Read this article in Hindi to learn about the reasons for low rate of capital formation along with the steps to raise it.

पूंजी निर्माण की निम्न दर के कारण (Reasons for Low Rate of Capital Formation):

पूंजी निर्माण की दर का निम्न स्तर विभिन्न कारणों की अनोन्यक्रिया का परिणाम है जैसे आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कारण जो अल्प विकसित देशों में सदियों से चले आ रहे हैं ।

पूंजी निर्माण की निम्न दर के लिये उत्तरदायी कुछ महत्वपूर्ण कारणों को नीचे दिये शीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तुत किया गया है:

1. राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय का निम्न स्तर (Low Level of National Income and Per Capita Income):

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अल्प विकसित देशों में पूंजी के अभाव का मुख्य कारण वास्तविक राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय का निम्न स्तर है जो बचतों और निवेश लक्ष्यों को सीमित करता है । वांछित निवेश के अभाव के कारण, पूंजी निर्माण में वृद्धि नहीं होती ।

अत: निम्न उत्पादन के कारण राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय कम होती है और इस कारण पूंजी निर्माण भी कम होता है । इन देशों में पूंजी निर्माण का स्तर नीचा होता है । यह स्थिति बनी रहती है और निर्धन देश निर्धन ही बने रहते हैं ।

पूंजी निर्माण का निम्न स्तर, इन देशों में एक कुचक्र में आशिक सम्बन्ध है । निर्धनता के कुचक्र को तोड़े बिना पूंजी निर्माण की दर को बढ़ाया नहीं जा सकता ।

2. पूंजी की मांग का अभाव (Lack of Demand of Capital):

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अल्प विकसित देशों में पूंजी निर्माण की दर कम होने का एक और मुख्य कारण पूंजी की मांग का अभाव है ।

3. पूंजी की पूर्ति का अभाव (Lack in Supply of Capital):

पूंजी की मांग की भांति पूंजी की पूर्ति का अभाव निम्न पूंजी निर्माण के लिये उत्तरदायी है । तथापि अल्प विकसित देशों में पूंजी की आवश्यक पूर्ति के अभाव के कारण, पूंजी निर्माण की प्रक्रिया प्रोत्साहित नहीं होती, फलत: पूंजी निर्माण का स्तर नीचा ही रहता है ।

4. बाजार का छोटा आकार (Small Size of Market):

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निर्धन देशों में घरेलू बाजार का आकार छोटा होने के कारण निवेश प्रोत्साहित नहीं होता । यह आर्थिक विकास के कार्य को विस्तृत नहीं करता और आधुनिक यन्त्रों का प्रयोग नहीं किया जा सकता क्योंकि उत्पादन की अतिरिक्त मात्रा बाजार में पहुंच नहीं पाती । “निवेश का लक्ष्य बाजार के आकार तक सीमित रहता है ।”

5. आर्थिक और सामाजिक उपरिव्ययों का अभाव (Lack of Economic and Social Overheads):

मौलिक संरचनाओं जैसे सड़कें, भवन, संचार, शिक्षा, जल, स्वास्थ्य आदि का अल्प विकसित देशों में अभाव होता है जिससे पूंजी निर्माण के असंगत वातावरण की रचना होती है और पूंजी निर्माण की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है ।

6. निपुण उपक्रम की कमी (Lack of Skilled Enterprise):

अल्प विकसित देशों में योग्य और कुशल उद्यमी उपलब्ध नहीं होते । पूंजी निर्माण के निम्न दर का मात्र यही कारण है । जोखिम उठाने वाले उद्यमियों के अभाव के कारण, उद्योगों की स्थापना और विस्तार बहुत सीमित होता है और औद्योगिक विविधीकरण नहीं होता और अर्थव्यवस्था का सन्तुलित विकास सम्भव नहीं होता । इससे निर्धन देशों में पूंजी निर्माण की प्रक्रिया को धक्का लगता है और पूंजी निर्माण का दर नीचा रहता है ।

