भारत में पूंजी निर्माण (सांख्यिकी के साथ) | Read this article in Hindi to learn about capital formation in India from 1990 to 2007.

भारत में पूंजी निर्माण 1950 से 1990 तक (Capital Formation in India from 1950 to 1990):

भारत में पूंजी निर्माण एवं बचतों के अनुमान नेशनल सेम्पूल सर्वे (N.S.S.) नेशनल कौंसिल आफ एप्लाइड इकॉनोमिक रिचर्स (N.C.A.E.R.), रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया एवं योजना आयोग द्वारा किए गए । केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (C.S.O.) ने सर्वप्रथम 1948-49 से 1960-61 की अवधि में सकल घरेलू पूंजी निर्माण के अनुमान प्रस्तुत करने का प्रयास किया ।

इसमें वस्तु विधि गई अपनाया गया था । N.C.A.E.R ने व्यय विधि का प्रयोग करते हुए विनियोगों के अनुमान प्रस्तुत किये । बचतों का अनुमान अप्रत्यक्ष रूप से आय लेखा व वैकल्पिक रूप से बैलेन्स शीट विधि से किया गया तथा उसे शुद्ध पूंजी अन्तर्प्रवाह से समायोजित किया गया ।

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भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा किये गये विनियोग अनुमान बचतों के अनुमान पर आधारित थे । इन्हें सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए तैयार किया गया था जिसमें सरकारी, निगम तथा परिवार क्षेत्र समाहित थे । इन क्षेत्रों में आकलन हेतु आय लेखा एवं बेलेन्स शीट विधि को अपनाया गया था ।

1960-61 से 1965-66 की अवधि में बचतों के अनुमान केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन द्वारा प्रस्तुत किए गए । यह अनुमान मुख्यतः व्यय प्रवाह विधि पर आधारित थे । बचत व विनियोग के कड़े रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया द्वारा भी संग्रहित किए जाते रहे । केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन एवं रिजर्व बैंक द्वारा अपनाई विधियों में अन्तर होने के कारण बचत व विनियोग के अनुमानों में भिन्नता दिखायी देती है ।

भारत में बचत की प्रवृतियों का अवलोकन करते हुए हम यह पाते है कि 1950-51 में कुल घरेलू बचत के कुल घरेलू उत्पाद से अनुपात के रूप में अभिव्यक्त कुछ घरेलू बचत दर 10.4 प्रतिशत थी ।

1960-61 में यह बढ़ कर 12.7 प्रतिशत तथा 1970-71 में 15.7 प्रतिशत हो गई । 1975-76 में बचत दर 19 प्रतिशत तथा 1978-79 में 23.2 प्रतिशत रहीं । 1970 के दशक में अनिवार्य बचत स्कीमों एवं विदेशी प्राप्तियों के अन्तर्प्रवाह में वृद्धि हुई जिससे परिवार स्तर पर वित्तीय परिसम्पत्तियाँ बड़ी ।

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प्रत्यक्ष भौतिक परिसम्पत्ति एवं वित्तीय परिसम्पत्ति के रूप में परिवार स्तर की बचतों में वृद्धि इस कारण भी सम्भव बनीं, क्योंकि- (a) बैंकिंग अन्तर्सरचना एवं वित्तीय संस्थाओं का विकास हुआ, (b) कृषि क्षेत्र में उत्पादकता बड़ी जिससे कृषि क्षेत्र की बचत की सीमान्त प्रवृति बढी, (c) मुद्रा प्रसार की दर में वृद्धि हुई, (d) ब्याज दर बड़ी, (e) पाँचवी योजना अवधि में विदेशी सहायता पर आश्रय कम करने का प्रयास किया गया ।

1979-80 में कृषि उत्पादन की कमी से बचतों पर विपरीत प्रभाव पड़ा । 1980-81 में बचत दर 21.2 प्रतिशत थे, जबकि मौद्रिक व वास्तविक आय बड़े थे । रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के अनुसार कीमतों में होने वाली वृद्धि से उपभोग व्यय में वृद्धि हुई जिस कारण बचतों पर विपरीत प्रभाव पड़ा । 1982-83 के उपरान्त सकल घरेलू बचत की दर में स्थिरता की प्रवृति दिखाई दी । 1988-89 में ही यह 21 प्रतिशत हो गई ।

भारत में सकल घरेलू बचतों के स्रोत (Sources of Gross Domestic Savings in India):

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घरेलू बचतें तीन स्रोतों से प्राप्त होती हैं:

