण की सीमा निश्चित करना तथा

(7) धारित भूमि की चकबन्दी ।

अत: सरकार की कृषि सम्बन्धी नीति में सहकारी नियमों अनुसार कृषि की व्यवस्था, सिंचाई और साख सुविधाओं की व्यवस्था तथा पूरक उद्योगों की स्थापना आदि सम्मिलित हैं ।

8. औद्योगिक विकास (Industrial Development):

अल्प विकसित देशों में प्राकृतिक साधन अल्प विकसित होते हैं । इसका कारण यह है कि यह लम्बे समय के लिये उपनिवेशी शासन के अधीन रहे होते हैं जो निहित स्वार्थों के लिये इनके प्राकृतिक साधनों का निर्दयता से शोषण करते हैं । स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् इन साधनों के विकास को विदेशी प्रभुत्व वाले देशों के हाथों में छोड़ने का कोई तर्क नहीं था ।

इसके अतिरिक्त, इन निर्धन देशों में मूलभूत उद्योगों जैसे लोहा, इस्पात, सीमेंट, भारी इंजीनियरिंग उद्योगों आदि का अभाव होता है । तथ्य यह है कि इन उद्योगों को भारी पूंजी निवेश तथा तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता होती है । ये मूलभूत सुविधाएं इन देशों के निजी निवेशकों की पहुंच से बाहर होती हैं ।

इसके अतिरिक्त निजी उद्यमी उत्पादन के इन क्षेत्रों में प्रवेश की बिल्कुल रुचि नहीं रखता । इसलिये, यह सरकार का परम कर्त्तव्य बन जाता है कि देश में आर्थिक विकास को उत्साहित करने के लिये इन मूलभूत एवं मुख्य उद्योगों को आरम्भ करें ।

पुन: इन बड़े उद्योगों को लम्बे उत्पादक समय की आवश्यकता होती है । दूसरी ओर, नि:सन्देह इन देशों में कुछ आधारभूत उपभोक्ता वस्तुओं के उद्योग होते हैं परन्तु इन उद्योगों का संचालन पुरानी हो चुकी उत्पादन तकनीकों द्वारा किया जाता है ।

इन देशों के लोग पिछड़े हुये और अन्धविश्वासी होते हैं । कुछ निर्माता सम्पूर्ण आर्थिक संरचना का नियन्त्रण करते हैं और उद्योग कुछ एक बड़े शहरों तक सीमित रहते हैं जबकि देश का शेष भाग अनेक समस्याओं का सामना करते हुये पिछड़ा ही रहता है ।

9. साधनों के प्रयोग को प्रभावित करना (Influencing the Use of Resources):

अल्प विकसित देशों में प्राय: साधनों का या तो कम प्रयोग होता है या फिर गलत उपयोग होता है । अत: सरकार को साधनों के प्रासंगिक प्रयोग के उपाय करने चाहियें । जहां प्राकृतिक साधनों जैसे वनों और खनिज पदार्थों की सम्भाल की भी समस्या होती है ।

इन साधनों के निरर्थक प्रयोग की आज्ञा नहीं होनी चाहिये । यहां दुर्लभ साधनों के उपयोग को प्रभावित करने के लिये सरकारी भूमिका की आवश्यकता होती है । यहां भूमि के उपयुक्त प्रयोग, शहरों की प्रासंगिक योजनाबंदी और उद्योगों को उचित स्थान देने की समस्याएं होती हैं और इसके लिये सरकार द्वारा दीर्घकालिक और व्यापक योजना की आवश्यकता होती है ।

10. असमानताओं को दूर करना (Removal of Inequalities):

आर्थिक एवं सामाजिक असमानताओं को दूर करना अथवा उन्हें कम करना सरकार का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य है । समाज के विभिन्न वर्गों में आय के वितरण की उच्च असमानता के कारण महान् सामाजिक असमानता होती है । वास्तव में आर्थिक और सामाजिक असमानताओं का एक-दूसरे के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होता है ।

सरकार को चाहिये कि धन के समान वितरण के उचित उपाय अपनाये । सरकार को चाहिए आय और धन तथा विलासतापूर्ण वस्तुओं पर क्रमिक कर लगाये और सार्वजनिक व्यय नीति द्वारा निर्धन लोगों को लाभ पहुंचाये ।

11. साधनों का अनुकूलतम निर्धारण (Optimum Allocation of Resources):