7. शिल्प विज्ञान का पिछड़ापन (Backwardness of Technology):

अल्पविकसित देशों को तकनीकी ज्ञान की समस्या का भी सामना करना पड़ता है । उत्पादन पुरानी एवं कम उत्पादक तकनीकों अनुसार किया जाता है । परिणाम स्वरूप इन देशों की उत्पादकता और प्रति व्यक्ति आय और उत्पादन नीचा होता है जिस कारण पूंजी निर्माण की दर कम होती है ।

8. प्रभावी राजकोषीय नीति का अभाव (Lack of Effective Fiscal Policy):

प्रभावी राजकोषीय नीति अथवा वित्तीय नीति का अभाव अल्प विकसित देशों में कुछ सीमा तक पूंजी निर्माण को प्रतिबन्धित करता है । करारोपण का बोझ अत्याधिक होता है, जिसे लोग कम आय के कारण सहन करने की शक्ति नहीं रखते ।

इसके अतिरिक्त स्फीतिकारी वातावरण उत्पन्न होते हैं और कीमतें बहुत ऊंची हो जाती है । जिससे पूंजीगत वस्तुओं और उपभोग, वस्तुओं की लागत की कीमत बढ़ जाती है जिसके द्वारा आन्तरिक बाजार में निर्यात वस्तुएं बाहरी बाजारों में उत्तम और सस्ती प्रतियोगी वस्तुओं की तुलना में टिक नहीं पाती । जिससे व्यापार और भुगतानों के सन्तुलन की अहितकर समस्याएं उत्पन्न होती हैं ।

अत: यदि प्रभावी राजकोषीय नीति नहीं अपनायी जाती तब आर्थिक शक्ति इस प्रकार से ही कार्य करती है जिस कारण कि समग्र विकास योजनाएं क्षीण पड़ जाती हैं । इस प्रकार इन देशों में आर्थिक विकास और पूंजी निर्माण का स्तर बहुत नीचा होता है ।

9. जनसांख्यिक कारण (Demographic Reasons):

अल्प विकसित देशों में जनसंख्या का वृद्धि दर बहुत ऊंचा होता है जो पूंजी निर्माण के दर को नीचे रखता है क्योंकि लोगों की आय का अधिक भाग अतिरिक्त जनसंख्या के पालन-पोषण पर व्यय हो जाता है । अत: बचत की सम्भावनाएं बहुत कम हो जाती हैं, फलत: पूंजी निर्माण का विकास बिगड़ जाता है ।

पूंजी निर्माण की दर को बढ़ाने के लिये पग (Steps to Raise the Rate of Capital Formation):

किसी अल्प विकसित देश द्वारा सामना की जा रही मुख्य समस्या पूंजी निर्माण की दर को बढ़ाने की समस्या है । यह समस्या द्विमुखी है । पहले, निम्न आय वर्ग में सामान्य व्यक्ति की बचत की प्रवृत्ति को कैसे बढ़ाया जाये और दूसरे यह कि वर्तमान बचतों को पूंजी निर्माण के लिये कैसे प्रयुक्त किया जाये । इसलिये, पूंजी निर्माण का दर (i) घरेलू बचतों और (ii) बाहरी साधनों से बढ़ाया जा सकता है ।

(क) घरेलू बचतें (Domestic Savings):

घरेलू बचते, किसी समाज के अतिरेक उत्पादन का प्रतिनिधित्व करती है जो न्यूनतम उपभोग आवश्यकताओं से अधिक होता है । अतिरेक का आकार जितना बड़ा होगा, पूंजी निर्माण के उच्च स्तर की प्राप्ति की सम्भावनाएं उतनी ही अधिक होंगी । वास्तव में घरेलू बचतें निवेश का सबसे विश्वसनीय स्रोत है जो निर्धनता और अल्प विकास का कुचक्र तोड़ने में सहायता करती है ।

घरेलू बचतों को बढ़ाने के लिये निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं:

1. बचत के लिये प्रेरणा (Drive to Save):

