मिर्च कैसे खेती करें | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate chillies (mirchi).

मिर्च भारत के मसालों की प्रमुख फसल है । मिर्च सोलेनेसी कुल का पौधा है । मिर्च का वानस्पतिक नाम ”कैप्सीकम एनम” है । पकी लाल मिर्च सुखा कर मसाले की तरह तथा हरी मिर्च का उपयोग आचार व सब्जी में किया जाता है ।

हरी मिर्च में विटामिन ”ए, बी एवं सी” पर्याप्त मात्रा में होता है । इसके अतिरिक्त इसमें कैल्शियम एवं फास्फोरस लवणों की भी काफी मात्रा होती है । मिर्च में तीखापन इसमें पाये जाने वाले एल्केलायड रसायन ”कैप्सेसिन” (ओलियोरेजिन) के कारण होता है । मिर्च के पक जाने पर लाल रंग ”कैप्सेन्थिन” के कारण होता है ।

मिर्च की उत्पत्ति स्थान दक्षिणी अमेरिका माना जाता है । ऐसा माना जाता है कि 17वीं शताब्दी में पुर्तगालियों द्वारा इसे भारत लाया गया था । वर्तमान में ब्राजील संयुक्त राज्य अमेरिका, अफ्रीका, स्पेन, चीन, इन्डोनेशिया, भारत पाकिस्तान व जापान में इसका उत्पादन किया जाता है ।

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वर्तमान में भारत मिर्च उत्पादन एवं निर्यात में प्रथम स्थान रखता है । विश्व के कुल मिर्च के उत्पादन का एक-चौथाई भाग भारत द्वारा उत्पादित किया जाता है । चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मोरक्को, मैक्सिको एवं टर्की से उत्पादन एवं निर्यात में इसकी प्रतिस्पर्धा है ।

भारत में मिर्च की खेती आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु एवं उड़ीसा में प्रमुख मसाले के रूप में की जाती है । राजस्थान में इसकी खेती प्रायः सभी जिलों में कम या ज्यादा मात्रा में की जाती है । राजस्थान का मिर्च उत्पादन में देश में छठा स्थान है ।

राजस्थान में अजमेर, टोंक, भीलवाड़ा, जोधपुर, पाली व नागौर जिले मिर्च उत्पादन करने वाले प्रमुख जिले हैं । राज्य में मिर्च का 50 प्रतिशत क्षेत्र इन्हीं जिलों में है । सवाईमाधोपुर, करौली, भरतपुर एवं धौलपुर जिले भी मिर्च की अच्छी उत्पादकता वाले जिले हैं ।

उपयोगिता:

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प्रत्येक घर में मिर्च का उपयोग एक अनिवार्य मसाले के रूप में, भोजन को स्वादिष्ट बनाने की दृष्टि से किया जाता है । विभिन्न व्यंजनों में तीखापन एवं लाल रंग प्रदान करने के अतिरिक्त इसमें विटामिन ‘ए’ तथा ‘सी’ व कुछ खनिज लवण फास्फोरस, कैल्शियम व लोहा पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं । किसानों के लिए यह अत्यधिक लाभ देने वाली नकदी फसल है ।

जलवायु:

मिर्च की फसल के लिए सामान्य गर्म जलवायु उपयुक्त रहती है । अधिक गर्मी इसके लिए हानिकारक है । जिन क्षेत्रों में गर्मियों में तापमान अधिक नहीं रहता, वहाँ गर्मियों में भी फसल की जाती है । मिर्च की फसल के लिए 20-25C तापमान उपयुक्त रहता है । 17C तापमान इसके लिए श्रेष्ठ माना जाता है ।

अधिक तापमान होने पर पौधा तो अच्छी बढ़ोतरी करता है परन्तु जड़ों को नुकसान होता है । राजस्थान में मिर्च वर्षा ऋतु में बोई जाती है । दक्षिण भारत में मिर्च की खेती वर्ष भर की जा सकती है । अधिक वर्षा मिर्च की खेती के लिए हानिकारक है ।

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मृदा:

मिर्च की खेती के लिए दोमट तथा बलुई दोमट मृदा जिसमें कार्बनिक पदार्थ की मात्रा उपयुक्त हो तथा जीवांश पदार्थ पर्याप्त मात्रा में मौजूद हो, सर्वाधिक अच्छी मानी जाती है । क्षारीय, लवणीय व अत्यधिक भारी भूमि मिर्च की खेती के लिए उपयुक्त नहीं होती है ।

