आनुवंशिक रूप से संशोधित खाद्य और इसके लाभ | Read this article in Hindi to learn about:- 1. भोजन का आनुवंशिक सुधार का अर्थ (Meaning of Genetically Modified Food) 2. फसल उत्पादन का प्रबंधन (Management of Crop Production) 3. जातियों में सुधार (Improvement in Varieties of Crops).

भोजन का आनुवंशिक सुधार का अर्थ (Meaning of Genetically Modified Food):

आनुवंशिक संशोधित फसल वे फसल होती है, जिनके आनुवंशिक पदार्थ (DNA) में बदलाव किये जाते है । अर्थात् ऐसी फसलों की उत्पत्ति जिनकी बनावट में अनुवांशिकीय रूपांतरण से की जाती है । इनका आनुवांशिक पदार्थ आनुवांशिक अभियांत्रिकी से तैयार किया जाता है । इससे फसलों के उत्पादन में बढ़ोतरी होती है और आवश्यक तत्वों की मात्रा बढ़ जाती है ।

इस तरीके से पहली बार 1990 में फसल पैदा की गई थी । सबसे पहले इस विधि से टमाटर को रूपांतरित किया गया था । कैलिफॉर्निया की कंपनी कैलगेने ने टमाटर के धीरे-धीरे पकने के गुण को खोजा था । तब उस गुण के गुणसूत्र में परिवर्तन कर ये नयी फसल निकाली थी । इसी तरह का प्रयोग बाद में पशुओं पर भी किया जा रहा है ।

कुछ वैज्ञानिको के अनुसार विश्व में खाद्य पदार्थों में कमी का कारण खराब वितरण है न कि उत्पादन में कमी । इस स्थिति में ये छेड-छाड़ अनावश्यक होगी । तब ऐसी फसलों के उत्पादन पर जोर नहीं दिया जाना चाहिए, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ।

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हंगरी, वेनेजुएला जिसे कई देशों ने ऐसी फसलों के उत्पादन और आयात पर रोक भी लगा दी है । फिर भी बढती जनसंख्या और खाद्यानों की बढती माँग को देखते हुए पूरे विश्व में कई फसलों और जानवरों पर ऐसे प्रयोग हो रहे हैं ।

भारत की जैवप्रौद्योगिकी नियामक संस्था The Genetic Engineering Approval Committee (Biotech) द्वारा आनुवांशिक बदलाव किये गये ।

बैंगन को मान्यता देने पर विचाराधीन है । यदि ये मान्यता मिल गई तो यह भारत में पहला आनुवांशिक संशोधित खाद्य होगा, हालांकि इसे लेकर कई जगह विरोध उठे हैं । जिनका तर्क है कि इससे स्वास्थ्य प्रभावित होगा । अब तक भारत में सिर्फ बीटी कॉटन ही वाणिज्यिक तौर पर प्रमाणित फसल थीं ।

आदिकाल से ही मानव खाद्यान जैसी बुनियादी आवश्यकता की पूर्ति फसलोत्पादन द्वार करता रहा है, लेकिन बढती हुई जनसंख्या के कारण खाद्यान्न की समस्या बढती जा रही है, एवं देश खाद्यान्न सकट की ओर बढ रहा है । बढते शहरीकरण व आधुनिक जीवन की आवश्यकताओं की माँग के कारण कृषि योगय भूमि कम होती जा रही है तथा खाद्य उत्पादन लगातार घट रहा है ।

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अतः इस समस्या का समाधान कुछ हद तक प्रति इकाई क्षेत्र उपज में वृद्धि करके किया जा सकता हैं खाद्यान्न उत्पादन के लिए सफल फसल-प्रबंध पहली आवश्यकता है । इसके साथ ही खेती में आधुनिक तकनीकों के प्रयोग एवं मृदा में सुधार करके भी खाद्य उत्पादन में बढ़ोतरी की जा सकती है ।

फसल उत्पादन का प्रबंधन (Management of Crop Production):