(1) घरेलू परिवार क्षेत्र,

(2) निजी निगम क्षेत्र,

(3) सार्वजनिक क्षेत्र

घरेलू परिवार क्षेत्र के अन्तर्गत व्यक्ति, पूर्ण स्वामित्व के अधीन स्थापित फ़र्में, साझेदारी एवं लाभ हेतु कार्य न करने वाले संगठन जैसे ट्रस्ट धमार्थ संस्थान शामिल होते हैं । घरेलू परिवार स्तर पर की गयी बचतों को वित्तीय परिसम्पत्तियों एवं भौतिक सम्पत्ति के रूप में रखा जा सकता है ।

भारत में वित्तीय परिसम्पत्तियों के शेयर में लगातार वृद्धि देखी गयी है जिसके कारण निम्न रहे:

(a) अर्थव्यवस्था का मौद्रिकीकरण तथा व्यावसायीकरण होने से बैंक जमाओं में होने वाली वृद्धि ।

(b) आर्थिक विकास के परिणामस्वरूप परिवार की आय में वृद्धि जिससे अधिक बचत प्राप्त होना ।

(c) बैंकिंग अन्तर्संरचना का विस्तार व अन्य वित्तीय सुविधाओं में वृद्धि ।

दूसरी ओर भौतिक परिसम्पत्तियाँ कुल परिवार स्तर पर की गयी बचतों का लगभग क प्रतिशत ही रही है । भौतिक परिसम्पत्तियों में टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं को शामिल नहीं किया जाता ।

घरेलू क्षेत्र में बचतों की वृद्धि हेतु निम्न उपाय किए जाने चाहिएँ:

(1) ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग की अधिक सुविधाएँ प्रदान करना । यह ध्यान रखना कि बैंकों की कार्य प्रणाली सरल एवं लोचपूर्ण हो ।

(2) मुद्रा प्रसार की प्रवृतियों पर रोक लगाना, क्योंकि इससे बचत की प्रवृति विपरीत रूप से प्रभावित होती है ।

(3) उच्च एवं विलासिता पूर्ण उपभोग को नियन्त्रित करना ।

(4) घरेलू बचत पर आय कर से छूट की सीमा बढ़ाना ।

निजी निगम क्षेत्र के अन्तर्गत गैर सरकारी वित्तीय व गैर वित्तीय कम्पनियाँ तथा सहकारी संस्थाएँ आती हैं । भारत में निजी निगम क्षेत्र से प्राप्त बचत कुल बचतों के दो प्रतिशत से कम ही रहा है । इस क्षेत्र में बचतों में वृद्धि के लिए प्रबन्धकीय व्ययों में कटौती, उच्च अधिकारियों के वेतन व सुविधाओं के स्तर पर प्रतिबन्ध लगाना तथा कम्पनी द्वारा प्रदत्त लाभांश में कटौती होनी आवश्यक है ।

सार्वजनिक क्षेत्र के अधीन सरकारी क्षेत्र द्वारा की गयी बचतें आती है । सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा कुल बचतों में न्यून योगदान रहा है इसका कारण मुख्यतः सरकार द्वारा प्राप्त किए जाने वाले न्यून लाभ रहे हैं । सार्वजनिक उपक्रमों में क्षमता से कम उत्पादन होता है । सबसे बड़ी समस्या है करों की चोरी जिस पर अंकुश लगाया जाना आवश्यक है ।

भारत में घरेलू पूंजी निर्माण की प्रवृतियाँ सतत् वृद्धि को सूचित करती है यद्यपि ऐसे अवरोध विद्यमान हैं जिनके परिणामस्वरूप बचतों की मात्रा में यथेष्ट वृद्धि नहीं हो पाती है ।

(1) मुख्यतः हम जनसंख्या के 40 से 50 प्रतिशत हिस्से पर ध्यान दें जो निर्धनता रेखा पर निवास करता है जिसकी बचत क्षमता न्यून व नहीं के बराबर है ।

(2) समाज का वह वर्ग जिसकी बचत करने की प्रवृति उच्च है व विभिन्न धार्मिक व सामाजिक क्रियाकलापों पर काफी अधिक व्यय करते हैं तथा स्वर्ण व बहुमूल्य धातुओं जैसी अनुत्पादक परिसम्पत्तियों का क्रय करते है ।

(3) बैंकिंग सुविधाएँ अपर्याप्त रही है, वित्तीय संस्थाएँ सापेक्षिक रूप से कम है तथा समुदाय के काफी बड़े भाग में बैंकिंग आदतें पनप नहीं पायी है ।

(4) प्रत्यक्ष करारोपण की दर उच्च रही है जिससे विशेषकर मध्य वर्ग द्वारा किए जा रहे प्रयास अवरुद्ध होते हैं ।

(5) कृषि आय को करारोपण की विस्तृत सीमा में नहीं लाया गया है जिसमें बड़े कृषकों द्वारा अनुत्पादक व व्यर्थ के उपभोग को बढावा मिलता है ।

