मनोविश्लेषणवादी सिगमंड फ्रायड | Sigmund Freud Kee Jeevanee | Biography of Sigmund Freud in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. जीवन चरित्र ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

ADVERTISEMENTS:

फ्रायड एक विलक्षण मत्तोवैज्ञानिक थे । उन्होंने अपने मनोविश्लेषणवादी सिद्धान्त के आधार पर अनैक मानवीय समस्याओं पर मनोवैज्ञानिक रूप से प्रकाश डाला । फ्रायड ने चेतना की अपेक्षा अचेतना को अधिक महत्त्व दिया । अज्ञात चेतना पर गहराई से विचार व्यक्त करने के साथ-साथ उन्होंने जीवन की अनेक क्रियाओं का मूलाधार काम भावना को माना है ।

मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से उन्होंने स्वतन्त्र काम प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया । रोगों के उपचार में सम्मोहन को भी महत्त्व दिया । फ्रायड के अनुसार-मूल प्रवृत्ति एक जन्मजात मूल शक्ति है, जो मनुष्य के व्यवहार को संचालित व निर्धारित करती है । उन्होंने यौन तथा स्वप्न का उपयोगी विश्लेषण भी प्रस्तुत किया । उनके विचारों का योगदान आधुनिकीकरण और सामाजिक विज्ञान में विशेष प्रभावी रहा ।

2. जीवन चरित्र:

सिगमंड फ्रायड का जन्म 6 मई, 1856 को हुआ था । वे वियना के एक जाने-माने चिकित्सक थे । किसी भी रोग को जानने के साथ-साथ उसका उपचार करने में उन्हें प्रवीणता हासिल थी । कोई भी कार्य या रोग अकारण नहीं होता, वे ऐसा मानते थे ।

फ्रायड का विश्वास था कि ज्ञात चेतना की शांति अज्ञात चेतना भी गतिशील रहा करती है । अज्ञात चेतना का हमारी ज्ञात चेतना पर पूरा-पूरा प्रभाव रहता है । अज्ञात चेतना, ज्ञात चेतना की अपेक्षा अधिक क्रियाशील रहती है ।

ADVERTISEMENTS:

जिस तरह पानी में बर्फ ऊपर तैरती है और उसका अधिकांश हिस्सा पानी में डूबा रह जाता है, उसी तरह मनुष्य की अज्ञात चेतना होती है । ज्ञात चेतना तो ऊपरी सतह मात्र है । अज्ञात चेतना बहुत गहराई तक होती है । अत: इसका अध्ययन  भी किया जाना चाहिए ।

फ्रायड वात रोगों, मूर्च्छा, मिरगी, उन्माद, हिस्टीरिया, पक्षाघात की चिकित्सा सम्मोहन से किया करते थे । रोगी को अचेतन अवस्था में ले जाकर उसके अचेतन मन में छिपी किसी भावना ग्रन्थि का पता लगा लिया करते थे ।

संवेगात्मक धक्के की वजह से रोगी के मन में भावना अस्थि बन जाती है, जो उसे मानसिक आघात पहुंचाती है । इससे उसका व्यवहार असामान्य हो जाता है । भावना ग्रन्धि को देखकर उसका रोग पता कर उसका निदान निकाला जाता था ।

फ्रायड ने स्पष्ट किया कि सामाजिक बन्धन और नियन्त्रण के कारण हम अपनी मूल प्रवृत्ति को दबा देते हैं । ऐसी स्थिति में हमारे मस्तिष्क में अच्छे-बुरे दोनों ही प्रकार के विचार आते रहते हैं । हम बुरे विचार को तो दबा देते हैं, जो अचेतन मन में जाकर घर कर लेते हैं, जो कभी मरते नहीं हैं ।

ADVERTISEMENTS:

हम सदैव सामाजिक बन्धनों के कारण उन्हें दबाते रहते हैं । उन भावनाओं की एक गांठ हमारी अज्ञात चेतना में बन जाती है । समय-समय पर असामान्य  और असामाजिक व्यवहार करने के लिए हमें प्रेरित करती रहती है । हमारी मानसिक दशा असन्तुलित हो जाती है, जिसके कारण अनेक प्रकार के वात रोग हो जाते हैं ।

मनुष्य अपने ‘सुपर इगो’ के कारण बुरे आचरण को रोकता है और नैतिकता की दिशा में सामाजिक आदर्शो को अपनाने के लिए सचेत करता रहता है । मनुष्य में साधारण अहम, अर्थात् सो होता है । वह हमारी इच्छाओं का घर है ।

इसमें अच्छी व बुरी दोनों ही प्रकार की भावनाएं रहती हैं, जिसे व्यक्ति व्यक्त करना चाहता है, किन्तु हमारा सुपर इगो उस पर उसी प्रकार नियन्त्रण लगाता है, जैसे जेल की कोठरी में बन्द व्यक्ति को बाहर जाने से रोकने हेतु पहरेदार होता है ।