इसकी खेती के लिए साधारण जल क्षमता वाली मृदा होनी चाहिए । वर्षा का पानी खेत में भरा रहने से इससे पौधा की वृद्धि रुक जाती है तथा पत्तियाँ पीली पड़ जाती है । लवणीय मृदा इसके अंकुरण और प्रारम्भिक वृद्धि को प्रभावित करती है ।

किस्में:

राज्य के लगभग सभी सिंचित क्षेत्रों में मिर्च की विभिन्न किस्में प्रचलित हैं । इसमें पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर व नागौर जिलों में होने वाली मिर्च व्यावसायिक दृष्टि से अत्यधिक लाभप्रद है । मिर्च की खेती के फलस्वरूप नागौर का पशुमेला सम्पन्न होने के बाद विशाल मिर्च मेला आयोजित होता है ।

जोधपुर का मथानिया क्षेत्र 50-60 साल से 6-8 इंच लम्बी, मोटी लाल मिर्च के लिए विश्व प्रसिद्ध है । इसके अतिरिक्त विभिन्न स्थानीय नामों वाली किस्में अपना अलग-अलग अस्तित्व रखती है जैसे टोंक की मिर्च, केकड़ी, किशनगढ़ की मिर्च, अमरसर, चौमू एवं बगरू की मिर्च व सवाईमाधोपुर, भरतपुर एवं कोटा, झालावाड़ क्षेत्रों की स्थानीय किस्में प्रचलित हैं ।

हाड़ौती क्षेत्र में होने वाली मिर्च की किस्में पतली, छोटी व अधिक चरपरी होती है जबकि मारवाड़ क्षेत्र की मिर्च मोटी, लम्बी, कम तीखी व लाल होती है । इसके अतिरिक्त बगरू की मोटे डंठल वाली नुकीली मिर्च तथा जयपुर जिले में अमरसर नाम की खरीफ की एक मोटे आकार की एवं अपेक्षाकृत कम लम्बी किस्में बाजार भाव की दृष्टि से अच्छी मानी जाती है ।

हाड़ौती क्षेत्र में होने वाली मिर्च की किस्में पतली, छोटी व अधिक चरपरी होती है जबकि मारवाड क्षेत्र की मिर्च मोटी, लम्बी कम तीखी व लाल होती है । इसके अतिरिक्त बगरु की मोटे डंठल वाली नुकीली मिर्च तथा जयपुर जिले में अमरसर नाम की खरीफ की एक मोटे आकार की एवं अपेक्षाकृत लम्बी किस्म बाजार भाव की दृष्टि से अच्छी मानी जाती है ।

उन्नत किस्में:

देश के विभिन्न अनुसंधान केन्द्रों में मिर्च की कई उन्नत किस्में तैयार की गई हैं । इनमें गुन्टूर आन्ध्रप्रदेश की जी. पंतनगर की एल., कोयम्बटूर (तमिलनाडु) की अनेक किस्में, इनके अलावा अनेक किस्में, जैसे-राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय बिहार की कल्याणपुर लाल, कल्याणपुर पीली, कल्याणपुर सलेक्शन, जबलपुर कृषि विश्वविद्यालय (एम.पी.) की जे.सी.ए. 154 आदि उन्नत किस्मों की मिर्च का विकास किया है ।

संकरण विधि से मिर्च की किस्मों में जननिक सुधार किया गया है । अलग-अलग किस्मों के वांछित गुणों को एक किस्म में समावेशित किया गया है । मिर्च में स्वपरागण द्वारा स्वपरागित किस्मों को-2, जी-5, पूसा ज्वाला, पंत.सी-1, पंतसी-2 किस्में निकाली गयी है ।

एन.पी. 46ए:

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित अधिक पैदावार देने वाली पुरानी किस्म है । इसके पौधे छोटे, फैलने वाले व सघन होते हैं फल पतले, लम्बे (10.7 सेमी.) व चौड़ाई (3.0 सेमी.) तथा कम तीखे होते हैं । फलों में बीजों की संख्या कम व कैप्सेसिन 0.53 मि. ग्राम/ग्राम होता है ।

पूसा ज्वाला:

भारतीय कृषि अनुसंधान द्वारा विकसित एन.पी. 46 ए का पुरी रेड के संकरण से विकसित है । पौधे छोटे, फैलने वाले व सघन होते हैं । फल लम्बे, पतले, मुड़े हुए हरी मिर्च के लिए अधिक उपयोगी होते हैं । फल एक साथ पकते हैं तथा 2-3 तुड़ाई में समाप्त हो जाते हैं ।

पूसा सदाबहार:

इस किस्म के पौधे सीधे खड़े 60-80 से.मी. लम्बे होते हैं । फल 6-8 से.मी. लम्बाई के गुच्छों में तथा 6-14 फल प्रति गुच्छा लगते हैं । परिपक्व फल गहरे चमकीले लाल रंग के होते हैं । यह किस्म निर्यात के लिए भी उपयोगी हैं । यह किस्म विषाणु रोग, डाईबैक तथा एफीड एवं माइटस कीट-रोधिता की अच्छी क्षमता वाली है । इसका उत्पादन 150-200 क्विंटल प्रति हैक्टेयर हरी तथा 20-30 क्विंटल प्रति हैक्टेयर सूखी मिर्च का होता है ।

आर.सी.एच:

कृषि अनुसंधान केन्द्र मंडोर (जोधपुर) में तैयार आर.सी.एच.-1 किस्म पूसा ज्वाला की तुलना में उच्च गुणवत्ता के फलों वाली व अधिक पैदावार देने वाली है । यह मोटा छिलका व कम बीज वाली किस्म है । इसमें पौधे की लम्बाई लगभग 45 से.मी., फल लम्बे 13 से.मी. तक, गहरे लाल रंग के चमकीले होते हैं । फलों की चौड़ाई लगभग 3.43 से.मी. रहती है । फसल रोपण के 110 दिन बाद फल आते हैं तथा तुड़ाई सहित 200 दिन में फसल पूर्ण हो जाती है । फसल की पैदावार लगभग 43 क्विंटल प्रति हैक्टेयर सूखी मिर्च होती है ।

पंत-सी-1:

पौधे सीधे खड़े 50-60 सेमी. ऊँचे होते हैं । फल खड़े 6-7 से.मी. लम्बे व नुकीले होते हैं । रोपाई के 100 दिन बाद आरम्भ हो जाती है । इसका स्वाद तीव्र तीखेपन वाला होता है ।

बुवाई का समय:

मिर्च की फसल गर्मी व वर्षा ऋतु में दो फसलें ली जा सकती है । गर्मी की फसल सब्जी के लिए उपयुक्त रहती है । मसाले के रूप में ली जाने वाली किस्मों की फसलें सामान्यतया वर्षा ऋतु में ली जाती है । दक्षिण भारत में इसकी तीन फसल के रूप में मिर्च की किस्म खरीफ के रूप में पैदा की जाती है अतः मई माह में इसकी नर्सरी में बुवाई कर देते हैं ।

नर्सरी लगाना:

मिर्च की फसल लेने के लिए बीजों को पौधशाला में बोकर पौध तैयार की जाती है । 5-6 सप्ताह में पौध रोपाई के लिए तैयार हो जाती है अतः गर्मी की फसल के लिए जनवरी-फरवरी तथा वर्षा ऋतु वाली फसल के लिए मई-जून में पौध लगाई जाती है ।

नर्सरी की क्यारियों को तैयार करने के लिए मृदा को गहरी खोदकर उसकी सफाई कर 15-20 टन प्रति हैक्टेयर की दर से गोबर की अच्छी सड़ी हुई खाद मिलाकर मृदा को खूब भुरभुरी बना लिया जाता है । क्यारियाँ लगभग 6 इंच ऊँची, एक मीटर चौड़ी 3 मीटर लम्बी या आवश्यकतानुसार लम्बी बना ली जाती है ।

एक हैक्टेयर फसल के लिए पौध तैयार करने हेतु डेढ किलोग्राम बीज पर्याप्त रहता है । बुवाई से पहले बीजों को दो ग्राम थाईरम या कैपान प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर बुवाई की जाती है ।

खेत की तैयारी व रोपाई:

खेत में 20 से 25 टन गोबर की सड़ी हुई खाद डालकर खूब जुताई करके मृदा अच्छी तरह भुरभुरी बना लेते हैं । 4 से 6 सप्ताह में पौध रोपण के लिए तैयार हो जाती है । कभी-कभी किसान रोपाई के 8 से 10 दिन पूर्व सुबह के समय पौध के ऊपरी हिस्से को तोड़ देते हैं । ऐसा करने से पौध मोटी व मजबूत हो जाती है ।

गर्मी की फसल के लिए कतार 45 से 60 से.मी. तथा पौध से पौध की दूरी 30 से.मी. रखते हैं । रोपाई से पहले पौध की जड़ों को 50 ग्राम कार्बोफ्यूरान का एक लीटर पानी दर से बनाये घोल में आधा घाटा डुबोकर रोपाई करने पर कीटों व जड़-गौठ रोग में सुरक्षा होती है ।

दीमक प्रभावित क्षेत्र में 25 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर एण्डोसल्फान 4 प्रतिशत या क्यूनालफास डेढ प्रतिशत चूर्ण मिला देना लाभकारी रहता है । रोपाई शाम के समय की जाती है । इसके तुरन्त बाद सिंचाई कर दी जानी चाहिए ।