(6) कुछ अर्थशास्त्रियों का मत है कि सरकार द्वारा आय को निर्धन वर्गों की ओर पुर्नवितरण करने हेतु जो प्रयास किए जा रहे है उनका बचत व पूंजी निर्माण पर विपरीत प्रभाव पडता है क्योंकि इससे मुद्रा उच्च बचत प्रवृति वाले समुदाय से विवर्तित होकर न्यून बचत क्षमता वाले व्यक्तियों के पास जाती है ।

(7) भारत में घरेलू बचतों में होने वाली वृद्धि किसी सीमा तक अनिवार्य जमाओं तथा विदेशों से प्राप्त होने वाले प्रेषित धन फल रही है । विचारणीय बिन्दु यह है कि अनिवार्य जमाएं बाह्य बचतों का रूप है तथा विदेशी अनिवासियों द्वारा प्रेषित अन्तर्प्रवाहों में विचलन दिखाई देता है ।

(8) यह प्रवृति भी दिखायी गयी है कि पूंजी निर्माण में होने वाली वृद्धि बढ़ते हुए स्टाक का रूप ले रही है इसके परिणामस्वरूप स्थिर स्टाक पर शुद्ध विनियोग काफी अल्प रहा है । स्टाक में किया गया विनियोग अर्थव्यवस्था की उत्पादक क्षमता में वृद्धि नहीं करता ।

यह भी देखा गया है कि विनियोग वस्तुओं की कीमतें सामान्य कीमत स्तर के सापेक्ष अधिक तेजी से बढती हैं जिसके परिणामस्वरूप वास्तविक रूप में विनियोग की वृद्धि मामूली ही रही है तात्पर्य यह है कि समुदाय की बचतों में होने वाली वृद्धि किसी सीमा तक विनियोग की बाजार कीमतों में वृद्धि से काफी अधिक अवशोषित हो जाती हैं । साथ ही मौद्रिक रूप में घरेलू बचतों का काफी बड़ा भाग वस्तु कीमतों में होने वाली वृद्धि से अवशोषित हुआ है ।

(9) यदि हम वृद्धिमान पूंजी उत्पादन अनुपात ICOR की प्रवृतियों पर विचार करें तो इनमें लगातार वृद्धि यह स्पष्ट करती है कि देश में कीमतें तेजी से बढ़ी है जिससे संरचनात्मक अवरोध उत्पन्न हुए हैं ।

भारत में केन्द्रीय सरकार के बजट सम्बन्धी साधनों से पूंजी निर्माण:

इसके अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार द्वारा सकल पूंजी निर्माण के अधीन- (i) खाद्यान्नों व उर्वरकों (ii) निर्माण सम्बन्धी सामान का भण्डार, तथा (iii) खाद्यान्नों व उर्वरकों के भण्डार में वृद्धि के योग को ध्यान में रखा जाता है ।

पूंजी निर्माण के लिए वित्तीय सहायता में- (i) राज्य सरकारों, (ii) गैर विभागीय वाणिज्यिक उपक्रमों जिनमें स्वायत्त निगमों व कम्पनियों द्वारा चलाये जा रहे सरकारी उपक्रम शामिल हैं, तथा (iii) अन्य जिनमें पूंजी निर्माण के लिए स्थानीय प्राधिकारियों को दिये गये ऋण व अनुदान शामिल हैं ।

भारत में 1980-81 से 1991-92 की समय अवधि में प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि दर जिसे प्रति व्यक्ति सकल घरेलू (Per Capita GDP at Market Prices Constant 1999-2000 Prices) मापा गया है ।

3.12 प्रतिशत की दर से बढी । 1992-93 से 2003-04 की अवधि में यह सीमांत रूप से बढकर 3.7 प्रतिशत वार्षिक की दर से बड़ी । 2003-04 से 2007-08 की अवधि में इनमें औसत रूप से 72 प्रतिशत वार्षिक की वृद्धि हुई । अर्थात् विगत एक दशक के सापेक्ष इसमें दुगनी वृद्धि हुई ।

प्रति व्यक्ति आय के बढ़ने के साथ-साथ प्रति व्यक्ति निजी अन्तिम उपभोग भी बढता है । 1980-81 से 1991-92 की अवधि में प्रति व्यक्ति उपभोग की वृद्धि 2.2 प्रतिशत औसत प्रति वर्ष रही । 1990 के दशक में आर्थिक सुधारों के तदन्तर इसमें 2.6 प्रतिशत वार्षिक की वृद्धि देखी गई ।

2003-2004 से 2007-08 की समय अवधि में यह दर लगभग दुगनी अर्थात् प्रतिशत वार्षिक हो गई । महत्वपूर्ण बात यह है कि उपभोग की औसत वृद्धि आय की औसत वृद्धि के सापेक्ष धीमी थी जिसका कारण मुख्यतः बचत की दरों में होने वाली वृद्धि था । बढ़ते हुए कर संग्रहण से इस अन्तराल को और बढ़ाया जाना सम्भव था ।