अल्प विकसित देशों को आर्थिक साधनों के अनुकूलतम उपयोग की समस्या होती है । अधिकांश अल्प विकसित देशों में प्राकृतिक साधनों का न केवल कम प्रयोग होता है बल्कि दुरुपयोग भी होता है । प्राकृतिक साधनों के उचित सर्वेक्षण का संचालन तथा उनका उचित उपयोग राज्य द्वारा सक्रिय भाग लिये बिना सम्भव नहीं है ।

विभिन्न आर्थिक नीतियों का लक्ष्य विभिन्न क्षेत्रों में विकास के दर का उचित सन्तुलन तथा प्रत्येक क्षेत्र में विभिन्न उद्योगों के विकास दर का उचित सन्तुलन होना चाहिये । सन्तुलित विकास दर की प्राप्ति के लिये रोजगार के अधिक अवसर प्राप्त करने आवश्यक हैं ।

अल्प विकसित देशों में न केवल साधनों की कमी होती है बल्कि ये साधन अचल होते हैं । सरकार को चाहिये कि उत्पादन के साधनों की गतिशीलता सुधारने के लिये लोगों को रोजगार के अवसरों की सूचना उपलब्ध करवाये । यह कार्य रोजगार कार्यालयों तथा अन्य संस्थाओं की स्थापना द्वारा किया जा सकता है ।

आर्थिक विकास का अन्तिम लक्ष्य श्रम एवं अन्य साधनों के पूर्ण रोजगार की स्थितियों की रचना है । राज्य को चाहिये कि लोगों की अभिवृत्तियों का ठीक दिशा निर्देशन करें । उन्हें कार्य करने, मितव्ययता और विकास की मनोवृत्तियों को अपनाना चाहिये ।

12. शांति ओर सुरक्षा बनाये रखना (Maintenance of Peace and Security):

शांति और सुरक्षा दो वस्तुएं हैं जो आर्थिक विकास के लिये आवश्यक हैं । इसलिये राज्य का कर्त्तव्य है कि आन्तरिक कानून और व्यवस्था बनाये रखे तथा बाहरी आक्रमणों से देश को सुरक्षित रखे ।

इससे आर्थिक व्यवस्था में स्थायित्व आयेगा जो उत्साहपूर्ण निर्णय लेने में सहायक होगा । कोई देश जो लम्बे समय के लिये युद्ध में अथवा देश के भीतर लड़ाई झगड़ो में संलिप्त रहता है, प्रभावी ढंग से आर्थिक विकास का नियोजन नहीं कर सकता ।

13. सन्तुलित विकास (Balanced Growth):

अल्प विकसित देशों का विकास असन्तुलित तथा एक तरफा होता है । अल्प विकसित देशों को सन्तुलित विकास की मुक्ति अपनानी चाहिये परन्तु यह व्यक्तिगत उद्यम द्वारा नहीं अपनाई जा सकती ।

इसका नियोजन सरकार द्वारा एक व्यवस्थित ढंग से करना पड़ता है । वांछित परिवर्तन लाने के लिये राज्य का महान् नवप्रवर्तक और औद्योगिक पथप्रदर्शक होना आवश्यक है । आजकल राज्य को अर्थव्यवस्था के सन्तुलित विकास का महत्वपूर्ण अभिकरण माना जाता है ।

14. आत्म-निर्भरता (Self-Reliance):

अल्प विकसित देश अपनी विकास परियोजनाओं के लिये विदेशी व्यापार पर निर्भर करते हैं । वास्तव में विकास के आरम्भिक सोपानों पर विदेशी सहायता लाभप्रद होती है, परन्तु यह प्रक्रिया अनन्त रूप में जारी नहीं रह सकती जितनी जल्दी सम्भव हो इन देशों को अपने पांवों पर खड़ा होना पड़ता है ।

अत: इन देशों के लिये आत्मनिर्भरता आवश्यक है । इसे एक ध्येय के रूप में नहीं बल्कि आर्थिक विकास के साधन के रूप में देखा जाना चाहिये । इसका अर्थ है दृढ़ औद्योगिक आधार की स्थापना ।

किसी विशेष स्थिति के पश्चात् विदेशी सहायता, बोझ बन कर रह जाती है । तब आर्थिक विकास की सफलता के लिये इसे समाप्त कर देना ही बेहतर है । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये राज्य को मुख्य भूमिका निभानी होती है ।

(ख) अल्प विकसित देशों के आर्थिक विकास के परोक्ष उपाय (Indirect Measures for Economic Development of Underdeveloped Country):

एक परोक्ष ढंग से सरकार लोगों की बढ़ती हुई आवश्यकताओं से निपटने के लिये महान् कार्य कर सकती है ।

1. मौद्रिक नीति (Monetary Policy):