 

उर्वरक:

मिर्च में प्रति हैक्टेयर 70 किलोग्राम नत्रजन, 48 किलोग्राम पास्फोरस तथा 50 किलोग्राम पोटाश देने की आवश्यकता है । नत्रजन की आधी मात्रा, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा रोपाई से पूर्व खेत में देनी चाहिए । फसल की आयु लम्बी होने के कारण नत्रजन की शेष मात्रा दो बराबर भाग में रोपाई के 30 दिन से 45 दिन बाद छिड़क कर सिंचाई कर दी जाती है ।

सिंचाई व निराई-गुड़ाई:

रोपाई के बाद एक हल्की सिंचाई देने से पौध अच्छी जमती है । तत्पश्चात् 10 दिन बाद दूसरी सिंचाई, फिर भूमि की किस्म तथा वर्षा के अनुसार 15-30 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करें । मिर्च में भूमि तथा मौसम के अनुसार नियमित सिचाई की आवश्यकता होती है ।

रोपाई के बाद जडें अच्छी तरह जमने तक फूलों की बहार आने के लिए फूल आने से पहले की अवस्था, सिंचाई की दृष्टि से क्रान्तिक अवस्थायें हैं, परन्तु अत्यधिक पानी से फसल पीली पड़ जाती है । नत्रजन का शोषण रुक जाता है जिससे बढ़वार रुक कर उपज में कमी आ जाती है । इसलिये हल्की सिंचाई ही करनी चाहिये ।

अत्यधिक पानी से फूल व फलों के जमाव पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । अत्यधिक तापक्रम तथा कम आर्द्रता से वाष्पोत्सर्जन अधिक होता है तथा जिसके कारण फूल व कलियाँ झड़ जाती हैं । समय पर निराई-गुड़ाई करना आवश्यक है अन्यथा खरपतवार मिर्च की फसल को बढ़ने नहीं देती हैं ।

तुड़ाई:

मिर्च को मसाले के रूप में लेने के लिये लाल होने दिया जाता है तथा फिर तोड़ा जाता है, परन्तु पहली तुड़ाई तो हरी ही करनी चाहिये तथा फिर उसे लाल होने देना चाहिए । इससे दूसरी तुड़ाई शीघ्र ही आ सकेगी तथा अधिक मात्रा में फल लगने व जमने से ज्यादा पैदावार मिल सकेगी । डिब्बाबन्दी के लिये मिर्च पौधों पर ही लाल होने के बाद तोड़ी जाती है । सूखी लाल मिर्च के रूप में 15-25 क्विंटल प्रति हैक्टेयर प्राप्त हो जाती है । हरी शिमला मिर्च प्रति हैक्टेयर 150 क्विंटल तक हो जाती है ।

किस्म व ऋतु के अनुसार मिर्च में रोपाई के 1-2 महिने बाद फूल आना शुरू हो जाते हैं तथा इसके एक माह बाद तोड़ने लायक हरे फल बन जाते हैं । जहाँ हरी मिर्च के लिए बाजार उपलब्ध हैं वहां हरी मिर्च तोड़कर बेच दी जाती है ।

जहां केवल लाल मिर्च ही लेने का उद्देश्य है, वहां भी पहले एक-दो बार हरी मिर्च की तुड़ाई लाभदायक सिद्ध होती है । लाल मिर्च के लिए पूरे पके हुए फल जब लाल होना शुरू हो जाते हैं या पूर्णनया लाल हो जाते हैं, उनको डंठल सहित तोड़ लेते हैं । 10-15 दिन के अन्तराल पर 6-10 बार में पूरी फसल की तुड़ाई होती है ।

भण्डारण:

दिसम्बर व जनवरी माह में लाल मिर्च को हल्की धूप में सुखाने का काम शुरू हो जाता है । तोड़े हुए फलों में से टूटे हुए या बीमारी से ग्रसित फलों को अलग कर देते हैं तथा शेष का छाया में ढेर लगा देते हैं । एक या दो दिन रखने से सभी फल पककर एकसार लाल रंग ग्रहण कर लेते हैं । लाल फलों को पक्के फर्श या साफ किये हुए स्थान पर फैलाकर धूप में सुखा देते हैं । अच्छी तरह सूखने के बाद इनको बोरियों में भरकर नमी रहित गोदामों में रख देते हैं ।

 

पैकिंग:

मिर्च के बीज की पैकिंग हेतु 700 गेज की पोलिथिन बैग बीज भण्डारण के लिये उपयोगी पाये गये हैं लेकिन पैकिंग के समय बीज में नमी 6-7 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए ।

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