सुदामा पंडे ‘धूमिल’ की जीवनी | Sudama Panday “Dhoomil” Kee Jeevanee | Biography of Dhoomil in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. जीवन परिचय व रचनाकर्म ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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धूमिलजी नयी काव्यधारा के ओजस्वी, प्रखर एवं क्रान्तिकारी कवि हैं । उनकी कविताएं समाज और राजनीति का पोस्टमार्टम करती हुई चलती हैं । सामाजिक, राजनीतिक दृश्यावलियों पर उनका व्यंग्य इतना तीखा है कि वे कहते हैं: ”भूख से मरा हुआ आदमी मौसम का दिलचस्प विज्ञापन है ।”

भाषा को राजनैतिक फायदे की वस्तु बनते हुए देखकर वे काफी व्यथित हो उठतें हैं । परम्पराभंजक इस कवि की सामाजिक पीड़ा, आम आदमी की पीड़ा का बेबाकी और ईमानदारी से दिया गया बयान है । भाषा, भाव और शैली के सशक्त कवि हैं: धूमिल ।

2. जीवन परिचय रचनाकर्म:

 

कवि धूमिल का वास्तविक नाम सुदामा पाण्डेय था, किन्तु वे धूमिल के रूप में अधिक पहचाने जाते हैं । उनका जन्म वाराणसी के पास खेवली नामक ग्राम में सन् 1936 को हुआ था । हाई स्कूल की परीक्षा के बाद से वे रोजी-रोटी की चिन्ता में पड़ गये । सन 1958 में आई०टी०आई० से विद्युत में डिप्लोमा किया और विद्युत अनुदेशक के पद पर नियुक्त हो गये ।

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असमय ब्रेन ट्‌यूमर के कारण सन् 1975 में उनकी मृत्यु हो गयी । मरणोपरान्त उनकी रचनाओं का मूल्यांकन करते हुए साहित्य अकादमी द्वारा उनकी कृति ”संसद से सड़क तक” के लिए उनको पुरस्कृत किया गया । उनकी रचनाओं में ”सुदामा पाण्डेय का प्रजातन्त्र”, ”कल सुनना है मुझे” प्रमुख हैं ।

धूमिलजी राजनीतिक चेतना और जागरूकता के कवि रहे है । राजनीतिक भ्रष्टाचार एवं कुर्सीलोलुप नेताओं की राजनीति व उनके दोहरे चेहरे के हर नकाब को उन्होंने उतार फेंका है । उनकी दृष्टि में वर्तमान राजनीति में किसी प्रकार की मर्यादा, शालीनता और देशहित को जगह नहीं मिल रही है ।

है वह सही है कि, कुर्सियां वही है ।

सिर्फ टोपियां बदल रही है ।।

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प्रजातान्त्रिक शासन के नाम पर होने वाले राजनीतिक भ्रष्टाचार को कवि दर्पण की तरह साफ देखता है । आजादी के बीस साल बाद भी जनता की दशा में कोई सुधार नहीं हो पाया है ।

एक आदमी

रोटी बेलता है ।

एक आदमी रोटी खाता है ।

एक तीसरा आदमी भी है ।

जो न रोटी बेलता है और न रोटी खाता है ।

वह सिर्फ रोटी से खेलता है ।

मैं पूछता हूं कि वह तीसरा आदमी कौन है ?

मेरे देश की संसद मौन है !

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धूमिलजी वर्तमान समाजवादी व्यवस्था में सामाजिक व आर्थिक विषमता से पीड़ित हैं । वे राजनीति पर समाजवाद की अवधारणा पर   व्यन्ग्य  करते हुए कहते हैं:

मेरे देश का समाजवाद

मालगोदाम में लटकती हुई,

उन बाल्टियों की तरह है ।

जिन पर आग लिखा होता है.

और जिसमें बालू और पानी भरा होता है ।।

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आजादी की दुर्दशा देखकर धूमिल कहते हैं:

क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है ?

जिन्हें एक पहिया ढोता है,

या इसका कोई खास मतलब है ?

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धूमिल के काव्य नायक भोजन और कपड़े की लड़ाई लड़ते हैं । उनकी दृष्टि कविता उसी तरह असुरक्षित है, जिस तरह हत्यारे तन्त्र के बीच आम आदमी अकेला है:

कविता क्या है / कोई पहनावा है / कुर्ता पाजामा है ।

ना भाई ना / कविता / शब्दों की अदालत में,

मुजरिम के कटघरे में / खड़े बेकसूर आदमी का हलफनामा है ।

क्या वह व्यक्तित्व बनाने / चरित्र चमकाने की चीज है ?

खाने-कमाने की / चीज है ?

ना भाई ना / कविता भाषायी तमीज है ।।

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कविता उतनी ही देर तक सुरक्षित है, जितनी देर कीमा होने से पहले / कसाई के ठीहे / और तनी हुई गंडास के बीच बोटी सुरक्षित है ।।

वे बढ़ते हुए अंग्रेजियत के बीच मातृभाषा की दशा को महरी की तरह बताते हैं ।

जो सिर्फ एक साड़ी के लिए / महाजन के साथ रात काटने को तैयार है ।

धूमिलजी की काव्य: भाषा आम आदमी की भाषा है, जिसमें साहित्यिक शब्दावली का अभाव है । वह आम आदमी की तरह ही बात करते हैं । भाषा मुहावरेदार, प्रतीकात्मक और व्यंग्यात्मक है । उदाहरण:

बाबूजी ! सच बताऊं

मेरी निगाह में,

न तो कोई छोटा है, और न कोई बड़ा है ।

मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है ।।

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3. उपसंहार:

निःसन्देह धूमिल नयी कविता के सर्वाधिक ओजस्वी और प्रखर कवि रहे हैं । उनकी जैसी साफगोई और आम आदमी के प्रति ईमानदारी की सशक्त अभिव्यक्ति किसी कवि में नही थी । बिम्बों, प्रतीकों और अलंकारों के प्रयोग ने उनकी कविता के एक-एक शब्द को असरदार बना दिया है । वे हिन्दी साहित्य गगन के ”तेजस्वी सूर्य” थे ।

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