सुपर इगो बुरी इच्छाओं का पहरेदार है । जब सुपर इगो का पहरेदार सो जाता है, तब इगो की भावनाएं बाहर निकलने का प्रयत्न करती हैं । बुरी इच्छाओं को यह भय बना रहता है कि कहीं सुपर इगो का पहरेदार जाग न जाये । अत: वह पूर्णत: व्यक्त नहीं होतीं । जब दबी इच्छाओं पर सुपर इगो का नियन्त्रण समाज होता है, तो भावना ग्रन्धि खुल जाती है ।

बुरी इच्छाएँ हमारी अज्ञात चेतना में जाकर भी क्रियाशील रहती हैं और वहां एक ग्रन्धि बना लेती हैं । ये ज्ञात चेतना की अपेक्षा अधिक क्रियाशील हो जाती हैं । इससे व्यक्ति का व्यवहार असामान्य और चरित्र दूषित हो जाता है ।

जैसे-जब घर में एक ही पुत्र होता है, तो माता-पिता उसकी प्रत्येक इच्छा की पूर्ति तत्काल कर देते है, किन्तु जब घर में दूसरा पुत्र जन्म लेता है, तो पहले पुत्र की उपेक्षा होने लगती है और नवजात की प्रत्येक इच्छा पूर्ति होती है ।

ऐसे में अतृप्त इच्छा पूर्ति को पहला पुत्र दबाकर भावना ग्रन्धि बना लेता है और उसका चरित्र प्रभावित हो जाता है । यदि माता-पिता अपने बच्चों से घर पर अमनोवैज्ञानिक व्यवहार करते हैं, उरो डांटते-डपटते और उसे मूर्ख एवं बेकार समझते हैं, तो वह डरपोक उघैर कुण्ठित हो जाता है ।

वह अपना आत्मविश्वास खोने लगता है । वह निराशावादी बन जाता है । इसके लिए अभिभावक तथा शिक्षक भी उत्तरदायी होते हैं । फ्रायड के अनुसार मानसिक रोगी अपनी क्रियाओं में इसलिए असफल रहता है; क्योंकि उसके अचेतन मन में बैठी दबी हुई इच्छाएं उसका मानसिक सन्तुलन बिगाड़ देती है । रोगी को यह पता नहीं चलता कि उसका मानसिक सन्तुलन ठीक है या नहीं ?

फ्रायड कहते हैं कि जब हम बोलते या लिखते समय कोई गलती करते हैं, तो वह हमारी अतृप्त इच्छा के कारण उत्पन्न हुई कुण्ठा है । फ्रायड मनुष्य के स्वप्न जगत् का भी विश्लेषण करते हुए उसके कारण खोजते है । स्वप्न को वह भूतकालीन अनुभूतियों का प्रतिबिम्ब मानते हैं । स्वप्न देखकर हम अपनी अवदमित इच्छाओं का पता लगा सकते हैं । ये इच्छाएं प्रतीकों के रूप में व्यक्त होती हैं ।

अकसर भावना ग्रन्धि का बनना बचपन से ही होता है, जैसे: भूत-प्रेत तथा चुड़ैलों के प्रति डर की भावना का समाना । फ्रायड ने माता के प्रति पुत्र का प्रेम और पिता के प्रति पुत्री के प्रेम को ‘इडिपस’ भावना ग्रन्धि से जोड़ा है, जिसके पीछे काम सम्बन्धी भावना महत्त्वपूर्ण है ।

यद्यपि फ्रायड की इस अवधारणा से युग, एडलर जैसे अन्य मनोवैज्ञानिक सहमत नहीं हैं । फ्रायड की महत्त्वपूर्ण पुस्तकों में: दि इंटरप्रिटेशन ऑफ ड्रीम्स, द साइकोपैथोलॉजी ऑफ, एवरी डे लाइफ, द ईगो एण्ड इड, सिविलाइजेशन एण्ड इट्‌स डिस्कटेंट्‌स, मोजेस एण्ड मोनोथिज्य इत्यादि हैं । ऐसे युग प्रवर्तक मनोविश्लेषणवादी का प्राणान्त 23 सितम्बर, 1939 में हो गया । फ्रायड के अनुयायियों को फ्रायडवादी कहा जाता है ।

3. उपसंहार:

फ्रायड एक विलक्षण मनोवैज्ञानिक थे । चेतन, अवचेतन तथा स्वप्न सम्बन्धी उनकी अवधारणा को मनोवैज्ञानिक कहा जा सकता है । यह निश्चित रूप से कहना होगा कि फ्रायड ने मानव मन एवं उसकी भावनाओं का अत्यन्त सूक्ष्मता और गहरायी से न केवल अध्ययन किया था, वरन उसके उपचार के भी अपने तरीके खोजे थे । फ्रायड को मनोविज्ञान का जन्मदाता कहा जाता है ।

Home››Biography››Sigmund Freud››