धनिया कैसे खेती करें | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate coriander (dhania).

धनिया का वानस्पतिक नाम कोरिएन्ड्रम सेटाइवम है । यह अम्बेलीफेरी कुल का पौधा है । धनिया मसालों की एक प्रमुख फसल है । धनिये की पत्तियाँ व दाने दोनों का ही उपयोग किया जाता है ।

इसके पौधे की हरी शाखाओं तथा पत्तियों का उपयोग इसकी विशिष्ट प्रकार की सुगंध तथा स्वाद के कारण सब्जियों में काटकर डाला जाता है । इन पत्तियों की स्वादिष्ट चटनी भी बनाई जाती है । धनिया के बीजों को मसाले के रूप में काम में लिया जाता है । धनिये का उपयोग औषधि के रूप में भी किया जाता है । इसकी पत्तियों में शर्करा प्रोटीन व विटामिन ए पाया जाता है ।

जलवायु:

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धनिये की खेती उष्ण व उपोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है । अंकुरण के समय हल्की गर्मी पौधों की बढ़वार के लिए ठंडक एवं पकने के लिए गर्मी की आवश्यकता होती है लेकिन इसकी खेती वाले क्षेत्रों में पाला नहीं पड़ना चाहिये क्योंकि पाले से इस फसल को बहुत नुकसान होता है ।

भूमि:

धनिये की खेती सभी प्रकार की मृदा में की जा सकती है लेकिन अच्छी जैविक पदार्थों वाली दोमट मृदा इसकी खेती के लिए अच्छी रहती है । कोटा झालावाड बूँदी एवं चित्तौड़गढ़ जिलों की काली एवं अन्य भारी मृदा जो नमी को अधिक समय तक संचित कर सके, अच्छी पैदावार देती है परन्तु खेत में पानी का ठहराव इसके लिए अच्छा नहीं रहता है ।

उन्नत किस्में कर्ण (आर.सी.आर. 41):

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इसे राजस्थान कोरियन्डर 41 कहते हैं । यह राजस्थान में विकसित की गई है । यह किस्म राजस्थान के सभी सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयोगी पाई गई । इसके दाने सुडौल, गोल व छोटे होते हैं तथा तना-सूजन व उखटा रोगों से ग्रसित नहीं होता है । इसकी औसत उपज सिंचित क्षेत्र में 10-12 क्विंटल एवं असिंचित क्षेत्र में 4-7 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है । यह किस्म 140-145 दिन में पक कर तैयार हो जाती है ।

आर.सी. 436:

यह किस्म कृषि विश्वविद्यालय, जोबनेर द्वारा विकसित की गई है । यह कोटा खण्ड एवं टोंक एवं भरतपुर जिलों जैसी विशिष्ट स्थिति वाले क्षेत्रों के लिए विशेष रूप में एक अतिरिक्त किस्म के रूप में विकसित की गयी है । यह किस्म 48.42 से.मी. औसत ऊँचाई वाले पौधों वाली अर्द्ध बोनी किस्म है ।

यह मोटे एवं लम्बाकार आकृति के दानों वाली किस्म है । यह सीमित सिंचाई वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त रहती है । समयावधि 100 से 105 दिन, वाष्पशील तेल की मात्रा 0.3 प्रतिशत है । यह मूलग्रंथि रोग के लिए मध्यम प्रतिरोधी किस्म है । उपज 12 क्विंटन/प्रति हैक्टेयर है ।

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एन.आर.सी.एस.एस – ए.सीआर. 1:

यह किस्म नेशनल रिसर्च सेन्टर आन सीड स्पाइसेज, तबीजी (अजमेर) द्वारा विकसित की गई है । यह दोहरे उद्देश्य की तथा लम्बी अवधि (152 दिन) वाली किस्म है । सिंचित क्षेत्रों में अच्छी बढ़ती है । दाने मध्यम से छोटे होते हैं, जिनमें वाष्पशील तेल 0.35-0.50 प्रतिशत तथा औसत उपज 1250 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर होती है । इसके बीज गोल होते हैं तथा यह किस्म निर्यात के योग्य है । पौधे तुम-गाल रोधक तथा छाछिया प्रतिरोधक होते हैं ।