बचत के लिये प्रेरणाएं, बचतों के संवर्धन की तीव्र समस्या के समाधान में बहुत योगदान करती है । प्रचार और सामाजिक शिक्षा द्वारा प्रयत्न किये जाने चाहिये । सामान्य जन समूहों को अपने और अपने परिवारों के हित में बचत करने की प्रेरणा दी जानी चाहिये ।

उन्हें अपने बच्चों के लिये बचत करने की आदत डालने के लिये प्रेरित और शिक्षित किया जाना चाहिये । घर बनाने के लिये, वृद्धावस्था को सुरक्षित करने के लिये, बीमारी और किसी अन्य आपातकालीन स्थिति से निपटने के लिये बचत करना बहुत आवश्यक है ।

इसी प्रकार बचत प्रमाण-पत्र और बॉण्ड जारी करना बचतों की गतिशीलता में सहायक है । इस प्रकार क प्रोत्साहनों से लोग बचत करना सीखेंगे ।

2. वित्तीय संस्थाओं की स्थापना (Establishment of Financial Institutions):

निर्धन और अल्प विकसित देशों में लोग अपनी बचायी हुई वर्तमान आय को जमा करके आभूषणों, सोने और सम्पत्ति आदि में निवेश करते हैं । इसलिये ऐसे देशों में सुव्यवस्थित वित्तीय संस्थाओं का होना आवश्यक है जहां देशवासी अपने बचाये हुए धन को पूर्ण विश्वास सहित जमा कर सकें ।

इस सम्बन्ध में सुविकसित पूंजी और मुद्रा बाजार प्रेरणा दे सकते हैं । इसके अतिरिक्त, धन एकत्रित करने की प्रक्रिया सरल होनी चाहिये ताकि सामान्य व्यक्ति भी धन जमा करवाने और ऋण लेने में किसी कठिनाई का अनुभव न करें ।

सुदृढ़ आधार पर विभिन्न संस्थाओं की स्थापना की ओर विशेष ध्यान दिया जाये जैसे बीमा, अनिवार्य भविष्य निधि, भविष्य निधि एवं पैंशन योजना और नये बैंकों की स्थापना विशेषतया ग्रामीण क्षेत्रों में और सहकारी समितियां इत्यादि ।

3. आय असमानताओं को घटाना (Reduction in Income Inequalities):

इस विधि को बचत और निवेश के उच्च दर की प्राप्ति का उपाय भी माना जाता है । यह साधारण तथ्य है कि अल्प विकसित देशों में लोगों की सीमान्त बचत प्रवृत्ति कम होती है ।

उच्च आय वर्ग के लोग विलासतापूर्ण वस्तुओं के प्रयोग में धन व्यय करते हैं अत: बचतें कम होती हैं । इसलिये, इन देशों में सम्पदा का समान वितरण होना चाहिये ताकि निम्न आय वर्ग के लोगों को अधिक धन प्राप्त हो जिससे घरेलू बचतों के आकार और मात्रा में वृद्धि हो ।

4. राजकोषीय उपाय (Fiscal Measures):

निर्धन एवं अल्प विकसित देशों में स्वैच्छिक बचतें पूंजी निर्माण के लिये पर्याप्त नहीं हैं । इसलिये सरकार राजकोषीय नीति द्वारा साधनों को गतिशील बना सकती है । यह उपाय बजटीय अतिरेक, करारोपण, सरकारी व्यय में कमी, निर्यात क्षेत्र का विकास, ऋण और घाटे की वित्त व्यवस्था आदि के रूप में होते हैं ।

इसके अतिरिक्त दीर्घकालिक विकास प्रवृतिक बचत नीति का निर्माण किया जाना चाहिये ताकि विकास प्रक्रिया के बल पकड़ने पर यह अपने आप बढ़ सके । उपभोग को घटाने के लिये और साधनों को उत्पादक निवेश की ओर स्थानान्तरित करने के लिये करारोपण, राजकोषीय उपायों का एक प्रभावी यन्त्र है ।