एक उचित मौद्रिक नीति दुर्लभ साधनों की मात्रा को बढ़ा कर, उत्पादन के कारकों की उत्पादकता बढ़ा कर, आर्थिक और सामाजिक स्थितियों को सुधार कर तथा आर्थिक विकास के मार्ग में आने वाली अनेक अड़चनों को दूर करके आर्थिक और औद्योगिक विकास में सहायक हो सकती है ।

विकसित देशों में मुद्रा पूर्ति का नियन्त्रण सरकार के हाथों में रहना आवश्यक होता है क्योंकि उन्होंने पूर्ण रोजगार सुनिश्चित करना होता है । परन्तु अल्प विकसित देशों में बेरोजगारी चक्रीय उतार-चढ़ाव के कारण नहीं परन्तु मुख्यता लोगों को काम उपलब्ध करवाने के लिये साधनों के अभाव के कारण होती है ।

इसे पूंजी निर्माण द्वारा अतिरिक्त साधनों की रचना से रोका जा सकता है । ऐसे देशों में मौद्रिक नीति का प्रयोग अधिक पूंजी निर्माण और निवेशों को वांछित मार्गों की ओर निर्दिष्ट करने के लिये किया जाता है ।

2. राजकोषीय नीति (Fiscal Policy):

अल्प विकसित देशों में राजकोषीय उपाय, सरकारी आय और व्यय के नमूनों में परिवर्तन द्वारा अधिकतया सरकारी नीति के परिवर्तन के वांछनीय उपकरण माने जाते हैं । करारोपण का प्रयोग उपभोग को रोक कर बचतों को बढ़ाने के लिये और निवेश को अवांछित दिशाओं की ओर जाने से रोक कर उत्पादक मार्गों की ओर निर्दिष्ट करने के लिये किया जाता है ।

निवेश को समाज के लिये अभीष्ट दिशाओं में लगा कर, निजी निवेश के प्रोत्साहन, वितरणात्मक न्याय के संवर्धन तथा आर्थिक उतार-चढ़ावों को रोकने के लिये भी करारोपण का प्रयोग किया जा सकता है । घाटे की वित्त व्यवस्था अल्प विकसित देशों में पूंजी निर्माण का दर बढ़ाने में सहायक हो सकती है ।

3. कीमत नीति (Price Policy):

अल्प विकसित देशों में सरकारी गतिविधि का एक अन्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्र कीमतों का नियन्त्रण और नियमन है । आर्थिक विकास की आरम्भिक स्थितियों में अर्थव्यवस्था में बड़े हुये निवेश के कारण कीमतें बढ़ती हैं क्योंकि सरकार द्वारा घाटे की वित्त व्यवस्था का अनुकरण किया जाता है । अत: सरकार के लिये आवश्यक है कि एक न्यायसंगत कीमत नीति का निर्माण करें जिससे आवश्यक वस्तुओं की कीमतें नियन्त्रण में रहें ।

4. विदेशी व्यापार में वृद्धि (Increase in Foreign Trade):

अल्प विकसित देशों में विदेशी व्यापार तो होता है, परन्तु मूल्य और मात्रा के सन्दर्भ में इसका आकार छोटा होता है । सरकार निर्यात का संवर्धन कर सकती है, आर्थिक विकास की वृद्धि आवश्यक वस्तुओं के आयात को सुविधापूर्ण बनाती है और विलासतापूर्ण वस्तुओं के आयात को प्रतिबन्धित कर सकती है ।

विकासशील देशों में विदेशी विनिमय संकट को सरकार द्वारा किये गये उचित विनिमय उपायों द्वारा रोका जा सकता है ताकि दुर्लभ विनिमय साधनों को सुरक्षित रखा जाये तथा उनका उपयुक्त प्रयोग किया जाये ।

5. सार्वजनिक क्षेत्र का दृढ़ीकरण (Strengthening of Public Sector):

सामान्य जन समूहों के उचित सामाजिक कल्याण के लिये आर्थिक विकास को उत्साहित करना राज्य की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है ।

6. आर्थिक नियोजन (Economic Planning):

विभिन्न समस्याओं से निपटने के लिये प्राथमिकताओं की नियोजित प्रक्रिया का अनुकरण करना पड़ता है । आजकल, नियोजन और गैर-नियोजन के बीच चयन नहीं है परन्तु नियोजन की विभिन्न मात्राओं के बीच चयन का प्रश्न है ।

इसलिये सरकार ध्यान रखती है कि आर्थिक साधनों का प्रयोग सामाजिक रूप में लाभप्रद परियोजनाओं के लिये हो । विभिन्न परियोजनाओं में सन्तुलित विकास की प्राप्ति के लिये सार्वजनिक वित्त का उपयोग किया जाता है ।