सी. एस. 6 (स्वाति):

यह गुन्टुर (आन्ध्रप्रदेश) में विकसित की गयी किस्म है फसल की समयावधि 80-90 दिन, अधिक पैदावार, मध्य ऊर्ध्व, देरी से बुआई के लिए उपयुक्त, छाछया रोगरोधी, वाष्पशील तेल की मात्रा 0.3 प्रतिशत होती है ।

सी.एस. 4 (साधना):

यह एक अधिक देने वाली बारानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त, मध्यम ऊर्ध्व, चेंपा व वरुथी प्रतिरोधी, फसल अवधि 95-105 दिन की किस्म है । यह भी गुन्टूर (आन्ध्रप्रदेश) में विकसित की गयी किस्म है ।

खेत की तैयारी:

4-5 गहरी जुताई करके मृदा को भुरभुरी कर लेनी चाहिये तथा खेत की तैयारी करते समय नमी रोकने के लिए हर जुताई के बाद पाटा चलाना चाहिये । सिंचित क्षेत्र में भूमि में यदि पर्याप्त नमी नहीं हो तो ‘पलेवा’ करके भूमि की तैयारी करनी चाहिए ।

बुवाई का समय:

दाने की फसल के लिए धनिये की बुवाई का उपयुक्त समय 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक है । जल्दी बुवाई करने से अधिक तापमान के कारण अंकुरण में बाधा आती है जबकि देर से बुवाई करने से पौधों की बढ़वार कम होती है तथा बीमारियों के प्रकोप अधिक होने की आशंका रहती है । पाला पड़ने वाले क्षेत्रों में ऐसे समय बुवाई करें कि पाला पड़ने की सम्भावना न रहे, क्योंकि इस अवस्था में पाले से फसल को सबसे अधिक नुकसान होता है ।

बीज की मात्रा एवं बुवाई का तरीका:

प्रति हैक्टेयर 15-20 किलोग्राम बीज पर्याप्त रहता है । बुवाई-पूर्व बीजों को समतल पक्के फर्श पर डालकर पाँवों से या अन्य किसी चीज से लड़कर दो भागों में विभाजित कर लेना चाहिये । यह काम सावधानी से करना चाहिये ताकि अंकुरित होने वाला भाग नष्ट न हो ।

बुवाई-पूर्व बीजों को 3 ग्राम थाईरम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिये अथवा ट्राईकोडरमा 4-6 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज को उपचारित करे, लेकिन दानों से एक साथ उपचारित नहीं करना चाहिये ।

बीज की बुवाई 30 सेन्टीमीटर कतार से कतार की दूरी पर हल के पीछे कूड से करना चाहिये । अधिक उर्वरा शक्ति वाली भूमि में सिंचित फसल में कतारों की दूरी 40 सेन्टीमीटर रखनी चाहिए । बीज को 3 से 4 सेन्टीमीटर से ज्यादा गहरा नहीं बोना चाहिये ।

खाद एवं उर्वरक:

धनिये की खेती के लिए प्रति हैक्टेयर 150-200 क्विंटल की सड़ी हुई खाद खेत की तैयारी करते समय भूमि में मिला देनी चाहिये । इसके अतिरिक्त असिंचित क्षेत्रों में 20 किलोग्राम नत्रजन, 30 किलोग्राम फास्फोरस एवं 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से देना चाहिए ।

सिंचित क्षेत्र में प्रति हैक्टेयर 60 किलोग्राम नत्रजन, 30 किलोग्राम फास्फोरस तथा 20 किलोग्राम पोटाश का उपयोग करें । फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की एक-तिहाई मात्रा बुवाई के समय उपयोग करें ।

नत्रजन की शेष मात्रा दो बार में बुवाई के 30 दिन बाद प्रथम सिंचाई के बाद तथा शेष 75 दिन बाद फूल आते समय बराबर-बराबर मात्रा में डालना चाहिये । जिंक की कमी वाले क्षेत्रों में बुवाई से पूर्व 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हैक्टेयर की दर से काम में लें ।