करारोपण द्वारा सरकार लोगों के अतिरेक साधनों का एक भाग ले सकती है और इसे या तो निजी निवेशकों को उपलब्ध करवा सकती है अथवा स्वयं इसे पूंजी निर्माण परियोजनाओं के लिये प्रयोग कर सकती है ।

अत: करारोपण दो प्रकार से पूंजी निर्माण में सहायता करता है:

(i) निजी साधनों को राज्य की ओर, वांछित कार्यक्रमों में लगाने के लिये स्थानान्तरित करके और

(ii) निजी क्षेत्र को उत्पादन बढ़ाने के लिये प्रोत्साहन उपलब्ध करके ।

इसके अतिरिक्त, सार्वजनिक ऋण एक अन्य विधि है जिसके द्वारा साधनों को अनुत्पादक प्रयोगों से उत्पादक एवं लाभप्रद प्रयोग की ओर स्थानान्तरित किया जा सकता है । परन्तु ऐसे देशों में इसका क्षेत्र भी सीमित है क्योंकि वहां व्यवस्थित पूंजी और मुद्रा बाजार का अभाव होता है । इसे अधिक सफल बनाने के लिये प्रचार एवं सामाजिक शिक्षा बहुत महत्व रखती है ।

5. उपभोग में कमी (Reduction in Consumption):

नर्कस और लुइस का मत है कि उपभोग को प्रतिबन्धित करके बचतों को बढ़ाया जा सकता है । कहा जाता है कि अल्प विकसित देशों में सामान्य लोगों का उपभोग स्तर निर्वाह रेखा से बहुत नीचे होता है । इसलिये समृद्ध लोगों के सुप्रकट उपभोग को कम करके बचतों की दर को बढ़ाया जा सकता है तथा राष्ट्रीय आय में वृद्धि को पूंजी निर्माण में लगा कर ऐसा किया जा सकता है ।

6. प्राकृतिक साधनों का उचित उपभोग (Proper Utilization of National Resources):

अल्प विकसित देशों में प्राकृतिक साधनों के उचित उपभोग की मुख्य त्रुटि होती है । वहां मानवीय तथा प्राकृतिक साधनों का बहुत बड़ा भण्डार होता है जिनका उचित उपभोग नहीं हो पाता ।

तकनीकी ज्ञान, शिक्षा और प्रशिक्षण सुविधाओं के उचित विकास द्वारा श्रम की उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है और मॉडल तकनीकों का सर्वोत्तम प्रयोग किया जा सकता है । इससे बचतों और पूंजी निर्माण की दर में वृद्धि होगी जिससे श्रम की दक्षता तथा व्यापार के नये अवसरों में वृद्धि होगी ।

7. जमा साधनों का उपयोग (Utilization of Hoarded Resources):

अल्प विकसित देशों में लोग अपनी अतिरिक्त बचाई हुई आय को आभूषण एकत्रित करने, कीमती स्वर्ण आभूषणों और उत्पादक धार्मिक संस्थाओं में निवेश करते हैं । इसके अतिरिक्त वह स्वर्ण और आभूषणों को खोना नहीं चाहते और स्वैच्छा से स्वर्ण बॉण्डों और प्रमाण पत्रों के निवेश में रुचि नहीं रखते ।

इसलिये सरकार को चाहिये कि कानून बना कर स्वर्ण आभूषण आदि की मात्रा निश्चित करें और स्वर्ण में निजी व्यापार को नियमित किया जाना चाहिये तथा देश में स्वर्ण के अवैध आगमन को रोका जाना चाहिये ।

आभूषणों के निर्माण में शुद्ध स्वर्ण के प्रयोग को भी प्रतिबन्धित कर दिया जाना चाहिये । इस प्रकार स्वर्ण जैसे जमा किये नये साधनों का उपयोग उत्पादक क्षेत्रों में निवेश द्वारा किया जा सकता है जो पूंजी निर्माण में सहायक होगा ।

8. अदृश्य बेरोजगारी का उपयोग (Use of Disguised Unemployment):

