गन्ना की खेती: सिंचाई और जल प्रबंधन | Read this article in Hindi to learn about the methods of irrigation and water management for sugarcane cultivation.

गन्ना लंबी अवधि की फसल होने के कारण इसे गर्मियों में सूखे तथा वर्षा ऋतु में अतिवृष्टि का सामना करना पडता है । गर्मतर जलवायु में गन्ने की वृद्धि अच्छी होने के समय फसल को अधिक पानी आवश्यकता होती है । गर्मियों में तापमान अधिक तथा वायुमंडल शुष्क होने के कारण वाष्पन व वाष्पोत्सर्जन द्वारा अधिक मात्रा में जल का ह्रास होता है ।

उक्त अवधि में पानी की पर्याप्त उपलब्धता न होने पर किल्लों की संख्या में कमी हो जाती है, जिससे प्रति इकाई क्षेत्रफल में मिल भेजने योग्य गन्नों की संख्या घट जाती है । पेड़ी की फसल भी काफी कमजोर हो जाती है । सिंचाई द्वारा दिया गया पानी न केवल गन्ने की बढकर में सहायक होता है अपितु वायुमंडलीय तापमान को संतुलित करने व भूमि से पौधों द्वारा पोषक तत्वों के ग्रहण करने में भी अहम् भूमिका अदा करता है ।

इसके विपरीत आवश्यकता से अधिक पानी फसल व भूमि दोनों के लिए अनेक प्रकार से हानिकारक होता है । पोषक तत्वों का जल में घुलकर फसल के अवशोषण क्षेत्र से रिसकर नीचे चला जाना, भूमि में लवणों की मात्रा बढ जाना तथा अनॉक्सीकृत दशा में जडों तथा सूक्ष्म जीवों द्वारा समुचित किया न कर सकने से पौधों की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पडना आदि अधिक पानी देने के दुष्परिणाम हैं ।

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इस प्रकार वैज्ञानिक जल प्रबंधन के लिए आवश्यक है कि फसल में आवश्यकतानुसार सिचाई करने के साथ-साथ भूमि से अनावश्यक पानी के निकास की समुचित व्यवस्था भी की जाए । इस प्रकार गन्ने में जल प्रबन्धन के दो महत्वपूर्ण पहलू है । पहला – फसल की संवेदनशील अवस्थाओं पर, जब पानी की विशेष आवश्यकता होती है, मृदा में प्रर्याप्त पानी बनाये रखना तथा दूसरा आवश्यकता से अधिक पानी के निकास की समुचित व्यवस्था करना ।

गन्ने में जल की मांग:

देश में गन्ना उगाने वाले विभिन्न क्षेत्रों में वर्षा की मात्रा समयांतराल तथा मिट्टी के गुणों में अंतर होने के साथ-साथ जलवायु की दशा के अनुसार सिंचाई की आवश्यकता भी भिन्न होती है । गन्ने में सिंचाई, फसल की माँग के अनुसार उचित अवस्था पर तथा सही मात्रा में करनी चाहिए ।

उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में गन्ने की फसल को पूरी अवधि के लिए करीब 2000 से 3000 मि.मी. जल की आवश्यकता होती है तथा उपोष्णीय क्षेत्रों में यह आवश्यकता 1400 से 1800 मि.मी. आंकी गयी है । गन्ने की फसल को वर्षा द्वारा लगभग 500 से 1000 मि.मी. पानी की पूर्ति हो जाती है तथा शेष मात्रा सिंचाई द्वारा पूरी करनी होती है ।

बसंतकालीन गन्ने की बुआई फरवरी-मार्च तथा शरदकालीन गन्ने की बुआई अक्टूबर में की जाती है । इस प्रकार उतर भारत में गन्ने की अवधि 10-12 माह होती है । गन्ने की इस अवधि को जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है, चार भागों में बाटा जा सकता है – जमाव, किल्ले निकलना (फुटाव), लम्बवत वृद्धि और शर्करा संचय ।

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पानी का सर्वाधिक उपयोग गन्ना वृद्धि काल (जमाव, किल्ले निकलना व लम्बवत् वृद्धि) में तथा शर्करा संचय काल में न्यूनतम होता है । बुआई के लगभग 30-45 दिन बाद गन्ने का जमाव हो जाता है । तत्पश्चात् किल्ले निकलना शुरू हो जाते हैं जो लगभग 100-120 दिन तक रहते हैं । किल्ले निकलने के बाद गन्ने की लम्बवत वृद्धि शुरू हो जाती है ।

गन्ने में सिंचाई प्रबंधन:

गन्ने के लिए पानी की आवश्यकता पर मृदा गुण, गन्ने की किस्म व अवधि, बुआई का समय तथा अपनाई गई जल संरक्षण विधियों का विशेष प्रभाव पडता है । सिंचाई की उचित व्यवस्था होने पर वर्षा ऋतु के पहले उत्तरी भारत में बसंतकालीन गन्ने में 5-6, शरदकालीन गन्ने में 6-7, पिछेती बुआई की दशा में 4-5 तथा गन्ने की पेडी में 5-6, सिंचाई की आवश्यकता होती है । जबकि दक्षिणी भारत में गन्ने में 25-30 सिंचाइयों की आवश्यकता पडती है । आमतौर पर गन्ने में प्रत्येक सिंचाई की मात्रा 7.5 या 8 सें.मी. गहरी रखनी चाहिए ।

गर्मियों में गन्ने की सिंचाई 12 से 15 दिन पर तथा जाडों में 20 से 25 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए । साधारणतः मानसून काल में सिंचाई करने की आवश्यकता नहीं पडती परंतु यदि सूखा पड जाए या कम वर्षा हो तो 1 या 2 सिंचाई करना आवश्यक होता है ।

i. पानी की उपलब्धता के अनुसार सिंचाई:

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भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ द्वारा किए गये परीक्षणों के अनुसार केवल एक सिंचाई की उपलब्धता पर गन्ने की सिंचाई मई के अंत या जून के प्रथम सप्ताह (किल्ले निकलने की तीसरी अवस्था) में करनी चाहिये । दो सिंचाइयों की व्यवस्था होने पर एक मई में तथा दूसरी जून में करनी चाहिए । यदि चार सिंचाइयों की व्यवस्था हो जाये तो ये सिंचाईयां मार्च, अप्रैल, मई तथा जून में उचित रहती हैं ।

सिंचाई हेतु पानी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने पर इसे अधोवर्णित सिद्धांतों के अनुसार प्रयोग में लाने पर आशातीत उपज में वृद्धि के अतिरिक्त जल का अपव्यय भी कम से कम होता है । प्रयोगों द्वारा यह लात हुआ है कि भूमि की जल धारिता के अनुसार औसतन 50 प्रतिशत मृदा-क्षमता पर सिंचाई करने से गन्ने की उपज में वृद्धि होती है ।

वायुमंडलीय तापमान के आधार पर भी सिंचाई की जाती है । इसमें समग्र वाष्पन व सिंचित पानी की गहराई की मात्रा के अनुपात के अनुसार सिंचाई निर्धारित की जाती है । विभिन्न प्रयोगों द्वारा ऐसे निष्कर्ष निकले है कि सिंचाई की गहराई (7.5 या 8.0 सेमी) व समग्र वाष्पन के अनुपात 0.8 से 1.0 पर सिंचाई करने से गन्ने की अच्छी उपज प्राप्त होती है । इस विधि से सिंचाई करने पर, 5-6 सिंचाइयों की आवश्यकता पडती है ।

ii. गन्ने में सिंचाई के लिए उपलब्ध जल के ईष्टतम् प्रयोग हेतु आवश्यक बातें:

a. गन्ने के टुकडों को बोते समय खेत में नमी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होनी चाहिए । नमी कम होने पर खेत में पलेवा करके बुआई करनी चाहिए । देर से बुआई की दशा में गन्ने के टुकडों को 10-12 घंटे तक पानी में भिगाने के पश्चात् बोना चाहिए ।

b. फरवरी के प्रथम सप्ताह में लगाये गये गन्ने में मार्च के अंत से लेकर जून के मध्य तक निकले किल्ले ही गन्ने का रूप लेते हैं । अतः इस अवधि में गन्ने की समय-समय पर संस्तुति के आधार पर सिंचाई करते रहना अति आवश्यक है ।

c. जून के मध्य अक्तूबर के मध्य तक गन्ने के पौधों में सर्वाधिक वृद्धि होती है । देश के अधिकांश भागों में यही वर्षा काल है । लंबे समय तक अथवा समुचित मात्रा में वर्षा न होने पर इस अवधि में भी एक या दो सिंचाई की आवश्यकता हो सकती है परंतु इस अवधि में अनावश्यक पानी का समुचित जल निकास प्रबंध आवश्यक है ।

d. गन्ने की वानस्पतिक वृद्धि नवंबर-दिसंबर तक पूर्ण हो जाती है और जनवरी- फरवरी में फसल काट ली जाती है । पेडी में परिपक्वता की यह अवस्था थोडी जल्दी आती है शीतकालीन वर्षा न होने पर इस समय भी फसल में पानी देना लाभकारी होता है ।

सिंचाई की विधियां:

i. जल भराव विधि:

गन्ने की सिंचाई आमतौर पर पूरे खेत में सपाट विधि द्वारा की जाती है । इस विधि में गन्ने के पूरे खेत में पानी भर दिया जाता है, जिससे अधिकांश पानी अनावश्यक रूप से रिसाव द्वारा जमीन के नीचे चला जाता है । इस विधि द्वारा सिंचाई करने से अधिक पानी की आवश्यकता होती है । खेत असमतल होने से निचला हिस्सा जल प्लावन से प्रभावित रहता है जबकि खेत का ऊंचाई वाला भाग असिंचित रह जाता है । इसके अतिरिक्त इस विधि द्वारा अधिक पानी की आवश्यकता होती है ।

ii. एकांतर नाली विधि:

गन्ने की फसल में पानी की उपयोग क्षमता बढाने के लिए एकांतर नाली विधि द्वारा सिंचाई करने पर लाभकारी परिणाम मिले हैं । इस विधि में पूरे खेत को सींचने की बजाय एक नाली छोडकर दूसरी नाली में एकांतर क्रम से पानी लगाया जाता है । एकान्तर नाली विधि द्वारा सिंचाई करने से उपज तो सामान्य प्राप्त होती ही है, सिंचाई के पानी में 36 प्रतिशत की बचत भी हो जाती है ।

iii. फव्वारा (स्प्रिंक्लर) एवं बूंद-बूंद (ड्रिपप) विधि:

सिंचाई की आधुनिक पद्धतियाँ जैसे ट्रिप सिंचाई पद्धति द्वारा खेत में पानी देने से भूमि में नमी की समुचित मात्रा बराबर बनी रहती है, जिससे कि गन्ने की फसल द्वारा पोषक तत्वों का अवशोषण अधिक होता है । यह विधि महाराष्ट्र में बडे पैमाने पर अपनाई गई है ।

पुणे स्थित बसंत दादा शर्करा संस्थान में किए गये अनुसंधान के परिणाम दर्शाते है कि गन्ने की द्विपंक्ति बुआई विधि एवं भूमिगत ट्रिप सिंचाई पद्धति द्वारा प्रतिदिन सिंचाई करने से 45 से 50 प्रतिशत तक पानी की बचत होती है तथा जल उपयोग क्षमता में दो से ढाई गुना, उपज में 20 से 30 प्रतिशत तथा शर्करा परता में 0.2 से 0.5 इकाई की वृद्धि होता है ।

इस विधि द्वारा जलमग्न ढंग से पानी देने की तुलना में करीब 60-70 प्रतिशत पानी की बचत होती है । जलमग्न विधि से सिंचाई करने में एक् हैक्टर के लिए जितना पानी चाहिए, उतने पानी से तीन हैक्टर खेत स्प्रिंक्लर से एवं इससे अधिक क्षेत्रफल ट्रिप विधि द्वारा सींचा जा सकता है । सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए यह अत्यंत लाभकारी प्रणाली है ।

अन्य महत्वपूर्ण बातें:

i. सिंचाई का निर्धारण करते समय गन्ने के खेत की मिट्टी के गुणों का भी ध्यान रखना आवश्यक है । हल्की दोमट तथा बलुई दोमट मिट्टी में दोमट या मटियार दोमट मिट्टी की अपेक्षा सिंचाई की आवश्यकता अधिक होती है । अतः हल्की दोमट या बलुई दोमट मिट्टी में गन्ने को नाली में बोकर सिंचाई करने से पानी की बचत की जा सकती है ।

ii. गन्ने की कतारों के बीच गन्ने की सुखी पत्तियाँ बिछाने से प्रति सिंचाई पानी कम लगता है क्योंकि पतवार से मिट्टी में काफी दिनों तक पर्याप्त नमी संरक्षित रहती है ।

iii. नमी की कमी होने से व अधिक गर्मी के कारण गन्ने के ऊपर की पहली व दूसरी खुली पत्तियाँ सूखने लगती हैं । पतियों का सूखना उनके सिरे से प्रारंभ होकर नीचे की तरफ तेजी से बढता है । गन्ने में ऐसे लक्षण दिखाई देने पर तुरत सिंचाई कर देनी चाहिए ।

iv. सिंचाई की पर्याप्त उपलब्धता न होने पर उर्वरकों के उपयोग पर विशेष ध्यान देना चाहिए । सिंचाई और उर्वरकों का संतुलन गन्ने की अधिक उपज प्राप्त करने में सहायक होता है । गन्ने की अधिकतम वृद्धि की अवस्था में पानी की कमी होने से गन्ने की बढवार बहुत कम हो जाती है । इसके बाद की अवस्था में नमी की कमी से गन्ना शीघ्र पकने लगता हे, जिससे उसकी उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पडता है ।

इस प्रकार उष्णीय एवं उपउष्णीय क्षेत्रों में मानसून की वर्षा से पूर्व का समय सिंचाई की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, जबकि वर्षाकाल में जल निकास की व्यवस्था आवश्यक है । मानसून की वर्षा न होने पर एक या दो सिंचाई करनी आवश्यक होती है । साधारणतः गन्ने की कटाई के एक-डेढ माह पूर्व सिंचाई बद कर देने से गन्ने में शर्करा की मात्रा अच्छी होती है ।

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