फसल प्रबंध का प्रारंभ भी आदिमानव के कृषि-प्रयत्नों के साथ शुरू हुआ । प्रारंभ में उसने उन्हीं बीजों को चुना, जिनका उसके आहार से सम्बन्ध था और जिसको वह भण्डारित कर सकता था। उसने अपने अनुभव से यह भी जाना कि इन बीजों को कब बोना है तथा फसल को कब काटा जाना है ।

सफल फसल (Successful Crop):

प्रबंध (Management) का तात्पर्य फसलोंत्पादन के सभी आवश्यक साधनों का कुशलतापूर्वक उपयोग करने से है । वातावरण, जलवायु एवं आर्थिक दृष्टिकोण के अनुसार उत्तम फसल का चुनाव, उन्नत जीनप्ररूप (Genotype) वाली अनुकूलतम जाति का चुनाव, अच्छे बीज का चुनाव, सही मात्रा में बीज का बोना, खेत में पौधों की सही संख्या रखना, मृदा में भौतिक, रासायनिक एवं जैविक क्रियाओं को अनुकूलतम बनाना, आवश्यकतानुसार संतुलित मात्रा में पोषक तत्वों तथा जल को पौधों के लिए उपलब्ध करना, आवश्यकता से अधिक जल को यथा सम्भव जल्दी से निकाल देना, खरपतवारों, बीमारियों तथा कीटों आदि को सुचारु रूप से नियंत्रित रखना फसल-प्रबंध (Crop Management) के आवश्यक अंग हैं ।

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अधिकतर किसान बीज तथा दाने में अन्तर नहीं कर पाते हैं । जहाँ तक दाने का सवाल है, वह अधिकतर खाने के काम में लाया जाता है, लेकिन बीज का प्रयोग अपनी तरह के और अधिक पौधों के उत्पादन के लिए किया जाता है । अर्थात् बीज में जैविक गुणों का उपस्थित होना आवश्यक है, जबकि दाने में नहीं ।

जातियों में सुधार (Improvement in Varieties of Crops):

पादप एवं पशुओं की जातियों सुधार प्रजनन (Breeding) विधियों द्वारा किया जाता है । प्रजनन विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत वास्तविक जाति के जीव के आनुवंशिक लक्षणों में सुधार करके उन्नत किस्म की नई जातियों का विकास किया जाता हैं । जातियों में सुधार करने के लिए पादपों व जीव-जन्तुओं में वांछित गुणों का समावेश किया जाता हैं जिससे उनसे व्यावसायिक स्तर पर अधिक लाभ प्राप्त किया जा सके

I. पादप जातियों में सुधार (Improvement in Plant Varieties):

पादप जातियों में सुधार पादप प्रजनन (Plant Breeding) के अन्तर्गत किया जाता है । पादप प्रजनन का मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक वांछित गुणों का समावेश करके नई जातियों का विकास है ।

यह गुण निम्न है:

(i) पैदावार में वृद्धि,

(ii) रोगों के प्रति प्रतिरोधकता में वृद्धि,

(iii) जलवायु परिवर्तन को सहने की क्षमता,

(iv) फसल परिपक्वता की अवधि में परिवर्तन ।

II. गेहूँ की उन्नत जातियाँ (Improved Varieties of Wheat):

गेहूँ (Triticum Aestivum) का अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए हमारे देश में अनेक नई किस्मों खे तैयार किया गया है । सर 1965 में गेहूँ की चार बौनी किस्मों (Dwarf Varieties) को मैक्सिको से भारत लाया गया, तभी से अधिक उत्पादक किस्मों का विकास एवं शुभारम्भ हुआ ।

इन मैक्सिको किस्मों का परीक्षण (Testing) प्रजनन (Breeding) आदि कार्य भारत के विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयों में किया गया है । भारतवर्ष में गेहूँ की उन्नत किस्में विकसित करने का श्रेय डॉ॰ एम॰एस॰ स्वामीनाथन व डॉ॰बी॰पी॰ पाल॰ को जाता है । इन्होंने दिल्ली स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (I.A.R.I.) को गेहूँ प्रजनन के केन्द्र के रूप में विकसित किया ।