उन्हें निवेश के लिये कोष की आवश्यकता होती है परन्तु अल्पविकसित देशों में कोष का अभाव होता है तथा कोष घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा भी अर्जित किया जा सकता है ।

अत: यह देखना सरकार का मुख्य कर्त्तव्य है कि कोष का उचित मार्गों में उपयोग हो रहा है तथा साधनों की व्यर्थता नहीं हो रही । इसके अतिरिक्त उन्हें यह भी देखना चाहिये कि घाटे की वित्त व्यवस्था का अर्थव्यवस्था पर कोई स्फीतिकारी प्रभाव न हो ।

7. सार्वजनिक ऋण (Public Debt):

जब सरकार को आन्तरिक साधनों का अभाव होता है तो यह देश के आर्थिक विकास की गति को तीव्र करने के लिये बाहरी सहायता का प्रयोग करती है । इस सम्बन्ध में सरकार कुछ उपाय अपनाती है ।

सीमाएं (Limitations):

यह स्पष्ट है कि अल्प विकसित देशों के विकास के लिये सरकार एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है ।

इसकी कुछ निम्नलिखित सीमाएं हैं:

1. योजनाबन्दी का आरम्भण और आर्थिक विकास की दिशा पर्याप्त नहीं है । योजनाओं में कोई त्रुटि नहीं बल्कि इनके कार्यान्वयन में त्रुटि है तथा अधिकांश अल्प विकसित देशों में यह अपना कर्त्तव्य पूरा नहीं कर पाती ।

2. अल्प विकसित देशों में सरकारी मशीनरी प्राय: भ्रष्ट और अदक्ष होती है । तीव्र विकास और राज्य की भूमिका भ्रष्टाचार में परिणामित हुई है, परन्तु अल्प विकसित देशों के प्रकरण में यह जोखिमपूर्ण है क्योंकि वहां लोगों की नैतिकता का स्तर निम्न होता है ।

3. आर्थिक जीवन में राज्य का अत्यधिक हस्तक्षेप तानाशाही की ओर ले जाता है जिसके परिणामस्वरूप लोगों की आर्थिक स्वतन्त्रता समाप्त हो जाती है ।

4. विकासशील देशों में, बढ़ते हुये विकास कार्यों के निष्पादन में सरकार की प्रशासनिक मशीनरी की काम करने की क्षमता सीमित होती है । इन देशों में सरकारी मशीनरी अपर्याप्त और अल्प विकसित होती है ।

अत: सरकारी नीति और कार्यक्रम पर पूर्णतया निर्भर नहीं रहा जा सकता । सरकारी उद्यमों का विस्तार करते समय सरकारी मशीनरी की क्षमता और गुणवत्ता को ध्यान में रखना आवश्यक है ।

5. सरकार पर अनेक राजनीतिक दबाव होते हैं जो अत्यधिक महत्त्वपूर्ण आर्थिक गतिविधियों पर ध्यान देने को असम्भव बना देते हैं । प्राथमिकताओं को भंग करते हुये सार्वजनिक क्षेत्र की परियोजनाओं का चयन उनकी आर्थिक सम्भवत: को ध्यान में न रखते हुये विभिन्न दबाव-वर्गों को प्रसन्न करने के लिये किया जाता है ।

6. सरकार द्वारा अधिक से अधिक दायित्व लेने से प्रशासन का बोझ और लागत बढ़ जाते हैं । प्रशासनिक तन्त्र बुद्धिमत्तापूर्वक कार्य नहीं कर पाता तथा सार्वजनिक कार्य इतनी तीव्रता से बढ़ते हैं कि प्रशासन चलाने के लिये पूर्णतया प्रशिक्षित और अनुभवी व्यक्तियों को खोजना कठिन हो जाता है । कम बुद्धि वाले तथा कम दक्ष व्यक्तियों को नियुक्त करना पड़ता है और वितरण की गुणवत्ता को बनाये रखना असम्भव हो जाता है ।

सारांश (Conclusion):

राज्य स्वयं को केवल उन गतिविधियों के निष्पादन तक सीमित रखे जिसे निजी उद्यम पूरा करने में असमर्थ है । इस सम्बन्ध में मिश्रित अर्थव्यवस्था की धारणा सर्वोत्तम नीति है । अल्प विकसित देशों की सरकारें इन नियमों के अनुसार अपनी अर्थव्यवस्थाओं में आर्थिक विकास के कार्य के लिये सक्रिय भाग ले रही है ।