नवीं व दसवीं योजना में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि को तालिका 40.2 से प्रदर्शित किया गया है ।

भारत में उत्पादन बचत एवं सकल पूंजी निर्माण की दशा (Output, Saving and Gross Capital Formation in India):

 

भारत में घरेलू बचतों व सकल पूंजी निर्माण की स्थिति को तालिका 40.3 से प्रदर्शित किया गया है ।

सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में घरेलू सकल बचत 1992-93 एवं 1993-94 में 2 प्रतिशत गिरकर लगभग 21 प्रतिशत के स्तर पर आई लेकिन 1994-95 में इनमें पुन:वृद्धि हुई तथा यह 24 प्रतिशत के स्तर को छूने लगी ।

विचारणीय बिन्दु यह है कि अर्थव्यवस्था के तीनों क्षेत्रों घरेलू निजी कारपोरेट एवं सार्वजनिक क्षेत्र की बचतों में वृद्धि हुई । सार्वजनिक क्षेत्र की बचतें जिनमें सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के लाभ भी सम्मिलित हैं ।

1970 के दशक के मध्य में सकल घरेलू उत्पाद के 4 प्रतिशत तक पहुँच गई थी लेकिन 1980 के दशक में यह 3% के स्तर पर पहुँची तथा 1990 के दशक के आरम्भ में यह 1 प्रतिशत हो गयी ।

भारत में घरेलू उत्पादन, बचत एवं सकल पूंजी निर्माण की प्रवृतियों को तालिका 40.4 द्वारा प्रदर्शित किया गया है ।

स्थिर कीमतों पर सकल विनियोग का सकल घरेलू उत्पादन से उत्पाद वर्ष 2002-03 के 25 प्रतिशत से बढ़कर 2007-07 में 33.8 प्रतिशत हो गया था । विनियोग का 90 प्रतिशत से अधिक भाग सकल स्थिर पूंजी निर्माण के रूप में हुआ ।

वर्ष 2006-07 में सकल राष्ट्रीय उत्पादन में स्थिर पूंजी निर्माण के अनुपात में 30.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई । घरेलू विनियोग के संघटकों की दशा को दसवीं पंचवर्षीय योजना अवधि एवं औसत रूप से तालिका 40.5 के द्वारा प्रदर्शित किया गया है ।

सकल पूंजी निर्माण की वृद्धि का परीक्षण क्षेत्रवार करते हुए हम यह ज्ञात कर सकते है कि कौन-से क्षेत्र की वृद्धि ने क्षमता के विस्तार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया ।

तालिका 40.6 के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि दसवीं योजना में विनिर्माण क्षेत्र में सकल पूंजी निर्माण 33.6 प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़ा जो इस क्षेत्र में होने वाली उच्चतम वृद्धि दर थी । स्पष्ट है कि विनिर्माण वृद्धि दर में होने वाली तेजी कुल सकल राष्ट्रीय उत्पाद से अधिक थी । इसके पीछे क्षमता का सुदृढ़ आधार था ।

ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GDP) की औसत 9% वार्षिक दर को प्राप्त करने का लक्ष्य रखा गया । ग्यारहवीं योजना के मुख्य व्यापक आर्थिक प्राचल तालिका 40.7 से प्रदर्शित किए गए हैं ।

सकल घरेलू पूंजी निर्माण : ग्यारहवीं योजना (Domestic Capital Formation IX Plan):

ग्यारहवी पंचवर्षीय योजना की उच्च वृद्धि दर,दसवीं योजना में सकल घरेलू उत्पाद की औसत 32% विनियोग दर से ग्यारहवीं योजना में सकल घरेलू उत्पाद के औसत 36.7% पर आंकी गई है ।

वृद्धिमान पूंजी उत्पाद अनुपात (ICOR) में भी सीमान्त सुधार की आशा इस कारण बनी है कि खुलेपन (Openness) एवं अन्तर्संरचना में भावी सुधार जो प्रतिस्पर्द्धात्मक माहौल से उत्पन्न होंगे, ICOR को कुछ कम होने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करेंगे । आठवीं योजना से ग्यारहवीं योजना की अवधि में विनियोग दर एवं बचत दरों की प्रवृति तालिका 40.8 से प्रदर्शित की गई है ।

आठवीं योजना से ग्यारहवीं योजना की अवधि में कुल एवं सार्वजनिक विनियोग की प्रवृत्तियाँ तालिका 40.9 से प्रदर्शित करती हैं जो ग्यारहवीं योजना में बढते हुए निजी विनियोग को सूचित करती हैं ।