(1) लार्मा रोजो-64A (Lerma Rojo-64A):

यह एक बौनी (Dwarf) किस्म है । इस किस्म में गेहूँ के दाने छोटे तथा लाल रंग के होते हैं । यह किस्म किट्ट प्रतिरोधी (Rust Resistant) होती है ।

(2) सोनालिका-S 308 (Sonalika-S 308):

यह एक उत्तम, लोकप्रिय बौनी किस्म है । इसके दाने सुनहरे, बड़े व आकर्षक होते है । यह किट्ट रोगों के प्रति प्रतिनिधि लेकिन अनावर्त स्मट (Loose Smut) के प्रति सुग्राही है ।

(3) कल्याण सोना (Kalyan Sona):

इस किस्म का विकस मैक्सिको की किस्म S 227 से उत्तर प्रदेश तथा पंजाब में हुआ है । इसकी फसल में उच्च उत्पादन क्षमता होती हैं यह किस्म किसानों में बहुत अधिक प्रचलित है ।

(4) सोनोरा-64 (Sonora-64):

यह एक मध्यम बौनी किस्म है । इसकी फसल जल्द पकने वाली होती है तथा पैदावार भी अच्छी होती है । गेहूँ के दाने छोटे व लाल रंग के होते हैं ।

(5) शर्बती सोनोरा (Sharbati Sonora):

यह अपेक्षाकृत जल्दी पकने वाली किस्म है तथा सभी लक्षणों में सोनोरा-64 से समानता दर्शाती है । इस किस्म को सोनोरा-64 से गामा किरणें (V-Rays) द्वारा उपचारित करके विकसित किया गया है । उपरोक्त किस्मों के अतिरिक्त PV-18, Moti, Hira, C-286, C-253, WL-410, Raj-911, WG-193, WG-377, WG-357, N.I.-549 गेहूँ की अन्य उपजाऊ किस्में है ।

III. मक्का की प्रमुख उन्नत किस्में (Major Improved Varieties of Maize):

मक्का (Nea Mays) में उत्पादन बढ़ाने, रोग प्रतिरोध, कीट प्रतिशेध तथा पोषक पदार्थों की मात्रा बढ़ाने के उद्देश्य से नई किस्मों को विकसित किया गया है ।

भारतवर्ष में विकसित मक्का की कुछ प्रमुख कि निम्न प्रकार है:

(1) शक्ति (Shakti):

यह किस्म उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश व राजस्थान में उगायी जाती हैं । इसके दाने हल्के पीले व मुलायम होते है ।

(2) गंगा-5 (Ganga-5):

यह किस्म 90-110 दिनों में पककर तैयार हो जाती है । इसके दाने नारंगी-पीले रंग के होते है । यह मृदुरोमिल आसिता (Downy Mildew) व पतन (Lodging) के प्रति प्रतिरोधी होती है ।

(3) गंगा-101 (Ganga-101):

यह किस्म भी 100-110 दिनों में पककर तैयार हो जाती है । इसके दाने गोलाकार व नारंगी-पीले रंग के होते हैं । यह मृदोरोमिल आसिता, पतन, अंगभारी (Blight) व किट्ट के लिए प्रतिरोधी होती है ।

(4) अम्बर (Amber):

यह किस्म 100-115 दिनों में पककर तैयार हो जाती है । इसकी पैदावार अन्य किस्मों की अपेक्षाकृत अधिक होती है । यह अंगमारी व मृदुरोमिल आसिता के प्रति प्रतिरोधी होती है ।

(5) डेकात्व इण्डिया-1 (Dekalb India-1= DBI-1):

यह किस्म 105-110 दिनों में पककर तैयार हो जाती है । यह एक मध्यम ऊँचाई की किस्म है तथा इसके दाने पीले नारंगी रग के होते है । यह किस्म हैल्मिन्धोस्पोरियम (Helminthosporium) नामक कवक के प्रति प्रतिरोधी होती है ।

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