यह विस्तृत रूप में मान्य विचार है कि विश्व के अधिक जनसंख्या वाले देशों में अदृश्य बेरोजगारी में बचत सम्भावनाएं विद्यमान होती हैं । यदि इन सम्भावनाओं का प्रभावपूर्ण उपयोग किया जाता है तो यह पूंजी निर्माण का मुख्य स्रोत बन सकती है तथा आर्थिक विकास में वृद्धि कर सकती हैं ।

(ख) बाहरी साधन (External Sources):

पूंजी निर्माण के लिये घरेलू साधन प्राय: दुर्लभ होते हैं तथा उनकी सहायता के लिये बाहरी साधनों की आवश्यकता होती है ।

जिन पर नीचे परिचर्चा की गई है:

1. निजी विदेशी निवेश (Private Foreign Investment):

कम विकसित और निर्धन देश विदेशी निवेश का लाभ उठाते हैं । निजी विदेशी निवेश निजी व्यापारिक संस्थानों और व्यक्तियों से प्रोत्साहित है । विदेशी निवेशकर्त्ता आधुनिक तकनीकों और दक्ष प्रबन्ध की सहायता से अधिक लाभ अर्जित करने की इच्छा से निवेश करते हैं ।

आजकल इस प्रणाली को अधिक महत्व नहीं दिया जाता क्योंकि निजी निवेशकर्त्ता केवल उन पूंजी आयात उद्योगों में निवेश करते हैं जिनमें उनकी रुचि होती है और जन कल्याण की ओर ध्यान नहीं देते ।

2. विदेशी सरकारों से ऋण, अनुदान और सहायता (Loans, Grants and Aid from Foreign Government):

इन ढंगों का प्रयोग विदेशी सरकारों से भारी यन्त्रों, उपकरणों, आयात द्वारा प्राप्त अन्य पूंजीगत वस्तुओं से किया जाता है । इसके अतिरिक्त, इच्छावान देशों को ऋण, अनुदान आदि भी दिये जाते हैं । इसलिये इन ऋणों के उत्पादक प्रयोग की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये और निर्यातों के प्रोत्साहन और आयातों पर प्रतिबन्धों की नीति का अनुसरण किया जाना चाहिये ।

3. आयातों पर प्रतिबन्ध (Restriction of Imports):

पूंजी निर्माण को बढ़ाने वाला एक अन्य बाहरी उपाय है आयातों पर प्रतिबन्ध । इसका अर्थ है कि सभी विलासतापूर्ण आयातों पर प्रतिबन्ध लगाये जाने चाहिये । आयात की गई उपभोक्ता वस्तुओं पर बचायी गई घरेलू आय को घर में विलासतापूर्ण अथवा अर्द्ध-विलासतापूर्ण वस्तुओं पर निवेश नहीं किया जाना चाहिये । परन्तु यह बचायी हुई राशि उत्पादक कार्यों में सार्वजनिक सेवाओं पर व्यय की जानी चाहिये । यह प्रक्रिया निश्चित रूप में पूंजी निर्माण की ओर ले जायेगी ।

4. व्यापार की शर्तें (Terms of Trade):

अल्प विकसित देशों में पूंजी निर्माण के लिये साधन प्राप्त करने के लिये एक अन्य महत्वपूर्ण स्रोत व्यापार की अनुकूल शर्तें हैं । इसका अर्थ है, यदि ऐसे देशों में व्यापार की शर्तों को अनुकूल बनाया जाता है, तब वे पूंजीगत वस्तुओं की बड़ी मात्राएं आयात करने की स्थिति में होते हैं ।

इस प्रकार के पूंजी निर्माण का मुख्य लाभ यह है कि न तो यह अन्तर्राष्ट्रीय ऋण को बोझ को बढ़ाता है और न ही घरेलू ऋणों और अनुदानों के लिये संघर्ष करना पड़ता है । घरेलू अर्थव्यवस्था अस्थिरता से बच जाती है ।