सिंचाई एवं निराई-गुड़ाई:

सिंचित क्षेत्र में ‘पलेवा’ के अतिरिक्त 4-6 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है । पहली सिंचाई बुवाई के 30-35 दिन बाद, दूसरी 50-60 दिन बाद, तीसरी 70-80 दिन एवं चौथी सिंचाई 90-100 दिन, पाँचवीं 105-110 दिन एवं छठी 115-125 दिन के बीच कर देनी चाहिए । सिंचाई की संख्या की किस्म तथा स्थानीय मौसम के अनुसार कम या ज्यादा भी की जा सकती है ।

धनिये की आरम्भिक बढ़वार बहुत धीमी होती है, इसलिए निराई करके खरपतवार निकालना बहुत जरूरी है । असिंचित फसल में बुवाई के 30-35 दिन बाद निराई-गुड़ाई करना आवश्यक होता है । सिंचित फसल में पहली निराई-गुड़ाई, बुवाई के 40-45 दिन बाद तथा प्रथम दो सिंचाई के बाद हल्की निराई-गुड़ाई कर देनी चाहिये ।

इसी समय पौधों के बीच 5 से 10 सेन्टीमीटर का फासला रखते हुए पौधों की छँटाई कर दें । पेन्डीमिथालिन एक किलोग्राम सक्रिय तत्व (3.33 लीटर स्टाम्प एफ-34) प्रति हैक्टेयर (4.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से) 750 लीटर पानी में घोल बनाकर बुवाई से पहले छिड़काव करना चाहिये । छिड़काव के समय भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिये ।

कटाई एवं गहाई:

पौधों से हरी पत्तियाँ प्राप्त करने के लिए बुवाई के 15-20 दिन बाद से तुड़ाई आरम्भ कर देनी चाहिये, जो 75 दिन की फसल में, जब तक पौधों में फूल न आना शुरू हो जायें तब तक कर सकते हैं । यदि इस प्रकार 75 दिन तक 50 प्रतिशत पत्ते हटाते रहें तो आय में भी वृद्धि होती है तथा पैदावार में भी कमी नहीं आती है ।

बीज वाली फसल 115 से 135 दिन में पककर तैयार हो जाती है । फसल पकने पर दानों के रंग में कुछ पीलापन आने लगता है, अतः इस समय कटाई करना चाहिए । देरी से कटाई करने पर दानों का रंग बिगड़ जाता है । अतः 50 प्रतिशत दाने पीले पड़ जाने पर कटाई करने से इनकी गुणवत्ता बढ़ जाती है ।

दानों को सीधी धूप से बचाना चाहिये ताकि रंग खराब न हो जाये सूखी हुई फसल को पीट कर दानें अलग कर लिए जाते हैं । साफ आंगन या त्रिपाल या पोलीथिन शीट पर गहाई करनी चाहिये । बोरियों में भरते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि दानों में 10 प्रतिशत से अधिक नमी न हो, अन्यथा उनके सड़ने की सम्भावना रहती है ।

उपज:

असिंचित क्षेत्रों में से 5 से 8 क्विंटल तथा सिंचित क्षेत्रों में 12-20 क्विंटल प्रति हैक्टेयर पैदावार होती है ।

भण्डारण:

धनिये को लम्बे समय तक ठीक ढंग से भण्डारित नहीं करने पर इसकी खुशबू व रंग खराब होना शुरू हो जाते हैं । अतः इसे प्लास्टिक लगे बोरों में भरकर सुरक्षित स्थान पर भण्डारित करना चाहिये । कृषकों के स्तर पर सामान्यतया इसको टाट के बोरों में ही भरकर रखा जाता है, लेकिन व्यापारी के स्तर पर इसे कोल्ड स्टोरेज में भी रखा जाता है ।

इसकी सुरक्षित भण्डारण से पूर्व गंधक के धुएं से भी उपचारित किया जाता है जिससे इसकी सुरक्षित भण्डारण क्षमता लगभग दो महीनों तक बढ़ जाती है, लेकिन इसके बाद इसकी गुणवत्ता तेजी से घटना शुरू हो जाती है ।

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